बुधवार, 24 मार्च 2021

राग-विराग - 8.

राग-विराग - 8.

*

उस दिन रत्नावली ने कहा था ,'मै हूँ न तुम्हारे साथ.' 

'हाँ, तुम मेरे साथ हो.'

पर यहाँ आकर वे हार जाते हैं .अपनी बात कैसे कहें?

 नहीं, नहीं कह सकते.

रत्नावली से किसी तरह नहीं कह सकते 

मन में बड़े वेग से उमड़ता है - 'यहाँ मैं कुछ नहीं कर सकता .मैं नितान्त लाचार हूँ.

 जिस कुघड़ी में जन्मा उसका कोई उपचार नहीं. जो मेरा होगा छिन जायेगा यही देखता आया हूँ. जो मेरे अपने थे काल के ग्रास बन गये .जन्म से भटका हूँ. यही लिखा कर लाया हूँ.'.

मन ही मन कहते हैं ,'नहीं रतन अब नहीं. तुमसे नहीं कह सकता पर तुम्हें  खोना भी नहीं चाहता. मैं निरुपाय हूँ.'

और वे चले गये थे ,रतन से बिना मिले. 

नन्ददास हैं यहाँ, रतन की खोज-खबर रखते हैं, स्थिति सँभाल लेंगे.

रतन ने कहा था - 'राम ने जो दिया, सिर झुका कर ग्रहण कर लिया, उनकी शरण में जाकर उस सब से निस्तार पा लिया. अब काहे का संताप?'

साथ में यह भी कहा

मैं हूँ न तुम्हारे साथ. तुम्हारा  ध्यान रखने को. काहे की चिन्ता?'

और यदि रत्ना भी... नहीं,नहीं. !

और वह उन की थाह  पाना चाहती है. मन को पढ़ना चाहती है. 

उसकी दृष्टि तुलसी अपने मुख पर अनुभव करते हैं.

'क्या देख रही हो, मेरी विपन्नता?'

'नहीं, देख रही हूँ मेरी पूज्या सास कैसी सुन्दर रही होंगी, सब कहते हैं न कि तुम उनकी अनुहार पर हो. तुम्हारा रंग तो,रगड़ खा-खा कर बाहर घूम-घूम कर कुछ झँवरा गया है लेकिन..वे तो ... '

उस दिन  तुलसी जब पूर्व-जीवन की स्मृतियों में भटक रहे थे, बातों बातों में रत्ना के सामने मन की तहें खोलने लगे .

 नीमवाली ताई से उन्होंने  पूछा था, 'मेरी माँ कैसी थी ,ताई'?

'साक्षात् देवी ,इतने कष्टों में रही कभी शिकायत नहीं.

'तेरे मुख में उसकी झलक है. माँ से बहुत मिलता है रे! मुझे तो उसी का ध्यान आता है तुझे  देख कर...'

कई बार बड़े ध्यान से अपना मुख देखते हैं तुलसी. हाँ, दर्पण में देखते हैं,अपने प्रतिबिम्ब के पार खोजते हैं भाल पर सिन्दूर-बिन्दु धारे एक वत्सल मुख को. अंकन झिलमिला कर खो जाते हैं, सब अस्पष्ट रह जाता है.

 रत्ना के नयनों में भीगापन उतर आता है.

स्तब्ध रह जाती है, गहन उदासी की छाया मुखमण्डल पर छा जाती है. मौन सुनती रहती है- भूख से व्याकुल बालक जब किसी द्वार याचना करने जाता तो लोगों की आँखों में कैसे-कैसे भाव तैर जाते थे. सहमा सा, अपना हाथ बढ़ा देता, रूखा-सूखा कुछ डाल दिया जाता, उसके लिये वही छप्पन-भोग होता था, बस एक नीम के नीचेवाली ताई प्यार से कुछ पकड़ा देती -'अरे, बाम्हन का छोरा है ,भाग का दोस कि अनाथ बना भटक रहा है.'

लोग कहते, 'अभागा है, माँ तो जनमते ही सिधार गई.'

