गुरुवार, 24 जून 2021

राग-विराग -14.

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गोस्वामी तुलसीदास कोरे धूनी रमाने वाले संत नहीं थे, जिसे केवल  अपनी मुक्ति की चिंता सताती. वे ऐसे संत थे जिसका हृदय लोक-जीवन में संत्रास देख कर व्यथित होता था. उनके आऱाध्य श्रीराम ने स्वयम् अपनी प्रिय प्रजा के हित-संपादन के लिये  अपने सुख को बिसार दिया था, वे मात्र राजा नहीं, समस्त लोक में व्याप्त हो, लोक के विश्वास  और संवेदना में छा गये थे. श्रीराम का यही रूप तुलसी का आदर्श रहा. 

जब नन्ददास ने कहा, 'दद्दू ,गृहत्यागी साधु हो कर भी  असार संसार पर  दृष्टि रखते हो?' .

तुलसी मुस्कराये ,'क्यों नन्दू,संत क्या केवल अपना लाभ देखता है? मेरी दृष्टि में तो वह स्वयम् हानि-लाभ,सुख-दुख,निन्दा-स्तुति से परे है. संत का जीवन समाज से उदासीन रह कर नहीं, समाज को सही राह दिखा कर सार्थक होता है'.

उन्होंने अपना पक्ष स्पष्ट कर दिया था -

'जीने की कला सिखा गये जो ,ये जीवन अब उन्हीं प्रभु की धरोहर है, और उन्हीं को समर्पित है.'

'सिया-राममय लोक को असार कैसे कहूँ? इस लोक के जीवन को सँवारना मेरे लिये राम-काज है .जन-जन में प्रभु राम समाए हैं. श्री राम ने ,धर्म और नीति के लिये जीवन धारण किया. लोक  कल्याण के लिये श्री राम प्रभु आजीवन तपे. उनका महत्व जितना मेरी समझ में आता जा रहा है,उतना ही उद्घाटित होना शेष रह जाता है.' 

नन्ददास से वार्तालाप करते समय एक बार उन्होंने कहा था,'मैंने कब कहा कि मैं दूध का धुला हूँ. मैं तो लिख कर स्वीकार करता हूँ कि मैं पुराना पातकी हूँ. पर श्रीराम की शरण में आ गय़ा हूँ .....अब तक का जीवन नसाया ,अब नहीं नसाना चाहता. अपने सारे विगत कर्म मैंने उन्हीं के चरणों में अर्पित कर दिये ,अब अपने लिये कुछ नहीं करूँगा, सब कुछ उन्हीं के निमित्त होगा.

'मैं, दुर्बल प्राणी ,उन्हीं से संचालित हो रहा हूँ .वापस लौटना संभव नहीं. लौटने का मतलब दुर्बलताओं के आगे समर्पण, उसी मोह-माया में लौट जाना. वहाँ से बहुत दूर निकल आया हूँ, अब दिशा परिवर्तन संभव नहीं. मैं नहीं कहता कि मैंने सब ठीक किया. लेकिन अब मैंने श्रीराम को हृदय में धारण कर लिया है -सांसारिक कामनाएँ मेरे लिये त्याज्य हैं.'

 नन्ददास  ने यह भी पूछा,' काहे दद्दा ,राम जी औऱ कन्हैया जी में काहे भेद करते हो?'

उन्होंने तुरन्त प्रतिप्रश्न किया,' कौन से कृष्ण जी ,नन्दू ?  

 'पीन पयोधर मर्दनकर्ता कृष्ण? वस्त्र-हरण कर अभिसार करते कृष्ण? यह कैसा लम्पट  नायक बना डाला? किस रूप में याद कर मगन होते हो,चीर-हरण ,रास-लीला,अभिसार या व्यभिचार?'

'इसमें कन्हैया जी का क्या दोष? ये तो लोगों ने अपनी रुचि से ढाल लिया है.' 

'व्यवहार में जो स्वरूप बन गया है वही तो असली समस्या है. लोक में वही प्रत्यक्ष है, आँखों के सामने ऐसा व्यक्तित्व क्यों रहे कि कोई अपने अनुसार ढाल ले? लोक-रुचि को क्या कहें ? पर जीवन में इतनी विभीषिकाएँ हैं ,उनसे छुटकारा दिला सके, ऐसा महानायक पूज्य है. कहाँ गीता का ज्ञान, अनासक्ति और कर्मयोग ,और कहाँ रास-रंग, छप्पन-भोग, दान-मान लीला और अभिसार प्रसंग.'

