बुधवार, 14 अगस्त 2013

सागर-संगम -1 .

[ भारतीय संस्कृति की भावात्मक एकता पर आधारित  नाट्यरूपक.]

(एक मंचन के लिए इस भाव-नाटिका को  काफ़ी  पहले तैयार किया  था , मंचन सफल रहा पर मुझे लगता रहा लेखन में काफ़ी कमियाँ रह गईं हैं  ,उन्हें दूर करने का प्रयत्न करती हुई , अब  प्रस्तुत कर रही हूँ.)

 वक्तव्य - 
 संस्कृतियों का विकास, लोक-मन की अनवरत यात्रा है . लोक-मानस जब तक विवेकशील और सहिष्णु होकर समय की गति के साथ चलता है तब तक संस्कृतियों का विकास होता है अन्यथा विनाश हो जाता है .भारत एक सागर है जिसमें प्रागैतिहासिक युगों से लेकर ,आज तक अनेकानेक संस्कृतियों और धर्मों का संगमन होता आया है .विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियाँ जहाँ काल के प्रवाह में विलीन हो गईं वहीं भारतीय संस्कृति चिर -प्राचीना हो कर भी चिर-नवीना बनी रही - कारण कि सागर के समान अनेकानेक सरिताओं को आत्मसात् कर यह अपनी जीवनी-शक्ति को परिवर्धित करती रही ,साथ ही इसने विभिन्न  धाराओं को धारण कर अपनी विविधता और समग्रता को बनाये रखा .
 धर्मों और भाषाओं का उद्भव मानव समाज के सामंजस्य और कल्याण के लिये होता है ,वैमनस्य के लिये नहीं .आज जब धर्म और भाषा के नाम लेकर कुछ विकृत मन बर्बर्ताओं के नंगनाच में लगे हैं,हम पलट कर देखें कि जीवन-यात्रा के किन पड़ावों से गुज़र कर हम यहाँ तक पहुँच पाये हैं.इक्कीसवीं सदी के बदलते  परिवेश में , विश्व  के मंगल और स्वस्ति  लिये हम ऐसा  संतुलित और स्वस्थ वातावरण निर्मित करें ,जिससे कि आगत  पीढि़याँ समुचित दाय प्राप्त कर  जीवन की महाधारा में  अपना  स्थान निश्चित कर  सकें .
 अविरल काल-धारा से,लोक-मन ,लोक की भाषा में जो वैश्वानर है ,युग-युग के घाटों का रस पान करता है सूत्रधार को अनुभूतिमयी दृष्टि का दान देकर ,सतत प्रवहमान काल-धारा में समाधिस्थ होता है . नश्वर देहों में अनश्वर चैतन्य के सूत्र को धारण करनेवाला सूत्रधार ,चिर सहचरी ,जिज्ञासा नटी के साथ ,लोक मन के रस-ब्रह्म का साक्षात्कार करता है .
 आइये हम भी लोक-मन की रागिनी के अनहद नाद में गूँजते ' विविधता में एकता ' की तान को सुनने और गुनने की चाह में चलें, महामानवता के सागर -संगम  के रंगमंच पर -
(यवनिका उठने के साथ पृष्ठभूमि से शंख -घंटा नाद एवं मंगलाचरण )

संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।
देवाभागं यथा  पूर्वे  संजनाना उपासते ।। 

[साथ-साथ चलो ,साथ-साथ बोलो,तुम सबके मन समान जाने जायें.जिस प्रकार से सूर्य,चन्द्र ,पवनादिक देवता  एक दूसरे को समान महत्व देते हुये विद्यमान हैं .]
समानी वा आकूति: समाना हृदयानि व: ।
समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति ।।
 
 [तुम सबके अभिप्राय समान हों,तुम सबके हृदय समान हों,तुम सबके मन समान हों ,जिससे सब सुदृढ़ हों सको .]

नर्तकों का एक छोटा समूह प्रवेश कर वंदना करते हुए --
समूह गान -
' शक्ति दो हे शक्तिदायिनि, शक्ति दो !
कामना शुभ और सम परिवृत्ति दो !

हे महा महिमामयी ,उत्सव बने जीवन !
चेतना से पूर्ण हों जड मृत्तिका के कण !
मूढता भागे युगों की ,भ्रम हटे मन का ,
शाप दुख मिट जायँ ,दृढ हों प्रेम के बन्धन !
मनुजता के प्रति सतत अनुरक्ति दो !

