बुधवार, 25 जून 2014

कथांश - 7.

कल्चरल नाइट थी वह. छात्र-जीवन का समापन  .
बहुरंगी कार्यक्रम चल रहे थे ,एनाउंसमेंट हो रहे थे, रह-रह कर तालियाँ बज रहीं थीं .
मैं भी आगे की पंक्ति में ,फ़ाइनल के छात्रों के साथ बैठा था .कैंपस इंटरव्यू में जिन्हें जॉब मिल चुके थे ,उनमें से एक मैं भी  .
 जीवन-धारा दूसरी ओर मुड़ने का क्रम, वातावरण में बिदा की गंध ,प्रसन्नता और उदासी का विचित्र सा मिश्रण. जिनका भविष्य निश्चित हो चुका था, उनके मन उमंग से भरे ,एक दूसरे के पते-ठिकाने का लेन-देन चल रहा था. अब  तो
मुझे भी यहाँ से चल देना है .
पहले सीधा माँ के पास ,कुछ दिन रुक कर  नये लगे काम पर.
माँ प्रसन्न होगी ,पुत्र योग्यता सिद्ध कर आजीविका कमाने लगा .
स्टेज पर क्या चल रहा है दिमाग़ रजिस्टर नहीं कर रहा था तभी कान में कुछ शब्द पड़े  - ध्यान उधर ही केन्द्रित हो गया .
एक छात्र था मंच पर , गुरु गंभीर तार-स्वर में शब्द मुखरित हो रहे थे -
'धिक् जीवन जो पाता ही आया है विरोध ...'
सब ओर से ध्यान हट कर उधर ही केन्द्रित हो गया . सुनने लगा -
'धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध '
सुनता रहा ,साथ में जो वक्तव्य चल रहे थे समझता रहा .
पर वे  दो छोटी पंक्तियाँ अंतर्मन पर लिख गईं हों जैसे.
 मेरी ही व्यथा है यह  - गहन मंथन, राम की हताशा का हो, या स्वयं रचनाकार का आत्म-भुक्त , पर यही है मेरा सच - जीवन का अब तक का सारांश .
 बार-बार वही पंक्तियाँ मन में घूमती  हैं -'धिक् जीवन...'
अंतर्मन से धिक्कार उठती है अपने लिए . 
अवरोध और विरोध ही झेलता आया सदा ,कुछ नहीं कर पाया जो चाहा.
 खुल कर बोल नहीं सका कभी . किससे कहूँ -  माँ एकाकी जूझती रही. मेरे लिए ही तो , हाँ और वसु के लिए भी.
जी-जान से यत्न करता हूँ ,कोई कसर नहीं छोड़ता .पर जब फल की आशा बँधती है सब  हाथ से फिसल जाता है .अचानक  कोई  झटका, जैसे निरभ्र आकाश से वज्रपात हो जाए . आशा का महल  टूट कर बिखर जाता है .हत्बुद्ध देखता रह जाता हूँ .


छात्र जीवन के समापन पर यही दो पंक्तियाँ  मन की स्लेट पर लिखे लिए जा रहा हूँ ,सुदूर प्रदेश के किसी  अनजाने स्थल पर ,अजनबियों के बीच पैर जमाने.
एक अध्याय का समापन - माँ की प्रतीक्षा पूरी हुई .पुत्र अपने पाँव खड़ा हो गया.  

जब से वसु का पत्र पढ़ा है ,मन बहुत विचलित है .कार्य क्रम में शामिल होने की बिलकुल इच्छा नहीं थी ,पर भार कर जाऊँ भी कहाँ ! 
सब कुछ कर के क्या मिला ?
मन बार-बार हटाता हूँ ,सिर घूमने लगता है .
सोचना नहीं चाहता ,चाहता हूँ एकदम ब्लैंक हो जाऊँ, बस .
लिखा है , आजकल कुछ अस्वस्थ चल रही हैं ,पहले वहीं जाना है  .बीच का समय वहीं साथ बिताना है .
फिर ज्वाइन करने के बाद , वसु और माँ को अपने पास लाने की व्यवस्थाओं में कुछ समय तो लगेगा.
माँ का बड़ा मान  है वहाँ . उनके स्वच्छ और सादे  परोपकारी जीवन ने सब को प्रभावित किया है .और  सब सबसे बढ़ कर मीता का आसरा था , अब तक  उसका आसरा रहा .पर अब ? अब वहाँ कैसा होगा सोच नहीं पाता .

