शनिवार, 30 जनवरी 2021

चित्रगुप्त जी की बेरुख़ी -

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 एक विशेष घटना जिसके फल स्वरूप सृष्टि में अव्यवस्था फैल गई थी 

,कायस्थ लोग दीपावली की भाई दूज पर चित्रगुप्त जी की पूजा के  क्रम में लेखनी और मसि पूजन के पश्चात्  अगले दिन तक के लिये लेखन कार्य स्थगित कर ,कलम रख देते हैं.
इसके पीछे एक बड़ा कारण है .एक ऐसी महत्वपूर्ण धारियों को न्याय मिलना असंभव हो गया था.

इसके पीछे एक बड़ा कारण है .एक ऐसी महत्वपूर्ण धारियों को न्याय मिलना असंभव हो गया था.
हुआ यह था 
 जब श्रीराम लंका विजय कर अयोध्या लौट रहे थे, उनके प्रतिनिधि के रूप में कार्य कर रहे, भरत जी ने सोचा कि उनका राज्य उन्हें अर्पण कर अब यथाशीघ्र भार-मुक्त हो जाऊं. गुरु वशिष्ठ की सहमति से , वे राम जी के राज्याभिषेक की व्यवस्था में लग गए.भरत जी ने गुरु से उस अवसर पर सभी देवी-देवताओं को आमंत्रित करने का निवेदन किया. प्रसन्न मन गुरु वशिष्ठ ,आमंत्रण भेजने का काम शिष्यों को सौंप  अन्य कार्यों में व्यस्त हो गये.
राजतिलक के समय जब श्रीराम ने आगत देवी देवताओं में श्री चित्रगुप्त जी नहीं पधारे थे, श्री राम ने भरतजी से पूछा कि उनका आगमन क्यों नहीं हुआ.. खोज-बीन करने पर पता चला की गुरु वशिष्ठ के शिष्यों द्वारा उन तक निमंत्रण पहुंचाया ही नहीं गया.
 पल-पल की ख़बर रखनेवाले  चित्रगुप्तजी सब-कुछ जान चुके थे उन्होंने इस भूल को अक्षम्य मानते हुए सभी प्राणियों का लेखा-जोखा बही सामने से खिसका दी और लेखनी परे रख दी .
जब सारे देवी-देवता राजतिलक से लौटे तो देखा बहुत अव्यवस्था मची हुई है. प्राणियों के कर्म का लेखा-जोखा हुआ ही नहीं.और यह निश्चित करना संभव नहीं कि किसकी कौन-सी गति हो. फलस्वरूप  स्वर्ग-नरक के सारे काम रुक गये हैं. 
 सारा मामला श्री राम की समझ में आ गया. इस भारी चूक के परिमार्जन के लिए श्रीराम  गुरु वशिष्ठ के साथ  अयोध्या में श्री चित्रगुप्त जी के स्थान श्री धर्म-हरि मंदिर गये और उनकी स्तुति की.तत्पश्चात चूक के लिये क्षमा-याचना करते हुए उनसे सृष्टि-संचालन में सहयोग देने की प्रार्थना की.
श्री चित्रगुप्त जी ने राम का आग्रह स्वीकार कर लिया. उन्होंने  प्रातःकाल   विधिपूर्वक मसि-पात्र सहित लेखनी की पूजा कर उसे ग्रहण किया प्राणियों के कर्मों का विवरण सूची-बद्ध करने के लिए बही उठा ली और लेखन-कार्य पुनः आरम्भ कर दिया. सृष्टि का कार्य विधिवत् चलने लगा.
लेकिन इस बीच चौबीस घण्टे उनकी लेखनी निष्क्रिय रही थी. कायस्थ समाज ने इसका संज्ञान लिया और तभी से पूरी दुनिया में कायस्थ-जन  दीपावली पर 24 घंटों के लिए क़लम रख देते है और अगले दिन क़लम- दावात के पूजन के बाद ही उसका प्रयोग करते हैं.
(अयोध्यापुरी में भगवान् विष्णु द्वारा स्थापित श्री चित्रगुप्त मन्दिर को 'श्री धर्म हरि मंदिर' कहा गया है. धार्मिक मान्यता है कि अयोध्या आने वाले सभी तीर्थयात्रियों को अनिवार्यत: श्री धर्म-हरि जी के दर्शन करना चाहिये, अन्यथा उन्हें तीर्थ यात्रा का पुण्यफल प्राप्त नहीं होगा. भी यह उल्लेख अयोध्या माहात्म्य में  मिलता है).

