गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

एक जानकारी

"...न ही इस बात की कोई जानकारी है कि लड़कपन के उस दौर के बाद फिर कभी राधा से उनकी मुलाकात भी हुई या नहीं।"


चंद्रभूषण जी (पहलू)की 26 नवंबर की पोस्ट में उपरोक्त पंक्ति पढ़ी और अपना कमेंट देना चाहा ,पर इतना बड़ा हो गया कि वहाँ देना उचित नहीं लगा .अपने ही ब्लाग पर लिखे ले रही हूँ -

भारतीय- मानस इतना भी अनुदार नहीं ,कि लंबी तपन के बाद कुछ शीतल छींटे भी वर्जित कर दे .सूर ने कई पदों में यह आभास दिया है - सूर्यग्रहण के अवसर पर ,प्रभास तीर्थ आई, ब्रज की टोली को देख रुक्मिणी पूछती हैं - 'तुम्हरे बालापन की जोरी?' और कृष्ण दिखाते है ,'वह युवति-वृन्द मँह नील वसन तन गोरी ,.'

फिर राधा-रुकमिनि कैसे भेंटीं - 'बहुत दिनन की बिछुरी जैसे एक बाप की बेटी '.

कथाओं में यह भी कि रुक्मिणी राधा को आमंत्रित करती हैं . रुक्मिणी स्वयं शयन- पूर्व उनके लिए दूध लेकर जाती है- गर्म दूध ,राधा चुपचाप पी लेती है किन्तु छाले कृष्ण के चरणों में उभऱ आते हैं .

इसी को पल्लवित करते हुए मैंने उस भेंट की झाँकी  प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया था -

तुम्हरे बालापन की जोरी.

रुकमिन बूझति सिरी कृष्ण सों कहाँ गोप की छोरी ?'

'उत देखो उत सागर तीरे नील वसन तन गोरी ,

सो बृसभान किसोरी !'

सूरज ग्रहन न्हाय आए तीरथ प्रभास ब्रिजवासी ,

देखत पुरी स्याम सुन्दर की विस्मित भरि भरि आँखी!

'इहै अहीरन करत रही पिय, तोर खिलौना चोरी ?'

हँसे कृष्ण ,'हौं झूठ लगावत रह्यो मातु सों खोरी !

एही मिस घर आय राधिका मोसों रार मचावे ।

मैया मोको बरजै ओहि का हथ पकरि बैठावे ।'

उतरि भवन सों चली रुकमिनी ,राधा सों मिलि भेंटी ,

करि मनुहार न्योति आई अपुनो अभिमान समेटी !

महलन की संपदा देखि चकराय जायगी ग्वारी

मणि पाटंबर रानिन के लखि सहमि जाइ ब्रजबारी !

**

ऐते आकुल व्यस्त न देख्यो पुर अरु पौर सँवारन ,

पल-पल नव परबंध करत माधव राधा के कारन ! !

'मणि के दीप जनि धर्यो ,चाँदनी रात ओहि अति भावै ,

तुलसीगंध ,तमाल कदंब दिखे बिन नींद न आवै !

बिदा भेंट ओहिका न समर्पयो मणि,मुकता ,पाटंबर ,

नील-पीत वसनन वनमाला दीज्यो बिना अडंबर !

राधा को गोरस भावत है काँसे केर, कटोरा ,

सोवन की बेला पठवाय दीजियो भरको थोरा !'

**

अंतर में अभिमान, विकलता कहि न सकै मन खोली

निसि पति के पग निरखि रुकमिनी कछु तीखी हुइ बोली ,

'पुरी घुमावत रहे पयादे पाँय ,बिना पग-त्रानन ,

हाय, हाय झुलसाय गये पग ऐते गहरे छालन ?'

'काहे को रुकमिनी ,अरे ,तुम कस अइसो करि पायो ?

ऐत्तो तातो दूध तुहै राधा को जाय पियायो ?

दासी-दास रतन वैभव पटरानी सबै तुम्हारो ,

उहि के अपुनो बच्यो कौन बस एक बाँसुरी वारो !

एही रकत भरे पाँयन ते करिहौं दौरा -दौरी

रनिवासन की जरन कबहूँ जिन जाने भानुकिसोरी !'

**

खिन्न स्याम बरसन भूली बाँसुरिया जाय निकारी,

उपवन में तमाल तरु तर जा बैठेन कुंज-बिहारी /!

बरसन बाद बजी मुरली राधिका चैन सों सोई

आपुन रंग महल में वाही धुन सुनि रुकमिनि रोई !

*

रह-रह सारी रात वेनु-धुन ,रस बरसत स्रवनन में ,

कोउ न जान्यो जगत स्याम निसि काटी कुंज-भवन में !

**
जन-मानस कृष्ण को राधा के साथ ही देखना चाहता है .राज-भवनों के ऐश्वर्य में उनके साथ पटरानियाँ रहती होंगी .पर मंदिरों में माधव के साथ सदा राधा विराजती हैं .
- प्रतिभा .

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

द्वाभाओँ के पार

*
अभी मेरे कमरे को डूबते सूरज की किरणें आलोकित किये हैं .सांध्य-भ्रमण के लिए तैयार होकर नीचे उतरी हूँ ..

' देखो सूरज डूब गया, शाम होने लगी है' ,पति कहते हैं.वे अपने पाँवों की परेशानी कारण साथ नहीं जा पाते .

नीचे रोशनी काफ़ी कम है .छायायें घिर आई हैं.

'अब सूरज पाँच बजे से पहले डूब जाय तो मैं क्या कर सकती हूँ.'(वैसे मुझे पता है कि यहाँ घड़ी एक घंटा पीछे कर दी गई है-डे लाइट सेविंग).जानती हूँ न, वे कुछ कहेंगे नहीं इसलिए बोल देती हूँ.

उनका कहना है जल्दी निकलो और रोशनी रहते घूम कर लौट आया .मेरा प्रयत्न यह रहता है कि घर से निकलने में देर कर दूँ.और साक्षात् देखूँ कि किस विधि प्रकृति का मुक्त एकान्त सजाती द्वाभाएं अपना ताफ़्ता रंगोंवाला झीना आंचल सारे परिवेश को उढ़ाती हैं .जब कहीं कोई नहीं होता सड़कों पर भी ,भ्रमणकर्ता अधिकतर लौट चुके होते हैं कभी एकाध मिल जाता है तो एक 'हाइ' फेंककर अपनी राह बढ़ जाता है. अब जब,यौवन को कोसों पीछे छोड़ आई हूँ मुझसे किसी को या किसी से मुझे ऐसा-वैसा कोई खतरा नहीं -निश्चिन्त हो कर मनचाहा घूम सकती हूँ ,

निविड़ एकान्त का , इस गहन शान्त बेला का कितनी व्यग्रता से इंतज़ार करती हूँ.यह एक घंटा सिर्फ़ मेरा . अगर कोई बाधा आ जाए,तो कहीं व्यस्त रहते हुए भी हुए मन घर की खिड़कियों से बाहर निकल भागता है ,जहाँ रंग-डूबी वनस्पतियों में मुक्त विहार करती द्वाभाएँ आकाश से धरती तक जादुई रंग उँडेलती रहती हैं .नवंबर का मध्य और दिसंबर का अधिकांश- यहाँ सुन्दरता चारों ओर बिखरी पड़ती है है.फ़ॉल- कलर्स की कारीगरी -सारी प्रकृति सजी-धजी . बिदाई - समारोह का आयोजन हो रहा है ,निसर्ग में रंगों के फव्वारे फूट पड़े हों जैसे .सिन्दूरी ,पीले लाल ,सुनहरे, बैंगनी कत्थई ,वसंती नारंगी ,कितने रंगों के उतार-चढ़ाव सब ओर उत्सव का उल्लास ,सारी वनस्पतियाँ मगन. जीवन के चरम पर अपने-अपने रंगों में विभोर.पूरी हो गई है अवधि, आ रही है प्रस्थान की बेला ,खेल लो जी भर रंग . वर्ष बीतते सब झर जायेगा ,सन्नाटा रह जाएगा .कबीर ने जिसे कहा था -दिवस चार का पेखना'

ये चार दिवस का पेखना ही तो जीवन है - चित्प्रकृति का मुक्त क्रीड़ा कौतुक ! निसर्ग के इस महाराग पर अपनी कुंठाएँ लादना शुरू करोगे तो शिकायतें ही करते रह जाओगे .ये जो हमारे बनाये खाँचे हैं -आत्म को बहुत सीमित कर देते हैं . कभी इससे बाहर भी निकलो . और कबीर तुम सोचते कभी कि अनगिनत युगों से ये सरिता-जल कहाँ से बहता चला आ रहा है?न कोई आदि न अंत - एक अनंत क्रम .जीवन भी तो अनवरत प्रक्रिया है - अनंत क्रम .कौन बच सका इस आवर्तन से !इसी क्रम में कहीं हम भी समाए हैं . अगर आगमन समारोहमय है तो प्रस्थान भी उत्सवमय क्यों न हो !

नवंबर का महीना! इन सुरंजित संध्याओँ में साक्षात् हो रहा है निसर्ग की गहन रमणीयता से . सारे पश्चिमी तट को विशाल बाहुओं में समेटे रॉकी पर्वतांचल की किसी सलवट में सिमटा छोटा -सा नगर .केलिफ़ोर्निया की राजधानी का एक उपनगर .अभी अपने में प्रकृति के सहज उपादान समेटे है. कोलाहल-हलचल से दूर ,मुक्त परिवेश ,पर्वतीय तल पर समकोण बनाते ऊँचे-ऊँचे वृक्ष, धरती पर दूर-दूर तक फैला वनस्पतियों का साम्राज्य.कभी ओझल हो जाता कभी साथ चल देता क्रीक जो आगे ताल में परिणत हो गया है !

उदय और अस्त बेलाएँ अपने संपूर्ण वैभव के साथ प्रकट होती है .अभिचार रत द्वाभायें अभिमंत्रित जल छिड़कती -टोना कर रही हैं .

संध्या की धुँधलाती बेला ,न चाँद न सूरज -केवल एकान्त का विस्तार !ऐसा अकेला पन जब अपनी परछाँईं भी साथ नहीं होती ,लगता है मैं भी इस अपरिमित एकान्त का अंग बन इसी में समाती  जा रही हूँ .चारों ओर पतझर का पीलापन छाया है .वृक्षों के विरल पातों से डूबते दिन की रोशनी झलक कर चली गई है . .हवाएं चलती हैं धुँधलाती रोशनी में रंग प्रतिक्षण बदल रहे हैं है ,साँझ ने चतुर्दिक अपनी माया फैला दी है . पतझर की अबाध हवाएं पत्तों को उछालती खड़खड़ाती भागी जा रही हैं. साँझ का रंगीन आकाश ताल में उतर आया है .इस पानी में झाँकते बादल लहराते हैं ,किनारे के पेड़ झूम-झूम कर झाँकते हैं.

हर रात्रि अभिमंत्रित सा निरालापन लिए आसमान से उतरती है . क्षण-क्षण नवीनता, पल-पल पुलक शाम का ढलना ,रात का आँचल पसार -धीमे-धीमे उतरना , सारी दिशाओँ को आच्छन्न कर लेना ..धुँधलाते आसमान में बगुलों की पाँतें बीच-बीच में कुछ पुकार भरती इस छोर से उस छोर तक उड़ती चली जाती हैं ,उनकी आवाज़ें मुझे लगता है कहीं दूर रेंहट चल रहा है. पर यह मन का कोरा भ्रम -यहाँ अमेरिका में रेंहट कहाँ .

गहन एकान्त के ये प्रहर .इस साइडवाक से ज़रा हट कर चलती सड़क के वाहनों से भागते प्रकाश से आलोकित ..नहीं तो वही सांध्य-बेला .आकाश में रंगीन बादलों के बदलते रंग धीरे-धीरे गहरी श्यामता में डूबने लगते हैं. ,जिसमें जल-पक्षियों की का कलरव-क्रेंकार रह रह कर गूँज जाती है .साइडवाक और सड़क के मध्य वृक्षावलियाँ ,और घनी झाड़ियाँ ,-रोज़मेरी और अनाम सुगंधित फूलों से वातावरण गमकता है .बीच-बीच में सड़कों पर गाड़ियों का आना-जाना,रोशनी और परछाइयां बिखेरते गुज़र जाना .उन दौड़ती रोशनियों में पेड़ चमक उठते हैं .अपनी ही परछाईँ प्रकट हो मेरे आगे-पीछे दौड़ लगा कर ग़ायब हो जाती है .

जब चांद की रातें होती हैं तो पीला सा चाँद उगता है ,हर दिन नया रूप लिए ,धीरे -धीरे साँझ रात में गहराती है ,आकाश की धवलिमा धूसर होने लगती है ,.अभी कुछ दिनों से पानी बरसने लगा है ,वातावरण में ठंडक आ गई है .झील के जल में किनारे एक भी पक्षी नहीं दिख रहा .क्वेक-क्वेक की आवाज़ें आ रही है ,कहीं दुबके बैठे होंगे .उधर झील के बीच में कुछ आकृतियां हैं .किनारे झाड़ियाँ और बीच-बीच में श्वेत ऊंची-ऊंची काँसों के झुर्मुट .आकाथ श्यामल जल में प्रतिबिंबित हो रहा है .ताल कैसे अँधेरे में अपने को छिपा कर बाहर के सारे प्रतिबिंब अपने में धार लेता है . रात को सारे चाँद-तारे जल में उतर आते हैं

ये हल्के अँधेरे मुझे बहुत अच्छे लगते हैं देर हो जाती है तो और अच्छा ,अँधेरे और चाँदनी की मोहक माया .जैसे दूर-दूर तक इन्द्रजाल फैला हो .धरती पर झरे हुए पीले पत्ते ,ऊँचे-ऊँचे श्वेत काँस झुण्ड बनाए सिर हिलाते बतियाते रहते हैं .,,
विशाल वृक्षों की टहनियाँ धरती तक और ऊपर आकाश तक श्यामता को और गहरा देती हैं

आकाश के छोर पर एक तारा झाँकता है पहला तारा ,यही तो है ,साँझ को संध्यातारा (ईवनिंग स्टार) और प्रातः मार्निंग स्टार.रोज़ इस चमकते तारे को देखती हूं ,दृष्टि घुमाती हूँ चतुर्दिक व्याप्त सूना आकाश , कहीं कोई सितारा नहीं .
याद आता है माँ का कथन -

एक तरैया पापी देखे दो देखे चंडाल

और मैं पूरे आकाश में उगा यह अकेला तारा रोज़ देखती हूँ .

झील में डूबती.साँझ बेला और सूने आकाश का पहला तारा. यह दोष भी कितना लोभ-मोह भरा है . झील का रंग गहरा जाता है लहरें चमकती रहती हैं .इस अँधेरे ताल में नक्षत्रयुत आकाश सारी रात झाँकेगा .,किनारे पर ऊंची-ऊँची सुनहरी घास .बीच में लंबे-लंबे धवल काँस समेटे हवा में लहराती रहेगी .आती-जाती रोशनियाँ ताल पर बिखरती है थाह लेती परछाइयाँ अपरंपार हो उठती हैं .ये साँझ भी अब ताल में समाई जा रही है चारों ओर गहरे श्यामल आकार,रात की परछाइयाँ थाहता ताल खूब गहन होता जा रहा है.

.इन फ़ुटपाथों पर हवाओं ने जगह-जगह रंगीन पत्ते बिखेर दिये हैं- लाल-पीले पत्ते -बीच-बीच में और रंग भी जैसे राँगोली रची हो ,कोनों और मोड़ों पर ढेर के ढेर .उन्हीं पर पाँव रखते चलते कभी कभी सब-कुछ ,बिलकुल अजाना- सा लगने लगता है. चलते-चलते रुक जाती हूँ जैसे सारा परिवेश अजाना हो. कहाँ जा रही हूँ किन राहों पर चलने आ गई कैसे आ गई , ,ठिठकी-सी खड़ी ,कैसे कदम बढ़ें आगे ,किस तरफ़ मुड़ूँ! .उस परिवेश में डूबी ,अपने से विच्छिन्न ,विमूढ़ .लगता है इन्द्रियातीत हो गई हूँ. अनगिनती बार चली राहें ,अनजानी हो उठती हैं छलना बन बहकने लगते हैं अपने भान ,सब कुछ  अवास्तविक-सा . देह में  कैसा हल्कापन कि धरती पर न टिक पांव उड़ाये लिये जा रहे हों .बिना प्रयास चलते जाना .कहीं का कहीं लिये जाते हैं स्वचालित हो पग,एक बार तो... नहीं , छोडें उस चर्चा को .

विराट् प्रकृति में छाया और प्रकाश की क्रीड़ा . द्वाभाओं के आर-पार दिवस-रात्रि का मौन गाढ़ालिंगन घटित होता और अनायास गहनता के आवरण में विलीन . मेरा निजत्व डूब जाता है ,सब से -अपने से भी विच्छिन्न हो इस महाराग में डूबे रहना -यही हैं - मेरे तन्मय आनन्द के क्षण जिन्हे किसी कीमत पर खोना नहीं चाहती , अंश मात्र भी गँवाये बिना ,पूरा का पूरा आत्मसात् कर लेना चाहती हूँ .उस तन्मयता में और कोई बोध नहीं रहता , .इस अपरिसीम का एकान्त का अंग बन सबसे अतीत हुई सी .अवकाश उन सबसे, अन्यथा ,जो मुझ पर छाये रहते हैं हर तरफ़ से घेरे रहते हैं . उनके न होने से मुझे कोई अंतर नहीं पड़ता ,काम्य हैं यही मुक्ति के क्षण, जब मन विश्राम पा सृष्टि के अणु-परमाणुओं में गुंजित अनहद में विलीन हो जाए ..
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मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

ट्राई कर देखिये ...

बाज़ार घूमते हमने एक दुकान पर नाम देखा - "रणजीत चप्पल्स' .

