*
इस बार तो भानमती ने मुझी से प्रश्न कर दिया -
'सुना है न आपने -साठा सो पाठा ?'
'हाँ हाँ सुना क्यों नहीं !'
'कछु समझ में आया ?
पहेलियाँ क्यों बुझा रही हो ?
और वह शुरू हो गई -
दुइ दिन पहले की बात है कल ऊ घर की महरी ,काम करने के बजाय ताव खाती हमारे पास चली आई .
पूछा काहे गुस्साय रही हो . एकदमै बिफ़र पड़ी -
'ई मरद जइस-जइस बुढ़ान लगत हैं तो तौन औरउ बेलगाम हुइ जात है .काहे से कि जिनगी में जौन ऐश किये हैं, जानत है उन केर मियाद पूरी हुइ रही है तौन मन अउर लपलपान लागत है ..
दस घर काम करित हैं ,सब दिखात है हमका .इन केर नाती -पोतिन जैसी हमार बिटिया,इनके काम करन जात है तो का .. '
भानमती जब कुछ सुनाती है मैं उसकी उपेक्षा नहीं कर पाती ,वही तो मुझे लोक-जीवन से जोड़े रहती है जिसकी थाह लेती अपने भान जगाती रहती है वह.
मुझे असमंजस में देख पूरा ब्योरा प्रस्तुत कर दिया .
बोली, 'बिचारी क्या करे महरी .दुखड़ा रोने लगी .कहे
का बताई बहिनी, ,गजब हुई गवा ..., ई खाए -पिए , मरद लिखे-पढ़े बनत है,अउर अइस घिनौनी हरकत ..,जवानी बीत जात तौन मन अउर उछाल लेन लगत है...'
अंत में बोली ई मरद जात जिनावर जइस . केहू केर विसवास नाहीं .पल मां ऊपर का पलस्तर उतर जात है .'
आठ घर काम करती है महरी ,दो तीन घरों में अक्सर लड़की को भेज देती है.
एक घर में मालकिन के विधुर ससुर 80-82 के रहे होंगे ,12-15 साल के पोते-पोती भी.
वहाँ उसकी बेटी सुगनी अक्सर काम करने चली जाती थी.
पर एक दिन उस ने माँ से साफ़ कह दिया 'हम उनके न जाब .'
माँ के बार-बार पूछने पर बड़ी मुश्किल से असलियत बताई.
बहू रसोई में होती बच्चे स्कूल में जब लड़की झाडू लगाने जाती तो कहते,'अरी जल्दी क्या है ,आराम से कर ,थक जाती होगी .'
तरस खाते हुए उसे मिठाई का पीस लाकर पकड़ाते -ले बैठ कर खा ले और उसकी पीठ पर हाथ फेरना शुरू करते शुरू में वह समझी - बाबा हैं .पर जल्दी ही हाथ फैलाने लगे ,'
भानमती बता रही है,' उइसे भी लड़किनी की जात ,छठी इंद्री जताय देती है .'
कहने लगी
'साठा सो पाठा से इहै मतबल अहै मरदुअन को .पचहत्तर ,अस्सी-पचासी कब्र में पाँव लटके हैं पर हौंस अभै बाकी है .'
भानमती की बात समझ रही हूँ .विगत-जवानी वाले इन पके लोगों के ,रसिकता के नाम पर, ऐसे करतब अक्सर देखने -सुनने को मिल जाते हैं .
ये बात नहीं कि सब ऐसे . पर जो हैं,वे अपवाद की गणना में नहीं समाते .
महरी जली-भुनी बैठी थी - वैसेी ही भाषा में गुबार निकाल दिया . फिर कहा था उसने ,'हम जानित हैं ,साठ पहुँचे के पहिल से बौरान लगत हैं अइस मनई'
मुझे चुप देख भानमती ने जस्टीफ़ाई किया ,' यही है पाठापन ,कोई ढंग की बात के लिये उमर बीत गई इनकी.'
सुन कर सोच रही हूँ ,संतान पाकर कर, पुरुष- मन पितृत्व के गौरव से नहीं भरता कि हम एक स्तर ऊँचा उठ गए ?जिस वात्सल्य के समावेश से नारी हृदय का पुनर्संस्कार हो जाता है पितृत्व पाने के बाद इनकी मानसिकता में कोई बदलाव नहीं आता क्या ?