नन्ददास के साथ अनेक बार उनका वार्तालाप होता था ,जिससे उनका दृष्टिकोण स्पष्ट होता था होता था. उनका कहना था -

'कर्मयोगी कृष्ण का स्वरूप ही विकृत कर डाला गया .जन्मभूमि पर गाये जानेवाले अश्लील गीत कैसे सबके मुँह पर चढ़ जाते हैं! उनकी निम्नवृत्तियों का पोषण करते हैं और लोग आनन्द नहीं, मज़ा लेते है. स्वकीया त्याज्य हो गई और परकीया-प्रेम की महिमा गाई जा रही है.समाज में व्यभिचार को पोषण मिल रहा है.. हम अकेले  नहीं ,और क्योंकि परिवार बृहत्तर समाज का ही एक घटक है. देखो न, सनातन परंपराओं को भंग कर हमारा समाज पतन की ओर जा रहा है और हम आँखें मूँदे बैठे हैं. क्या कवि का कोई दायित्व नहीं?'

'बड़ा अनर्थ हुआ श्रीकृष्ण के साथ. उनक .जीवन के अर्थ ही बदल दिये गए. जब कवि की यह प्रवृत्ति होगी तो लोक में भी वही सन्देश जाएगा. जाएगा क्या, बल्कि जा ही रहा है. 

  'नहीं नन्दू, मुझसे नहीं होगा. मुझे धनुर्धारी राघव में ही सारी समस्याओँ का समाधान दिखाई देता है.मैंने अपने सारे बोध श्री राम को अर्पित कर दिये हैं. और अपनी सारी वृत्तियाँ राममय कर लेना चाहता हूँ 

 मैंने अपनी निजता उन्हें सौंप दी ,कि भला या बुरा जैसा हूँ वे ही सँभालें.अब मेरा अपना कुछ नहीं. 

जो बीत चुका वह भी उन्हीं चरणों में अर्पित कर चुका हूँ.' 

मन ही मन कहते हैं तुलसी -हे प्रभु, मुझे संसार का नहीं, तुम्हारा रुख़ देखना है..

तुलसी समझ गए हैं कि दुर्बलताओं को मौका मिलते ही वे प्रबल होने लगती हैं. और मन बहाने गढ़ने मे बहुत कुशल है. 

.नन्ददास को समझाने का प्रयत्न करते हैं. 'मन ऐसा उपद्रवी है कि इन्द्रिय सुखों की ओर ले जाता है. लगाम दिये बिना बस में नहीं आता.जरा छूट मिली कि भागचलता है और सारे भान भुला देता है. सचमुच नन्दू, मैं अपने ऊपर विश्वास नहीं करता बहुत धोखा खा चुका हूँ. अवसाद की छाया छोड़,वह रात्रि बीत गई. अब जाग गया तो आँखें कैसे बन्द कर लूँ?'

'...और जो लोग तुम्हारे साथ जुड़े हैं उनका कभी सोचा ?'

'नदी-नाव संयोग ,और कर्मों का लेखा .वह सब अब रामजी को अर्पण कर चुका. जिनके सान्निध्य से मति निर्मल  हुई. उनका ऋणी हूँ . हर ऋण इसी जन्म में चुका सके इतना समर्थ कोई नहीं. श्री राम भी कहाँ उऋण हो कर गये. इस धरती से प्रस्थान के समय भी माँ सीता की त्यागमय अनुपम प्रीति  को मन में धारे गये होंगे.'  

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 संत तुलसीदास जी'' को ''रामचरित मानस'' रचने की प्रेरणा 'सरयू नदी' के किनारे मिली थी. बहुत समय तक सरयू  के उस घाट पर समाधिस्थ-से घण्टों उस प्रवाह को देखते रहते थे ,जिसमें श्रीराम ने जल-समाधि ली थी. 

प्रभु को, धरती से प्रस्थान करते समय, माता जानकी की याद आई होगी.मन में विचारणा चलती रहती .सघन भावों में डूबे नेत्रों से अश्रु प्रवाहित होने लगते, रात-दिन की सुध नहीं रहती . 