बड़ा ताज्जुब हुआ !चप्पल का रण जीतने से क्या संबंध ?
कुछ ग़लत पढ़ गये क्या -चरणजीत चप्पल्स होना चाहिये था .हो सकता है चरण का 'च' मिट गया हो किसी तरह. फिर से देखा- नहीं कोई निशान नहीं 'च' का .साफ़ रणजीत लिखा है .
चक्कर में पड़ गए हम! अरे, चप्पल की दुकान है नाम रखना था "चरणजीत चप्पल्स" जो चरण की सेवा कर उसे जीत लें. और ये हैं कि युद्ध जीतने के लिए उकसा रहे हैं .
रणजीत चप्पल्स ?
लेकिन ये ठहरे व्यवसायी लोग . बेमतलब तो नाम देंगे नहीं .
फिर सोचते रहे . एकदम ध्यान आया - रण का एक प्रकार चप्पलबाज़ी या जूतम-पैजार भी तो है- जो आजकल काफ़ी कॉमन है .और अक्सर ही जूता फेंकने की घटनाएं सामने आ रही है . जूता फेंका तो आसानी से जा सकता है पर उससे मारा-मारी नहीं की जा सकती .गया तो गया .ऊपर से,बनावट ऐसी कि कस पकड़ पाना मुश्किल -ग्रिप नहीं बनता(ट्राई कर देखिये) ,उतारने में समय लगे सो अलग. ताव आते ही फ़ौरन दे मारें, ये संभव नहीं. ज़्यादा से ज़्यादा दो बार फेंक लो ,और जूते कहां से लाओगे .पर चप्पल कितनी भी बार चला लो ,हाथ से कहीं नहीं जाएगी!
मतलब खरीदने के पीछे का उद्देश्य पहनना नहीं लड़ कर जीतना है. चप्पल चट् से उतारो और दे तड़ातड़! पकड़ने में छूट जाने का कोई डर नहीं. चाहे जितने वार करो . रण में आसने-सामने वार चलते हैं ,नहीं ,जूता वहां नहीं चलेगा .
रणजीत चप्पलें खरीदी हैं .पहन कर उसे टेस्ट करने की इच्छा बहुत स्वाभाविक है .अब तो मौका ढूँढेंगे कि डट कर प्रयोग हो .तो यह नाम दुकानदार ने सोच-समझ कर रखा है .लड़ाई में डट कर चप्पलें चलेंगी टूटेंगी ,जीत का सेहरा बँधेगा तो वो फिर यहीं से खरीदेगा .हो सकता है चप्पलों में कुछ ऐसा प्रयोग हो. जो प्रतिद्वंद्वी को चित्त करके ही छोड़े. तभी तो जीत की गारंटी दी है.
अच्छा है, दुकान की बिक्री हमेशा होती रहेगी .
सही नाम रखा है, अच्छी तरह ठोंक-बजा कर - रणजीत चप्पल्स .
देखना खूब चलेंगी चप्पलें !

शनिवार, 27 नवंबर 2010

वाह रे लड़के !

आगे बढ़ने के क्रम में जीवन-धारा क्या मज़ेदार वाक़ये पीछे छोड़ती चलती है !ऐसे छींटे उछालती है कि यत्न से जोड़ी हुई कथाएं उसके आगे फीकी पड़ जाएं. वैसे मानी हुई बात है- फ़ैक्ट्स आर स्ट्रेंजर दैन फ़िक्शन .लोग ईमानदारी से अपने सच्चे किस्से बयान करने लगें तो कहानियाँ रचने की ज़रूरत ही नहीं  .असली चटक माल अपने आप मिल जाए, संभावनाओं में भटकने की मजबूरी ख़त्म. पर क्या किया जाय बेलाग सच को कुबूलता कौन है !
खैर,छोड़िये. क्या फ़ायदा फिलासफ़ी छाँटने से ,सीधे अपनी बात पर बात पर आयें .

बात है 25-30 साल पहले की- शायद इससे भी पहले की .तब फ़ाउंटेन- पेन बच्चों के हाथमें नहीं आए थे - छोटे तीसरी-पाँचवीं के बच्चों के लिए तो एकदम अलभ्य . परीक्षाएं देने अपनी-अपनी दावातें ले कर जाया करते थे .स्वाभाविक है कभी किसी की स्याही फैल जाये या खत्म हो जाए तो उसे दूसरे से माँगनी पड़ती थी .दूसरा उसकी दावात में अपनी में से थोड़ी-सी स्याही उँडेल देता ,उधार के रूप में .अब बच्चों की बात ठहरी.लेन-देन ,उधार चुकाना सब अपने ढंग से
हमारी बहिन जी उन दिनों टूँडला में थीं ,उनका बेटा आठ-नौ साल का रहा होगा. दाहिने हाथ की उँगलियों की पोरें हमेशा स्याही से रँगी मिलती थीं -वो तो सभी बच्चों की .एक बार स्कूल से घर आया तो निकर स्याही से रँगा पैरों पर स्याही के दाग़ जैसे किसी ने धार बाँध कर डाली हो. बड़ा खीजा हुआ सा घर में घुसा .बहिन जी ने पूछा ,"ये क्या कर लाए,आलोक ?"आलोक फट पड़ा ,"ये उसी शालिनी ने किया है ..हम उसे मना करते रहे ,नहीं चाहिये ,नहीं चाहिये पर वह कभी किसी की नहीं सुनती ."
"पर हुआ क्या ,ये नेकर पर कैसे फैली स्याही ?"
"परसों उसकी दवात में स्याही खतम हो गई थी तो हमने दे दी थी . कल वो आई नहीं. आज आई ,तो हमसे कहने लगी अपनी स्याही ले लो ."
हमने कहा," रहने दो .हमें नहीं चाहिये."
"हाँ ,हाँ ,ज़रा सी स्याही .वापस लेने की क्या ज़रूरत", बहिन जी ने पुष्टि की .
"पर वो मानी नहीं .कहने लगी हम किसी की चीज़ नहीं रखते .तुमने दी थी ,अब तुम लो."
''हमने मना कर दिया .वो तो लड़ने लगी ,कहे- हम क्या बेईमान हैं ! तुम्हें अपनी स्याही लेनी पड़ेगी .''
"फिर कभी ले लेंगे .हम आज दवात नहीं लाए,"
"तो तुम हमारी दवात ले जाओ .हमारे पास और भी है ".
"हम तुम्हारी दवात क्यों लें ?"
''लेओगे कैसे नहीं जब हमने तुमसे ली, !"
''हमें नहीं लेना,'' कह कर हम चल दिये ,
वो तो पीछे दौड़ी,
''देखो,हम बेकार किसी से कुछ नहीं लेते ,तुम्हें लेनी पड़ेगी ".
"हमने कह दिया नहीं चाहिये. "
''तुम्हारे कहने से क्या होता .हमें तो देना है . हम तुम्हारी जेब में रख देंगे."
और स्याही की दावात हमारी जेब में रखने लगी .
हम रोकते रहे पर उसने जबर्दस्ती हमारी जेब में डाल दी.
खींचा-तानी में स्याही जेब में ही फैल गई .
जब उससे कहा ," ये क्या किया तुमने?"
उलटे हमी पे चिल्लाने लगी '',तुम्हारी स्याही ,हमने दे दी ,तुम्हारी जेब में फैली ,तुम्हारी वजह से ..हम क्या करें और भाग गई .
वो कभी किसी की नहीं ,सुनती ."
आलोक ने जेब से दावात निकाल कर दिखा दी उलटी कर के कि खाली है
"तो दावात तो जेब से निकाल देते !"
"कहीं वो देख लेती तो.. .इधर ही तो रहती है ."वह रुबांसा हो आया था
"..गलती उस की है ,हम क्या करते! " .
बहिन जी का और मेरा हँसी के मारे बुरा हाल .
वाह रे लड़के !
*

बुधवार, 17 नवंबर 2010

वाह टमाटर ,आह टमाटर !

*

जब हम छोटे थे तो टमाटर इतने नहीं चलते थे .हर सब्ज़ी का अपना स्वाद होता अपनी सुगंध,अपना रूप अपना रंग कहाँ ,अब तो सब टमाटर होता जा रहा है .

टमाटर की लाली बिना सब बेकार .

कोई चीज़ ऐसी नहीं दिखती जिसमें यह न हो .

कल एक पार्टी में जाना हुआ .मारे टमाटर के मुश्किल .

एक स्वाद सब में ,एक रंग टमाटर, टमाटर !

दाल में टमाटर सूप में तो चलो ठीक है ,कभी-कभी तो डर लगता है पानी में भी नीबू के कतरे की जगह टमाटर काट कर न डाल दिया हो .

छोले तो छोले ,.मसाले के साथ पेल दिए टमाटर .पर नवरात्र के प्रसादवाले छौंके हुए काले चनों मे भी घुस-पैठ .और लौकी की तरकारी पर हो गया अतिक्रमण, टमाटरों की हनक के नीचे उसका अपना स्वाद ग़ायब !

मुँगौरी की सब्ज़ी में देखो, तो टमाटर घुले ,पता ही नहीं लगता मुँगौरी है या कुछ अल्लम-गल्लम ,

कल घर पर मैंने बिल्कुल सादे मटर छौंके चाय के साथ नाश्ते के लिए, और मैं ज़रा दूसरा काम करने लगी.

वन्या ,अपनी भतीजी से कह दिया ,’ज़रा मटर चला देना, मैं अभी आ रही हूं .’

आई तो कहने लगी ,'बुआ ,मैंने सब ठीक कर दिया !आप ने मटर में टमाटर डाले ही नहीं थे मैंने डाल कर पका दिया.'

'अरे तुमने कहां से डाल दिये टमाटर तो थे नहीं .'

'वो जो प्यूरी रखी थी वह डाल दी ,नहीं तो क्या मज़ा आता खाने में !'

हे भगवान ,बह गई मटर की मिठास ,अब चाटो टमाटर का स्वाद ,

क्या कहती उससे कुछ नहीं कहा .

निगलना पड़ेगा मजबूरी में, सोंधापन डूब गया प्यूरी में ! .

मारे टमाटरों के मुश्किल हो गई है ,कभी-कभी तो लगता है चाय में नीबू की जगह टमाटर न पड़ा हो .

अरे इस बार तो गज़ब हो गया .टमाटर का पराँठा .रायते में टमाटर ,चटनी में ,अरे आलू की टिक्की  भी सनी पड़ी है.

कढ़ी में भी टमाटर. तहरी -खिचड़ी ,पुलाव कोई तो बचा रहे इसके अतिचार से .
अभी उस दिन अपनी राजस्थानी मित्र के यहां गई थी ,उन्होंने गट्टे की तरकारी बनाई थी (जो चाहे सब्ज़ी कहे ,मुझे तरकारी कहना ज़्यादा स्वादिष्ट लगता है ).

परोस कर बोलीं, ‘लो खाओ अपनी प्रिय चीज़ !’

चख कर मैंने पूछा,’ यह क्या नई तरह की कढ़ी है?’

खा जानेवाली निगाहों से देखती हुई बोलीं , 'ये गट्टे तुम्हें कढ़ी लग रहे हैं ?’

‘अच्छा गट्टे हैं ?’

मैं दंग रह गई बेसन के घोल में खटास घोल दी जाए -चाहे टमाटर की ही ,कढ़ी तो कहलाएगी !उसी में समा गए गट्टे ,क्या ताल-मेल है , और रंग ?पूछिए मत बेसन टमाटर का मिक्स्ड, दोनों का स्वाद चौपट.

और वे ऐसे देखे जा रही हैं जैसे मैं कोई अजूबा होऊँ .

अब कहाँ सुकुमार स्वर्ण-हरित भिंडियों का सलोना करारापन. वह देव दुर्लभ स्वाद  !उद्दाम टमाटरी प्रभाव सब कुछ लील गया ,उस रक्तिम शिकंजे में सब जकड़े जा रहे है .

हे भगवान, यह .सर्वग्रासी आतंक हमारे सारे स्वाद ,सारे रंग मटियामेट कर के ही छोड़ेगा क्या !

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सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

देवनगर की वर्ण-व्यवस्था.