ज्ञान औ'विज्ञान साधें विश्व का मंगल ,
कला,विद्या,शिल्प दें ममता भरा संबल !
भारती की गोद खेलें चाँद औ'सूरज,
आशिषों से पूर्ण हो माँ का मधुर आँचल !
स्नेह समता को नई अभिव्यक्ति दो !

वेष अगणित,रूप अगणित ,बोलियाँ अनगिन ,
सप्त-स्वर में बज उठे एकत्व की सरगम !
धरा से आकाश तक दुर्लभ नहीं कुछ भी ,
कोटि कर औ'कोटि पग प्रस्तुत जहाँ प्रतिक्षण !
कलुष से ,तम से असत् से मुक्ति दो !
--
दृष्य  - 1.
दृष्य- सूत्रधार गहन चिन्तन में बैठा है ,चारों ओर पुस्तकें फैली हुई हैं कुछ बिखरी ,कुछ एक के ऊपर एक खुली ,कुछ एक के ऊपर एक .चौकी पर कागज़,कलम .सूत्रधार कभी कोई ग्रंथ उठाता है ,पन्ने पलटता है ,कभी कुछ पढ़ने लगता है ,कुछ लिखता है फिर रख देता है.फिर दूसरा उठा कर ध्यान मग्न हो पढने लगता है .नटी का प्रवेश ,कुछ क्षण खड़ी होकर देखती है फिर समीप आ जाती है .
नटी - आर्यपुत्र ,बड़े व्यस्त प्रतीत होते हैं .इतनी पुस्तकें ...[समीप जाकर पुस्तकें उठा-उठा कर देखती है ]स्वतंत्रता-संग्राम का इतिहास,प्राचीन इतिहास ,धर्म और दर्शन के इतने ग्रंथ ,साहित्य ,संस्कृति समाज-शास्त्र ...क्या खोज रहे हैं ?किसी विशेष आयोजन की पूर्व-भूमिका है ?
सूत्रधार - हाँ प्रिये ,दुनिया का गोला बडा अशान्त है.रोज अखबार बताता है कभी किसी देश में कुछ अकरणीय घट रहा है ,कभी कहीं और कुछ अनर्थ हो रहा है .अन्याय , अनाचार स्वार्थ और अहं का नंगनाच !प्रकृति के साथ अतिचार ,ध्वंस और मृत्यु के भयावह रूपों के आविष्कार !मानवता त्रस्त हो उठी है .दूर क्यों जाओ ..किसी समय जिसने सारे संसार को प्रकास दिया वह हमारा भारत भी आज तेजहत और तमसाच्छन्न हो गया है .पारस्परिक द्वेष ,ईर्ष्या,और भ्रष्टाचार !लगता है इसके अलावा यहाँ और कुछ बचा ही नहीं है .
नटी -
हाँ ,मन तो मेरा भी बार-बार उद्विग्न हो उठता है.हम कहाँ थे कहाँ आ गये और भी कहाँ जा रहे हैं,कुछ समझ में नहीं आता .मेरा तो सिर चक्कर खाने लगता है .
सूत्र - लोक मन की यात्रा-कथा की प्रतीक्षा कर रहा हूँ .
नटी - लोक-मन की यात्रा-कथा !...अच्छा समझी .कवि लोकमन कहिये न !
[बाहर से आवाज आती है 'सूत्रधार हो क्या ?']
नटी - यह तो कवि लोकमन का स्वर है .आ गए ..आ गए ..!
सूत्र - कवि अन्दर आजाओ !चले आओ मित्र लोकमन !
[लोकमन का प्रवेश - धोती ,पगड़ी पहने ,कानों में मुरकियाँ ,हाथ में कविता पोथी ]
लोक - तुम्हारा काम हो गया सूत्रधार आज मैं तैयार होकर आया हूँ .
सूत्र -[प्रसन्न होकर ]तो लोकमन की यात्रा-कथा तैयार हो गई !मैं तो आज बडी उलझन में पडा था .

नटी - आर्यपुत्र बहत व्याकुल थे ,बहुत उद्विग्न , मन तो मेरा भी स्थिर नहीं रह पाता कि इस ऊहापोह को कैसे व्यक्त करें .आपको वाणी  का वरदान मिला है, कवि !हमारा समाधान आप ही कर सकते हैं .
सूत्र - किन शब्दों में स्वागत करूँ मित्र, विराजिये आपके स्वर सुनने को  मन विकल है.