'सरयू' का एक नाम ''मानसी'' भी है. नेपाल के ऊपरी भाग में इसे मानसी कहा जाता है क्योंकि यह नदी ''मानसरोवर'' से निकलती हैं, इसीलिए गोस्वामी जी ने इस ग्रन्थ को  'रामचरित मानस' नाम दिया.


तत्कालीन शाहंशाह अकबर की ख़्वाहिश थी  जन-भाषा का कोई कुशल कवि की उसकी प्रशंसा में कसीदे कहे, जिससे उसकी लोकप्रियता  बढ़ने लगे. मानसिंह ने उसे सलाह दी, कि बनारस शहर का आत्माराम का लड़का अवधी भाषा में खूब लिखता है और  लोक में उसकी मान्यता है , लेकिन वह किसी के कहने नहीं लिखता .

राजा मानसिंह का जलवा जग-विदित था. अकबर ने तुरंत अपने दरबार के नवरत्नों में सम्मिलित करने हेतु तुलसीदास का नाम प्रस्तावित कर,उन्हें निमंत्रित करने हाथी की अंबारी सजा कर, बनारस रवाना कर दिया ,.

तुलसी दास समझ रहे थे, अकबर की अनायास मिली कृपा  उनके कार्य में बाधा डालेगी. पद या धन के प्रति यों भी उन्हें अनासक्ति थी. उन्होंने अकबर का प्रस्ताव स्वीकार न कर उसकी बेरुखी मोल ले ली.उनका उत्तर था - 

'हम चाकर रघुवीर के पटो लिखो दरबार,

तुलसी अब का होहिंगे नर के मनसबदार.'

उस विषम स्थिति में, परम मित्र टोडरमल ने उनका मनोबल बनाए रखने का पूरा प्रयत्न किया था. पहले भी जब पंडितों ने तुलसी पर जानलेवा हमला किया तो उन्होंने उनकी प्राण-रक्षा की थी। इतना ही नहीं बनारस के अस्सी घाट पर अपना एक भवन तुलसी के नाम कर दिया . 

तुलसी और उनके ग्रंथ रामचरित-मानस  को टोडरमल ने ही पण्डितों के षड्यंत्रों से बचाया और पूरा संरक्षण दिया था.

काशी के पण्डितों ने क्या कम बैर निभाया था? कैसे-कैसे कुचक्र रचे पर तुलसी का  कुछ बिगाड़ न कर सके .

1659 में टोडरमल का स्वर्गवास .हो गया .वे तुलसीदास के आत्मीयवत् रहे थे. अति सरलमना ,उदार-हृदय, टोडर ने विषम स्थितियों से कितनी बार तुलसी को उबारा था.उ नकी सन्तानों में भी तुलसी का बहुत मान रहा था. टोडरमल की मृत्यु ने उन्हें बहुत अकेला कर दिया.अनायास ही एक दोहा तुलसी के मुख ले निकल पड़ा -

'रामधाम टोडर गए, तुलसी भए असोच,

जियबो मीत पुनीत बिनु, यहै जानि संकोच.'

*

(क्रमशः)





शनिवार, 12 जून 2021

राग-विराग - 13.

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जब भी नन्ददास का इधर चक्कर लगता है, भौजी के हाल-चाल लेना नहीं भूलते. जानते हैं दद्दू के समाचार पाने को वे भी व्याकुल होंगी. देवर होने का अपना फ़र्ज़ बख़ूबी निभा रहे हैं. यही चाहते हैं उनकी कुछ सहायता कर सकें.

इस बार उन्होंने रत्नावली के पीहर की बात छेड़ दी. पूछा, "अच्छा भौजी, तुम अपने मायके जाना चाहो तो हम जमुना-पार उधर ही जा रहे हैं, तुम्हें पहुँचाते जायेंगे, तीन-चार दिन बाद लौटना भी होगा."

"देवर जी, मायके जाने की बात करते हो? पर पहलेवाली बात अब कहाँ रही? पहले सखियों से मिलने का बहुत मन करता था, शुरू के दो-एक बरस, रीति-रिवाज़ के अनुसार जाना-आना हुआ था, फिर सब छूट गया."

नन्ददास बोले, "हमारी अम्माँ कहा करती थीं, मेहरारू तो दो घरों की होती है. सो हमने सोचा भौजी को मायके की याद आती होगी. उधर चक्कर लगाना चाहें तो हम हैं.."