देवनगर के वासी 
वर्णो मे पूज्य दो परम- वर्ण - एक ' ॐ' - सृष्टि का आदि स्वर ,दूसरा 'श्री- जो सारे सौन्दर्य एवम् समृद्धि को धारण कर हमें धन्य कर रही है को सादर नमन करते हुए ंमै इस देवनगर की वर्ण-व्यवस्था और वर्ण-व्यवहार की वार्ता-कथा प्रारम्भ करती हूँ ---
अपनी वर्णमाला,  देवनागरी के अक्षरों की ! कभी ध्यान दिया है आपने ?भरे-पुरे परिवारों का एक पूरा संसार बसा है । स्त्री-पुरुष -बच्चे ,देशी-विदेशी  सब मिल - जुल कर रहते हैं । सबकी अपनी आकृति ,अपनी प्रकृति है । आत्म- विस्तार करने की वृत्ति इनमे भी है - मात्राएँ लगाकर  ये लोग बड़ी स्वतंत्रता से अपने हाथ पैर फैला लेते हैं ,पर अपनी कालोनी में अपनी छतों के नीचे बड़ी सभ्यता से रहते हैं । पति-पत्नी  ,बच्चे ,बूढ़े सब तरह के लोग है एक दूसरे से निबाह कर चलने मे विश्वास करतेहैं । कभी-कभी अतिक्रमण होते हैं ,तू-तू मै-मै भी होती है फिर समझौता कर सब अपने-अपने काम से लग जाते हैं।
सबसे ऊपर महत्वपूर्ण लोगों का निवास है -फिर पाँच पंक्तियों मे ,पाँच-पाँच लोग बसे हैं ।नीचे की पंक्ति में आठ लोग लाइन से रहते -है यद्यपि उनमे आपस में परस्पर विशेष संबंध नहीं हैं । और तीन लोग संकर है ।वैसे तो कालोनी के सब लोग एक दूसरे से जुड़ने मे परहेज़ नहीं करते पर इन तीनो का रूप ही निराला है ,इसलिए इन्हे सबसे पीछे डाल दिया गया है । 
वी.आई.पी. लोगों की लाइन मे जो सोलह लोग थे अब उनमे से बारह ही दिखाई पड़ते हैं । चार  लम्बी-लम्बी दाढ़ी-मूछोंवाले वृद्ध थे ,उन्हे अधिकतर वृद्धाश्रम मे भेज दिया जाता है । कुछ का यदा-कदा आगमन होता रहता है । एक हैं ऋषि टाइप के । अक्सर आजाते हैं । पर उनके बड़े भाई  और दो जटिल दाढ़ियोंवाले आति वृद्ध लोग कभी दिखाई नहीं पड़ते - लगता है स्वर्ग सिधार गये ! ऋषि अपना प्रतीक - चिह्न यहीं छोड़े रहते हैं जिससे संसार का कल्याण हो सके। वैसे भी ये साधक टाइप के लोग इन लोगों की दुनियाँ में दखल नहीं देते। हाँ, विशेष पर्वों -अनुष्ठानो और संस्कृतमूल के शब्दों का काम उनके बिना नहीं चलता ।बाकी के बारह लोग आपस में रिश्तेदार हैं।
अ और आ सगे भाई हैं  उनकी छतें पास-पास हैं। दोनों का स्वभाव थोड़ा अलग है । इ और ई उनकी पत्नियाँ हैं ,दोनो बहुओं के एक-एक बच्चा है 'उ' और 'ऊ' । दोनो साथ खेलते हैं । शकलें तो देखिए ज़रा , लगता है छोटा बिना कपड़े पहने उठ कर चल दिया और बड़ा भी नंगा-पुतंगा उसके पीछे भागा ! नंग-धड़ंग एक दूसरेके पीछे भागे जा रहे हैं ऊं-ऊँ चिल्लाते ! बड़े रूने हैं । ज़मीन पर लुढ़कते-पुढ़कते रहते हैं ,उनकी मात्राएँ तो हमेशा ज़मीन पर पड़ी रहती हैं ।उनकी माएँ छोटी-बड़ी इ ,दोनों देवरानी-जिठानी बहुत व्यस्त रहती हैं । बच्चों को सम्हालती हैं किसी तरह , पर ज़मीन पर घिसटती , लड़कों की मात्राएं सम्हालना उनके भी बस का नहीं है । लोक-भाषावाले इन्हे बड़ा प्यार करते हैं ।बुला-बुला कर पास बिठाए रखते है ।उनका प्यारा उ हर जगह चलता है -खातु ,मातु ,सुनु ,जगु और तो और , ओ उन्हें नहीं रुचता । उसे हटाकर उ को चिपकाए रहते हैं जैसे मानो ,जानो ,चलो को -मनु,जनु,चलु बना कर। हमारी कामवाली र से तो बचती है पर उ उसका बड़ा लड़ैता है -खर्च को खच्चु कहती है।बड़ेवाले-ऊ- को भी प्यर करते हैं पर थोड़ा कम । जैसे ,मरयादू यादू  भोर को भोरू आदि .। आजकल लोग बड़ा समझ कर ऊ को अधिक मान दे देते हैं -मधु को मधू ! 
ये जो ए,ऐ है. थोड़े असभ्य टाइप के हैं। जब ये अकेले होते हैं तो और अक्खड़ हो जाते हैं तू-तुकार पर उतर आते हैं। हाँ, जब किसी के साथ आते हैं तो समुचित सत्कार पा जाते हैं । थोड़े झक्की हैं ,पर कभी बड़े सभ्य बन जाते हैं ।  जब बुलाए जाते हैं तो शान से तुर्रा लगाकर पहुँचते हैं। तब आया -गया को भी आए -गए बना कर सम्मान देने का काम करते हैं । ऐ फिर भी थोड़ा गंभीर है,इसलिए उर्दू-दाँ लोग ऐ का ज्यादा सत्कार करते हैं ,ए को धीरे से चलता कर देते हैं देखिए- 'ऐ ,मुसाफिर' मे । ओ,औ समझदार हैं ,दूसरों की इज़्ज़त करना जानते हैं ।ऊपर के कोने वाले दो घरों के लोगों में जरा नहीं पटती । अ बिन्दी लगाकर मगन हो गया है ।नक्शेबाज़ी पर उतरता है तो सिर पर चाँद -तारे लगा लेता है इसके नख़रे देखने लायक होते हैं। पीठ पर दो बिन्दियों का बोझ लादे अः से उसकी जरा नहीं पटती।अक्सर अकेला रह जाता है -अः । छोड़िये  उससे कुछ कहने का मन नहीं करता ,भगवान बचाए। दोनो बहुएँ इ,ई जब उसे देखती हैं तो मुँह दबा कर हँसने लगती हैं ।
इसके आगे काफ़ी बड़ी बस्ती फैली है -- बड़े कायदे से हरेक के वर्ग को ध्यान मे रखते हुए पँक्तियाँ बनाई गई हैं ।सुनियोजित ढंग से बसाई गई है ये देवनगरी । पाँच पंक्तियों के आगे आठ और तीन ,ग्यारह घर आखिरी छोर तक फैले हुए दिख रहे होंगे ! मिले जुले लोग है -बाद वाले तीन क्षत्रज्ञ जन्म से ही संकर हैं ,कोने मे बसा दिया गया है इन्हें । कुछ विदेशी भी घुस आए हैं उनको मकान नहीं एलाट किये गये । बड़ा इन्फ़ेक्शन फैलाये है कालोनी मे। अंग्रेज़ी शासन का फ़ायदा उठा कर एक तो वी.आई.पी. कालोनी में जा घुसा ,सिर पर टोप लगाए मुँह गोल-गोल करके बोलता है ऑफ़िस और कॉलेज में हमेशा दिखाई देगा ।
दूसरी लाइन के तीन लोगों को पहले छूत लगी ।उस समय की राज भाषा फारसी का असर इन पर आ गया । पहले क,ख,ग पर असर पड़ा - ग के गले मे बुरी तरह ख़राश होगई  वह गरगराने ।लगा,ख खाँसी से ग्रस्त हो खखारने लगा , क को कै हो जाएगी ऐसा अंदर से जी होने लगा।इसी वर्ग का घ घुघ्घू की तरह बैठा देखता रहा ,ये नहीं हुआ कि डाक्टर को बुलाये ।परिणाम स्वरूप आगे की लाइनो के दो लोगों तक छूत फैली और च- वर्ग का ज और प- वर्ग का फ भी उसकी चपेट में आगए ।इन लोगों को चिह्नित करने के लिए एक हकीम ने उन्हें नुक्ते दे दिए , जब जरूरत होती है चिपका लेते हैं। कभी तो लगता है कि उन तीनो को नुक्ते लगाए देख इन दोनो को भी शौक चर्राने लगा था ।झ झगड़ालू प्रकृति का ठहरा , ज बेचारा उससे अपनी रक्षा के लिए भी नुक्ता लगा लेता है ।इधर फ़ की लेकप्रियता नुक्ते के कारण इतनी बढ़ गई कि फ को दुनिया ने नकार ही दिया ! लोगों को लगता है फ अशुद्ध है फ़ ,शुद्ध -जबकि बात इससे ठीक उलटी है ।बिन्दी लगाने के शौकीन ड और ढ भी निकले -पर उसे लगा कर ड लड़खड़ाने लगता है,जैसे पाँव के नीचे रोडा आ गया हो । और ढ तो लुढ़क ही जाता है ।और ण के बारे में तो कुछ पूछो मत,बडा नंगा  आदमी है-एकदम बेशर्म है।श्लील -अश्लील का कोई विचार नहीं ।हो सकता है नागा साधु हो या दिगंबर जैन संप्रदाय का अनुयायी हो।कभी-कभी अपने रूप में कुछ परिवर्तन कर लेता है -र के साथ दो लंबवत् लकीरें जोड कर नई शक्ल अपना लेता है ।हो सकता है लोगों के कहे-सुने कुछ लिहाज आया हो , या सद्बुद्धि जाग गई हो ।
हाँ , उस विदेशी के आगे हमारा फ उपेक्षा का पात्र बन गया । मेरा भतीजा मेरे पति से कहता है 'फ़ूफ़ाजी' और अंग्रेज़ी मे भी एफ़ यू एफ़ ए लिखता है । मैने कहा,' फ़ूफ़ा नहीं फूफा होता है।' वह बोला ,'अशुद्ध बोल रही हैं बुआ जी ।' उसकी अम्माँ ने हिन्दी मे एम.ए. किया है और मुझसे काफ़ी बाद, उनकी नॉलेज तो मुझसे ज्यादा अप-टू- डेट होनी चाहिये! पर वह भी अपने लड़के को सही समझ रही थी। भाई भी पढ़ा-लिखा है ,मैने उसकी तरफ़ देखा , सोचा शर्म से सिर झुका लेगा । पर वह बेटे को गर्व से निहारे जा रहा था। मेरे कहने पर सिर झटक कर बोला ,'आजकल का ट्रेन्ड यही है।' नई पीढ़ी से भयभीत होगा बेचारा !
फ तो ऐसा त्याज्य हो गया है  जैसे उसमे फफूँद लग गई हो ,वैसे अब लोग फ़फूँद कहते हैं।  हमारी एक आदरणीया हैं,वे कालेज की सहायिका फूलमती को ' फ़ूलमती' कह कर आवाज़ लगाती हैं ,समझती हैं कि उनने उसे शुद्ध कर दिया , और हम कुछ लोग चुपके-चुपके हँसते कि उसे मूर्ख बना रही हैं ।   
मैं लड़कियों को पढ़ाती हूँ न! तो इस सब पर सोच-विचार करने का खूब मौका मिलता है । समाज के सभी वर्गों तक मेरी पैठ हो जाती है क्योंकि लड़कियाँ हर वर्ग की पढ़ने आती हैं।परिवेश और परिवार का प्रभाव भाषा पर पड़े बिना नहीं रहता। लड़कियों के नामो से मै उनके बारे मे बहुत सी बातों का पता लगा लेती हूँ । हर नाम कुछ सोचने-समझने का मौका देता है।एक बार क्लास में उपस्थिति लेते समय नाम आया-' वीना ' मै सोचने लगी यह क्या, न तत्सम  ,न तद्भव !'बीना' किसी तरह से शुद्द नहीं - वीणा होता या बीना होता ! कभी-कभी सोच मे लीन होकर मै मुँह से बोल जाती हूँ।
 सोचा लड़की से पूछूँ ,' वीना कहाँ है ?' वह नहीं आई थी ।
एकदम मुँह से निकल गया ,' यह तो संकर है !'
उसकी पक्की सहेली रही होगी खड़ी हो गई,' दीदी ,वह ब्राह्मण क्षात्रा है।' 
यह तो नया वर्ण निकल आया ,मुझे आश्चर्य हुआ - ब्राह्मण और क्षात्रा ?मैने कहा ,'क्षात्रा नहीं क्षत्रिया कहो।' 
मैं विचार कर रही थी पिता ब्राह्मण और माता क्षत्रिय होंगे ,मैने पूछा ,'उसके माता -पिता की इन्टरकास्ट मैरिज है ?'।
लड़की तो आई नहीं थी पर उसके घर ख़बर पहुँच गई।
दूसरे दिन उसकी माता-श्री अवतरित हुईं।
'दीदी जी, काहे बदनाम कर रही हो हमे ?'
'मैं क्यों बदनाम करूँगी ?क्या बात हो गई ?'
वह तो लड़ने पर आमादा हो गई, ' कल आपने उसे संकर कहा ?भरी किलास के सामने कहा हम ठाकुरों की बेटी हैं भाग कर बाम्हन से सादी कर ली ?--जरूर किसी ने उड़ाया होगा ,दुस्मनन की कमी है यहाँ ?असली कनौजिया बाम्हनन की बेटी हैं हम !'
'लड़कियों ने कहा था ब्राह्मण क्षात्रा है ।'
उसकी पक्की सहेली फिर खड़ी हो गई ,'आपने संकर कहा तो हमने बताया था कि ब्राह्मण है ।और इस्टूडेन्ट है तो क्षात्रा तो कहेंगे ही ।'
बड़ा बबाल हो गया उस दिन ! मैंने अपनी बात समझाने की हर तरह कोशिश की लेकिन --छोड़ो अब कहने से क्या फ़ायदा ? 
सही और शुद्ध के पीछे मेरी अक्सर ही लोगों से चख-चख हो जाती है।
दूसरे क्लास मे गई तो सोचा इन लोगों को बता दूँ क्षात्र और छात्र में क्या अन्तर है।मैंने मनोरंजक ढंग से शुरू करना चाहा,' क्यों भई, छ में क्या गन्दगी लगी है ,जो ज़बान पर लाने मे परहेज़ है ?नहाई-धोई लड़कियों को छ बोलते ही छूत लग जाती है?' बोलते-बोलते मैं सामने की ओर देख रही थी । एक लड़की को लगा मैं उससे कह रही हूँ। उसने पास बैठी वाली को कोहनी से ठहोका ,वह खड़ी होकर बोली ,' यह तो आज ही सिर धोकर आई है ।'
'अरे ,सिर धोकर क्यों आई है ?'
लड़कियाँ मुँह घुमाकर मुस्करा रही हैं ।
' मुँह घुमा लेंगी पर छ नहीं बोलेंगी,' हाँ,छूत लग जायगी न।'
' ऐसे मे उस तरफ़ बैठती हैं ' एक की आवाज़ आई ।
उसके इशारे की ओर मेरी निगाह गई -एक बेञ्च पर दो लड़कियाँ बैठी सकुचा रहीं थीं ।
वो छ बोल सकती होंगी मैंने सोचा, पर उन्हें और द्विविधा में डालना ठीक नहीं समझा।
यह छ है भी थोड़ा छिछोर टाइप का ,हर जगह जा घुसता है और क्ष को निष्कासित कर देता है। स्थानीय लोगों की तो ज़ुबान पर चढ़ा रहता है -अच्छर ,सिच्छा, राच्छस, लच्छिमी हर जगह छछूँदर सी पूँछ लिये हाजिर !अक्सर अपने साथ च को भी चिपका लेता है।च की वैसे है भी चिपकने की आदत!कुछ जरूरत से ज्यादा समझवाले असली छ से भी परहेज़ करते हैं।हमारी एक मित्र हैं ,नाम नहीं बताऊँगी वे बुरा मान जायेंगी , इच्छा को इक्षा कहती हैं। 
'ठ ' को तो देखो गठरी बाँधे है , बिल्कुल ठग जैसा।बड़ी जल्दी ठायँ-ठायँ पर उतर आता है।अपने पूर्ववर्ती को कुछ समझता ही नहीं। हरियाणा की औरतें 'उठा ले' को 'ठा ले' बोलती हैं और उनका ठ भी पहले से शुरू हो जाता है -उच्चारण निकलता है -'ठ्ठा ले !',इकट्ठा को कहेंगी 'कठ्ठा' । 'इ' की लोकप्रियता से ईर्ष्या करती होंगी ! सीधे-सादे वर्णों को तो कोई धरे नहीं गाँठता ! इन वर्णों में आपसी लाग- ड़ाँट चलती रहती है।य़ और ज मे खींच- तान मची रहती है,व और ब मे प्रतिद्वंदिता चलती है।बँगला भाषा के प्रभाव से ब बोलने का शौक बढ़ता जा रहा है-वासु को बासु विमला को बिमला वन को बन बोलना फ़ैशन में आगया है। ण और न आपस में उलझते हैं। उधर क और ख एक दूसरे की जगह हथियाने को तैयार रहते हैं । अक्सर ही ख की जगह क आ बैठता है -भूका, जिजमान  बस्तु गनेस वगैरा-वगैरा।अब तो व की भ से भी बजने लगी है लोग अमिताभ को अमिताव कहने मे ज्यादा शान समझते हैं या फिर उनके मुँह इतने कोमल होते होंगे कि भ के उच्चारण से छाले पड़ने का डर होगा।             
कुछ लोगों को स संदिग्ध लगता है श पर विश्वास है। पर अहिंसावादीलोग श की शक्ति से घबरा कर स को अपना लेते हैं। वे शंकर को संकर मानते है और शब्दों में 'सुसीला',' सुकुल', 'सायद' वग़ैरा का प्रयोग करते हैं।इधर हिंसा वृत्तिवाले संघर्ष को शंघर्ष कह कर समझते हैं कि उसकी भीषणता और बढ़ गई है।हमारी एक प्रभावशाली सीनियर, शासन को साशन कह कर परम संतुष्टि पाती हैं कि उनने शासन की सत्ता मे परिवर्तन कर दिया हैं।क और च वर्गों के कोनेवाले सदस्य ङ और ञ बुलाते ही मदद को दौड़ पड़ते थे । पर नकिया कर बोलने के कारण लोग उनसे बचने लगे ,उनकी जगह ऊपरवाले अं की बिन्दी छुटा कर लगा लेते हैं। 
अरे हाँ,ऊपरवाले दंपतियों की बात तो भूल ही गई मै !ये लोग हैं-दो भाई अ,आ और उनकी पत्नियाँ इ,ई । अ और इ दोनों पति-पत्नी बड़े परोपकारी हैं - अ ने तो जीवन ही सेवा में लगा दिया है । बिना कहे ख़ुद मदद को पहुंच जाता है।उसके बगैर तो सारे वर्णों की बोलती बन्द रहती है। उसकी पत्नी 'इ' बहुत शालीन, सुसंस्कृत महिला हैं ।जहाँ बैठती हैं सज जाती हैं। लोगों को वे इतनी अच्छी लगती है कि शौकिया उन्हे बुला कर बिठाए रखते हैं - देखिये- रहिता ,कहिता ,कैशिल्या अहिल्या इनमे  हर जगह छोटी बहू इ को बुला कर बैठा लिया गया है?आ और ई की भी राममिलाई जोड़ी है। दोनो तुनक-मिजाज़ !ई तो कुछ ज्यादा ही लम्बी है- शिरोभूषण पहनने की शौकीन! मिजाज़ ऐसा कि,हमेशा चिल्ला कर बोलती हैं । लोग इनसे बचने की कोशिश में रहते हैं।उनके पति 'आ' की भी चीख -पुकार मचाने की आदत है।दोनो हमेशा कुहराम मचाये  रहते हैं !
वैसे ऊपर वाले सारे ही लोग हमेशा औरों की मदद के लिये  दौड़ते रहते है।मजबूरी में खुद नहीं जा पाते तो अपनी मात्राओं को भेज देते है।बाहरवाले नये लोगों को मात्राओं में भ्रम हो जाता है ।इस बारे मे मेरे पति ने  अपनी एक अलग ही थ्योरी बनाई है - -
मात्रा छोटी होने पर, महत्व और आकार छोटा- जैसे चिटी ,चिंटी,च्यूँटी ,चींटी और चींटा इन पाँचों  का अंतर देखिये ,चिटी -(छोटी इ है और बिन्दी भी नहीं है)सबसे छोटी, जोआँखो को बड़ी मुश्किल से दिखाई देती हैं। चिंटी -(छोटी इ होते हुए भी इसमे बिन्दी लगी है)जरा सी बड़ीवाली जिसमे दो बिन्दु स्पष्ट दिखते हैं ,तीसरी है च्यूँटी-जैसे किसी ने चिकोटी काट ली हो ,इसी से शब्द ' च्यूँट लेना ' बना है। चींटी-(बड़ी ई के साथ बिन्दी भी है) उससे भी बड़ी जो,हर जगह लाइन बनाये  चलती दिखाई देती हैं,अन्त मे चींटा -खूब बड़ा ,ऊँचा-पूरा,उसे आप सब जानते हैं।। लघु और दीर्घ मात्राओं के प्रयोग से सब के रूप स्पष्ट हो गये।।इसी प्रकार उ और ऊ मे भी उन्होने अंतर किया है । वे रामपुर ,रुद्रपुर मे तो उ लगाते है पर सिंगापुर,को सिंगापूर लिखते है, कहते हैं ,'इतना बड़ा नगर है ,छोटी मात्रा कैसे लगेगी?' ,ऐसे ही नागपूर,कानपूर !शादी के पहले मै शाजापुर मे थी,ये पते मे हमेशा शाजापूर लिखते थे। मैंने कहा इसमे छोटा उ है,कहने लगे,'अरे वाह ! तुम रहती हो ,उस जगह को छोटी कैसे मान लूँ?' मेरा भाई जब लिफ़ाफ़े पर शाजापूर लिखा देखता तो मेरी ओर देख कर खूब हँसता।मैं क्या करूँ ?कोई मै तो इन्हे ढँढने निकली नहीं थी ,तुम लोगों ने खोज निकाला ,अब तुम्हीं निपटो !
खोज की बात पर और बताऊँ -मेरी मित्र है विशाखा ,मेरे पति उसे कहते हैं-विषाख़ा और लिखते भी ऐसे ही हैं- ख के नीचे बाकायदा नुक्ता लगाकर । कहते हैं यही शुद्ध है(उर्दू पढ़े है,शुरू से)।मै तो चुप लगा जाती हूँ इस डर से कि कहीं ये ख़ा के ऊपर भी बिन्दी न लगा दें! ख़ैर , 
 वे विभीषण को 'भिभीषणजी' कहते और मानते है. 
 मैंने बताया,' विभीषण नाम है उसका ,भिभीषण नहीं .' 
बोले,' वह राक्षसकुल का है व में नहीं भ में भयंकरता होती है।
' तब फिर बाद में जी काहे लगाये हो ?'
' बाद में वह राम के पक्ष में चला गया इसलिए शाबाशी के लिये बाद में ‘जी’ लगा दिया .'
क्या किया जाय सबकी अपनी-अपनी मति!
अपने पड़ोसी के जसोदा को मैने यशोदा करवा दिया ।अब वे जादू को यादू और जंग को यंग कहने लगे, कहते हैं -अगर जशोदा में ज का य हुआ है तो यहाँ भी होना चाहिये। ऊपर से सबसे कहते-फिरते हैं मैंने बताया है।
इधर नीचे की लाइन वाला 'र' पक्का बहुरूपिया है-कभी तुर्रा लगा लेता है कभी ,कमर मे पटके-सा बँधा ,कभी पावों मे अटका ।अरे यह तो बूढ़े बाबा ऋ की भी नकल उतारता है फिर झट् से छोटी इ की ओट ले लेता है।
सबका अपना-अपना स्वभाव !आपस में खींचातानी और अतिक्रमण होते हैं ,तू-तू मैं-मैं भी चलती है पर फिर सब शान्ति से रहने लगते है। समझ गए है न कि रहना यहीं है,इन्ही सब के साथ !
सज्जनों,वर्ण- व्यवस्था और व्यवहार की चर्चा कर इस समाज को गुमराह करने का मेरा इरादा कतई नहीं है ।मेरा विषय वर्णों से संबद्ध है इसलिये अपनी बात कहना सुझे लोकतंत्र सुलभ अधिकार लगा।आप को लगे इससे वर्णो में दुर्भावना  या भेद-भाव उत्पन्न होगा तो कृपया ',सभी वर्ण एक समान हैं जिसके मन में जैसा आये बेधड़क लिखे ' का नारा दे दें !
- प्रतिभा सक्सेना
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मंगलवार, 28 सितंबर 2010

विलक्षण अनुभव

आनेवाली घटनाओं का आभास कई बार मुझे हुआ है ।

मेरे सबसे बड़े भाई ज्ञानेन्द्र सक्सेना घर -परिवार को त्याग कर वाजपेयी जी के साथ संघ के सक्रिय कार्यकर्ता रहे थे ।लखनऊ से निकलनेवाले पाञ्चजन्य नामक पत्र का संपादन उन्होने कई वर्षों तक किया था (पाञ्चजन्य के इतिहास में उनका नाम अंकित है)।संघ के कार्यों के प्रति निष्ठावान रह कर उन्होंने विवाह से इन्कार कर दिया था और घर से उन्होंने कोई मतलब नहीं रखा ।बाद की स्थितियों मे संघ से उनका मोह भंग हो गया और वे विक्रम वि.वि. उज्जैन में अंग्रेजी के प्रवक्ता नियुक्त हो गये थे।हम लोगों के बहुत कहने पर वे विवाह के लिये तैयार हुये और 1959 में उनका विवाह हुआ पर दो महीनों के अंदर ही (भाभी जी की दूसरी बिदा भी नहीं हुई थी) स्टोव दुर्घटना में उनका स्वर्गवास हो गया।

मेरा विवाह हो चुका था और हम मुज़फ़्फ़रनगर में थे।जब उनके ववाह में गई थी उन्हें निमंत्रित कर आई थी कि मेरे घर ज़रूर आइयेगा। एक रात मुझे स्वप्न आया कि दादा आये हैं ,उनके माथे पर सुइयाँ चुभी हैं ,रक्त बह रहा है ।मुझे बड़ा दुख लगा ,उज्जैन से इतनी दूर मेरे भई इतने कष्ट में आये । रास्ते में कितने लोगों ने देखा होगा किसी से यह नहीं हुआ कि सुइयाँ निकाल कर दवा लगा दे ।इतने में नींद खुल गई और फिर मैं सो नहीं पाई ।दोपहर बाद ख़बर आ गई कि ज्ञान दादा नहीं रहे ।

पहले मेरे साथ अक्सर यह होता था कि स्वप्न में मै अक्सर ही किसी कक्षा में न जाने कौन सी भाषा में धारा प्रवाह बोलते -बोलते अचानक जाग जाती ,जागते जागते भी कुछ शब्द मुँह से निकलते रहते थोड़ी देर वह भाषा ध्यान में रहती थी फिर सब भूल जाती थीकई बार मेरे पति पूछते हैं तुम किस भाषा में इतने लंबे-लंबे वाक्य बोल रहीं थीं । मुझे ऐसा भी लगता है कि बहुत सी बातें मैंने जानी हैं मेरा मस्तिष्क समझता है पर क्या हैं वह अस्पष्ट रह जाता है.