अगर नहीं ,तो होना चाहिये .क्योंकि पशुता ,मूल स्वभाव है और मानवीय गुणों की प्राप्ति हेतु उसका संस्कार करना आवश्यक है
कवि के लिये भी कहते हैं कभी बुढ़ाता नहीं ,या जर्जर नहीं होता - मन की संवेदनशीलता में या लालसाओँ में ?
प्रश्न यह कि ये उस व्यक्ति की सामर्थ्य है ,विकृति है ,छिछोरपन है या...या ..( शब्द नहीं मिल रहा ).हो सकता है बूढ़े तन की अतिशय पक्व (सड़न तक पहुँची)रसिकता हो !
सुसंस्क़त-संभ्रान्त लोग?
मुझे याद आया ,मेरी एक कॉलीग है .
रिश्तेदारी के विवाह में गई थी .
समारोह चल रहा था . वह दूल्हे के मित्रों और संबद्ध परिवार के युवाओं को ध्यान दे कर देख रही थी .
उनमें रुचि लेकर बातें करती हुई अन्य जानकारियां ले रही थी.
उनके पति टहोकते बोले ,'क्या बात है ,बड़े चाव से देख रही हो इन जवानो को ?'
'हाँ देख रही हूँ .अच्छे हैं .इनके बारे में पता करना चाहती हूँ ...'
' तुम्हें यह शौक कब से लगा ?'
वे तेज पड़ गईं .
'अपने जैसा समझ रखा है ?अपनी बेटी के लिये देख रही हूँ इन लड़कों को .'
मेरे साथ की हैं कितने साल पढ़ाते हो गये ,विवाह योग्य पुत्रियाँ हैं हमारी !
स्वस्थ युवा (और सुभूषित हो तो सोने में सुहागा) ऐसी लड़की के सामने होने पर मन की रसिकता (भ्रमरवृत्ति)जागती है या ममत्व (वात्सल्य )जैसे बेटी या अपने परिवार की कन्याओं के लिये लाड़ भरा आनन्द ?उसे अपनी पुत्री सम या पुत्र-वधू के रूप में देखने की बात कितने बापों के मे मन में आती है ?
भाव-शुचिता की अपेक्षा औरों से करने के पहले .अपने हृदय पर हाथ रख ख़ुद सोचें लोग !
हो सकता है इतने से ही समाज में फैली बहुत सी गंद छँट जाये !
भानमती की बात आज बहुत-कुछ कह गई .
*
:(
जवाब देंहटाएंविचारणीय....शुरुआत स्वयं से की जाय
जवाब देंहटाएंशर्मिन्दा पौरुष हुआ, लपलपान जो नीच ।
जवाब देंहटाएंपैर कब्र में लटकते, ले नातिन को खींच ।
ले नातिन को खींच, बचे ना होंगे बच्चे ।
यह तो शोषक घोर, चबाया होगा कच्चे ।
है इसको धिक्कार, धरा पर काहे जिन्दा ।
खुद को जल्दी मार, हुआ रविकर शर्मिंदा ।।
आपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल २/१०/१२ मंगलवार को चर्चा मंच पर चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आप का स्वागत है
जवाब देंहटाएंपुरुष लम्पटता की तमाम परतों को खोलके रख दिया है इस रचना ने .वासना मरती नहीं है पल्लवित होती है लम्पट मन में .यही इस रचना का सन्देश है .
जवाब देंहटाएंram ram bhai
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सोमवार, 1 अक्तूबर 2012
ब्लॉग जगत में अनुनासिक की अनदेखी
ब्लॉग जगत में अनुनासिक की अनदेखी
ऎसे लोगों को
जवाब देंहटाएंजूते भी तो
नहीं लगाता कोई
पता होता भी है
फिर भी
कुछ बोल नहीं
पाता कोई
मौका आता है
तब भी बस
इसपर
फुसफुसाता कोई !
शोचनीय स्तिथि...बहुत सारगर्भित और विचारणीय आलेख...