"जिस साल तम्हारे दद्दू ने साथ छोड़ा, माँ तो उसी बरस सिधार गईं थीं. असली मायका तो माँ से होता है. पहले बहुत मन करता था. सखियाँ कोई दूर ब्याही हैं कोई पास, शुरू में सावन में आती थीं, तब भी कहाँ जा पाती थी. वे मुझसे शिकायतें करती थीं, विद्वान पति मिल गया तो हमसे मिलना भी शान के खिलाफ़ हो गया?" 

बोलते-बोलते मुख पर गहरी उदासी छा गई, नन्ददास चुप सुन रहे हैं.

कुछ क्षण रुक कर बोलीं, "अब वहाँ क्या है? वे सब चुप हो अपने-अपने घरों में समा गईं, किसी का किसी के लिये कोई अस्तित्व नहीं बचा."

नन्ददास को कैसे बताए कि तब और अब की स्थितियों में बहुत अन्तर है. तब जिनकी ईर्ष्या का पात्र रही अब उनकी दया-दृष्टि नहीं सहन होती. कोई सहानुभूति दिखाये यह भी गवारा नहीं. अब उन से मिलने में रत्नावली को संकोच लगता है. वे सब जो पूछते हैं, उसका उत्तर नहीं दे पाती. लोग परित्यक्ता समझते होंगे. यह दूषण बड़ा दुखदायी है.

वातावरण भारी सा हो गया था. कुछ देर दोनों चुप रहे. रत्नावली ने ही चुप्पी तोड़ी, "नहीं, नहीं,अब जी नहीं करता. तब की बात और थी. अब न वह मन रहा, न वह बूता."

नन्ददास ने आश्वस्त करते हुए कहा, "अरे नहीं भौजी, हमने तो बस इसलिये पूछा कि अगर कभी तुम्हारा मन करे तो हम हैं लाने ले जाने के लिए."

तुलसी के समान ही काशी में विद्याध्ययन करनेवाले, सरस छन्द लिखनेवाले नन्ददास कृष्ण-भक्त हैं, जहाँ रामभक्ति की अति मर्यादा और सेवक-सेव्य भाव न हो कर परस्पर साहचर्य की भावना अधिक है.

रत्नावली की क्षमताओं का उन्हें भान है. कभी-कभी माँग कर उनके दोहे पढ़ते हैं. कहते हैं, "भौजी, तुम कहीं भी दद्दा से कम नहीं हो. दोनों में तारतम्य बैठा होता तो काव्य का एक नया ही रंग विकसता."

अपने इस देवर के प्रति रत्ना का वात्सल्य भी कम नहीं . . .

"अरे, कहाँ वे और कहाँ मैं. हाँ बड़ी इच्छा थी उनकी संगति में रह कर पढ़ा-लिखा सार्थक कर सकती." 

"सच्ची भौजी, हमलोगों ने इतने साल गुरु से शिक्षा पाई तब इस योग्य बने तुम तो घर बैठे कविताई करती हो, क्या छंद, क्या व्याकरण कहीं कोई चूक नहीं और भाव-व्यंजना ऐसी कि गहरे उतर जाय." 

"ये मत कहो! मुझे शिक्षित करने में बाबा ने कोई कसर नहीं छोड़ी. बड़े-बड़े सपने देखे थे उन्होंने."

"हाँ, सो तो है."

"मन करता है बाहर के संसार को जानूँ, कुछ विचार-विमर्श करूँ, वे विद्वान हैं उस विद्वत्ता का कुछ अंश मैं भी पाऊँ. और उनका कहना है जब लिखूँ तब देखना.

"सच बात यह है देवर जी, कि भूमिकाएँ पहले से तय हैं, घर की है शरीर की तोषण-पोषण के लिये, और बाहर का संग-साथ होता है मन और बुद्धि के प्रसादन के लिये. यही परंपरा बन गई है. मैंने चाहा था पारिवारिक जीवन में भी थोड़ा बुद्धि-रस घुलता रहे, चर्चाओं का प्रसाद मुझे भी मिलता रहे. पर मेरे हिस्से में केवल घर और उसका चौका-चूल्हा आया ..."

कहते-कहते अचानक जैसे कुछ याद आ गया हो, "...अरे, चूल्हे पर दाल चढ़ा आई थी, तुम्हारी बातों में भूल गई," कहती हुई वह,शीघ्रता से रसोई की ओर चली गई.