विचित्र देवालयों में घूमती हूँ । एक बार सागर के किनारे बहुत रमणीय परिवेश में लक्ष्मीजी सक्षात् मेरे सामने खड़ी थीं ,मैं उन्हें देख कर सोच रही थी ये सागर-कन्या हैं इसलिये इनके तन की कान्ति श्यामल है ।उन्होंने मुझसे कहा ,'बोल ,क्या माँगती है ?' मैं विचार करने लगी धन ,पद ,यश सब समाप्त हो जानेवाली चीज़े हैं माँग कर क्या करूँगी मुँह से निकला,'जन्म-जन्मान्तर तक मेरी आत्मा का कल्याण कीजिये ।'

वे मुस्कराईं और बोलीं ,'अच्छा पुत्री, तो अब मैं चलती हूँ ।

'और ओझल हो गईं।

,मुझे याद है बचपन के वे स्वप्न ,जब श्री कृष्ण अपना पीतांबर फैला कर उड़ते- उड़ते गिरती हुई मुझे सम्हाल लेते हैं।और चतुर्भुजा देवी मेरे साथ खेलने आई हैं ,मैंने उनसे पूछा ये चार हाथ कैसे हैं ,वे मुस्कराईं और ऐसे ही है कह कर टाल गईं । लेकिन यह सब किसी को बताने की बातें नहीं हैं।कई बार बहुत सुन्दर स्वप्न आते हैं ,जैसे मैं ब्रह्मपुत्र के तट पर खड़ी हूँ और बंगाल की खाड़ी तक का सुरम्य दृष्य,ग्राम ,नगर ,वन ,पर्वत ,नदियों से युक्त प्रकृति का रमणीय मुक्त विस्तार मेरे सामने फैला है । बहुत आनन्द पूर्ण मनस्थिति में मैं उन्मुक्त विचरण कर रही हूँ ।

एक अनुभव तो बहुत विलक्षण है।मेरी बहुत घनिष्ठ सखी थी विशाखा ,उम्र में मुझसे कुछ साल बड़ी ।हम दोनो ने निश्चय किया था कि इस संसार से जो पहले बिदा ले वह दूसरी से संपर्क कर ले ।दुर्भाग्यवश विशाखा का देहावसान पहले हो गया ।मेरे पास सूचना आई तो मैंने मन ही मन कहा,अरे विशाखा, हम दोनो के बीच जो निश्चय हुआ था तुम मिलने की बात भूल कैसे गईं ?और रात को वह आई । स्वप्न में नहीं सच में वह मेरे समाप आई और बैठ गई ।हमलोग काफ़ी देर बातें करते रहे ।फिर मैंने कहा -विशाखा तुम तो चली गईं ,मेरे लिये कितना और समय शेष है।उसने बताया।और कुछ देर बाद वह चली गई ।फिर वह कभी मुझे नहीं दिखी।

कंप्यूटर पर ओ.ओ.बी.ई.खूब विस्तार से पढ़े।मन में बार बार प्रश्न उठने लगे पता नहीं मेरा अगला जन्म कैसा होगा ।एक रात मैंने अपने अगले जीवन की झलक पा ली।उस समय मेरी मनस्थिति जैसी गहन शान्ति और आनन्द से विभोर थी वैसा अनुभव अब तक कभी नहीं हुआ था।बहुत दिनों तक वह आनन्द मन में उदित होता रहा ।अब भी उसका कभी-कभी आभास हो जाता है।

1996 में मेरा एक्सीडेन्ट हुआ था।मेरी कुहनी की हड्डी तीन जगह से टूट गई थीऔर तीन महीने मेरा हाथ ऊपर की ओर कर के वहीं सधा रहे इसलिये डोरी बाँध कर ऊपर तान दिया गया था !हाथ को उसी स्थित में रखते हुये सारे कार्य संपन्न करना असुविधापूर्ण तो रहा पर हाथ को ऊपर ताने हुये सोना मेरे लिये वैसा कष्टकर नहीं रहा ।अक्र्सर ही जब मै सो जाती थी तो मुझे लगता था मेरा हाथ अत्यंत सुविधापूर्ण स्थिति में मेरे ऊपर रखा हुआ है कभी आदतन मेरा दूसरा हाथ उस हाथ को छूने की आवश्यकता अनुभव कर उस ओर पहुँचता था बस तब ही पता लगता अरे वह तो ऊपर बँधा हुआ है!

एकाध बार भयानक दुर्घटना से भी बची हूँ ,ऐसा लगा जैसे किसी ने सम्भाल कर एक तरफ़ कर दिया है !मुझे लगता है जैसे कोई मेरे साथ है जो विषम क्षणों में मुझे साधता है,सहारा देता है ।मुझे विश्वास है जब तक मेरा मन स्वच्छ रहेगा वह मेरे साथ रहेगा !
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बुधवार, 1 सितंबर 2010

मै़ गोपी भी नहीं ---

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पता नहीं इन गोपियों की अम्माएँ नहीं होती होंगी जो जंगलों मे कृष्ण के साथ बेधड़क घूमती-फिरती थीं!बंसी की आवाज़ सुनते ही घर से भाग निकलती थीं।यहाँ तो हमारी अम्माँ बात-बात मे रोक-टोक करती हैं।न उनके भाई-बहिन होते होंगे जो ज़रा-ज़रा सी बात जाकर अम्माँ से जड़ दें !  हमारी तो अम्माँ हर दो मिनट बाद आवाज़ लगा लेती हैं,कभी ,'विमला ,जरा आलू भर के रख दे।'कभी ,'नन्हे को दूध की बोतल दे दे।' नन्हे को दूध देने की बात पर उसे ध्यान आया -गोपियों की अम्माएँ अपने बच्चों को कोई ऊपर का दूध थोड़े ही पिलाती होंगी।तब तो खूब बड़े-बड़े हो जाने तक मांएँ बच्चों को अपना दूध पिलाती थीं।दादी ख़ुद बताया करती हैं -बाबू ने पूरे छः लाल उनका दूध पिया था।
सब लड़कियाँ पहन-ओढ़ कर गगरी सिर पर धरे जमुना तट पर जाती होंगी-कैसा अच्छा लगता होगा ! कपड़े उतार कर नहाती होंगी। आगे चीर-हरण की कल्पना पर तो उसे रोमाञ्च हो आया।तब जमुना जी के किनारे लोग नहीं रहते होंगे ! लोगों की तादाद तो अब इतनी बढ़ गयी हैं ,हमेशा हल्ला मचा रहता है।अब तो हर जगह कोई-न-कोई मौजूद होता है। कोई ऐसी जगह ही नहीं बची जहाँ आदमी-औरतें न दिखाई देते हों। हो सकता है  तब लड़कियों-औरतों के नहाने के टाइम आदमियों को उधर आने की मनाही हो!..... हमारे ज़माने की कोई बुढ़िया ये सब देख लेती तो क्या-क्या अनरथ नहीं हो जाते ! माँ-बाप घर से झाँकना तक बन्द कर देते !,बाहर निकलना तो दूर !
उसे बड़ा विस्मय हुआ -गोपियों के घर के लोग क्या कुछ नहीं जानते होंगे ,या जानकर भी कुछ नहीं कहते होंगे ?
विमला गाल पर हाथ टिकाए बैठी सोचती रही -कृष्ण के जाने के बाद गोपियों ने उद्धव को खूब जली-कटी सुनाईं।अब तो मजाल है जो अपने प्रेमी के बारे मे किसी से बात भी कर लें !अम्माँ-बापू सुन लें तो जान ही ले डालें ,सच्ची ! उसने गहरी साँस छोड़ी।
खूब उलाहने दिये ,मन की भड़ास लिकाल ली पूरी।इत्ती आज़ादी तो थी उन्हें ! तब के लोग विरह पर इतना ध्यान भी तो देते थे ।अब तो किसी के विरह में कोई चाहे जित्ता दुखी हो, दुनियाँ कभी समझेगी नहीं  ।और तो और सब लोग हँसी उड़ाने ,बदनाम करने तक को उतारू हो जायेंगे। अब तो दुनिया ही बदल गई है जैसे!पहले विरह के दिनों मे किसी से काम नहीं कराया जाता था। लड़कियाँ खाली बैठ कर वीणा बजाती ,चित्र बनाती और मनचाहा रोती थीं।सब को उनसे सहानुभूति होती थी,मना-मना कर खिलाते- पिलाते थे। उन के सुख केलिये हर तरह का इन्तज़ाम करते थे। अब कौन पूछता है चाहे मर ही जाओ। ऐसे विरह से भी क्या फ़ायदा कि कोई जाने ही नहीं ? और कहीं अम्माँ को पता लग गया तब ? विमला का तो दम खुश्क हो गया ।उसका दिल टूट गया।
अब प्रेम करने का ज़माना ही नहीं रहा । शादी कर के घर बसा लो,बस फँस जाओ हमेशा को ।यही तो मुश्किल है!उसे शादी करना नहीं अच्छा लगता । दुनिया भर का जंजाल !,कहीं स्वतंत्रता नहीं !ऊपर से कित्ता काम करना पड़ता है ,दुनिया भर के दबाव अलग! हर बखत की नौकरी और जहाँ दो-चार बच्चे हुए हुलिया ही बिगड़ जाती है। प्रेम मे बच्चों-अच्चों का झंझट नहीं,न खाना बनाने की ड्यूटी न दुनिया भर की जिम्मेदारी!
लेकिन विमला को मौका ही कहाँ लगता है प्रेम करने का? वह जो भाई के दोस्त आते हैं कभी-कभी ,लम्बे से देखने मे भी अच्छे ,उनसे कई बार उसने बातें की हैं।भाई की अनुपस्थिति मे कई बार देर-देर तक उनके चेहरे को देखती रही ,फिर पलकें झुका लीं, फिर देखने लगी ,हर तरह जताने की कोशिश की ,पर वे ऐसे बेवकूफ़ आदमी कि कुछ समझे ही नहीं ! आगे शायद कुछ होता ,पर अम्माँ ने उसे एक दिन बुरी तरह झिड़क दिया ,'शरम नहीं आती तुझे जो दीदे फाड़-फाड़ कर उसे देखती रहती है? मत जाया कर किसी के सामने।'
और विमला बुरी तरह सिटपिटा गई थी। अम्माँ के क्या चार-चार आँखें हैं जो सब-कुछ जान लेती हैं? घर पर तो प्रेम करने का मार्ग ही उसके लिए अवरुद्ध हो गया। फिर दो महीने बाद भाई के उस दोस्त की शादी हो गई। कैसी निराशा से भर गया था विमला का मन ! कभी कोई समझा नहीं मेरे दिल की बात! हो सकता है भाई और पिताजी के डर के मारे कोई उससे प्रेम करने की हिम्मत नहीं कर पाता हो! इधर उसके सिर पर सवार हैं अम्माँ जो किसी को थोड़ा-बहुत रास्ता दिखाना भी असंभव!
किताबों में पढ़ा है प्रेम मे चाहे जो हो सब अच्छा लगता है। लोगों को देखो प्रेम के इतने गुण गाते हैं पर किसी के करने पर आसमान सिर पर उठा लेते हैं। पता लगने पर खूब हल्ला मचता है ,लानत- मलामत पोती है ,तारीफ़ करना तो दूर की बात! वैसे अम्माँकन्हैया जी की पूजा करती हैं,गोपियों के गुण गाती हैं;पर अपनी लड़की को गोपी बनते नहीं देख सकतीं!उसकी तो बस शादी करेंगी ! शादी के नाम से विमला को पता नहीं कैसी चिढ़ है। अम्माँ कोतो उसने खुद बाबू को ताने देते सुना है।अक्सर ही शिकायत करती हैं 'शादी के बाद मैने कौनसा सुख उठाया ?पहले सास-ससुर की चाकरी की ,देवर ननदों को ब्याहा  फिर अपने बच्चों कीजिम्मेदारी सम्हाली ! सारी ज़िन्दगी खटते ही बीती ।'
ख़ुद अपनी शादी को कोसती हैं और फिर भी मेरी शादी के फीछे पड़ी हैं ,वह भी किसी अनजान जाने कहाँ के लोगों मे। पता नहीं कैसे-कैसे दिमाग़ के लोग हैं।मैने तो शादी करके किसी को संतुष्ट नबीं देखा!उसे अपनी सहेली की बड़ी बहिन का ध्यान आ गया। उसके आदमी ने छोड़ दिया है -दो बच्चे भी उसी की जिम्मेदारी ।शादी बिना हुए कोई छोड़ देता तो विरह सताता,रोती गाने गाती ,ताने देती हल्की हो लेती ।अब तो दोनो बच्चे पालती है ,घर-बाहर दोनो जगह काम करती है और लोगों की बातें सुनती है ।शकल भी तो कैसी अजीब -सी होगई है। प्रेम करनेवालों की ऐसी शकल नहीं होती होगी जैसी शादी करनेवालों की हो जाती है।
विमला बहुत ढूँढती पर उसे प्रेम करने का कोई रास्ता नज़र नहीं आता।घर पर तो करने की उसकी हिम्मत अब नहीं है-अम्माँ की आंखों के आगे उसका सारा नशा हिरन हो जाता है। स्कूल जाती है तो साथ लगी रहती है छोटी बहिन -शीला! लड़कियों का स्कूल ,वह भी कितनी सी दूर-घर से लिकलो और पाँच मिनट मे स्कूल ! शीला को तो अम्माँ कभी घर पर भी नहीं रोक लेतीं जो कभी अकेली जाने को मिले! कभी काम होता है तो विमला को ही रोकती हैं और शीला अकेली स्कूल चली जाती है-चुड़ैल!एक बार जब शीला बीमार पड़ गई तो अम्माँने तीन-चार दिन विमला को भी नहीं जाने दिया। बाद मे स्कूल की नौकरानी को कहला भेजा जो उसे साथ ले जाती और छोड़ जातीथी। ग़ज़ब हो गया ।कभी ये नहीं कि अकेली विमला कहीं जा सके ।हर बखत जैसे पहरा सा लगा रहता है। एक गोपियाँ थीं दिन-रात घूमती थीं -किसी की चिन्ता नहीं ।
यहाँ तो मरा स्कूल भी ऐसा है कि कहीं झाँकने का मौका नहीं । ऊपर से और पढाई! चिट्ठी लिखना -पढ़ना कब का आ गया है-क्या फायदा और पढ़ने-लिखने से?अकबर की नीति ,शेरशाह का शासन प्रबन्ध और दुनिया भर के युद्ध!हमे इनसे क्या लेना-देना है?लाभ-हानि ,ब्याज हमारे किस मतलब की ?  भिन्नों  से तो दिमाग और भिन्ना जाता है।टीचर पढ़ाती हैं तो कक्षा मे मन नहीं लगता ,गोपियों के साथ जंगल-जंगल भटकता फिरता है।अभी कहीं बँधा नहीं है मन ,भटकेगा नहीं तो और क्या करेगा?इन सबसे क्या कहीं छुटकारा नहीं?विमला के छोटे से मुख से बड़ा लम्बा निःश्वास निकल गया!
'हाय, वे भी कैसे मस्ती के दिन होंगे! न बिजली की रोशनी न किताबें घोटने का झंझट ! अँधेरे मे कहीं घूमते फिरो ! कोई पहचाननेवाला नहीं।अब जैसे इत्ते बड़े-बड़े शहर भी तब नहीं होते थे।वे छोटे-छोटे गाँव जिनमे नदियाँ बहा करतीं थीं  । गाँव के चारों ओर कुञ्ज , पेड़ों के झुर्मुट , कहीं विरल कहीं सघन वन !कहाँ चले गये वे दिन, वे लोग!गायों को पालनेवाले घर ।न स्वेटर बुनने पड़ते थे न और काम सीखने पड़ते थे।अब तो आधी ज़न्दगी पड़ने-लिखने में ही निकल जाती है।सबसे अच्छे मौज मनाने के दिन ,निर्जीव पुस्तकों की कैद मे,कैसा अन्याय है !
एक दिन विमला ने अपनी सहेली से कहा,'हमे नहीं अच्छा लगता ये इतिहास -भूगोल।तू ई बता ये सब पढ़ने से क्या फायदा है?'
'पता नहीं क्यों पढ़ाते हैं? ' नादान सहेली ने जवाब दिया ,'सब पढते हैं इसलिये हमे भी पढ़ना पड़ता है।'
'अरे,बेकार है सब ! लड़कियों के दिमाग को बेकार उलझाये हैं।गोपियाँ तो कुछ भी नहीं पढ़ी थीं।'
               'कौन गोपियाँ?'
'कैसी बुद्धू है ' ,विमला ने सोचा ,कृष्ण- गोपियों को नहीं जानती ! अपनी साथिन की बेवकूफी पर उसे बड़ा तरस आया ,पर समझाना उसने बेकार समझा ।बताने से क्या फायदा जब यह ख़ुद ही नहीं समझती ! और मान लो मै उससे कहूँ भी और वह औरों से जड़ दे तो  ? हाय राम !उसने जीभ काट ली।
एक दिन स्कूल मे उनकी टीचर ने एक लड़की का ख़त पकड़ लिया-वही सब बातें लिखी थीं जो प्रेम मे लिखी जाती हैं । जलना,तड़पना नीद न आना पूरा पढ़ पाने का मौका कहाँ मिला था ।बीच मे ही टीचर ने झपट लिया कि तुम लोगों के पढ़ने का नहीं है।उस लड़की की तो खूब डाँट-फटकार हुई और सब टीचरों ने कैसे मज़े ले-लेकर पढा उस प्रेम-पत्र को!
'छी.छी कैसी पापिने हैं सब की सब !' उसे बड़ा गुस्सा आया था - अपना प्रेम-पत्र होता तो सात पर्दों मे छिपाकर रखतीं और दूसरे के की ये बेकदरी ! फिर तो हद्द हो गई!वह खत हेडमास्टरनी के पास पहुँचाया गया और उन्होने भी ऑफिस मे बुलाकर मोहिनी से जाने क्या-क्या कहा ! उस लड़की को तो लगा ही होगा पर विमला को बहुत,बहुत बुरा लगा।सच ही कलियुग है उसने सोचा।
उस लड़की को वह सान्त्वना देना चाहती थी,उसके प्रेम का खुलासा हाल उससे पूछना चाहती थी ।पर यह भी वह न कर सकी!कहीं टीचर ने देख लिया और अम्माँ से जड़ दिया तो..! बाद मे उस लड़की का स्कूल आना ही बन्द हो गया । नाम भी कट गया उसका ! दुनियामे जहां प्रेमियों नाम अमर हो जाता था,अब स्कूल से भी कटने लगा ! हाय, ये दुनिया प्रेम की दुश्मन है! उस प्रेमिका और प्रेमी का क्या हाल होगा ,उन पर क्या बीती होगी- यह सोच-सोच कर ही विमला को तीन-चार रात नींद नहीं आई।उसका कलेजा मुँह को आरहा था।ये टीचरें भी प्रेम की महिमा नहीं समझतीं,इनका पढ़ा-लिखा बेकार है।
सुना था मोहिनी की अम्माँने उसकी खूब मरम्मत की और अब जल्दी ही उसकी शादी कर देंगी -अपढ़ ,कुरूप लँगड़ा जैसा भी लड़का मिले।कहती हैं कालिख लगा दी मुंह पर ।प्रेमी कुल को उजागर करते हैं कि कालिख लगाते हैं?मत कट गई है सब की! कबीर ने अपढ़ हो कर प्रेम की महिमा गाई है।ऐसी-ऐसी बातें लिखगए कि पढ़ों-लिखों के दिमाग उलझ जायँ ।यह प्रेम की महिमा है।प्रेम के बाद सब बातें ऐसे आ जाती हैं जैसे सूरज के साथ किरणें।पर कितनी रुकावटें हैं यहाँ ? लड़कियों के स्कूल यहाँ तो लड़कों के आधे मील दूर ! आपस मे मिलने ,बोलने पर भी प्रतिबन्ध !मोहिनी फिर भी जोरदार निकली  । बैठी विरह तो कर रही होगी।एक मै ! बैठी हूँ बिल्कुल बेकार!
विमला की हिम्मत ही पस्त हो गई।कोमल दिल पर चोट लगी तो आँसू भर आए ।क्या ज़िन्दगी है।गोपियों के प्रेम-प्रसंग सुन कर जी मे हूक उठती है । घंटों बैठी उनके सुखी जीवन की कल्पना किया करती है!
'हाय मै भी गोपी होती !' मन मे एक आशा कौंधी - शायद होऊँ१शायद मैने भी कृष्ण के साथ वे लीलाएँ की हों ! फिर दूसरा विचार उठा - कहाँ ? मै गोपी होती तो मुक्त हो गई होती ,फिर यहाँ जन्म लेने क्यों आती ।'
हाय, मैं गोपी भी नहीं !
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गुरुवार, 19 अगस्त 2010