लोक - भूमिका तैयार कर लो सूत्रधार , चलो ,आगे बढ़ चलें .
लोक  -.मंच तैयार है ! कवि की अंतर्यात्रा में हम भी साथ हो जायें ,प्रिये !
सूत्र -चलो ,उतर चलें रंग भूमि में ..
(उठ कर चलने का उपक्रम लोकमन कुले मंच पर स्थान ग्रहण करता है .मंच को प्रणाम और सब को नमन करता है.)
लोकमन -[ लोक शैली में कान पर हाथ रख कर स्वर भरता है ]
धारा बहती जाये रे, धारा बहती जाये !
 जो आये सो चलता जाये बहे काल की धारा ,
सतयुग ,त्रेता ,द्वापर बीता ,छोड़ बढ़ा संसारा !
रूप बदल जाये धरती का सागर पर्वत नदियाँ !
चंचल मनवा थिर न रहा बीतीं यों सौ-सौ सदियाँ !
 इस भारत की धरती पर भी युग आये,युग जाये !

आदिम लोग यहाँ जंगल में जगह-जगह रहते थे,
गरुड,नाग औ'मत्स्य आदि वे अपने को कहते थे ,
यक्ष,निषाद सभ्यता के उनसे कुछ और निकट थे ,
असुर रक्ष गंधर्व धनी थे विद्याओं में पटु थे !

नटी.-कुछ आभास दो कवि ,आदिम लोग जो जंगल में जगह-जगह रहते थे,
गरुड,नाग और मत्स्य आदि कहलाते थे उनका जीवन कैसा था ?
लोकमन - उस अतीत को कौन जाने नटी, पर मानव-मेधा प्रयास कर सकती है .

(दृष्य खुलता है -  नाग युवती ,सुनागा  आती है ,हाव-भाव से लगता है किसी की प्रतीक्षा कर रही है .)
सुनागा -अभी तक सुपर्ण नहीं आया !आ रहा है ..,वह आ रहा है .
[एक गरुड़ युवक का प्रवेश दोनों एक दूसरे को देख कर प्रसन्न हो जाते हैं .]
सुनागा - आ गया सुपर्ण ,मैं तेरी राह देख रही थी .कहाँ था अब तक ?[बैठते हैं ]
सुपर्ण -हाँ सुनागा ,मुझे देर हो गई .पाती नहीं आने दे रही थी .
सुनागा -[सशंकित होकर ]फिर तू क्या करेगा ?
सुपर्ण -तुझे अपने साथ रखूँगा .
सुनागा -मुझे तो अब तक कोई बच्चा नहीं हुआ ,मुझे कौन साथ रखेगा !
सुपर्ण -फिर मैं क्या करूँ ?बच्चा तो अपने आप होता है ,मैं भी क्या कर सकता हूँ ,तू भी क्या कर सकती है !
सुपर्णा - नहीं हुआ तो मुझे नदी में डुबो देंगे .तू तो पाती के साथ रह जायेगा .
सुपर्ण -मुझे तू अच्छी लगती है .
[अस्तव्यस्त वेषभूषा में बच्चे को गोद में लिये एक गरुड़ युवती का प्रवेश ]
सुपर्ण -अरे पाती क्या हुआ ?
पाती -भाग ,जल्दी भाग !निषाद आ रहे हैं .
सुपर्ण -कहाँ से ?हम उन्हें लड़ भगायेंगे .अब तो गरुड़ और नाग मित्र हैं ,दोनों मिल कर लडेंगे .
[हलचल और कोलाहल भाग दौड की आवाजें ]
पाती -सुनागा, भाग जल्दी से ,सुपर्ण तू क्यों खडा है ?
सुपर्ण -मैं अपना तीर-कमान ले आऊँ ; औरों को भी बुला लूँ .
[सुनागा भागने की उतावली नहीं दिखाती , उठ कर खडी हो जाती है ]
पाती -तू नहीं भागेगी सुनागा ?
सुनागा - मैं भाग कर कहाँ जाऊँ /मुझे बच्चा नहीं होगा तो ये सब मार डालेंगे .सुना है निषाद औरतों को मारते नहीं .
पाती -क्यों दुष्मन तो स्त्री-पुरुष दोनों होते हैं ?
सुनागा - नहीं वे किसी भी जाति की स्त्री को ले जाते हैं और अपने घर में रखते हैं .
पाती -अजीब लोग हैं दुष्मन की स्त्री को भी रखते हैं !
सुनागा -मैंने सुना है वे कहते हैं पुरुष झगड़ा करते हैं स्त्री नहीं करती .
पाती -अच्छा !वहाँ भी उन स्त्रियों के बच्चे होते होंगे .
सुनागा -और क्या !औरत चाहे अकेली रहे, बच्चे तो होंगे ही .
पाती -और नाग औरत के नाग बच्चे होंगे उन्हें भी पालेंगे ?
सुनागा -वे जादू मन्तर से उन्हें निषाद कर लेते हैं .
[कोलाहल बढता है दोनों भागती हैं .काले,छोटे कद के निषाद एक नाग और गरुड़ को बाँध कर ला रहे हैं ,कुछ स्त्रियाँ भी घेर कर लाई जा रही हैं .उनके पीछे निषाद स्त्रियाँ हैं ]
एक निषाद -[पाती और सुनागा को देख कर ]कैसी सफेद हैं ये औरतें !
निषाद स्त्री - यह भी कोई रंग है ?राख जैसा !
[एक निषाद बढ़ कर बंदी स्त्री के कंधे पर हाथ रखता है ,निषाद स्त्री उसे लात मार कर धकेल देती है और उसका हाथ अपने कंधे पर रख लेती है ]
निषाद स्त्री - नहीं ,नहीं .वह सिर्फ काम करने के लिये है .तेरी साथिन मैं हूँ .[बंदी स्त्रियों से ]जा,जा दूर हो यहाँ से .लकड़ी काट कर ला .
निषाद -हाँ ठीक है .ये लोग काम करेंगी .जा जा ,लकड़ी काट कर रख .[स्त्रियाँ जाती हैं ]
(पटाक्षेप )
 नटी- तो जीवन का यह ढर्रा रहा था!.
लोक -
आर्य इसी देश के वासी रहे थे .प्रारंभ में उच्च भूमियों पर निवास करते थे .दूर देशों तक उनका विस्तार रहा था .
कृषि योग्य भूमि की खोज में वे अन्य भू-भागों की ओर बढ़ते रहे .

