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गली के मोड़ तक पहुँची ही थी - भानमती दिख गई .
' अरी ओ भानमती ,कहाँ चली जा रही हो ?' मैंने आवाज़ लगाई ,' ईद का चाँद हो गईं तुम तो !यों ही निकली जा रही हो ?'
सिर उठा कर देखा उसने ,पास आ गई ,
आप ही के घर आते-आते ,अपने सोच में डूबे आगे निकल गये .भला हुआ पुकार लिया .'
'वाह ,तुम तो दार्शनिक हुई जा रही हो !'
वैसे हमारी भानमती में विचारशीलता की कमी नहीं है और अभिव्यक्ति में ,हम पढ़े-लिखों के कान काट ले .
'हाँ, तो ,क्या बात सोच रहीं थी तुम ?'
'एक कहानी ध्यान में आय गई.उसी में डूबे रहे .'
'अच्छा!१तब तो कहानी सुना कर ही पिंड छूटेगा .'
'गँवई भाषा में है .का करोगी सुन के ?
'फिर तो और मज़ा आयेगा .'
मुझे लगता है लोक-भाषा जिस सहजता और लाघव से अपनी बात दूसरे के मन में उतार देती है बड़े-बड़े भाषावालों को उसे कहने में कई पैराग्राफ़्स ठूँस देने पड़ें और फिर भी वह कटाक्ष न आये . कभी-कभी तो सीधे-सादे शब्दों में ऐसी चोट कि सुननेवाला तिलमिला उठे.
खैर ये सब बाद की बातें .
थोड़ा इधर-उधर कर शुरू हो गई भानमती -
'एक पंडिज्जी रहें ,अब जानों कलयुग अहै ,तौन पंडितऊ जैस के तैस .अउर एक उनकेर चेला .ऊ तो महाकलजुगी.तर-माल छकन के डौल में पंडित के साथ लागा रहे ,और बे उसई से सारो काम करामैं .
ऊ चेला भी कम न रहे .बहूऊत चलता-पुरजा.
एक बेर .दोनों ,पंडिताई करै का दूसर गाँव जाय रहे हते .पूजा के लै सालिगराम जी साथे लै लीन रहे .
दूसर दिन .वे नदी पे नहाय के उहैं तीर पूजा करै लाग ,पंचामृत में डुबाये सालिगराम जी आसन पे बैठारे ,पर आचमनी को जल लुढ़कि गा तौन पंडित चेला केर हंकारा .पर उहका तो फूल लेन को पठयो रहे .
सो लाचार खुदै आचमनी भरिबे चले .
उहाँ चेला दिखान . बुलाय के उहिका आचमनी थमाय दिहिन कि जाय के ठाकुर जी का जल- अश्नान कराय ,भोग लगाय के पौढ़ाय दे .और अपना चले गये जिजमान के घरै.
इहाँ ,एक कौआ दही का गोला समझि के सालिगराम जी का चोंच में दबाय के उड़िगा .
चेला तो चेला रहे .का करै ऊ दईमारा !
सब समेट-बटोर के धर दिहिन .
भोर भयो .पंडित कहेन ,'लाओ, ठाकुर जी का निकारो .'
ऊ दौड़ि के गवा एक करिया जामुन लाय के आसन पे धरि दिहिन .
पंडित, देखे बिना उठाय के जल उँडेल के हनबाय दिहिन और अँगौछा से पोंछै लाग .
पर ई का ?जामुन की गुठली अलग और गूदा अलग !
'काहे रे , ई का लै आवा ,ठाकुर जी कहाँ ?
चट्टसानी चेला कहेन-
'घिसि-घिसि चंदन दै-दै पानी ,
ठाकुर गलि गये हम का जानी .'
धन्न हो पंडिज्जी और धन्न उन केर चेला !'
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(वाह भानमती ,तुम भी धन्य !
मुझे तो कबीर याद आ गये - 'जा का गुरु भी आँधला ,चेला खरा निरंध...')
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धन्न भय हम भी इ पढ़ि के... :)
जवाब देंहटाएंभाषा की मिठास मनमोहक है
जवाब देंहटाएंआनन्द आय गओ!
जवाब देंहटाएंgyan aur anand ki varsha ....
जवाब देंहटाएंabhar .
हमहो धन्य भये!!
जवाब देंहटाएंजी दीदी |
जवाब देंहटाएंऐसी ही दादी से सुनी थी हमने भी -
आनंद आ गया |
ab ka kahiye dang hoyi gaye bhan mati ki tez-tarrar buddhi pe aur aanand aa gayo.
जवाब देंहटाएं:):) धन्य हो गए ।
जवाब देंहटाएंआपको पढ़ना और सुकून पाना ... दोनो एक से
जवाब देंहटाएंसादर
आह ..नानी से सुनी थी यह कहानी ..और इसी तरह की लोक भाषा में...वाकई जो मिठास गवई भाषा में है वो और कहाँ.
जवाब देंहटाएंमजा आ गया..बहुत बहुत आभार आपका.
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जवाब देंहटाएंहमहू पढ़ लिहिन . एकदम चौचक . कनपुरिया मिठास
जवाब देंहटाएंbahut sundar rochak aanand aa gaya :))
जवाब देंहटाएं:)
जवाब देंहटाएंकहानी का संदेश अच्छा है।
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