कुँवारे क्यों

*
(यह आलेख उस समय लिखा गया था जब कलाम साहब भारत के राष्ट्रपति थे ,अटल जी प्रधान मंत्री और कुमारी मायावती उत्तर-प्रदेश की मुख्यमंत्री .)
*
मेरी मित्र निरुपमा की पुत्री का विवाह था।लडकी की शादी , काम की क्या कमी !हफ्ते भर पहले से हाथ बटानेवालों का आनाजाना शुरू हो गया था ।रिश्तेदार -संबंधियों का आना होने लगा था ।घर में हर समय हलचल मची रहती थी ।नये-नये आने वालों को हर काम तो दिया नहीं जा सकता था ।दुल्हन के जेवर कपडों और सन्दूक सँभालने की जुम्मेदारी निरुपमा ने मुझे सौंप दी थी ।लिस्ट बनाना,हर चीज व्यवस्थित है या नहीं ,कपडों के मैचिंग सेट बनाना ,कहीं कुछ अधूरा तो नहीं रह गया ,क्या -क्या कहाँ-कहाँ से आना है ,भिन्न-भिन्न अवसरों पर दुल्हन क्या पहनेगी उसका पूरा प्रबंध करना मुझे सौंप दिया गया था ।परिवार के दो लडकों और मीता की सहेली शिखा मेरी सहायता के लिये तैनात थीं ।डाइनिंग हाल में एक स्टोर टाइप का कमरा था ,कमरा क्या कोठरी, जिसमें खास-खास सामान रखा जाता था । जेवरों के पिटारे और सन्दूकवाली इस कोठरी की चाबी हमेशा मेरी कमर में खुँसी रहती थी ।डाइनिंग-हाल में हर समय कोई न कोई मौजूद रहता था ,और खाने -नाश्ते के समय तो कुर्सियाँ भरी ही रहती थीं ।मैं अक्सर अपनी चाय नाश्ता अन्दर ले लेती थी ,खुला हुआ सामान बार-बार कौन बन्द करे रितु और निमा मेरी सुविधा का ध्यान रखती थीं ।
परिवार के बुजुर्ग पहले राउंड में भोजन कर जाते थे ,अगली पीढी के खाने का कार्यक्रम बाद में हा-हा हू-हू के साथ देर तक चलता रहता  था । शादी का मस्ती भरा माहौल ,भोजन से ज्यादा रस वे बातों में लेते थे ।।लडके -लडकियाँ मिल कर एक-दूसरे की खिंचाई कर रहे थे ।बात-बात पर ठहाकों का शोर !ऐसे ही चर्चा छिड गई ए.पी.जे. कलाम साहब और अपने वाजपेयी जी की ।उस समय उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती थीं ।
नितिन ने कहा ,'पता नहीं अपने वाजपेयी जी कुँवारे क्यों रह गये ?'
'अरे भई ,हिन्दुस्तान में लडकियों का परसेन्टेज ,लडकों से बराबर कम होता चला जा रहा है ।कुछ को तो कुँवारा रहना ही पडेगा ।वाजपेया जी ने उदाहरण पेश किया है ।'
'ये बात नहीं ,'एक लडकी की आवाज थी ,'वाजपेयी महिला विरोधी हैं ।खाना-आना तो अपना बना ही लेते हैं। ।अपने घर में महिला का शासन उन्हें पसन्द नहीं। पी.एम. हैं ,खुद तो बिजी रहंगे ,घर में पत्नी की ही चलेगी ।'
'वाह री अक्ल की पुटलिया ,पी.एम. तो अब बने हैं शादी की उम्र निकलने के बाद ,' अमन ने टोक दिया
'बात वो नहीं है ।असल में उन्हें बच्चे पसंद नहीं हैं ।शादी की होती तो बच्चे होते ।देखा है कभी उन्हें बच्चों के साथ ?जब कि कलाम साहब को बच्चों के बीच में ही आनन्द आता है ।ये हमेशा बच्चों से बचते हैं ,' बोलनेवाली शिखा थी ।
' नहीं भई ,बात बच्चों से बचने की नहीं है ।आबादी इतनी बढ रही है उस पर भी तो कंट्रोल करना है ।राष्ट्रपति और प्रधान मंक्त्री अगर लालू की राह चल पडें तो सारा देश बिहार बन जायेगा ।'
'तुम गलत सोच रहे हो ।शादी कर ली और बच्चे हुये तो उनके लिये भी ,मेरा मतलब है उनके भविष्य की भी सोचनी पडेगी । देखो न,पंडित नेहरू ने इन्दिरा जी और इन्दिरा जी ने राजीव -संजय को आगे बढाया ।अब सोनिया जी के रहते राहुल-प्रियंका का इन्तजाम हो रहा है ।अपने वाजपेयीजी वंशवाद के खिलाफ़ हैं ।और संतान होगी तो वे खुद नहीं , तो चमचागीरी में  और लोग उसे मिनी वाजपेयी कह कर आगे धकियायेंगे ही ,' चमन ने स्पष्ट किया ।
'बेकार की बात !पहले संघ में थे इसलिये शादी नहीं की ,फिर उमर इतनी हो गई कि सोचा होगा ढंग की लडकी मिल भी गई  तो लोग हँसेंगे ।
'नहीं भई ,जिस लडकी को चाहते थे उसकी शादी कहीं और हो गई ,इसलिये कुँआरे ही जिन्दगी बिता रहे हैं  ,' सूचना देनेवाले बच्चूभाई थे ।
'सच्ची क्या ?तुम्हें कैसे पता लगा ?' शिखा बच्चू की ओर खिसक आई ।
'पता लगने की खूब कही !कई बार ऐसा देखा गया है ।कवि आदमी तो हैं ही स्टूडेन्टलाइफ में ही कोई भा गई होगी !उसी का खामियाजा आज तक भुगत रहे हैं ।'
इसी बीच मोहल्ले की दादी ,बुआ का सहारा लिये डगर-मगर करती आ पहुँचीं थीं।बुआ को पेपर वगैरा पढने का शौक है ,वे बोलीं ,'एक बार पाकिस्तान की कोई  महिला  इनसे शादी करने को तैयार थी -पेपर में पढा था हमने ।'
'तो कहे नाहीं कर ली ,' दादी पोपले मुँह से कहने लगीं ,'बडा अच्छा मऊका रहे ।दोनों देस एक हुइ जाते ।पहले के राजा महराजा अइसे बियाह करके आपुन ताकत बढावत रहे ।'
'ऐसे विवाह राजनीति के हिसाब से बहुत फायदेमन्द हैं । दादी ,तुम्ही समझाओ न !' रितु अपनी हँसी दबाये थी
'लेकिन हमारे राष्ट्र पति भी तो क्वाँरे हैं ।'
' उनकी हेयर स्टाइल ऐसी है कि लडकियों की तरफ निगाह ही नहीं जाती ।उनके लिये एक का पति होना ही काफी है ।'
'पति ?बिना ब्याह के ,किसके पति ?'
'राष्ट्र के ! पर उन्हें बच्चे पसन्द हैं।दुनियादारी छोड़-छाड़ के जुटे रहे शुरू से अपनी धुन में , अब  सारे राष्ट्र के बच्चे उनके बच्चे । '
' पता नहीं आज कल के लडके ,उनसे कुछ सीख क्यों नहीं लेते !स्टूडेन्ट लाइफ में ही गर्ल फ्रेन्ड्स ,और वेलेन्टाइन डे .....।'
'सभी लोग वाजपेयी और कलाम हो गये तो तेरा क्या होगा ,बहना ?'
जोर का ठहाका ! दूसरे ने छौंक लगाया ,' फिर तो इन्हें मायावती बन कर जिन्दगी गुजारनी पडेगी ।'
अब की लडकियाँ शर्माती कहाँ हैं ,चट् से जवाब दिया ,'तब तो सारा बजट बर्थ- डे मनाने में सिमट जायेगा फिर भी कमी पडेगी ।'
दूसरी ने जडा ,'साहूकारों ,अफसरों, बिजनेस और ठेकेवालों से ' लै लै आओ धर-धर जाओ ' वाली नीति लागू कर दी जायेगी ।'
मुक्ता काफी दिन कानपुर में रही थी ,बात का सूत्र उसने अपने हाथ में लिया ,' हम बतायें पूरी बात ?जब अपने पी.एम. अपने पिताजी के साथ कानपुर के डी.ए.वी.कालेज में पढते थे तो इनकी दादी ने इनकी अम्माँ से कहा -काहे अब अटल्लू को बियाह काहे नाहीं करतीं ? घर में बहुरिया आवै ।'
माँ और दादी ने कहा तो कहने लगे अभी तो हमारी और पिताजी की पढाई चल रही है ।पढाई पूरी हो गई । पर ये घर में टिकें तब न ! संघ के स्वयं-सेवक बन कर मारे-मारे घूमते थे ।दादी चाहती थीं पुत-बहू का मुँह देखें ,पडपोता खिलायँ ।कभी इनके पिता से कहें ,कभी माँ से ।माँ की सुनते कहां थे ,भारत माँ के आगे ।
दादी ने एक बार इनके सामने  माँ को टोका तो वे खीझ पडीं ,' नाहीं सुनत तो हम का करैं ?आपुन प्राण दै दें का?'और 'प्राण देने की बात सुन कर अटल्लू उठे और बाहर चल दिये ।
रोहित ने विस्मय से पूछा ,'ये प्राण देने की बात कहाँ से आ गई ?'
'पहले ऐसे ही कहा जाता था -प्राण खाये जा रहे हो ,जान ले लो हमारी ,क्यों प्राण दिये दे रहे हो वगैरा-वगैरा ।'
'किसी को इस पर हँसी नहीं आती थी ?कहते -कहते मुक्ता खिलखिला कर हँस पडी ।
' पहले के बच्चे हमलोगों जैसे नहीं थे ,प्राणों की बात सुनते ही दहल जाते थे ।हमारी खुद की दादी ऐसे बोलती थीं । तब बडी जल्दी प्राणों पर बन आती थी ।'
'अब लोग समझदार हो गये हैं ,प्राणों का लेन-देन इतनी आसानी से नहीं होता ।'
'पर बात तो वाजपेयी जी की हो रही थी ।'
'वही तो ,उन्हें लगा अभी तो दादी प्राण देने को तैयार बैठी हैं,कहीं लेने पर तुल बैठीं तो !बस डर कर भाग लिये ।'
'सच कह रही हो ?तुम्हें कैसे पता ?'
' हमारा अन्दाज है कि ऐसा हुआ होगा ।'
' बेकार बको मत ! संघ मे जाने का शौक इन्हें शुरू से था ।स्वयंसेवक का व्रत लिया था ,शादी कैसे करते ?'
'तुम तो ऐसे कह रहे हो जैसे पूछ कर चले आ रहे हो ?'
'तो पूछ भी लेंगे !अबकी बार इधर आयें तो यही सही ।'
ये मैं पहले बता दूँ कि ये लोग थोडे सिरफिरे हैं ,जो कहते हैं कर गुजरते हैं । एक बार एक मंत्री जी को घेर चुके है । तुले बैठे हैं ,मौका मिला तो पूछने से बाज नहीं आयेंगे ।
वाजपेयी जी कभी इधऱ आयें तो आमने -सामने को तैयार रहें .
सुनने की उत्सुकता हमें भी रहेगी ।

शनिवार, 7 अगस्त 2010

भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो.

*
मनो जगत में रहनेवाले सूर ,को स्वर्ग में कुछ मज़ा नहीं आ रहा .आँखों से देखने की आदत दुनिया में छूट चुकी थी .कृष्ण की लीलाओं में विभोर मन नित प्रति नई संभावनाओं में खोया रहता था पर स्वर्ग तो स्वर्ग! जो चाहें एकदम हाज़िर .जब कोई अभाव नहीं कोई कमी नहीं तो कल्पनाएं कुंठित होने लगीं. .मनचाहा जब असलियत में सामने आ जाये तो उसमें वह आकर्षण कहाँ !जहाँ कोई कल्पना की चट् साकार ,कोई कामना जागी तुरंत पूर्ण .जब कोई कमी नहीं ,हर चाह उठते ही कामना की पूरी तो तृप्ति का आनन्द कहाँ
आखिर क्या करें .रचें तो कैसे रचें पद ?मनोमय कोष के सारे तंतु व्यर्थ .कृष्ण तो यहीं हैं ,जहाँ याद करो प्रकट ,पर सोचना तो पड़ता है न कि उनके अपने काम-धंधे होंगे यहाँ हर समय याद भी नहीं किया जा सकता .वहाँ के सारे मज़े खतम कि चाहे जो सोचो ,मनचाही कल्पनाएं करों लीन रहो अपने आप में .यहाँ तो ज़रा कोई बात मन में आई सब पर ज़ाहिर .
अपने आप में कुछ कर ही नहीं सकते हुँह यह भी कोई ज़िन्दगी है ?ऐसी सार्वजनिक जीवन में क्या मज़ा !
यहां से तो वो दुनिया अच्छी ,मनमाने ढंग से रह तो सकते थे ..काफ़ी सोच-विचार के बाद पहुँच गए वल्लभस्वामी के पास
बोले , 'प्रभु,मैं बिरज -भूमि जाना चाहत हौं ।'
वल्लभाचार्य जी कुछ चौंके ,'काहे सूर ,जे अचानक का हुइ गयो है ?
सूरदास ने कहा ,' अचानक नाहीं प्रभो , मोहे बहुत दिनन से बिरज की भौत याद आय रही है ।...'
'समय कहूँ रुकत है बीत गयो सब ,बदल गयो है सब अब कुछू नाहीं मिलिहै उहाँ.
काहे ,वह पावन भूमि मोहन को चिर- निवास है ।राधा-मोहन ,गोपी -ग्वाल ,वह जमुना ,वह गोवर्धन गिरि ,सबै कुछ वहीं है । तब भी कल जुग रहे ,तब हतो सो अब कहाँ जैहे .ऊ सब तो चिरंतन है ,बीत कैसे सकित है . मथुरा नगरी तीन लोकन से न्यारी और वृन्दावन ...भावातिरेक से आकुल हो उठे सूर .
वल्लभ स्वामी चाह कर भी कुछ बोल नहीं पा रहे हैं सोच रहे हैं इस बावले से कहने से क्या लाभ .
फिर भी कह उठे-

बीत गयो वह जुग ,अब कलजुग ने पग बढाय सब समेट लियो है ।तुम जो चाहत हो कुछू नाहीं बच्यो ।'
वल्लभाचार्य जी बोले ,'जो बीत गयो सो बीत गयो उन युगन में अब काहे जीना चाय रहे हो ?'
वल्लभ सोच रहे थे तब भी प्रज्ञा-चक्षु थे .संसार कितना देखा !जो लिखा वह कितना वास्तविक था कितना अनुमान और कल्पना।मोहित मानस में जो उदित होता गया रचते गये मोहन के आकर्षण की माया में रमा चित्त कमनीय कल्पनाओं में विभोर रहा ,और नये-नये चित्र आँकते गए सूर .
कीर्तन की बेला में नित्य नवीन रूप उदित हो जाता और वाणी संगीत के सुरों में बाँध कर अंकित कर देती . रात-दिन उसी के माधुर्य में डूबे ,मनोजगत में वही दृष्य निहारते ,बाह्य जगत से मतलब कहाँ रहा था .उनकी दुनिया वही थी गोपाल और उनकी लीला-कला .
कुछ समय बीत गया ,फिर एक दिन सूर कह उठे
,प्रभू,बिरज की भूमि- दरसन की चाह चैन नाहीं लेन दै रही .
,च्यों सूर ,का होयगो हुअन जाय के .अब उहां वैसे कुछ नहीं बच्यो है.
हर दूसरे-तीसरे वही राग ,जैसे धुन सवार हो गई हो .
सूर समझते ही नही ,अपना राग पूरे बैठे हैं ।
वल्लभस्वामी परेशान !कैसे प्रबोधें इस बावले को ,जो सोचना-समझना नहीं चाहता ।
बावला हुइ गयो है ,बीते जुगन को जियो चाहत है .जियत तो तबहूं बीते जुगन को हतो ,पर तब सूर रह्यो ,नादान
अब अब बुद्धि आय गई है सोचनकी -विचारन की .
कैसे समझाएं महाप्रभु.यह समझ ही तो है जो कभी चैन नहीं लेने देती .दुख को कारन इहै है .
काल का प्रवाह कहीं रुका है !कितना पानी बह चुका तब से जमुना में ।अब तो लगता है पानी ही चुक गया .जमुना .क्या जमुना रह गई हैं ,?कुछ भी नहीं वैसा !मथुरा -वृंदावन, कुरुक्षेत्र कहीं कुछ हैं ?सब बीत चुका है  .पर ये है कि मानना ही नहीं चाहता और झक्क लगाये बैठा है ।अब कहाँ वह वृन्दावन,और कैसी मथुरा ।कहाँ द्वापर और कहाँ घोर कलियुग ।जो बीत गए उन युगों में जीना चाहता है पागल .बाहर की दुनिया देखी नहीं भीतर उतरते चले गए .
महाप्रभु इन चरनन को मोहे बड़ो भरोसो है ।
'सो तो है सूर .. पर तुम काहे घिघियात हो ।उहां पर तो सूर हते सूरै बन के रहो ।
अब हुआं कछु नाहीं धरो ।'
सारो संसार भीतर समायो है चित्त एकाग्र करो सब मिल जैहे ।' '
महाप्रभु ,मोहे इन चरनन को दृ़ढ भरोसो है ,
सो तो है सूर!
*
अरे भक्ति करो पर ये किसने कहा कि बुद्धि को ताक पर रख दो !कुछ तो संतुलन चाहिये ही ।
पर कौन समझाये उसे !
जब दुनिया में था तब की तरह अब भी सोचता है ।
'ठीक है सूर ,मिल आओ अपने प्रभु से ।कराये देते हैं इन्तज़ाम ।'
ब्रजभूमि ,जमुना तट ,कदंब ,तमाल ।
गोप-गोपी ,राधा अब वहाँ कहां होंगे ।
लीला भूमि तो है न।
'ठीक है सूर ,देख आओ जा कर .कर आओ उस लीला भूमि का साक्षात्कार .कराये देते हैं इन्तज़ाम ।'
ब्रजभूमि ,जमुना तट ,कदंब ,तमाल !
गोप-गोपी ,राधा अब वहाँ कहां होंगे ।सोचते रहे आचार्य .
थे तो तब भी नहीं .पर तब दुनिया वहाँ नहीं थी जहाँ आज पहुँच गई है
लीला भूमि का नाम अभी भी है .
जाने किन सपनों में खो गए सूर .बस अब तो जाना है उसी लीला भूमि में .साक्षात् होगा उन्हीं सबसे जिन्हें छोड़ कर चला आया था .
चलते समय की वह लीला -खंजन नयन रूप रस माते सारी वृत्तियां लीन हो गईं थीं जिसमें .
अब फिर नए सिरे से .
*
आ गए धरती पर .चकराए से खड़े हैं सूर
पता नहीं कहाँ आ गए .
अजीब सी दुर्गंध छाई है -कुछ खट्टरखट्ट बराबर चल रहा है .काहे की आवाज़ें ?
कहीं से उत्तर आया अरे कारखाना लगा है .उसी की महकें और शोर !
हे कृष्ण ,हे मुरारी !