स्वामी विवेकानन्द ने अपनी जाति की व्याख्या कुछ इस प्रकार की है:
मैं उन महापुरुषों का वंशधर हूँ, जिनके चरण कमलों पर प्रत्येक ब्राह्मण ''यमाय धर्मराजाय चित्रगुप्ताय वै नमः'' का उच्चारण करते हुए पुष्पांजलि प्रदान करता है और जिनके वंशज विशुद्ध रूप से क्षत्रिय हैं। यदि अपने पुराणों पर विश्वास हो तो, इन समाज सुधारकों को जान लेना चाहिए कि मेरी जाति ने पुराने जमाने में अन्य सेवाओं के अतिरिक्त कई शताब्दियों तक आधे भारत पर शासन किया था। यदि मेरी जाति की गणना छोड़ दी जाये, तो भारत की वर्तमान सभ्यता शेष क्या रहेगा? अकेले बंगाल में ही मेरी जाति में सबसे बड़े कवि, इतिहासवेत्ता, दार्शनिक, लेखक और धर्म प्रचारक हुए हैं। मेरी ही जाति ने वर्तमान समय के सबसे बड़े वैज्ञानिक (जगदीश चन्द्र बसु) से भारतवर्ष को विभूषित किया है। स्मरण करो एक समय था जब आधे से अधिक भारत पर कायस्थों का शासन था। कश्मीर में दुर्लभ बर्धन कायस्थ वंश, काबुल और पंजाब में जयपाल कायस्थ वंश, गुजरात में बल्लभी कायस्थ राजवंश, दक्षिण में चालुक्य कायस्थ राजवंश, उत्तर भारत में देवपाल गौड़ कायस्थ राजवंश तथा मध्य भारत में सातवाहन और परिहार कायस्थ राजवंश सत्ता में रहे हैं। अतः हम सब उन राजवंशों की संतानें हैं। हम केवल बाबू बनने के लिये नहीं, अपितु हिन्दुस्तान पर प्रेम, ज्ञान और शौर्य से परिपूर्ण उस हिन्दू संस्कृति की स्थापना के लिये पैदा हुए हैं।
—स्वामी विवेकानन्द.


शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

राग-विराग - 4.



['मोइ दीनों संदेस पिय, अनुज नंद के हाथ।

रतन समुझि जनि पृथक मोहि, जो सुमिरत रघुनाथ।।'

                              - रत्नावली]

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'कैसी अद्भुत जोड़ी!'

विवाह समय सब ने कहा था कैसी अद्भुत जोड़ी- जैसे वर-कन्या के वेष में स्वयं सीता-राम विराज रहे हों!

लोगों की नज़र लग गई उस युगल पर. 

 'जड़ चेतन गुन-दोसमय बिस्व कीन्ह करतार..'

  विधाता गुण-दोषमयी सृष्टि रचकर अपने प्रयोग करता है. मानव के लिए विज्ञान और आनन्द का विधान तो किया पर सबसे पहले अन्न-प्राणमय देह ज़रूरी कर मनोमय को बीच में डाल दिया.आदमी बेचारा करे तो क्या करे?

 मन के उत्पात झेले बिना निस्तार कहाँ! 

दो प्रखर व्यक्तित्व संपन्न प्राणी मिलें तो जीवन सामान्य कैसे रह पाये.नियति पहले ही असामान्यता उनके हिस्से में लिख देती है. क्योंकि यहाँ सर्वथा दोषहीन कोई नहीं होता. 

और बुद्धि के हंस ने तुरंत विकार परख लिया. रत्नावली की बात तुलसीदास के मन को लग गई. कोई साधारण स्त्री होती तो पति पर उसके कहने का यह प्रभाव न पड़ता, गृहस्थी की गाड़ी ढचर-ढचर करती आगे बढ़ती रहती. जीवन का प्रवाह टकराता-बिछलता बहता रहता. पर यह रत्नावली थी और पति थे  तुलसीदास. दोनों  एक दूसरे की टक्कर के.कोई किसी से घट कर नहीं - न विचार-व्यवहार में न बुद्धि-विवेक न काव्य-कौशल में .दीनबन्धु पाठक की संस्कारशीला, सुशिक्षित परम रूपवती कन्या.जिसके लिये पिता को तुलसी के सिवा कोई उपयुक्त वर जँचा ही नहीं था.

तुलसीदास लौ़ट आए. पर अब घर, घर कहाँ था.

अचानक कैसा विपर्यय -.एकदम सब कुछ बदल गया.


 राजापुर में तुलसी के पिता पं० आत्माराम शुक्ल और पं० जीवाराम शुक्ल दो भाई थे पं.जीवाराम ,के पुत्र थे परम कृष्ण भक्त, अष्टछाप के कवि नंददास.

वहाँ जाकर जब यह पता चला कि उनकी अनुपस्थिति में उनके पिता भी नहीं रहे, मनका संताप तीव्र हो उठा. श्राद्ध कर्म संपन्न कर, विरक्त मन से काशी चले आये.