वहाँ से सबका टिकट कट जाय  वही अच्छा.पर माँ तैयार नहीं होंगी  कहती हैं रिटायरमेंट को कुछ साल रह .गए हैं पूरे कर लूँ .चलो, कुछ समय और सही .अब वे कुछ यात्राएँ करना चाहती है दो जनी और भी उनके साथ हैं, इतने वर्षों का साहचर्य ,साथ में घूमने की इच्छा अब पूरी करेंगी .     
 मैंने  यही चाहता हूँ  शेष जीवन वे निश्चिंत हो कर आराम से रहें.

सोच में खलल पड़ा .मेरा नाम पुकारा जा रहा है .आकाश   स्टेज पर बुला रहा है .मेरा बहुत साथ निभाया है उसने .अपने घर से आया हुआ सामान हमेशा बाँटता रहा ,छात्रावास के  दो सालों में मेरे बहुत निकट आ गया -पर कल उससे कुछ नहीं कहा मैंने .मीता की बात उससे कभी नहीं की थी . डर था लड़कों की छेड़खानियों का सामना न करना पड़े . मैं उतना उद्धत नहीं हो पाता ,बोल्डली फ़ेस नहीं कर पाता .चुप्पा-सा रहा हूँ शुरू से.

आकाश केे साथ कुछ और  लोग शामिल हो गए हैं,' अरे ,आता क्यों नहीं .यों ही छोड़ेंगे नहीं हम तुझे !..
जाए बिना छुटकारा नहीं . 

*

गुरुवार, 12 जून 2014

कथांश - 6 .


*
वसुधा  ,मेरी बहिन - मुझसे पाँच साल छोटी.
एक दिन माँ ने कहा,' अब इसका विवाह हो जाय तो ठीक रहे  .'
मैं चौंक गया- ' इत्ती बड़ी हो गई ?'

मुझे तो कभी बढ़ती दिखाई नहीं दी  .उस ओर मेरा ध्यान ही नहीं था .
'अठारह पार कर गई है . लड़कियाँ बड़ी जल्दी बड़ी हो जाती हैं.'

फिर बोली थीं ,'इसका घर-संसार बसा देख लूँ  तो मुझे निश्चंती हो .'
' इत्ती भी क्या जल्दी ,उसे पढ़ लेने दो .'
' बाप की छाया के बिना बेटी बड़ी बिचारी सी हो जाती है .'
'माँ, ऐसे मत कहो , मेरी बहिन किसी की दया की पात्र नहीं है. तुमने और मैंने  हमेशा  मन रखा है उसका .'
'वह नहीं कह रही बेटा .मैं दुनिया की बात कर रही हूँ .लोग जब पिता की बात करते हैं उस  पर क्या बीतती है.'
पिता की बात ! क्या बीतती है ?हाँ ,जानता हूँ मैं !
तीन-चार साल की थी वह .मालिनी के ताऊ जी से बहुत हिली थी, उन्हें पापा कहने लगी . वो लोग ताऊ को पापाजी जी कहते हैं , और अपने पिता को चाचा . जब भी वे आते  खुश हो  कह उठती  - 'मेले पप्पा आ गए!'
 अकेले भी बैठी होगी तो बोलती रहेगी ,' ये मेले पप्पा की किताब.'
मैंने पूछा- 'कहाँ हैं तेरे पप्पा?'
'वो हैं न जो मूँछें लगाए हैं, इत्ती बली वाली ..'
वे भी तो - कोई बेटी नहीं है न ,तीन बेटे हैं बस .
 कहते हैं,' बट्टो, तू ही तो मेरी बिटिया है.'
गोद में उठा लेते हैं - ऊपर उछाल देते हैं उसे .जब हाथ फैला कर गुपचते हैं वसु खिलखिला कर हँस उठती है .दोनों बाँहें गले में डाल चिपक जाती है.
 
अरे, एक बार तो मुकुन्द से लड़ गई ,उन्हीं के बेटे से .इससे तीन साल बड़ा!
उसने चिढ़ाने को कह दिया पापा तो मेरे हैं ,और सब लोग तो हमारी देखा-देखी कहने लगे.   मेरे बापू को पापा कहती है और तू भी.. .'
'वो मेले पप्पा हैं ..'
'चाहे पूछ ले किसी से ,वो तो मेरे हैं .'
' जाओ ,नहीं पूछती ' खिसिया कर चिल्लाई .'मैं क्यों पूछूँ,मैं तो कहूँगी .'
'कैसा मुँह बना रही है, बिल्ली .'
वह झपटी ,उसने दोनों हाथ पकड़ लिये, 'बोल अब क्या करेगी?'

मैं बढ़ा, दोनों को अलग करने. तब तक वसु ने किचकिचा कर उसके हाथ पर दाँत गड़ा दिये .
'अरे,अरे ,काटना मत!' मैंने उसे खींच कर हटाया.
मुकुन्द के हाथ पर दाँतों के हलके-से निशान उभर आए थे .
 भूल नहीं सकता वसु का वह खिसिआया चेहरा .
 मेरी बहिन आक्रामक स्वभाव की  नहीं है ,उस दिन जाने क्या हो गये था उसे!