तब दृष्टि नहीं थी ,अब दर्शन करना चाहते हैं सूर उस पावन धरा-खंड के .
पर यह क्या ?धूल उड़ रही है चारों तरफ़,हरियाली कहाँ ?जमुना-जल -कैसा धूसर रहा है . क्षीणधारा .जल है या .कैसी हो गई जमुना.  .कहाँ है वह शीतल ,निर्मल पावन जल ?
नहीं यह नहीं ब्रज-भूमि ,कहीं और आ गया हूँ .
*

आँखें बंद कर लीं .नहीं आँखे नहीं खोलूँगा ,अनुभूति हृदय करेगा.
अरे यह मानस में क्या उदितहो रहा है -
मुँह से निकला - हाय रे ,जौ का पहिरे हैं ब्रजराज !जे पहरावा तो हम कबहूँ नाय देखो ।कउन गत को नाहीं ,मोटमोट टाट जइस कपरा मार उड़ोसो रंग और हाथन में जे का है ।बाँसुरी तो लगत नाहीं ।,,'
जौ का पहिरायो है ब्रज राज को ?एक मोटे कपड़े का फटुल्ला-सा चिपका-चिपका पाजामा ,
ऊपर से अजीब शक्लोंवाली सदरी ,सदरी भी नहीं गले पर कुछ उठा-उठा ,औरक्र से कुछ ही नेचा तक का
न पीतांबर ,न बाँसुरी न वैजयन्ती माला ,एक कान में बाली सी पहने ,अरे इनके मकराकृति कुंडल कौनो चुराय लै गया का ?
अंदर से आवाज़ उठी
जीन्स ,टीशर्ट ,हाथ में ये क्या बाँसुरी की जगह सेल-फ़ोन .
नई धज बनाई ब्रजराज की .
चक्क रह गए सूर .
जे जीन्स और सर्ट पहराय दई है ।आजकल के लौंडन की नाईं और हाथ में फ़ोन पकड़ाय दीन्हों ..'
'फोन ,ई का होत कौनो नई बाँसुरी है का ?
'अरे इह में मुंह धर के कोई कित्तेऊ दूर होय बात करि सकत हो ।'
सूर चकित !
मन में उठा - हमसे बात कर सकित हैं ?
समझ गये आचारज -
नहीं सहन हो रहा .नहीं देखा जा रहा .
ई सब देखन से तो अपनी आँखिन को फोड़िबो भलो .
पास पड़ी एक सींक उठा कर आँखस फोड़ने को तत्पर होगए सूर ,
अचानक ही हाथ पकड़ लिया किसीने .'ई का करत हो
खुल गए नेत्र .
तन्द्रा में चले गए थे सूर .कैसा अनुभव -परम विचित्र .
चाह की प्रबलता धरती पर खींच ले गई थी क्या .
नहीं, नहीं अब नहीं जाना है ,नहीं देखना है कुछ .
पर कैसे बदल गया यह सब .
यह तो चिरंतन लीला है काल का दाँव नहीं चलता इस पर .फिर कैसे ..?
इस भौतिक संसार में कहाँ ढूँढ रहे हो सूर, चिरंतन लीला है यह पर मनोमय-कोश की .कौन समझाए तुम्हें !यहां कुछ नहीं मिलेगा .
नहीं ! कभी नहीं !
**

कबीर की वापसी - अमेरिका में - भाग 2.

*
आ ही पहुँचे अमेरिका में कबीर ,तो शरीरके धर्म तो निबाहने ही पड़ेंगे ।मन भी बड़ी अजीब चीज़ है ।शुरू-शुरू में जो भाता नहीं जिससे मन बिचकता है ,धीरे-धीरे आदत पड़ते ही उसकी कमी खलने लगती है ।अपने यहाँ देखा करते थे पत्तियां पीली पड़ कर झरने लगती है ।पेड़ झंखाड़ सा खड़ा रहता है ।मन में वैराग्य की लहरें उठने लगती थीं ।वैसे भी कबीर जनम के वैरागी ,अनुराग के लिये न अवकाश न मनस्थिति ।नीरू-नीमा ने दन-रात कपड़े बुनबुन कर जीविका चलाई .
रूखी-सूखी खाते बड़े हुये ।जात-पांत का ठिकाना नहीं.
जात-पाँत ?कबीर कब से जात-पाँत मानने लगे तुम?
यहाँ सब-कुछ निराला ।पतझर क्या आया वनराजि नये-नये रंगों में सजने लगी ।जैसे वनों के अंचल में इन्द्रधनुषी फव्वारे फूट पड़े हों ।पत्ते झरने का उत्सव तना रंगीन ,विषाद की छाया से परे जैसे जाने का कोई ग़म नहीं ।जीवन को पूरी शिद्दत से जीकर जो आत्मतोष मिला उसी उत्साह से यह बिदा बेला उद्दाम आवेग के साथ मनाने को उद्यत हैं ।प्रकृति में मृत्यु से पूर्व जैसे एक महोत्सव का प्रारंभ हो जाता है । .चींटयों- पतंगों के पंख निकल आते हैं ,दीपक की लौ पूरे तेज से उद्दीप्त हो उठती है ,गिरने के पहले पत्ते चटकीले रंगों में रँग जाते हैं ।बिदा लेने से पूर्व जिजीवषा अपने चरम पर होती है ।पूरे तेज और ऊर्जा के साथ उद्दीप्त । और उसके बाद अंत -अवश्यंभावी समापन 1
कबीर बोले ,'यह कैसा उत्सव ?कैसा मरण का आनन्द !दिवस चार का पेखना अंत रहेगी छार !'
स्वर्ग से भेजे गए थे .जिज्ञासा उठी मन में तो समाधान भी होना था .
भीतर से कोई बोल उठा -
'संत जी, छार रहेगी वह तो ठीक पर उससे पहले चार दिन का यह आनन्द क्या परम चेतना की आनन्दानुभूति का नृत्य नहीं ?मृत्यु का सोच-सोच कर आगत की चिन्ता कर जीवन दूभर क्यों करो ?वर्तमान को विषाद का पर्याय बना डालना कहाँ तक संगत है ?मुक्तमना उत्सव के प्रहरो में स्वयं को डुबा दो ।आनन्द क्या कुछ नहीं ! परमात्मा तो स्वयं सत्चित्आनन्द है ।आने और जाने के बीच की हलचल कोलाहल ,जीवन का कल्लोल -विलोल बिल्कुल बेकार है ?वास्तव में वही जीवन है ।आगे पीछे उसी की भूमिका और उसी का उपसंहार ।अस्तित्व पता नहीं कहाँ चला जाता है ,जब पता ही नहीं क्या होगा तो यह बीच का रागरंग क्यों अस्वीकार कर दिया जाय ?बहते चलो जीवन प्रवाह में ।
कबीर चुप रहे ।
'क्यों दार्शनिक, आनन्द क्या सर्वथा त्याज्य है ?महाप्रकृति की लीलामयी क्रीड़ा इसी धारा के प्रवाह में व्यक्त होती है फिर हम कुंठायें क्यों पालें ?ये फूलों के रंग रमणीय प्रकृति का सौंदर्य तुम्हें सर्वथा त्याज्य लगता है ?जीवन भर सूखे पत्ते बने रहें क्योंकि मृत्यु अवश्यंभावी है?'

मैने कभी इस दृष्टि से सोचा नहीं ।मेरा तो जीवन वंचनाओं में बीता। विधवा ब्राह्मणी ने जाया और छोड़ दिया लहरतारा के किनारे । रंगरेज दंपति ने उठाया ।संतान का पूरा दायित्व उय़ाया ।अभावों मे सारा जीवन बीता निम्नवर्ग की कुंठायें ओढे-ओढे बड़ा हुआ ।ताना-बाना तानते ,चदरिया बुनते उमर निकल गई ।पढने-लिखने का न अवकाश था न सुविधा ।ऊपर से कितनी कटुतायें कतने अवरोध सामने खड़े। सिर झुका कर रहना स्वभाव में नहीं था दुनिया के रंगढंग से जी उचटने लगा। कितने आडंबर ,झूठ,स्वार्थ की पूर्ति के लिये आत्मा को गिरवी रख देना । थोड़ा सा महत्व पाने के लिये लोगों को धोखे में रखना .वासनातृप्ति के लिये संसार को गुमराह करना ।यह सब मिथ्याचार और आडंबर मुझसे सहम नहीं होते थे ।मैने नहीं जाना सुख-चैन क्या है ,आनन्द क्या है ।
आसक्तियों से दूर रहने की चेष्टा की .नारी से दूर भागता रहा .
कोई हँसा -क्यों दूर भागते रहे -सर्वथा हेय है नारी?
'दुनिया के झंझटों में नहीं फँसना चाहता था... .'
अचानक एक विधवा ब्राह्मणी का ध्यान आ गया , .यौवन में विधवा लुंचित केश,व्रत और श्रम करते दुर्बल शरीर पर ,अपने आप को सबकी निगाहौं से बचाती , अस्तित्वहीना सी  ,अमंगल की आशंका से ,मोटी सफ़ेद धोती तन पर लपेटे .लहरतारा के किनारे आई है आंचल में छिपाई एक बंडल किनारे पर धरा पल भर खड़ी रही फिर ,आँसू पोंछती मुड कर चल दी.
इसी झंझट से बचना चाहता होगा वह आदमी ,
शुरू से देखा ,नारी का तिरस्कार ,पैर की जूती !
कैसे जी होगी कैसे रहती होगी .अपराधिनी वही थी ?
नारी के मन उसकी आत्मा नहीं होती ?
बार-बार उस बेबस असहाय नारी का ध्यान आता है.

जीवन लड़ते ही बीता हिन्दू-मुसलान ,ऊँच -नीच ,धनी- -निर्धन लगातार द्वंद्व ।ऊपर से अज्ञानी लोगों ने प्ने जाल पसार रखे थे ।साधारण मनुष्य विभ्रमित हुआ जा रहा था ।मैं क्योंकि उनमे नहीं था अलग खड़ा रह गया था इसलिये सब देख पा रहा था ।देखने और सोचनेवाला दुखी होता है ।दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवे ।मैं अपने दुख पर नहीं संसार की मूढता पर रोया था ।अगर सोच लें जीवन चार दिन का है तो सुखपाने के लिये अकार्य न करें वासनाओं से दूर रहे ।
न कभी अवकाश मिला न धरती के सोच से ऊपर उठने का वातावरण ।जीवन में कला सोंदर्य का महत्व कैसे पता चलता जब रोज़-रोज़ से झंझटों से ही छुटकारा न मिले ।
'अब धरती के दुखों-अभावों की छाया से मुक्त क्यों नहीं होते ?जीवन का यह दूसरा पक्ष जीने का मौका भी देगा करतार ,जरूर देगा .
पूरे पाठ पढे बिना छुटकारा नहीं पाओगे अभी कितना पढ़ना-गुनना है तुम्हें ,कबीर !चाहे जित्ती चीख-पुकार मचा लो !काहे को लाद लाए हो सिर पर वहाँ की गठरिया.मुक्त होना चाहते थे न! मन को तो मुक्त करो पहले . मँजना होगा रगडे-खा-खा कर हर जनम.वहाँ से ठेले जाते रहोगे, जब तक स्वच्छता से दमक नहीं उठते .'
पढ़ना-गुनना ?हाँ, अभी हुआ कहाँ
?!बहुत कुछ बाकी रह गया है .

सिर झुकाए बैठे हैं सोच-मग्न कबीर !

*

बुधवार, 14 जुलाई 2010

प्राइवेसी कहाँ !

*
(व्यंग्य)
प्राइवेसी कहाँ !