'अरे, अभुक्तमूल में जन्मा है,जो इसका अपना होगा ,उस पर संकट पड़ेगा.'

बालक सुनता है ,चुप रहता है. 

कुछ नहीं कर सकता वह 

वे बातें करती है -  

'राम,राम, कैसी साध्वी औरत रही. कभी किसी से किसी की बुराई-भलाई में नहीं पड़ी.  जैसा था चुपचापै गुज़र करती रही.' 

रंबोला को देखो तो माँ का मुख याद आ जाता है, कितना मिलता जुलता है, डील-डौल बाप पर जाता लगता है.' .

'आँखें बिलकुल माँ की पाई हैं.'.

'माँ ,ओ माँ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,' -अंतर चीख़ उठता,' कैसी थी मेरी माँ?' 

उदास बालक मन पर भारी बोझ लिये आगे चल देता,

हताशा छा जाती.कहाँ जा कर रहे? क्या करे? ..पेट की आग चैन नहीं लेने देती .

भूल नहीं पाता वे तीखे वचन ,बेधती निगाहें ..

आज स्थिति बदल गई है. वह सामर्थ्य पा गया है उसे साथी मिल गया है .

रत्ना कहती है तुलसी से,'जहाँ अपना बस नहीं, अपना कोई दोष नहीं उसके लिये हम उत्तरदायी नहीं ,उस पर दुःख और पछतावा कैसा?'.

'बचपन पर किसका बस. सब दूसरों के बस में होते हैं .तुम्हारे करने को कुछ नहीं था, तुम्हारा बस चला तुमने कर के दिखा दिया.

'गुरु ने पहचान ली थी तुम्हारी सामर्थ्य.'

 'हाँ, आज जो कुछ हूँ उन्ही के चरणों की कृपा है.'

'पात्र की उपयुक्तता भी एक कारण है.'

'तुम में निहित था जो कुछ, उसे सामने ला कर निखार दिया उन्होंने. पारखी थे वे. गुरु का महत्व किसी प्रकार कम नहीं.'

''अब काहे का पछतावा?' .

पर जो बात निरन्तर सालती है वही नहीं कह पाते .

मन ही मन समझते हैं - 'हानि-लाभ,जीवन-मरण ,जस-अपजस विधि हाथ! 

अदृष्ट के अपने लेख हैं , वहाँ कोई  उपाय नहीं चलता. 

किसी का कोई बस नहीं.

कभी तुलसी को लगता है रत्ना को अकेला छोड़ दिया, कैसे क्या करती होगी? अपराध-बोध सालता है. मन को समझा लेते हैं ,बुद्धिमती है. किसी-न किसी प्रकार निभा लेगी, मनाते हैं वह सकुशल रहे. 

मेरे मानस में प्रभु राम, माँ-जानकी को नहीं त्यागेंगे ,स्वयं को एकाकी नहीं कर लेंगे. वे चिर-काल साथ रहेंगे, अय़ोध्या के राज-सिंहासन पर और लोक-मानस में, दोनों युग-युग राज करेंगे!

*

(क्रमशः)












*

सोमवार, 8 मार्च 2021

राग-विराग - 7.

(रतन समुझि जिन विलग मोहि ,जेहि सुमिरत रघुनाथ.' 

*

जब से रत्ना ने प्रिय देवर के हाथों तुलसी का पठाया सन्देश पाया है,मनस्थिति बदल गई है.कागज़ पर सुन्दर हस्तलिपि में अंकित वे गहरे नीले अक्षर जितनी बार देखती है. हर बार नये से लगते हैं .'रतन समुझि जिन विलग मोहि ..'  -,नन्हा-सा सन्देश  रत्ना के मानस में उछाह भर देता है, मन ही मन दोहराती है.  फिर-फिर पढ़ती है. 

- कितना विरल संयोग कि  समान बौद्धिक स्तर के, एक ही आस्था से संचालित समान विचारधारा के दो प्राणी पति-पत्नी बने .एक सूत्र से संयोजित  दोनों ,गार्हस्थ धर्म का अनुसरण कर एक नया क्षितिज खोजते जीवन अधिक समृद्ध होता. अंतर से  पुकार उठती है. ‘चल, मिल कर समाधान कर ले, सारे  भ्रम दूर हो जायें.’