फिर वह रोई थी,सिसकियों से हिलती वह छोटी सी  देह मुझे आक्रोश से भरती रही पर मैं कुछ न कर सका था.
 कितने साल बीत गए पर मुकुन्द 'कटखनी' कह कर अब भी चिढ़ा देता है .
बच्चे कितने सरल मन से किसी को अपना लेते हैं .

मैं तो ये भी नहीं कर सकता . किसी को इस प्रकार पुकार नहीं  सकता .मीता के पिता को , उसी के समान बाबूजी कह सकता था ,पर वह नौबत ही कहाँ आई. 
आज तमाम भूली-भटकी बातें मन में घिर आई हैं .
 एक बार छुट्टी में घर आया तो वसु काढ़ा बना रही थी .
'किसकी तबीयत ख़राब है, ' मैंने पूछा ,बोली .'वो उस घर में पापा जी को  ठंड लग गई है .अम्माँवाला काढ़ा बना रही हूँ .'
तब भी एक गहरी सांस खींची थी माँ ने .
 अपने पिता को कभी देखा नहीं था
उसने.अपने चारों ओर दूसरे बच्चों का लाड़-चाव ,  घुमाना ,चीज़ें खरिदवाना ,हाट-बाज़ार ले जाना सब देखती थी .
  एक बार मुझसे पूछा था,' भइया ,अपने पिताजी कहाँ हैं?'
बातों में बहला दिया मैंने . समझ में नहीं आया उससे क्या कहूँ .

ये भी नहीं कह सकता कि वे नहीं हैं..उफ़, क्या-क्या सोच जाता है मन!
कैसे, कहाँ, क्यों? कोई उत्तर नहीं  .उन्होंने माँ को छोड़ दिया ?माँ ने छोड़ दिया ?कुछ भी मुँह से नहीं निकलता . वे कहाँ हैं, क्या करते हैं,कभी आते-जाते हैं किे नहीं ? 

बड़ा मुश्किल है सब  प्रश्नों के उत्तर देना .

सोच था एक दिन उसे पास बैठा कर बात करूँगा .समझाऊँगा - सब को दुनिया में सब-कुछ नहीं मिलता !

इस सच को,जिसमें मेरी कोई भूमिका नहीं मैं  नहीं पचा पाता .मन के भीतर  उठते दुर्वेग  को झेलते, सहज होने का दिखावा कितना कठिन है !
 बच कर भागने को कोई रास्ता नहीं .जाऊँगा भी कहाँ , सब साथ चलेगा.
माँ के सामने भी यही सब आता होगा .उनने क्या सोचा होगा पता नहीं कैसे झेला होगा  . 

वे  कह देती थीं , 'उनकी नौकरी ऐसी है कि मुझे साथ नहीं रख सकते .'
पीछे-पीछे बहुत बातें करते थे लोग पर धीरे-धीरे समझ में आने लगा.माँ के सौजन्य से ,उनके आचार-व्यवहार , और उनकी दृढ़ता का प्रभाव कि
लोग उनसे सहानुभूति रखने लगे  . जो कहते होंगे पीछे कहते होंगे सामने कोई नहीं बोलता.उनका  सादा रहन-सहन और ज़रूरत पड़ने पर  सहायता हेतु सदा तत्परता ,उन पर विश्वास करते हैं सब ,मन से आदर करते हैं. 
*
माँ को  मामा का ही सहारा था .
मामा के तीनों बच्चे प्रायः ही उनके पास आ जाते थे .वे पढ़ाई में उनकी सहायता कर देतीं थीं, उनका कहना था  लोग यह भी देखते हैं कि इनके घर संबंधी-कुटुंबियों का आना-जाना  चलता है या नहीं .तीज-त्योहार खाली न रहें   मामा भी बहिन का मान रखने की कोशिश करते थे .
 बड़े होते-होते वसु ने मामी से बहुत सी बातें जान ली थीं. फिर भी पर मन में एक उत्सुकता , उन्हें देखने की इच्छा , इस संबंध के प्रति एक ललक ,उसके मन से जाती नहीं थी.
 घर हो चाहे बाहर ,पिता की चर्चा उठते ही मेरा व्यवहार असहज हो जाता  .किसी के सामने घर-परिवार की बातें न ,उठें यही मनाता रहता . 
वे हमारी ज़िन्दगी में नहीं हैं ...मुँह से नहीं कह सकता.एक छाया-ग्रह के समान उनका उल्लेख सारी खुशियों को ग्रस लेता है.  