हमारे देश के कवियों का भी जवाब नहीं ।नारी से संबद्ध रीति-नीति का जितना ज्ञान उन्हें है और किसी देश के कवि में मैने नहीं पाया ।वैसे अन्य देशों के कवियों के बारे में मेरा ज्ञान सीमित है ,किसी को पता हो तो सूचित करे । हाँ, तो नारी तन के समग्र-वर्णन और उसके क्रिया-कलापों के सूक्ष्म-चित्रण में एक से एक पहुँचे हुये मर्मज्ञ यहाँ मिलेंगे ।यह परंपरा संस्कृत से शुरू हो जाती है ,उसके पहले से भी हो सकती है ,पर मुझे पता नहीं । वैसे कवि और नारी का संबंध जन्मजात है -किसी अच्छे-खासे व्यक्ति के भीतर कवि तब जन्मता है जब उसका नारी से साबका पड़ता है ।और यह संबंध हर चरण में किसी न किसी प्रकार व्यक्त होता रहता है । अपने महाकवि कालिदास, गोस्वामी तुलसीदास किनकी प्रेरणाओं  से कवि बने कोई छिपी बात नहीं है ।जिन्हें कविकुल-गुरु की उपाधि प्राप्त है उन कालिदास के सूक्ष्म वर्णनों की दाद देनी पडेगी। पार्वती तपस्या में लीन हैं,वर्षा का जल उन्हें भिगो रहा है ।जल की बूँदें कहाँ-कहाँ कैसे -कैसे गिर कर कहाँ -कहाँ तक क्या रूप ले रही हैं ,कवि की दृष्टि-.यात्रा में कोई ब्योरा छूटा नहीं है,इतना सब तो स्वयं पार्वती को अपने बारे में पता नहीं होगा ।सचमुच सूरज की भी जहाँ पहुँच नहीं कवि वहाँ भी ताक-झाँक करने की धृष्टता पर उतारू रहता है ।अभिज्ञान शाकुन्तल में कुमारी कन्या की साँसों का शारीरिक चित्रण तो  रसिक राजा दुष्यंत के मुख से करवाया है ,गनीमत है।आगे के कवियों की क्या कहें गुरु गुड़ ही रह गये चेले शक्कर हो गये- कम से कम इन मामलों में ।
बचपन से मेंरा मन अपने कोर्स की किताबें पढने में नहीं लगता था ।बडे भाई-बहिन की किताबें चुपके से उठा लाती थी (सामने लाने की हिम्मत नहीं थी )और पढा करती थी ।किसी से समझाने को कहूँ इतना साहस कहाँ था मनमाने अर्थ लगाया करती थी ।तब विद्यापति की सद्य-स्नाता नायिका का वर्णन पढा ।मुझे बड़ा विस्मय हुआ -ये कवि लोग क्या छिप-छिप कर महिलाओं के स्नानागारों में झाँकते थे ।और नहीं तो इतना सांगोपांग चित्रण कैसे कर पाते ? इसके बाद तो वर्षों मैं बड़े ऊहापोह में रही ।कहीं जाती थी तो बाथरूम में घुस कर सबसे पहले दीवारों -दरवाज़ों का निरीक्षण करने के बाद स्नान करने का उपक्रम करती थी।मन बराबर भय- संशय में पड़ा रहता था कि कहीं कोई कवि टाइप आदमी सँधों से आँखे चिपकाये तो नहीं  खड़ा है !
उससे आगे चलिये और देखिये -एक बालिका ,जिसे हमारे यहाँ कन्या कह कर मान दिया जाता है । पर इनकी खोजी निगाहें उसे भी नहीं बख्शतीं ।क्या कपड़ा-फाड़ दृष्ट पाई है -
'पहिल बदरसन पुनि नवरंग ।
मैंने नख-शिख वर्णन पढे और दंग रह गई ।सब स्त्रियों के शरीर पर आधारित थे ।बहुत खोजा पुरुषों का नख-शिख वर्णन कहीं नहीं मिला । नारी के'नख-शिख' वर्णन की परंपरा में निष्णात कवि पुरुष के प्रति इतने उदासीन क्यों रहे मैं कोशिश करके भी समझ नहीं पाई ।किसी से पूछने की हिम्मत पड़ी नहीं ।मन में एक काम्प्लेक्स सा समाया हुआ है। लड़कों और आदमियों के विषय मे जानने को बेहद उत्सुक होने पर भी कभी कुछ पूछने की हिम्मत नहीं पड़ी ।अपनी सखियों से बात की पर उनका भी वही हाल था जो मेरा ।मन मार कर रह गये ।
अधिकार पूर्वक स्वयं को प्रस्तुत करने का साहस करते तो पुरुष तन और मन में पैठने का अवसर सबको मिलता ।वय के साथ होनेवाले शारीरिक-मानसिक परवर्तनो में नर का चित्रण भी उतनी ही रुचिपूर्वक करना साहित्य और समाज के लिये उपादेय सिद्ध होगा ।मैं आशा करूंगी कि अब कोई पुरुष आगे बढ़ कर इस शुभ-कार्य का श्रीगणेश करेगा ।
उधर बिहारी भी शैशव से यौवन तक होनेवाले परिवर्तनों पर अपनी  'गृद्धदृष्टि' जमाये बैठे हैं ।इन लोगों से कुछ भी बचा नहीं रहता ,नारी की प्राइवेसी खत्म । उनके  'बडो इजाफाकीन 'जैसे रुचिबोध पर मुझे बडी कोफ्त होती है ।ऐसे तो नीति के पद लिखने में भी माहिर हैं पर वैसे रीतिनीति सब ताक पर रख आते हैं।
कवियों की उक्तियाँ समाज की बहुत सी समस्याओं का हल भी प्रस्तुत कर देती हैं । बिहारी ने अपने एक दोहे में बताया है -
'वधू अधर की मधुरता कहियत मधु न तुलाय ,
लिखत लिखक के हाथ की किलक ऊख ह्वै जाय ।'
धन्य है ऐसी वधू और धन्य है ऐसा कवि !जिससे कलम बनती है वे सारे किलक अगर ऊख हो जायँ तो देश की चीनी की आवश्यकता तो पूरी हो ही ,इतनी बची रहेगी कि उसके निर्यात से विदेशी मुद्रा के भंडार भर जायेंगे ।और भी --
 ' पत्रा ही तिथि पाइये वा घर के चहुँ पास ,
नित प्रति पून्यो ही रहे आनन ओप उजास ।'
हर मोहल्ले में ऐसी दो-चार नायिकायें बस जायँ तो बिजली का संकट खत्म
उनके सौंदर्य-बोध का क्या कहना ! दुनिया भर के लुच्चे-लफंगे उनकी दृष्टि में रसिक हैं।श्लीलता ,शालीनता ,शोभनीयता सब बेकार की बातें हैं । प्रस्तुत है एक बानगी -
'लरिका लेबे के मिसन लंगर मो ढिग आय ,
गयो अचानक आँगुरी छाती छैल छुआय।'
बताइये भला लडकी ,भतीजे को गोद में खिलाती -बहलाती बाहर निकल आई है।यौवन का प्रारंभ है ।बच्चे को उछाल उछाल कर खिलखिला रही है।वह लफंगा बाहर खड़ा है। ताक लगाये रहता है लड़की कब बाहर निकले ।बच्चे से बोलने के बहाने पास आ गया ।बोल रहा है बच्चे से निगाहें लड़की पर हैं। बस मिल गया मौका ।बच्चे को गोद लेने के बहाने हाथ बढाया उद्देय़्य था लड़की के शरीर से छेड़खानी ।दाद देनी पड़ेगी कवि के मन में क्या-क्या भरा पड़ा है।
इस समय  बिहारी का नीति-बोध कहाँ बिला गया ? जरूर उस लफंगे को लडकी से लिफ्ट मिली होगी ,नहीं तो इतनी हिम्मत नहीं पडती ।पडती भी तो दुत्कार खाकर भागता ।बिहारी जानते होंगे कि कुछ लगा-लिपटी चल रही है ,नहीं तो वह बेहया लडकी भी इतना रस लेकर लफंगे को छैल कह कर उन्हं न बता पाती ।चलो, मान लिया ऐसा कुछ था तो कवि का क्या कोई दायित्व नहीं बनता !
 पर जब घर की महिलायें अपने कार्य में व्यस्त हैं ,उन पर भी ये कवि महोदय अपनी लोलुप दृष्टि डाल रहे हैं --
'अहे,दहेडी जिन धरे ,जिन तू लेइ उतारि ,
नीके छींके ही छुयै,ऐसी ही रहु नारि !'
इनके आगे तो भले घर की औरतों का काम करना चलना-फिरना मुश्किल ।उससे कह रहे हैं ऐसे ही खडी रह ।कहीं के राजा -महाराजा होते तो चारों ओर छींके लटकवा कर सुन्दरियों को उसी तरह खडा रखते ।
मुझे याद है ,जब मै ब्याह कर ससुराल आई तो सबसे छोटी बहू होने के कारण ,मुझे बहुत छूट मिली हुई थी।रसोई में देखलें तो ससुर जी फ़ौरन टोकते थे ,' अरे,उसे कहाँ चौके में घुसा दिया?
सास जी चिल्ला कर कहती थीं ,  'नहीं चूल्हे के पास बैठाय रही हैं ।सबसे पहले नहाय कर तैयार हुई जात है सो  अदहन में दार  डारै अपने आप चली गई है। महराजिन आय रही हैंगी।'
और किसी बहू से नहीं बोलेते थे पर मुझे पास बिठा कर बात करते थे ।सास जी ने भी सिर्फ़ एक रोक लगाई थी -जब  रिश्तेके एक विशेष ननदोई ,उम्र पचास से ऊपर ही रही होगी उनकी,आँगन में बैठे हों तो अपने कमरे में रहा करूँ ।
मैने अपनी जिठानी से पूझा था,मेरी तीनों जिठानियाँ ,मुझसे 10 से 25 साल तक बड़ी थीं ।उन्होंने हँसते हुये बताया,'बे मन्दिरऊ जात हैंगे तो  भगवान की बनाई की मूरतन को निहारत रहत हैं।
उन्होंने एक बार किसी से कहा भी था ,'उसकी गढ़ी सूरतें देखते हैं।'
बाद में मेरी समझ में आ गया विधि की रची मूरत- अर्थात् भगवान की बनाई नारी देह! इन कवियों की रसिकता उनसे किस अर्थ में कम है?भगवान की बनाई मूरत उनके लिये अधिक स्पृहणीय है,आदमी ने पत्थर से जो मूर्ति गढ़ी उसमें ऐसा लीला-लालित्य कहाँ !
 हाँ ,आज की विज्ञपनबाजों के लिये उपरोक्त  मुद्रा बहुत आकर्षक और उपयोगी  सिद्ध हो सकती है ।
'नासा मोरि सिकोरि दृग ,करत कका की सौंह '
क्य कह रही है यह सुनने की फ़ुर्सत कहाँ ,अपने बिहारी कवि को लड़की के चेहरे से आँखें हटाना गवारा नहीं।सोचने समझने की जरूरत किसे है।
गोरी गदकारी हँसत परत कपोलन गाड़,
कैसी लसति गँवारि यह सुनकिरवा की आड़ !
नागरी हो या गँवारी क्या फ़र्क पड़ता है ,आँखों को चारा दोनो से मिलेगा ।
एक और दृष्य देखिये !युवती नदी किनारे आई है, स्नान करना है ।पर नदी का पानी ठंडा है ।स्पर्श करती है तो शरीर में फुरहरी उठती है पानी में घुसने की हिम्मत नहीं पडती ,तट पर खडे लोगों को देखती है(हो सकता उन में उसका प्रेमी भी खड़ा हो,कवि को ज्यादा पता होगा ) सोचती है क्या करूँ स्वयं पर हँसी आ रही है,घर भी ऐसे कैसे चली जाये!.
 नहिं नहाय नहिं जाय घर ,चित चिहट्यौ उहि तीर ,
परसि फुरहरी लै फिरति ,विहँसति धँसति न नीर!
इन कवियों की महिमा अपार है ।लिखने बैठो को ग्रंथ के ग्रंथ भर जायें ।
पर बाकी फिर कभी ।

*****

सोमवार, 12 जुलाई 2010

भगवान जाने

*
संदीप बाबू बड़ी तेज़ी में बढ़े जा रहे थे ।जल्दी से आगे बढ़ कर मैंने आवाज़ लगाई ,'संदीप बाबू ,रुको ज़रा ।'
रुके नहीं वे ,बस चाल ज़रा धीमी कर ली ।
'ये आज क्या हो गया इन्हें 'सोचा मैंने और अपने कदम तेज़ कर लिये ।
'क्या हुआ ?कुछ खास बात है ?'
'आज मंगल है न !बजरंगबली को प्रसाद चढ़ाना है ।आज देर हो गई ।'
हाथ मे प्रसाद का डब्बा था ,बोले बस अभी दस मिनट में लौटता हूँ ,तुम घर चलो ।'
पता लगा लड़के ने किसी प्रतियोगिता का फ़ार्म भरा है ।हर मंगल और शनि को मंदिर में लड्डू चढाते हैं ।
*
आजकल इम्तहानों का मौसम है । मंदिरों में बड़ी भीड रहने लगी है।भगवान को प्रसन्न करने के चक्कर में हैं सब लोग ।बिना उसकी मर्जी के कुछ नहीं होता !छात्र तो छात्र उनके माता पिता भी अधिक आस्तिक होकर भक्ति प्रदर्शित करने लगे हैं ।कोई हनुमान जी को लड्डू चढ़ा रहा है कोई शुक्रवार व्रत रख रहा है कोई वृहस्पतिवार को पीले खाने की तलाश में है ।श्रद्धा की बाढ आ गई है चारों तरफ़ । अंतःकरण शुद्ध हुये जा रहे रहे होंगे,सारी मलीनता धुल जायेगी।
पर कहां? यह सब तो अपना मतलब साधने को हो रहा है। नहीं यह वह असली श्रद्धा नहीं है उस पवित्र भवना को भी प्रदूषित कर डाला है इन लोगों ने । रिश्वतें दी जा रही है भगवान को अपने अनुकूल बनाने के लिये ।
भगवान से अपने मन की चाह पूरी कराने के सारे हथकंडे अपनाये जा रहे हैं।,रिश्वत पूरी , मेहनत अधूरी !
और भगवान ?वह क्या समझते नहीं ?सब जानते हैं वह !अंतर्यामी है न - इसलिये खूब मज़े लेते हैं ।
हर चीज़ को अपने हिसाब से मोल्ड कर लेते हैं ।
पूछिये वह कैसे ?
नहीं मालूम न ?
दैत्यराज बलि का नाम सुना है ?
,महादानी ,परम श्रेष्ठ इन्सान ,विष्णु भक्त ,प्रजा को अति प्रिय ।दक्षिण में तो लोग अब तक उसके नाम पर दीवाली मनाते हैं ,उनकी मान्यता है कि उस दिन वह अपनी प्रिय प्रजा का हाल लेने आते हैं ।
हाँ ।वही बलि ।अपने इन भगवान महोदय ने क्या किया उनके साथ ?
दान माँगा था ,बावन अँगुल का बन कर ।
हाँ ।बौने बन कर दान माँगने पहुँच गये ।उसने याचक का पूरा सम्मान किया और उसकी इच्छा पूछी ।इनने तीन पग धरती माँगी ।राजा बालि को हँसी तो आई होगी -क्या जरा सा बौना ,मुझसे माँगा भी तो क्या तीन पग ज़मीन ।शायद संदेह जागा हो कि ज़रूर दाल में कुछ काला है ।पर व्रती था ,व्रत तो पूरा करना ही था । आगे जो हो मंजूर ! बिल्कुल वही जो आगे कर्ण के साथ हुआ।और इन महाशय ने चाल खेल डाली ।रूप विस्तार कर दो पगों सारी धरती आकाश माप लिया और तीसरी बार उसके सिर पर पाँव रख उसे पाताल भेज दिया ।
असल में यह इन्द्रासन का झगड़ा था ।इन्द्र बड़ा कपटी है इन्द्रासन को किसी भी कीमत पर हाथ से जाने नहीं देना चाहता ।उसी ने तो गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या से कपट किया था ।फिर भी ये उसका हमेशा फ़ेवर करते हैं ।
इन्द्र ने तो हद कर दी भी फिर भी पद नहीं छीना गया !
पद न छिन जाये इसीचिये तो इन्हें हमेशा पटाये रखता है ।और ये दूसरे की अच्छाई और सज्जनता को हथियार बना कर उसी के खिलाफ़ स्तेमाल करते हैं ।
इनकी कुछ मत पूछो ।पाँण्डवों को तो जानते ही हो पाँचों के पिता अलग अलग थे इसीचिये वह चिन्तित रहती थी क कहीं कि कहीं आपस में फूट न पड़ जाये ।तभी द्रौपदी को कॉमन पत्नी बना दिया ।कुन्ती का एक पुत्र उसकी कौमार्यावस्था में सूर्य से उत्पन्न हुआ था ।कुन्ती ने उसे नदी में बहा दिया था अधिरथ और उसकी पत्नी राधा ने उसका पालन-पोषण किया था ।वह कौन्तेय से राधेय बना और जीवन भर अपमान झेलता रहा ।दुर्दम,अपराजेय योद्धा ,परम श्रेष्ठ धनुर्धर ! लेकिन जीवन भर विडम्बनायें झेलता रहा ।कुन्ती ने जानते हुये भी कुछ न किया,बल्कि उसने भी अपने विहित पुत्रों की सुरक्षा के लिये उससे उस मातृत्व की कीमत माँग ली कृष्ण के कहने पर , जिसने उसे सदा वंचित रख कर जीवन अभिशप्त बना दिया था ।
और स्वार्थी इन्द्र की करतूत और स्वार्थपरता देखो, अपने पुत्र अर्जुन की कुशलता के लिये अपने ही सहयोगी देवता सूर्य के पुत्र कर्ण से उसके शरीर से चर्मवत् संयुक्त कवच - कुण्डल दान में माँग कर उसकी मृत्यु का प्रबन्ध कर दिया ।सद्भावना ,औचित्य , न्याय सबको अँगूठा दिखा दिया ।वह तो इन्द्र ने किया । विष्णु का जालंधर को शक्तिहीन बनाने के लिये उसका परम साध्वी पत्नी तुलसी को उसी के पति का रूप धर कर छलपूर्वक अपनी अंकशायिनी बनाना नैतिकता की किस श्रेणी में गिना जाय ?!
वह यह सब अपने लोगों के इन्टरेस्ट में करते हैं ।
इसीलिये तो ! इसीलिये तो हम हमेशा भगवान को याद करते हैं ।बस वह अपने बने रहें और किसी के साथ कुछ होता रहे हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता ।उचित हो अनुचित हो कोई अन्तर नहीं पड़ता ।बस , अपना उद्देश्य सिद्ध होना चाहिये ! भगवान को अनुकूल बना लो -येन केन प्रकारेण !चाहे प्रसाद बोल कर ,भजन-पूजन कर ,या और किसी कर्म काण्ड के सहारे !और फिर दुनिया को रक्खो ठेंगे पर !
कर्मों का फल मिलता है न?
कर्मों का फल ?हो सकता है वह भी उनकी सुविधा पर निर्भर है ।तपस्या का फल हमेशा कल्याणकारी नहीं होता यह तो हम प्रमाण दे सकते ।
क्या कहा तप का फल हमेशा अच्छा ही मिलेगा ?
यह मत कहो।रामकथा की ताड़का का नाम सुना है ?वह सुकेतु यक्ष की पुत्री थी ।उसके पिता ने संतान के लिये घोर तप किया ।ब्रह्मा जी प्रसन्न हुये । उसे ऐसी पुत्री प्राप्त होने का वर दिया जिसमें हज़ार हाथियों का बल हो और यही उसके लिये शाप बन गया। बताओ भला सहज जीवन कहाँ रह गया?।फिर उसे और उसके पति को मुनियों ने शाप दे दे कर चैन से जीना दुश्वार कर दिया ।अगर यह वरदान है तो शाप क्या है ?
फिर तो हम इन्हीं की आराधना करेंगे ।हम गलत हों चाहे सही हमारे फ़ेवर में रहेंगे तो फ़ायदा हमारा ही होगा ।औरों से हमें क्या ?
सच्ची उसकी माया हम नहीं जान सकते ,वही जाने ।
हम भारतवासी उसकी आदत से अच्छी तरह परिचित हैं ।जब देखते हैं काम नहीं निकला तो --
और किसी दूसरे देवता को मनाना शुरू कर देते हैं । इतने सारे देवता हैं कोई तो झाँसे में आ ही जायेगा !
यही तो मुश्किल है ।इतने सारे देवता हैं ।
एक को खुश करो और दूसरा बीच में टाँग अड़ा दे तो गये काम से ।कभी कभी बड़ा गड़बड़ हो जाता है उनके आपसी चक्कर मं ।
हुआ ऐसा कि एक हिन्दू ,एक मुसलमान और एक ईसाई नाव में जा रहे थे नाव बीच भँवर में फँस गई ।हिन्दू राम-राम करने लगा ,मुसलमान अल्ल्ह अल्लाह ,और ईसाई ईशू ईशू टेरने लगा ।अल्लाह दौड़े अपने भक्त को बचा लया ,ईशू दौड़े अपने भक्त को बचाया ,हिन्दू की पुकार सुन राम आ ही रहे थे कि वह अधीर होगया कि अभी तक आये क्यों नहीं और कृष्ण ,हाय कुष्ण चिल्लाने लगा ।कृष्ण दौड़े पर वे पहुँचें इसके पहले ही वह बेसब्रा भोलेनाथ भोलेनाथ पुकारने लगा ।कृष्ण बेचारे जहाँ थे वहीं रुक गये ।और भोले नाथ पहुँचते उसके पहले ही बजरंगवली की पुकार लगा दी ।भोलेनाथ ने सोचा हनुमान दौड़ेंगे और हनुमान ने सोचा शंकर जी पहुँच ही रहे हैं हम बेकार जा कर क्या करें और इस बीच वह पानी में गुड़ुप हो गया ।
दिन पर दिन मेरा विश्वास बढता जा रहा है कि भगवान अपनी शरण में आने वालों का कल्याण करता है -चाहे वे लोग उचित मौकों पर ,या जब जरूरत पड़े तब थोड़ी देर के लिये ही शरण में जायें।रोज़ देखती हूँ ,ऑफ़िसों में जो लोग प्रार्थना पत्र पर पूजा-पत्र चढवाये बिना आगे नहीं बढने देते ,अपना हिस्सा वसूले बिना किसी का काम नहीं करते शनिवार या मंगलवार को भगवान के दरबार में उपस्थित हो टीका लगा कर गिड़गिड़ा कर क्षमा मांग लेते हैं ,ऊपर की वसूली का दशमलव ज़ीरो एक परसेन्ट प्रसाद में व्यय कर उसे जायज़ बना लेते है ,दिन पर दन मोटे और सर्व- सुविधा सम्पन्न होते जा रहे हैं।कैसे संभव होता है यह? हर हफ़्ते भगवान से माफ़ी माँग कर ,प्रसाद प्रार्थना से ही तो ।अगर पाप ही न करें तो ये सब करने की ज़रूरत ही क्या ?
मुझे याद आगया ,बड़ी पुरानी बात है ,आठवीं कक्षा को रहीम दोहे पढा रही थी । समझाने के बाद बीच बीच में बच्चों से अर्थ पूछ लेती थी ।उस दिन ' क्षमा बड़ेन को चाहिये छोटेन को उत्पात' का अर्थ पूछने पर बच्चा बोला -बड़ों को क्षमा और छोटों को उत्पात करना चाहिये !छोटों को उत्पात क्यों करना चहिये पूछने पर बोला चाहिये शब्द दोनों के लिये है ।अगर छोटे उत्पात नहीं करेंगे तो बड़े क्षमा कैसे करेंगे ?उसके तर्क का कोई उत्तर मेरे पास नहीं था ।ऐसे ही हत्बुद्धि मैं रह गई थी जब 'सूर दास तब विहँसि जसोदा लै करि कंठ लगायो' का अर्थ एक लड़की ने बताया -तब सूर दास जी नें हँस कर यशोदा जी को गले से लगा लिया । मैं उसे समझाती रही ,पर बाल बुद्धि ठहरी ।सामने तो कुछ नहीं बोला पर उसे लगा कि एक बात साफ़-साफ़ लिखी है और ये टीचर उसे घुमा-फिरा कर बता रही हैं । कभी कभी तो मैं भ्रम में पड़ जाती हूँ कि मैं ही तो गलत नहीं हूँ !वैसे सब का अपना-अपना सोच !सबको भगवान बुद्धि देते हैं ।
हमारे एक अभिन्न मित्र हैं,लोगों की जेब से पैसा कैसे खींचा जाता है यह बताते रहते है ।एक दिन मैंने पूछा ग़रीबी में जिनका आटा वैसे ही गीला है उन को ते बख़्श दिया करो ।बड़े दार्शनिक अन्दाज़ में बोले -गरीब अमीर ऊँच-नीच हमारे लिये सब बराबर। हम ये भेद-भाव नहीं करते!भगवान की बनाई दुनिया सब अपना अपना भाग्य लेकर आते हैं ,इसके लिये हम क्या कर सकते हैं ?
ऐसे ऐसे फ़ितरती लोग कि भगवान को ही चपत लगा दें ! भगवान भी क्या करें, उन को भक्तों का सहारा है !दोनों के काम चलते हैं ।कितनी भी अति करो उसकी आड़ ले लो ,वही रक्षा करेगा !
जय हो ,जय हो भगवान ,तुम्हारी जय जयकार हो !