जवाब देंहटाएंइस तरह की मानसिकता से ग्रसित लोगों को मनोरोगी ही कह सकते हैं।
जवाब देंहटाएंकितनी सहजता से आपने ऐसे लोगों की सोच को अंकित कर दिया है ....
जवाब देंहटाएंआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 04-10 -2012 को यहाँ भी है
जवाब देंहटाएं.... आज की नयी पुरानी हलचल में ....बड़ापन कोठियों में , बड़प्पन सड़कों पर । .
मुझे भी लगता है कि ये मनोरोगी हैं। इनको खुद निःसंकोच अपना इलाज कराना चाहिए। ये भलीभांति जानते होंगे कि हम गलत कर रहे हैं। यदि इलाज नहीं कराते तो यह मान लेना चाहिए कि दुष्ट हैं।
जवाब देंहटाएंओह ....विकृत मनःस्थिति ही कहा जाएगा इसे ...
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा पोस्ट है प्रतिभा जी..बहुत ही अहम् विषय भी है.पशुता और पितृत्व वाली बात अधिक छूती है.सही कहतीं हैं आप.
जवाब देंहटाएंजो ऐसे व्यवहार करते होंगे ..वे भी तो किसी न किसी रक्त सम्बन्ध में स्त्रियों से जुड़े ही होते हैं.जाने क्यूँ इन्हें अपने घर की बेटियों की छवि दूसरे चेहरों में नहीं दिखाई देती? भाव शुचिता के लिए थोड़ी बहुत बातें ही तो आत्मसात करनी हैं जैसे...''जैसा व्यवहार तुम अपने लिए दूसरों से चाहते हो..वैसा ही स्वयं भी दूसरों से करो''.इसे थोड़ा व्यापक बनाते हुए हम 'अपने' के साथ 'अपने अपनों' को भी जोड़ सकते हैं..क्यूँकि घर की बच्ची को कोई तंग करे तो हम कहाँ सह पाते हैं.फिर क्यूँ ऐसा असहनीय आचरण दूसरी बच्चियों/महिलाओं के लिए प्रदर्शित करना?
भगवदगीता का भी यही कथन है कि मनुष्य का अपने संस्कार स्वच्छ करना आवश्यक है.अपने आप को पतित न होने दें.देह को लांघ कर आत्मा के स्तर तक पहुँचने का प्रयत्न करें.
हम स्वयं ही अपने कर्म और अकर्म के साक्षी हैं.विकार मन के भी हों और सबसे छुपे हुए भी हों..तो भी हम स्वयं तो सतत अपने आप को जान ही रहें हैं.व्यवहार शुद्ध हो सके..उसके पहले विचारों को भी तो स्वच्छ करना आवश्यक है.किन्तु विशेष रूप से अपने देश में स्वयं की स्वयं के प्रति ईमानदारी ही घटती जा रही है.प्रत्येक व्यक्ति का नैतिक आचरण ही सम्पूर्ण रूप से समर्पित रहे तो क्यूँ किसी भी मानसिक,चारित्रिक,सामाजिक या राजनैतिक अपराध से जूझे कोई?नैतिकता कोई वस्त्र नहीं..कि धोया और फिर पहन लिया..या आदतानुसार किसी नेतृत्व की प्रतीक्षा करें इसके लिए भी...ये तो अपने ही मन के तार हैं..अपने ही मस्तिष्क के धागे...और अपने ही चरित्र का ताना-बाना.स्वयं को ही पहला पग बढ़ाना होगा स्वयं की ही स्वच्छता की ओर.
आशा है..ऐसे सार्थक लेखन से कुछ तो परिवर्तन होता ही होगा.हृदय से आभार प्रतिभा जी...अर्थपूर्ण पोस्ट के लिए!!
भानमती वस्तुतः बुद्धिमती,अनुभवी और जागरूक महिला प्रतीत होती है, जिसने एक ज्वलन्त समस्या का उद्घाटन करते हुए इस संबंध में सचेत रहने के लिये सावधान किया है। आँखे खोलने वाले इस सार्थक प्रकरण के लिये प्रतिभा जी का ,या कहूँ कि भानमती का आभार। लैपटॉप में कुछ समस्या के कारण विलम्ब से टिप्पणी लिखने के लिये खेद है।
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