और हाँ ,एक उन्नत जाति जो अपने को  देव कहती थी ,वह भी यहाँ निवास करती थी .पहले उसके बारे में जान लो .
 सूत्र- हाँ,हाँ अवश्य .

लोकमन -
 धारा बहती जाए...
 एक जाति थी और कि जिसके लोग देव कहलाये !
दिवलोकों के वासी हम इस धरती के रखवाले ,
सभी तत्व  हों वशवर्ती वे   यही चाहनेवाले  !
सुरापान अति प्रिय उनको उन्मुक्त भोग करते थे .
कर्महीन हो बस विलास वे जीवन में करते थे !
 आज नाम भर शेष रह गया चिह्न न बचने पाये !
सभी शक्तियों को बस में कर की ऐसी मनमानी,
डूब गई पूरी धरती यों बढ़ा प्रलय का पानी.,
कर्महीन के लिये यहाँ  पर जगह नहीं होती है ,
दैविक-भौतिक विपदायें ही उसे मिटा देती हैं !
 सिर्फ प्रजापति मनु नौका में कसी तरह बच पाये !

सूत्र - उन्हीं मनु के नाम पर तो हम मानव कहलाये
नटी - तो हम उन्हीं देवों की सन्तान हैं !
*
सूचना- इस नाटिका में व्यक्त अवधारणाओं के लिए अनेक  विद्वानों के कथ्य  और उनकी पुस्तकों की पृष्ठभूमि रही है .मैं उन सबकी आभारी हूँ .
(क्रमशः)


6 टिप्‍पणियां:

  1. अतिसुन्दर ,स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें।

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  2. बहुत सुंदर प्रस्तुति ,,

    स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाए,,,

    RECENT POST: आज़ादी की वर्षगांठ.

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  3. इसकों बुकमार्क कर रख रहा हूँ.. आराम से पढूंगा.. आपके ब्लॉग पर पढने योग्य काफी कुछ है..

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  4. अत्यंत रोचक भाव-नाटिका !

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  5. अहा! समय पर लौटा हूँ लगता है।
    बहुत ही रोचक होगी यह शृंखला।

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