तुलसी के मानस में बार-बार वही शब्द कौंध जाते हैं.

रत्ना ने कहा था राम की कथा कहते हो,मर्यादापुरुष की कथा कहने के लिये, निर्मल प्रेम की महत्ता निरूपित करनेवाले राम के चरित को गुनना आवश्यक है. उसके बिना उन्हें वर्णित करना संभव नहीं. 

उन दिनों प्रयाग में माघ मेला चल रहा था। अपने यात्रा-पथ में वे वहाँ कुछ दिन के लिये ठहर गये।साधु-संतों का जमावड़ा लगा था.श्रद्धालु जन कथा-वार्ता ,व्रत-पूजा में समय बिता कर तीर्थराज का पुण्य-लाभ ले रहे थे 

गंगा तट पर दिन व्यतीत करते गोस्वामी जी के कानों में एक दिन कहीं से आते हुए राम कथा के स्वर गूंजे.उसी कथा के जो सूकरक्षेत्र में अपने गुरु से सुनी थी, पर बालपन की अबोधता में गुनने से रह गये थे .चकित हो कर उन्होंने चारों ओर देखा.

आभास हुआ वटवृक्ष के नीचे भारद्वाज और याज्ञवल्क्य मुनि  विराजे हैं, रामकथा का अनुश्रवण चल रहा है. यंत्र-चालित से नयन मूँद आवेष्टित  तुलसी सुनते रहे,राम की लीलाओं का साक्षात्कार करते रहे. 

 फिर अपने आराध्य की जन्म-स्थली जाये बिना तुलसी कैसे रह सकते थे, वे अयोध्या के लिये निकल पड़े.

जीवन की तीर्थयात्रा अनवरत चलती रही .तुलसी अधिकाधिक निर्लिप्त होते गये. आराध्य के चरणांकित किसी स्थान को छोड़ा नहीं उन्होंने .

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इतना उत्कट प्रेम वहन करने के बाद मन का कागज़ कोरा रह कैसे रह सकता है! जीवन-पुस्तक के आगे के पृष्ठ लिखे जाने से पिछले अध्याय रिक्त नहीं होते. आधार से हट कर ऊपरी संरचना कहाँ जमेगी, कहाँ आगे का संभार टिकेगा! तार कहीं न कहीं जुड़ते चलते हैं.

कभी-कभी हृदय में आवेग सा उमड़ता है जो भीतर तक हिला जाता है. कुछ चुभता है, रह-रह कर दंश देता है.

तुलसी रत्ना को कब भूले! बस,रूपान्तरण हो गया. दीनबन्धु-पुत्री की   सुरञ्जित साड़ी आवेष्टित काया, हाड़-मांस की नाशवान देह न रह कर जनक-सुता के दिव्य रूप में परिणति पा गई. और उसी के साथ सारा परिवेश सिया-राम मय हो कर दिव्यता से आवरित हो गया.

 नवल तन पर सुन्दर साड़ी धारण किये('सोह नवल तन सुन्दर सारी' - राम चरितमानस) जनक-सुता के रूप में उस अवतरण की कान्ति से संपूर्ण मानस दीप्तिमान हो उठा. वन-वन भटकते, वर्षाकाल में 'प्रियाहीन' अकेले मन की व्यथा झेलते राम और उनके विरही मन को अभिव्यक्त करते भुक्तभोगी भक्त तुलसी के मानस के तार जुड़ गये. जीवन-व्यापी वियोग, भक्ति के आवरण में,सिया-राम की अमर कथा का एक मार्मिक अध्याय बन गया.


'जासु कृपा निर्मल मति पावौं,'

यह निर्मल मति उसी अनुकम्पा का प्रतिफल है, जो सारे जग को सिया-राम मय कर तुलसी की वर्णना में विकीरित हो रही है.

 

क्षणिक मोहावेश में सारी मर्यादायें भूले, तुलसी को धिक्कार कर रत्ना वन्दनीया हो गई.

नहीं, वह कोरी आसक्ति नहीं थी!

चित्त चेत गया और तुलसी ने जीवन के परम उद्देश्य का बोध पा लिया था.

 'हम तो पावा प्रेम रस पतनी के उपदेस.'

सचेत मन, दृढ़ निश्चय ले नयी दिशा में प्रवृत्त हो गया -

'रतन, तुम्हें इस बंधन से मुक्त करता हूँ, और मै भी निर्बाध हो प्रस्थान करता हूँ. 

सहधर्मिणी, तू भी तप जीवन के कठिन ताप में, कि तन की माटी कंचन हो जाये!'

(क्रमशः)

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