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

और अम्माजी जीत गईं --

अम्माँ जी को आते देख मैने सिर पर पल्ला डाला ही था कि उन्होने टोक दिया ,' बहू ,सिर ढाँकने की कोई जरूरत नहीं । अरे ,सिर ढाँकने के दिन अब हमारे हैं कि तुम्हारे ? '
मैं एकदम अचकचा गई , क्या कुछ गलती हो गई मुझसे ?
पूछ बैठी ,' हम तो शुरू से ढाँकते आ रहे हैं ,अम्माँ जी ! पहले तो घूँघट --- ।'
' कहा न अब कोई जरूरत नहीं है ।'
लगता है बहुत नाराज हैं !
मै तो हमेशा ध्यान रखती हूँ । हाँ ये कनु जब गोदी मे होता है तो हाथ- पाँव चलाता रहता है और मै खुला सिर ढँक नहीं पाती ।
' अम्माँ जी ,मै तो यहाँ घर के बाहर भी सिर पर पल्ला लिये रहती हूँ ।आप के पोते के मारे भले ही कभी ---।'
' सो सब हमे पता है, पर अब दताए देती है कि इस सब की कोई जरूरत नहीं ।'
' लेकिन अभी तक तो आपको कायदा पसन्द था --?'
भहुओं के सिर ढके रहने ,सबके सामने चारपाई पर न बैठने , दब ढँक कर रहने आदि को कायदा कहा जाता है ।
' ज्यादा इन्दरा गान्धी बनने की कोसिस मत करो बहू ,इतना तो तुम भी समझती हो कि सिर ढाँकने का क्या मतलब है ।'
मेरी कुछ समझ मे नहीं आया । सिर ढाँकने का भला क्या मतलब हो सकता है ? आदि काल से भरतीय बहुएँ यही सब करती आई हैं । अभी तक तो अम्मा जी को कायदा पसंद था ,खुद भी साड़ी की किनार माथे से एक इंच आगे निकाले रखती थीं -कहती थी इससे चेहरे की आब बनी रहती है। ' बच्चों के मारे या काम -धाम मे हम बहुओं का कभी पल्ला इधर-उधर हो जाय़ तो कहती थीं ,' हमें का ,तुम उघारी नाचो !'
और आज ?
मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ा । वे समझ गईं । स्पष्ट करने लगीं ,' देखो बहू ,पालिटिक्स करने के दिन तुम्हारे हैं कि हमारे ? अरे तुम कल की आई अभी से सिर ढँक कर पालिटिक्स करोगी और हम सिर खोले देखते रहेंगे ?'
मै चकित सी उनका चेहरा देख रही थी । उन्होने आगे समझाया ,' इन्दरा जी जब पालिटिक्स मे आईं ,उनका सिर ढँका रहने लगा ।अब सोनिया जी को ही देख लो ,सिर पर पल्ला डाले कैसी शालीनता की मूरत लगती हैं !जनम से विदेसी पर पालिटिक्स का पूरा कायदा करती हैं ।'
अम्मा जी की प्रखरता मैं आज देख पाई थी ।
वे आगे बताने लगीं ,' कायदा पसन्द था जब की बात और थी । सबन के घर यही होता था । तब मेहरारुन के लै तैंतीस परसेन्ट रिजरवेशन की बात नहीं थी ।'
मेरे ज्ञान चक्षु खुलने लगे! अम्मा जी के सिर का पल्ला धरे-धीरे खिसकता हुआ ढाई इ़ञ्च पीछे यानी कानों तक आ गया था !शरीर पर हल्के-फुल्के गिनती के आभूषण रह गए थे ,अब तक वे पहनने-ओढ़ने की बड़ी शौकीन थीं ! मै उसी पुरानी दुनिया मे खोई रही ,बाहर तो बाहर , घर मे क्या परिवर्तन हो रहा है यह भी मुझे नहीं दिखाई दिया ? अम्मा जी की तो इस बीच भाषा ही बदल गई थी १ इस परिवर्तन की शुरुआत काफ़ी पहले हो गई थी - वे चाय के साथ अख़बार पढने लगीं थीं ,मोहल्ले की महिलाओं के साथ बात-चीत के उनके टापिक बदल गए थे ।
हमारी अम्माजी आठवीं जमात तक पढ़ी है उस जमाने की जब लड़कियों को पढ़ाने की जरूरत नहीं समझी जाती थी ,उनके मामा की शादी निकल आई तो इम्तहान नहीं दे पाईं ।अपनी क्लास टीचर की चहेती थीं ,लड़कियों पर उनका रौब था ।
अब उनकी बातों के विषय होने लगे हैं -बिट्टन देवी को काला अक्षर भैंस बराबर ,पर अपने वार्ड से सभासद के चुनाव में खड़ी हो रही हैं -अपनी इसकूल जाएवाली बिटिया से अक्षर लिखना सीख रही हैं ,अब अपना नाम लिख लेती हैं । हमारे सामने बियाह के आई परसादी की बहू घूँघट उतार कर अपने लै वोट माँगने सारे दिन बाहर घूमती है ,भासण देना भी सीख गई है ।
अम्मा जी भी हैणडलूम की किनारीदार साड़ी खरीद लाई हैं ,कहती हैं ,'पब्लिक के बीच अइसे ही अच्छा लगता है ।'
'देखो दुलरिया अब सिरीमती सियादुलारी कहाती हैं ! ढंग से कपड़े पहनने का सहूर नहीं था - अब करारी सूती साड़ी पे मैचिंग ब्लाउज़ पहनती हैं -क्या ठसके हैं !
चुनाव का मौसम है ! नगर सभासद के चुनाव मे कई महिलाएँ खड़ी हुई हैं । बिट्टन देवी कल रास्ते मे मिल गईं बोलीं , 'हमका वोट देना १'
अम्माँ मुझसे बोलीं ,' न पढ़ी न लिखी !इनका कउन वोट देगा !'
अम्माजी के बेटे ने कहा ,' वो जीत जाएँगी तुम देख लेना !पार्टी की रिज़र्व सीट है ! राबड़ी देवी कौन लिखी-पड़ी है , मुख्यमंत्री बनी बैठी हैं ।'
हालात अचालक ऐसे बदले कि हमने कभी सोचा भी नहीं था । ।बिट्टन देवी सीढियों से लुढ़क पड़ीं , पाँव की हड्डी टूट गई । लोगों को हमारी अम्मा से योग्य कोई जँचा नहीं । तमाम कोशिशों कर उनकी जगह नामाँकन करवा दिया ।
जीतना तो था ही!अम्मा जी इलेक्शन जीत गईं । गट्ठर भर फूल मालाओं से लाद दिया गया उन्हें । उन्होने पहले ही मुझसे कह दिया था ,'बहू ममारे भासण लिखने की जुम्मेदारी तुम्हारी ।'
' हम तो तैयार हैं ,अम्मा जी , लेकिन पिताजी ज्यादा अच्छी तरह --'
' ना बहू ,अब उनका मुँह नहीं तकना.। सिर झुकाए-झुकाए घर की चाहारदीवारी मे इतनी जिन्दगी गुजार दी ,अब सिर उठाने का मौका आया है --- बस तुम नेक मदद कर देना , फिर तो धीरे- धीरे हम भासण भी सीख जाएंगी । पर सुरू से अपनी हँसी हो अइसा नहीं करेंगी ।'
अपने पहले वक्तव्य पर सफल होकर बहुत खुश हुईं ,मुझे गले लगा लिया ,' अब देखो,बहू हम कैसी मुस्तैदी ले काम कराती हैं ।अभै तक तो इनके असिस्टन बने रहे --'
'क्या ,अम्मा जी ?'
'अरे वही जो हमेसा काम कराते हैं ।'
'एसिस्टेन्ट ?'
'हाँ,हाँ ,वही ।'
देसी मुहावरों का तो पहले ही उनके पास भणडार था अब अंग्रेजी के शब्दों का भी खुल कर प्रयोग करने लगी हैं ।
हमारे सलवार- कुर्ता पहनने पर भी अब कोई रोक नहीं रही । लोगों से कहती हैं, 'हमने तो बहुअन - बिटियन मे कभी फ़रकै नहीं माना ।'
ताज्जुब तब ङुआ था जब उस दिन पूजा के मौके पर अम्मा जी ठेठ देसी लहज़े मे बोलने लगीं ,' अरे हमार बिटवा -बहुरिया नीक रहैं ! ऊ न करित तो हम ई सब कहां कर पाइत ?'
इनहोने फ़ौरन टोका ,'अम्मा ,अब तुम माननीय सदस्य हो ठेठ देसी भाषा भूल जाओ !'
'अरे ,बिटवा तुम लोगन के साथ इहै भासा बोल के हमार जिउ जुड़ात है ।'
हालात कितने भी बदल जायँ वे रहेंगी हमारी अम्माजी ही !
उनकी की पूछ बहुत बढ़ गई है । रोज ही से समारोहों के आमंत्रण मिलते हैं । दो-चार लोग उन्हे पूछते चले आते हैं । वे मुस्कराती हुई ,गौरव से भरी दालान मे कुर्सी पर जा बैठती हैं ।सबकी सहायता करने को तत्पर रहती हैं । कल ही कामवाली को समझा रही थीं ,'----देखो , कम तुम भी नहीं हो ।जाहिल औरतन की तरह उघटियाँ - पैचियाँ बन्द करो । काहे रोज लड़ाई पे तुली रहती हो ?'
और तो और अब बाबूजी की दृष्टि भी बदल गई है । अम्माजी के आत्म- विशवास भरे चेहरे को ऐसे देखते हैं जैसे किसी नई महिला के दर्शन कर रहे हों। अब कदर होने लगी है , घर की मुर्गी दाल बराबर नहीं रहेगी ।

बुधवार, 7 जुलाई 2010

फ़ैसला सुरक्षित है

*
अक्सर अख़़बारों में पढने को मिलता है और ख़बरों में भी सुनाई देता हैं, कि कोर्ट में किसी केस का फैसला सुरक्षित कर लिया गया ।हमें तो बड़ा ताज्जुब होता है ।बडा बहुमूल्य फ़ैसला होगा जो उसे सुरक्षित रखे बैठे हैं ।अभी तक हीरे जवाहरात ,पुरातत्व की चीजें, मरनेवाले की विल आदि सुरक्षित रखे होने की बात सुनी थी ।'फैसला सुरक्षित रखा गया' जब पहली बार सुना तो हम चौंके ।हमने तो सोचा था कि फैसले सुनाये जाने को होते हैं ,जिससे सब लोग जानें ,समझें , उससे कुछ सीख ग्रहण करें। फैसला किया गया और सुरक्षित रख दिया गया! किसी को दिया या बताया नहीं गया तो फैसला करने से क्या फायदा हुआ ?वैसे तो लोग इन्तजार करते हैं ,कब फैसला होगा,क्या होगा?सुनते हैं,जानते हैं तो लोगों पर असर पडता है। एक उदाहरण सामने रहता है कि ऐसा करने पर उसका यह नतीजा हो सकता है ।मेरा विचार था कि फैसले इसीलिये सुनाये जाते हैं कि जनता पर उसका असर पडे ,वह चेत जाये ।नहीं तो किया फैसला और दे दी सजा ,लोगों को इन्वाल्व करने की क्या जरूरत ! लेकिन अब मानसिकता बदल गई है ।हो सकता है पुरातत्व की वस्तु बन जाने पर उसे उद्घाटित करें ।
हमें जहाँ तक याद है पहले ऐसा सुनने में नहीं आता था कि फ़ैसला नहीं बतायेंगे । अल्मारी में सीलबन्द किया रख रहेगा ।हो सकता है होता हो ।पर सुरक्षित रखने का रिवा़ज अब बढता जा रहा है ।मैंने सोचा कि पब्लिकली न बतायें ,व्यक्तिगत रूप से पूछे जाने पर तो बता देंगे कि क्या निर्णय किया ।
हमने जाकर पता किया ।कोई कुछ बताने को तैयार नहीं ।बेकार दुनिया भर को क्यों बीच में डालें अकेले जाकर जज साहब से पूछ लें।हमने अर्दली से कहा कि इस मामले में हम उनसे बात करना चाहते हैं । उत्तर मिला -साहब सिर्फ मुजरिमों -अपराधियों से मिलते है ,वह भी कोर्ट-रूम में। कान खोल कर सुन लो वे सुनते हैं सिर्फ मुजरिमों ,वादियों ,प्रतिवादियों और अनुवादियों की !तुम जैसे लल्लू-पंजू , प्रवादियों से बात नहीं करते ।
'तो फ़ैसला कैसे पता लगे ?'
'नहीं जान सकते ।फ़ैसला सुरक्षित है ।'
'अरे हम जानना ही तो चाहते हैं ।कोई उनके फैसले को लूट थोडे ही लेंगे ।'
'यही तो खतरा है ।इसीलिये नही खुलासा किया ।'
'पर वह है कहाँ ?'
'कहा न, बता कर रिस्क नहीं लेना । लिफ़ाफे़ में सीलबन्द कर ,अल्मारी में लॉक कर दिया है ।ज्यादा हल्ला मचाओगे ,बहसबाजी करोगे तो कमरा बन्द करके उसमें भी ताला डाल देंगे ।सुरक्षित रखना हमारा काम है ।'
'पर मालूम तो पडॉना चाहिये ।जब केस सबकी जानकारी में हुआ ,तो फैसले का खुलासा क्यों नहीं ?'
' क्यों प्राण खाये जा रहे हो ?समझते क्यों नहीं जो चीज सुरक्षित है उसके पीछे क्यों पडे हो ?आखिर तुम्हारी मंशा क्या है ?'
'यह लोक- तंत्र है ,हमे जानने का हक है ।'
'अजीब लोगों से पाला पडा है !अरे उसी की नज़रों से तो बचाना है ।जनता के बीच हर चीज अरक्षित हो जाती है ।हमारा काम न्याय की सुरक्षा है ।फैसला न्याय है इसलिये बन्द कर दिया है ,जिसमें सुरक्षित रहे ।'
हमने फौरन उसके लिये चाय -नाश्ता मँगवाया ।थोडा ढीला पडा वह ।बताने लगा -जानते हो कितना टाइम लगता है एक -एक मुकद्दमें के फैसले में ?दस-दस,बीस-बीस साल तो मामूली बात है ।इतने सालों की मेहनत उनकी ।उसे भी सबके बीच अरक्षित छोड दें तो साहब की तो सारी मेहनत पर पानी फिर जायेगा ।'
हमारे एक संबंधी के रिश्तेदार न्यायाधिकरण में कार्यरत हैं।उनसे चर्चा हुई ।उन्होंने पहले ही सावधान कर दिया कि हम लोग वैसे ही जनता से बचते रहते हैं ।यह हमारी-उनकी आपसी बात है ,सार्वजनिक करने की जरूरत नहीं । अगर लोगों को पता लग गईं तो छीछालेदर होने लगेगी
।साराँश यह था -न्याय चुप रहता है ।पहले वारदातें होती हैं ।जब हो चुकती हैं तो पुलिस हरकत में आती है ।धर-पकड करती है ।फिर हमसे गुहार की जाती है ,शिकायत लाई जाती है .सबूतों सहित विधिपूर्वक वाद खडा किया जाता है ।तब हम न्याय का उपक्रम करते हैं ।न्याय करने के लिये पूरे प्रमाण चाहिये और वे तब मिलते हैं जब ,अपराधी का काम पूरा हो जाये ।जब माँगा जाता है तब न्याय दिया जाता है ।हमने सब बताया ,' हम कबसे माँग रहे हैं। फ़ैसला हो गया ,पर दिया नहीं गया ।'
वे कुछ ताव में आगये,'फिर वही धुन पूर दी ! न्याय कर दिया गया है।सुरक्षित रखी गई चीज,किसी के सामने नहीं लाई जा सकती ।'
हम सोचते रहे ,सोचते रहे ,जज साहब न्यायविद् हैं ।जानते है जनता के बीच न्याय अरक्षित है ।उसके बीच फ़ैसला गया तो उसे भी चोट पहुँचाने की कोशिश की जायेगी ।जज साहब को भी चोट पहुँचेगी ।चलने दो जैसा चलता है ।होने दो जो होता है ,होनी को कौन रोक पाया है
कभी तो यह फ़ैसला लोगों के सामने आयेगा ।आज नहीं तो कल ,कल नहीं तो परसों ,मेरा मतलब है ,लम्बे समय के उपरान्त यह उद्घाटित होगा ।होगा ,अवश्य होगा ! कल को हम नहीं होंगे ,जज साहब और वादी -प्रतिवादी भी पता नहीं कहाँ होंगे ।पर फ़ैसला रहेगा ।हम अरक्षित है पर वह सुरक्षित है ।अभी अल्मारी में बन्द है यह फ़ैसला इतिहास बनेगा । पुरातात्विक वस्तुओं के साथ रखा जायेगा ।और उस समय जो लोग होगे ,जानेगे कि हमारे यहाँ का न्याय कितना सजग सचेत है ।कितने अलभ्य फ़ैसले हैं और कितने सुरक्षित ।