शुक्रवार, 2 नवंबर 2018

बिन मात्रा जग सून -

बिन मात्रा जग सून .

शाम हो रही थी .घर से थोड़ा आगे बढ़ी ही थी कि एक घर के लान में खड़ी आकृति बड़ी परिचित-सी लगी, याद नहीं आ रहा था कहाँ देखा है. बरबस उसकी ओर बढ़ती चली गई.
 चुपचाप खड़ी थी .
'ऐसी चुप-चुप क्या सोच रही हो ? और बिलकुल अकेली! सब लोग कहाँ है?'
'सब घर में हैं. तुम कहाँ जा रहीं थीं?'
'तुम मुझे जानती हो ?'
'रोज पाला पड़ता है तुमसे , जानूँगी नहीं?'
'अरे हाँ, तुम मात्रा हो.'
'रोज ही मिलते हैं कितनी-कितनी बार'.
अब तक मैंने हमेशा उसे किसी स्वर या व्यञ्जन के साथ देखा था.
'अकेली क्या कर रही हो यहाँ ?'
 ' कुछ करने -धरने का मन नहीं था. बड़ी ऊब लग रही थी.सो इधर निकल आई .'
 'आज हम दोनों अकेले हैं ,कुछ देर बैठोगी मेरे साथ.?'
'चलो. झाड़ियों के उधरवाली बेंच पर बैठते हैं . कोई नहीं आता इधर ,चैन से बैठेंगे कुछ देर.. रोशनी भी कम है वहाँ कोई एकदम देख नहीं पायेगा.'
 दोनों बैठ गए .
'बहुत दिनों से तुमसे मिलना चाह रही थी.'
'मेरे साथ हमेशा कोई न कोई साथ लगा रहता है -कभी स्वर ,कभी व्यञ्जन.  अकेले काम नहीं चलता उनका . आज चुपके से निकल आई हूँ ,,यहँ बैठे किसी को पता नहीं चलेगा..'
'तुम्हारे बिना वे चल ही कहाँ पाते हैं. अनुकूल सज्जा दे कर साथ संगति बैठाने के लिये तुम्हीं पर निर्भर हैं. '
'हम मात्राओं को हर समय सावधान की मुद्रा में तैनात रहना पड़ता है.'
'आप इतने सारे भाई-बहन हैं ......'
'हैं. पर हर समय हरएक को कान खड़े रखने पड़ते है ,कभी चैन से नहीं बैठ पाते
ज़रा सी चूक हुई नहीं कि अर्थ का अनर्थ हो जाता है .हमें तो इतनी भी छूट नहीं कि ह्रस्व और दीर्घ मात्राएँ आपस में भी एवजी पर काम कर  सकें. लोग हल्ला मचा देते हैं. चौबीसों घंटे तैनात रहें उनके लिये...... '
'सही कह रही हो ,अर्थ-संचार करने के लिये उन्हें शब्दायित करना होगा जिसके लिये अक्षर को सज्जित करना आवश्यक. यह और किसी के बस का कहाँ!'
'हमारे घर में  इतने अक्षर हैं ,सारे के सारे  चुप मारे बैठे रहते हैं.उनके सार्थक प्रयोग का सारा ठेका हमारा.. हर मात्रा का एक अलग काम ,अक्षर को शब्द के अनुरूप सज्जा दे ,उसकी भंगिमा बदले .तब वह बाहर के काम के योग्य बने ,नहीं तो जैसा का तैसा पड़ा रहे अपनी चाहार-दीवारी में.'
'अरे हाँ , इतना परिश्रम न करें तो अपनी बात ही न कह सके कोई और  तब कहाँ व्याकरण और कैसा नियम-नियंत्रण !'
वह चुप ही रही,मुझसे रहा नहीं गया -
'सच्ची, इतना सब न हो तो अक्षर व्यवहार में ही न आएँ. भाषा मैं कितना बड़ा रोल है आप लोगों का.'
 'सच तो यह है कि मात्रा के बिना कुछ हो ही नहीं सकता.' जैसे ज्ञान-चक्षु खुल गए हों- अनायास मेरे मुँह से निकला.'
'तभी तो आज चुपके से इधर खिसक आई थी, ... कुछ समझें तो लोग.'
' होता है कभी न कभी सबके साथ ,'
फिर पूछा मैंने ,'आप लोगों की अपनी पूरी व्यवस्था है. इतने लोग पूरा ताल-मेल बना कर कितनी अच्छी तरह रहते हैं. '
'हाँ ,हम नौ भाई-बहन एक ही ढर्रे के हैं. वैसे तो दो और भी हैं.... उनका ढंग कुछ अलग है. .'
कितने समान हैं आप लोग ,कभी-कभी तो भ्रम में पड़ जाते हैं हम .'