बचपन से बड़ा चुप्पा हो गया था  .सबसे मिलने-जुलने से कतराता था.
 जो बहुत अपने रहे उन्हीं से अपमानित होता रहा अपनी आलोचनाएँ ही सुनता आया . शिकायत भी
किससे करता !
सामने-सामने मेरी हेठी होती  और मैं चुप देखता रहता ,इसके सिवा और चारा भी क्या था साथ के लोग कहाँ के कहाँ पहुँच गए , पीछेवाले आगे निकल गए .और मैं बस जहाँ के तहाँ  !

 क्या कमी रही .कहाँ चूक हुई मुझसे ?
 एक तार  भंग होते ही आगे का सब तार-तार होने लगता है !
जिसे जो कहना था कह गया ,जाने क्या समझते रहे लोग मुझे. मैं जैसा नहीं था .वही दोष झेलता रहा.सामने कोई कहे ,कोई पूछे तो बोलूँ ,पीछे-पीछे बातें बनती रहें ,कानों तक आवाज़ें आती रहें तो किसे जवाब दूँ ?
मेरे कहने को कुछ नहीं .कोई ऑप्शन नहीं मेरे पास !
   *

रविवार, 1 जून 2014

सौ का नोट

*
तब मैं बहुत छोटी थी . बात द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद की1947 से पहले की है , जब 40-50 रुपए महीने की आय में 3-4 बच्चोंवाली गृहस्थी मज़े से चल जाया करती थी.दो रुपये में एक सेर घी मिलता था. जीवन बहुत सीधा-सादा था तब .
घर पर हमें माँ पढ़ाती थीं. उस ज़माने की हाईस्कूल पास थीं वे . प्रायः ही रसोई में बैठा लेतीं और अपने काम करते-करते हमारा काम देखती जातीं. हमारा दिमाग़ इधर-उधर भागा कि फ़ौरन एक चपत रसीद.
अंग्रेज़ी के मीनिंग तो  याद हो जाते ,हिन्दी ,अपनी भाषा ! लिखना-पढ़ना याद करना  कभी मुश्किल नहीं लगा  . पर गणित के सवालों से बड़ी घबराहट लगती थी.
'मन लगा कर करोगे तो कुछ कठिन नहीं लगेगा', उनका कहना था,' और जितने सवाल ठीक आयेंगे हर सवाल पर एक पैसा मिलेगा .'
हिसाब ख़ुद रखना पड़ता था -बाकायदा कापी पर लिख कर.और जब कुछ पैसे इकट्ठे हो जाते तो  वे उधार कर देतीं .कहतीं , 'मेरे संदूक में सौ रुपये का नोट है .तुड़ाऊँगी तब दे दूँगी .'
 उस सौ के नोट ने हमें ऐसा लुभा रखा था कि हम अपने मन को समेट कर पाठ पूरा करने में पूरा ध्यान लगा देते.
उनके संदूक खोलते पर हम वहीं मँडराते ,सौ का नोट निकालें शायद ! पर इत्ती छोटी रकम के लिए इत्ता बड़ा नोट तुड़ाएं . कुछ  रुपये इकट्ठे तो होने दो पहले..'
 इतना भारी नोट यों निकालना ठीक नहीं , बंद कर के रखना पड़ता है..चलते-फिरते कोई देख ले तो?
 मुझसे दो साल छोटा भाई विष्णु और मैं. कितने पैसे इकट्ठे हो गये हिसाब जोड़ कर ही मगन रहते थे .कभी-कभार खुश होने पर कुछ पैसे पकड़ा भी देतीं जिनसे हम लेमनचूस(तब यही कहते थे),और बर्फ़ के गोले खरीद कर खा लेते  . पर हाँ , ठीक-ठीक पूरा हिसाब फ़ौरन लिखना बहुत ज़रूरी था.
हमारी पुरानी कापियाँ-किताबें उन्होंने कभी बेची नहीं .हम अच्छी तरह पास हुए क़ीमत वसूल हो गई (मैथ्स में अंत तक मेरे बढ़िया नंबर आते रहे ).अब यही किताबें किसी ग़रीब बच्चे के काम आएँ . वह हिसाब की कापी भी इधऱ-उधऱ हो गई ,कितने पैसे इकट्ठे हो गये (रुपये भी होने लगे थे), यह भी भूल-भाल गये .
आजकल के बच्चे इतने मूर्ख नहीं होते, और न वैसे बहुमूल्य नोट संदूको में धरे जाते हैं.  अपनी आँखों देखा नहीं कभी , पर माँ की उस मोदमयी  मुद्रा और  सौ के नोट की याद कभी-कभी बहुत आती है.