उनका तो विद्वानों से वर्तलाप होता होगा ,संत-समागम चलता होगा, अपने कुछ अनुभव मुझसे भी  साझा कर लेते. मैं उनकी सहधर्मिणी हो कर, यहाँ सबसे  अलग-थलग निरुद्देश्य पड़ी हूँ 

मन में तर्क-वितर्क चलते हैं राम की भक्ति, संसार से विमुख नहीं करती, लौकिक जीवन के लिये एक कसौटी बन जाती है. सांसारिकता से कोई अंतर्विरोध नहीं. गृहस्थ के लिये तो राम-भक्ति ही ग्रहणीय है संयम और संतुलन रखते हुए आदर्शों के निर्वाह का संकल्प. राम की भक्ति सदाचार और निस्पृहता का सन्देश देती है. सांसारिक संबंधों रमणीयता ,नैतिकता का उत्कर्ष भावों की उज्ज्वलता, परस्पर निष्ठा और विश्वास और भी कितनी कोमल संवेदनाएँ  समाई है ..

एक बार उनसे भेंट हो जाय. मन को समाधान मिल जाय. 

सियाराममय जग को असार कैसे माना जा सकता है! वह तो विस्तृत कर्मक्षेत्र है. 

पति से पूछना चाहती है रत्नावली कि राम-भक्ति संसार से विरत करने के लिये,या उसमें रह कर उसे अधिक संगत ,संतुलित और सुनियोजित की आयोजना हेतु ?

रत्ना का प्रबुद्ध मन तुलसी से विमर्श करना चाहता है .लेकिन समय व्यर्थ बीतता चला जाता . क्या ऐसे ही जनम बीत जाएगा ? नारी को कैसा बनाया प्रभो,एक ओर बहुत समर्थ और दूसरी ओर एकदम बेबस. बाहरी संसार में कोई पैठ नहीं औरों पर निर्भर रहना ही नियति बन गया है. .

  नन्हा-सा सन्देश रत्ना के मानस में फिर-फिर उछाह भर देता है .''रतन समुझि जिन विलग मोहि ..' एक सूत्र दोनों को निरंतर जोड़े है. मगन मन गा उठता है -

 'राम जासु हिरदे बसत, सो प्रिय मम उर धाम।

एक बसत दोऊ बसै, रतन भाग अभिराम।।'

मनोबल बढ़ चला है. अपनी बात किससे कहे!! तुलसी से संवाद करना चाहती है. पर कहाँ मिलेंगे वह!

निरन्तर उठते हुये अनेक प्रश्न रत्ना के मन में हैं पर ऐसा कोई नहीं जिससे पूछ सके. अकेले समझ नहीं पाती, कहाँ सही हूँ कहाँ गलत. कौन बताए! काश,एक दूसरे के पूरक बन बन सके होते. दोनों की एक ही लगन -फिर यह अंतराल क्यों? वह भी खुल कर अपने मन की कहें, खाई भर जाये. उनकी उपलब्धियों का कुछ अंश मुझे भी मिले. 

बार-बार रत्ना के मानस में गूँजता है ''रतन समुझि जिन विलग..'

और कुछ देर को मन सघन आश्वस्ति से भर उठता है. नन्ददास के प्रति कृतज्ञ है वह.

उन्हीं से कभी-कभी समाचार मिल जाते हैं .पर उनका आना ही कितना होता है .

चंदहास से प्रायः ही मिलना हो जाता है.

विदित हुआ तुलसी का डेरा इन दिनों काशी में है,

मिलने की लालसा तीव्र होती जा रही है. एक बार मिल कर अपना समाधान करना चाहती है. मन की शंकाएँ दूर करना चाहती है.

रत्ना ने नन्ददास से पूछा था -

‘मेरे लिये पूछते हैं कभी?’