 'सब जोड़े से उत्पन्न हुये. फिर बड़ा भाई आ अकेला रह गया .दो जुड़वाँ बहनें हैं - इ-ई ,फिर उ-ऊ,ए-ऐ, ओ-औ .सारे जुड़वां.'
खिड़की की जाली से एक नन्हा सा चेहरा झाँका
मैने कौतुक से देखा, 'कोई बच्चा आया है तुम्हारे घर?'
 'नहीं तो..'
'अभी देखा मैंने, किसी के सिर पर चढ़ा झाँक रहा था.'
'अरे, वह बिन्दु होगा,सबसे छोटावाला...सबसे छोटा हमारा भाई ., लाड़ के मारे सर चढ़ा रहता है .'
'कितना नन्हां सा है, बिन्दु नाम भी वैसा ही प्यारा!'
'नहीं ,नहीं, नाम तो उसका अनुस्वार है. प्यार में  बिन्दु कहते हैं.'
मुझे आनन्द आ रहा था
बताने लगी वह -वाणी में वात्सल्य छलक आया था -
'तिन्नक सा रह गया तो है तो क्या -पूरा नकचढ़ है नाक लगाए बिना आवाज़ नहीं निकालता .क्या करें .करें बाल-हठ को मान दिया सबने -एक ही तो बच्चा है घर में . बंधुओँ के नेह ने कोमलता का संचार दी - उसके स्वर मधुर संगीतमयता से भर मनभावने हो गये . पर कभी जब मूड बदला हुआ हो तो ऐसा नकियाता है कि अनुस्वार ध्वनि ,सानुनासिक बन कर रह जाती है .मुश्किल यह कि नन्हीं-सी जान को  और कितना समेटें ,काट-छाँट संभव नहीं, सो सानुनासिक उच्चारण द्योतित करने के लिये जरा-सा चाप खींच फ़िटकर दिया उसके नीचे.'
' और बिन्दु ने मान लिया? '
'सीधे से मान ले तो बिन्दु कैसा ?एक ही शरारती है वह भी - शुरू कर दिया लातें चलाना -ये क्या लगा दिया ,हटाओ,हटाओ इसे - की रट लगा दी .तब माँ, वर्णमाला ने गोद में लेकर बहलाया,' अरे, ये तो चाँद का टुकड़ा है .तुम्हारे संग खेलने के लिये लाये हैं ',और बब्बू जी मगन हो गये .
सबने उसे चंद्रबिन्दु कहना शुरू कर दिया. आ गया वह भी चलन में..'
'कितनी सुरुचि और विचारमयी माँ हैं ,तभी तो सारा परिवार इतना व्यवस्थित है . माँ-पिता जी घर में ही होंगे?'
'हैं न, हमारे साथ रहते हैं .'
मन में उमड़ी अकथ सुखानुभूति और जानना चाह रही थी .
मेरी उत्सुकता भाँप गई मात्रा. मंद मुस्कान की महक वाणी में झलक आई   वह आगे बताने लगी -
 'माँ वर्णमाला,उन्हीं ने सँभाला है ये कुटुम्ब. इतना घूमते हैं हमलोग, शक्लें बिगड़ने लगती हैं ,वे ही ठीक किये रहती हैं.'
उन्हीं के नाम पर आपका यह आवास है -वर्णमाला?'
'हमारा निवास ?अरे, हम यायावर लोग हैं .हवा में उड़ते रहते हैं .एक जगह रहने की आदत ही नहीं. टिकने को ये माँ का घर है जरूर .पर देखो न कहाँ-कहाँ पहुँचे रहते हैं '.
'वर्णमाला कितना सुन्दर नाम,  और पिता जी?'
'बड़े व्यस्त हैं पिताजी. दिखाई नहीं देते हैं ,पर हमेशा उनके साथ का अनुभव होता है ,उनसे बल न मिले तो कुछ न कर पायें हमलोग.''
'उनका नाम जान सकती हूँ ?;'
'पिता जी को सब लोग स्वर कहते हैं, वैसे नाम स्वरात्म है .स्वरात्मज हैं हम सब .'
'सबसे बड़ा आ ,एक ही भाई अकेला?'
'अकेला नहीं था ,उससे पहले अ आया ,घर में भी अ का नाम सबसे पहले आता है. उसे अनुशासन की ज़रूरत ही नहीं वहुत संयत है बिलकुल संत स्वभाव का .पिताजी पर गया है सबके साथ हो कर भी कोई शान नहीं बघारता. मात्रा-मुक्त कर दिया इसीलिये उसे .'
परम विस्मित मैं चुपचाप सुन रही थी.
'अ पहली संतान है पिता ने कहा था "वर्णा, यह तुम्हारी  प्रथम संतान सदा निर्लिप्त रहेगी अपने मूल रूप से सब में व्याप्त होगी.'
'अरे, हाँ मैने. तो आज ही ध्यान दिया - अ अपनी मात्रा आरोपित किये बिना ही सबको अपना स्वर देता रहता है.'
