मंगलवार, 26 सितंबर 2017

श्री सलिल वर्मा द्वारा कृष्ण-सखी - एक प्रतिक्रिया ,पर मैं जो कहना चाहती हूँ -

श्री सलिल वर्मा द्वारा कृष्ण-सखी - एक प्रतिक्रिया ,पर मैं जो कहना चाहती हूँ -
कृष्ण -सखी का यह मूल्यांकन ऐसा लगा जैसे पूरी तरह रचना के गहन में प्रविष्ट होकर सम्यक् दृष्टि को साक्षी बना कर क्रम-बद्ध आकलन किया गया हो .
रचनाकार के साथ जुड़ कर अंतरंग का ,और सजग-सचेत मस्तिष्क से बाह्य पक्षों का संतुलन जहाँ संभव हो जाये वहाँ रचना का होना अर्थपूर्ण हो जाता है ..सलिल ,तुमने यह संभव कर दिया.
यह बौद्धिक-श्रम-साध्य कार्य तुमने जिस निपुणता से किया मैं विस्मित हूँ ,तुम्हारे विश्लेषण ,विवेचन और निर्धारण की कुशलता से प्रभावित हूँ ,साहित्य की तुम्हारी परख पर गर्वित भी हूँ .
हाँ,मैं तुमसे सहमत हूँ कि कवर-पेज के चित्र के साथ उपन्यास के घटनाक्रम और चरित्र की संगति नहीं बैठती. बस ,होता यह है कि श्रीकृष्ण और द्रौपदी का नाम सुनते ही साधारणतया लोगों का मन चीरहरण और द्रौपदी की पुकार पर पहुँच जाता है .मुखृपृष्ठ के अंकन में यही हुआ है. उपन्यास के कथा-क्रम में न चीरहरण का दृष्य है न पाँचाली के दैन्य का चित्रण,वह अनन्य रूपसी विपुल केश राशि की धारणकर्त्री थी यह भी उस चरित्र का सत्य है- तुम्हारी सूक्ष्म दृष्टि धन्य है . तुमने हर तथ्य पर ध्यान दिया और दिलाया.
एक और बात- प्रूफ़ पढ़ने को मैं तैयार थी ,उनसे कहा भी था पर वे अपने यहां ही वह काम करना चाहते थे. भूमिका भी मेरी मान्यताओं को स्वर देती , तैयार थी -उसे भी सामने आने का अवसर नहीं मिला . उपन्यास में प्रकाशन के लिये उसकी आवश्यकता नहीं समझी गई इस आधार पर कि कथाक्रम स्वयं अपनी बात कह लेगा .
यहाँ एक बात स्पष्ट कर देना आवश्यक समझती हूँ
उन दिनों मेरे पति को स्ट्रोक पड़ा था. मैं प्रकाशन से भी नितान्त उदासीन थी. मेरी मित्र शकुन्तला जी प्रारंभ से ही इस उपन्यास को प्रकाशित करवाने को उत्सुक थीं ,अपने प्रयासों से उन्होंने सारी व्यवस्था की -उनके मन में अपार लगन और मेरे लिये शुभाशंसा ही उन्हें प्रेरित कर रही थी .इस बड़े काम का सारा श्रेय शकुन्तला जी को ही है कि उन्होंने आगे रह कर सब-कुछ कराया. मैं तो सोच भी नहीं सकती थी कि इतनी शीघ्रता से उपन्यास छप जायेगा ('छप गया' प्रकाशन की ओर से यह सूचना पाकर मैं सचमुच विस्मित हो गई थी).मैं उन की आभारी हूँ कि आज मेरी एक पांडुलिपि पुस्तकाकार रूप में सामने है और हमलोग उस पर संवाद कर सके हैं .और भी बताऊ -उन्हीं ने बहुत उत्साहपूर्वक ,अपनी विशेष पहुँच और प्रयत्नों से उसका विमोचन भी,सैन- फ्रान्सिसको स्थित भारत के कांउसल जनरल द्वारा सुप्रसिद्ध बर्कले वि.वि. में संपन्न होना संभव कििया. उपन्यास मेरे हाथ में भी नहीं आया था - तब तक मैने देख भी नहीं पाया था..और पहले ही शकुन्तला जी ने किसी प्रकार एक्सप्रेस मेल से प्रतियां मँगा कर विमोचन कार्य भी संभव करा दिया - मैं उनकी चिर-ऋणी हूँ.
इन दिनों भी मैं अपनी समस्याओँ से मुक्त नहीं हूँ ,सलिल का यह आलेख पढ़ उसी दिन लिया था ,लिख आज पाई हूँ .बहुत शान्ति से नहीं बैठ पा रही हूँ अभी भी , जब तक श्री मान जी घर नहीं आ जाते .जो लिख पाई उससे ही मेरी बात समझ लेना ,जो छूट गया उसके लिये क्षमा माँगती हूँ
तुम सलिल ,उसका मूल्यांकन कर मुझे गौरवान्वित कर रहे हो .साथ में और भी कितने सहृदयजन अपने उद्गार दे कर मेरा मान बढ़ा रहे हैं.
मैं सबकी आभारी हुई .
- प्रतिभा सक्सेना.