‘उन्हें चिन्ता रहती है ,तुम्हारी कुशलता बताता हूँ तो उनके मुख पर कैसा भाव छा जाता है भौजी, मैं बता नहीं सकता.’  

नन्ददास और चन्दहास जानते हैं उसके मन की इच्छा. पूरी सहानुभूति भी है उन्हें.लेकिन द्विधा में पड़ जाते हैं 

नन्ददास सोचते हैं इस विषय में दद्दा से बात करें . लेकिन डरते हैं कहीं मना कर दिया तो..!

  उन्हें याद है एक बार तुलसी ने कहा था,' नन्दू यह मन ऐसा ही है ,कस कर रखना पड़ता है नहीं तो जरा ढील पाते ही अपने लिये कहीँ कोई सँध खोज लेता है.

‘जिस जीवन को  पीछे छोड़ आय़ा हूँ अब उस जीवन के विषय में सोचना  नहीं चाहता....

'राम की लौ में वह सब छोड़ आया हूँ ,नन्दू ,अभिमानवश या सुख की -आनन्द की खोज में नहीं.'

दद्दा का मन वे नहीं समझ पाते,.सोच में पड़ जाते .हैं

.रत्नावली एकदम चुप है.

नन्ददास ने बताया था -

‘मैंने उनसे पूछा था दद्दा, कुछ दिन शान्तिपूर्वक एक स्थान पर निवास क्यों नहीं करते? 

कहने लगे जहाँ जहाँ राम के चरण पड़े वहाँ की धूल सिर धर  राम के चरित को गुन रहा हूँ.’ 

अपने ही कहे बोल रत्ना के कानों में बज उठे.अन्तर चीत्कार कर उठा, हाँ, हाँ,तूने ही  कहा था उनके चरण अनुसरे बिना, चरित गुने बिना कैसे राम की थाह मिले ! 

आशा-निराशा में दिन बीतते जाते हैं.

एकान्त उदासी के प्रहरों में निराशा घिर आती है. मन में गहरा पछतावा उठता है, और स्त्रियों को पति के अपने प्रति प्रेम का ,अभिमान होता है कि मेरे प्रेम में किस सीमा तक जा सकते हैं ? उन्हीं बातों से मैं अनखाने लगती हूँ .

मैं ऐसी क्यों हूँ ? .

.और फिर अजानी शंकाएँ उठने लगती हैं.

अपने को समझाती है - रतन समुझि जिन विलग मोंहि.

 मैं उनसे अलग नहीं हूँ 

सूचनाएं मिल रही हैं रत्ना को. लगा अनुकूल अवसर आ गया .

भौजी का आग्रह और चंदहास का सहयोग ,नन्ददास की अनुकूलता भी उन्हें प्राप्त है.

रत्नावली के काशी पहुँचने का डौल बन गया. 

*

उस दिन तुलसी ने जब खीझ कर कह दिया  -

'तो अब तुम्हीं जानो.' 

एकदम नन्ददास का .चेहरा उतर गया था.

फिर मन ने समझाया - 

ये मुझे हड़का रहे हैं ,ऐसा कैसे कर सकते हैं भौजी के साथ ? 

 इतना कठोर हिया नहीं हो सकता!

हो लें मुझ पर गुस्सा ,पहले पूछा नहीं न! इसीलिए...

मन में खटका फिर भी बना रहा.

सुबह-सुवह चक्कर लगाया. डेरे में सन्नाटा पड़ा था.

ओह , चले गये ! 

रत्नावली के यहाँ आने में अप्रत्यक्ष रूप से उनकी भूमिका रही थी. पर क्या सोचा था और क्या हो गया!

 उलझन में पड़े वहीं चक्कर काट रहे हैं...

इतने में देखा हाथ में थैली लिये भौजी चली आ रही हैं.उन्हें देख समीप चली आईँ 

पालागन कर नन्दू बोले,’ रास्ता ठीक रहा?’ .

‘हाँ ,यहाँ सब ठीक है ?’

चारों ओर देख रही हैं.

नन्ददास समझ गये ,कहने लगे,

‘वैसे भौजी ,यह स्थान आपके लिये ठीक नहीं .कहने को साधु संत हैं लेकिन इनके कुण्ठित मनों में दुनिया की कुत्सायें भरी हैं.’ 