'उसे अपना प्रभाव दिखाने का कोई मोह नहीं ,उसके लक्षण पहले ही जान लिये थे पिता ने....'
'सच है. पूत के पाँव पालने में ही दिखाई दे जाते है.'
उन्होंने माँ को उसका महत्व बताया -
'प्रिय वर्णे, इसके देह-रूप का मोह मत करना . यह तुम्हारी हर संतान का परम आत्मीय है. इसे धारे बिना कोई वर्ण मुखर नहीं हो सकेगा. सभी स्वरों ,सभी व्यञ्जनों  में इसकी विद्यमानता के बिना ध्वनि- संचार संभव  नहीं .हमारा अ सर्वव्याप्त होगा.''
 माँ ने तत्परता से उत्तर दिया,
 'स्वरात्म , गोद में आया यह प्रथम आत्मज तुम्हें  समर्पित करती हूँ.'
तब पिता ने वर दिया - 'इसके बिना कोई भी वर्ण जिह्वा पर आ कर भी अवाक् रह जायेगा. फिर आगे कहा. यह अपने जीवन-काल में ही उ औ म् के साथ संयुक्त हो कर परम पद का अधिकारी होगा!'
इस प्रकार प्रथम स्वरात्मज को  माँ ने लोक-हित समर्पित कर दिया.'
कुछ देर हम दोनो अभिभूत से बैठे रहे
अचानक हः-हः की आवाज़ हुई
चौक कर पीछे देखा.
मेरे चेहरे पर अंकित अचरज को पढ़ लिया मात्रा ने.
'वह भी हमारा भाई है ,अनुस्वार के साथवाला. माँ के गर्भ में ही पता नहीं कैसे ग्रोथ रुक गई दोनों की. समुचित आकार नहीं मिल पाया.  ..  .जन्म से बाधित बेचारा विसर्ग, हँसी नहीं कराह निकलती है  उसके मुख से.'
'विसर्ग...' मैने दोहराया '...लेकिन बाधित ?'
' किसी का सहारा लिये बिना खड़ा नहीं हो पाता , उसे पीठ पर लाद कर चलना पड़ता है.'
'वह दो बिन्दुओं से रचित है'
'यही तो अच्छा है ,लादने में संतुलन बना रहता है .नहीं तो पीठ से कहीं लुढ़क जाए तो पता ही न चले.'
'हाँ सो तो है.'
पेड़ों की आड़ रोशनी रोक रही थी .मात्रा की भंगिमा दिखाई नहीं दे रही थी
 ध्यान से देखने का यत्न किया.
 उस हल्के उजास में रूपरेखा अस्पष्ट रही.
उठ के उधर से जायेगी तब रोशनी में ठीक से देख लूँगी -सोचा मैंने.
'अच्छा तो सारी मात्राएं दो ही प्रकार की होती हैं हृस्व और दीर्घ?'
'होती हैं नहीं, अब हैं .पहले हम तीन थीं ,ह्रस्व,दीर्घ (छोटी-बड़ी )और प्लुत.
समय के साथ प्लुत क्षीण होती गई ,कोई उपचार मिला नहीं  .फिर स्वर्गवास हो गया उसका.'
'अच्छा वो जो सबसे लंबी थीं... '
'लंबी होने से क्या... आयु तो नहीं मिली.'
मैं क्या बोलती
 'हमारी सहोदरा थीं ,सोच कर दुख होता है .पर अब उस चर्चा से क्या लाभ?'
  'और आप के साथवाली ?'
'बहनें हम दो ही हैं - इ और ई.'
कुछ कोलाहल की ध्वनियाँ कानो में आने लगीं.
उसने घूम कर देखा, अपने घर की खिड़की की ओर हाथ उठाया -'अरे, वे सब वहाँ खड़े हैं. मेरी ढूँढ पड़ी है...मैं चली ..'
वह उठकर खड़ी हो गई .
मै पलट कर खिड़की की ओर देखने लगी ,
(आ,ई उ,ऊ,ए) ा,ु,ू ेऐ इत्यादि तमाम मात्राएँ खिड़की में उझक रहीं थीं.
 जब मात्रा की ओर घूमी. वह वहाँ थी ही नहीं.
इधर-उधर चारों ओर देखा - पता नहीं कहाँ गायब हो गई .मैं अकेली बुद्धू जैसी उस नीम अँधेरे में बैठी थी . बड़ा विचित्र सा लगा. मैं भी चलूँ.   
उठने लगी
 बेड की कोर पर फैला पाँव झटके से नीचे गया. बैलेंस बिगड़ा - 'उई ईई...'
मैं गिरते-गिरते बची.
बेटी कह रही थी,' सोते-सोते क्या बोल रहीं थीं आप ?'
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- प्रतिभा सक्सेना.

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