‘कौन मुझे यहाँ रहना है!’

क्या कहें .कुछ तो भी बोले जा रहे हैं,

‘दद्दा कहते हैं  जितना समझ में आता है उतना ही समझने को को रह जाता है. आत्म-शुद्धि हेतु तीर्थों का सेवन करता हूँ  साधु-संगति का लाभ पाने का प्रयास करता हूँ.

कैसे एक जगह टिक सकता हूँ?’ 

रत्नावली मौन सुन रही है.

असहाय से खड़े रहे कुछ देर 

‘भौजी, दद्दा को जाना था.’

हत्बुद्ध-सी बोल उठी,' क्या ?वे यहाँ नहीं है?’

‘वे चले गये.’

वैसी की वैसी खड़ी रह गई, एकदम सन्न!

फिर बोल फूटे,

‘देवर जी सच्ची बताओ तुमने उन्हें कब  बताया था ?’

कबूल दिया – ‘कल.’

‘और वे चले गय!. मुझे अपने मार्ग की बाधा समझ कर?.....

क्या बोले थे वे?’ 

‘वे ऐसी जगह नहीं मिलना चाहते थे जहाँ लोगों की कुत्सा भरी निगाहें हर पल देखती रहें .तुम्हारे लिये दस तरह की बातें उठें .

‘इतनी बड़ी नगरी में छोटी-सी भेंट के लिए कहीं निरापद  स्थान  नहीं रहा?’

‘यहाँ के अधिकतर साधु-सन्न्यासी , जानती हो –दद्दा अच्छी  तरह  समझ गये हैं.'नारि मुई गृह संपति नासी, मूड़ मुड़ाए भए सन्न्यासी'. मानसिकता वही है.’

‘जिसकी जैसी वृत्ति होगी उसी राह जायेगा -उन सब के लिये पत्नी के न होने से कोई रास्ता बंद नहीं होता ,और भी राहें खुल जाती हैं पर अकेली स्त्री के लिए सारे रास्ते बन्द  हो जाते हैं , वहीं पड़े-पड़े दिन काट दो.उनके लिये सब विहित,  उसके लिये सब वर्जित .. 

‘हमारा संबंध ऐसा कच्चा  तो नहीं था कि सामने  आ कर 

 मन की बात सीधे  कह क्यों  नहीं सके.

‘मेरे लिये यहाँ तक आ पाना कितना कठिन था और वे जान कर एकदम चले गये!

 कुछ तो होगा उनके मन में  मुझसे कह जाते.

एक ही मार्ग के राही -सहयोगिनी बनना संभव नहीं  हो सका,तो ,उनकी दुर्बलता नहीं बनूँगी.’ ,नन्ददास असहाय से हो उठे. मुख से निकला ,’अरे हाँ, कहीं और मिल लेते.’

‘नहीं, नहीं उन्हें दोष मत दो ,मानव स्वभाव बड़ा विचित्र होता  है.’

‘अपनी गृहस्थी के सपने देखना तो कब का छोड़ दिया था,थोड़ा मानसिक संबल ..मिल जाता ,.

उनके सत्संग की, ज्ञान की ऊँचाइयों की थोड़ी छाँह मिल जाती.मेरा जीवन सफल होता

पर....मुझे तो वहीं का वहीं पड़े रहना है.’

‘अरे भौजी,मैने तुम्हें अब तक पानी को भी नहीं पूछा.’

‘नहीं , मेरा व्रत है आज.’

‘ऐसा कैसे? माँ अन्नपूर्णा के द्वारे से कोई रीता नहीं जाता. प्रसादी तो ग्रहण करनी ही पड़ेगी .

यहाँ तक आई हो तो तो माँ अन्नपूर्णा, और बाबा विश्वनाथ के दर्शन बिना चली जाओगी?

चलो भौजी, माँ के दरबार में हाज़िरी दिला कर ,तुम्हें घर पहुँचा आता हूँ.’. 

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(क्रमशः)