चौकी पर रखे पर कुछ पन्ने खिड़की से आती हवा में बार-बार खुले जा रहे थे. नन्ददास ने हाथ बढ़ा कर उठा लिये.

कुछ दोहे लिखे थे, बीच-बीच में कुछ और पंक्तियाँ लिखी अधलिखी . . .

एक जगह लिखा था तो न्याय करो - तुम्हारी पत्नी हूँ सहचरी हूँ. मूढ़-सी रह केवल देह नहीं बनी रहना चाहती, मेरा मन और आत्मा भीतर ही भीतर कुलबुलाते हैं.

पन्ना पलटा ऊपर के कोने में कुछ लिखा था – कोई कुछ नहीं कर सकता, मुझे इसी घेरे में जीना है अपनी सीमा को पार कर जानेवालों को सबक़ सिखाना, लोगों को अच्छी तरह आता है, हर प्रकार का इलाज है उसके लिए..

भौजी के आने की आहट पा सारे पन्ने, यथावत् धर दिये.

चलते समय रत्नावली ने कहा था – 

"देवर जी, भूल जाना इन बातों को. ज़रा अपनापन, सहानुभूति पाई तो बह गई. मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं. बस मन है जो फूट पड़ा, मैं ठीक हूँ, खाना-कपड़ा मिलता है, अपनी सीमाओं से बाहर आकर बोल गई, क्षमा कर देना."

"अरे नहीं भौजी, तुमने कुछ ग़लत नहीं कहा... मैं समझ सकता हूँ." 

*

गृहस्थी में रह कर भक्ति का रूप ही और होता है. संन्यासी की भक्ति अलग प्रकार की हो जाती है. वहाँ परिवार है ही नहीं. रत्नावली को लगता है, मुझे तो राम के साथ पति और संसार के साथ राम चाहियें. उन्होंने जो संसार दिया उसे क्यों नकारें?

संसार में रह कर उसका निर्वाह भी उन्हीं की भक्ति कहलाएगा.

मन में ऊहापोह निरन्तर चलता है.

सोचती है, कहाँ तक धैर्य धरूँ? संतान-सुख मेरे भाग्य में नहीं, होती तो उसी में उलझी रहती, इतने में तुम आगे निकल जाते, मेरी पहुँच से आगे. और तुम घर के झंझटों से मुक्ति पाकर कहीं आगे पहुँच जाते पर वह स्थिति नहीं है. और केवल देह होने में मेरा मन विद्रोह करता है. अपने लिये आकाश चाहता है.

रत्ना ने एक बार कहा था– देवर जी, सुख भोग की कामना रही होती तो दो टूक बात कह कर उन्हें भक्ति की ओर क्यों प्रवृत्त करती? इच्छाओं पर संयम के लिये मन को दूसरी ओर मोड़े बिना कैसे चलेगा? यही सोच कर उन पर लगाम लगाने का प्रयत्न किया था."

अनायास ही एक गहरी साँस निकल गई.

नन्ददास जानते हैं, आर्थिक सहायता कभी लेंगी नहीं. कह देती हैं यहाँ कुछ बालिकाएँ मुझसे शिक्षा लेने आती हैं जो मिल जाता है मेरे लिये पर्याप्त है. तीज-त्यौहार सीधे आ जाते हैं, वस्त्र इत्यादि भी, जीवन-यापन का डौल हो जाता है.

रत्नावली को लगता था अपनेपन के लिये तरसता पति का मन, सब अपने अनुकूल पा कर तोष पा लेगा.. पूरा प्रयत्न किया था उसने.

उसे गर्व था, मेरे पति सबके जैसे नहीं, वे साधारण नहीं विशेष हैं. ये कुछ अलग प्रकार के हैं यह बात तो शुरू दिन से ही जान गई थी. विशेष जनों की अपनी विशेषताएँ होती हैं. जिस असामान्य स्थितियों में शैशव बीता वह ज़रूर कुछ प्रभाव छोड़ेगा ही . . . 

उसे पूरी सहानुभूति थी. जानती थी बचपन में बहुत कष्ट झेले और आज सबके लिये मान्य,आदरणीय, उदाहरणीय, इतने गरिमा संपन्न, पाण्डित्यपूर्ण. यह उनकी सामर्थ्य का द्योतक है.

शिक्षा, दृष्टि देने के साथ, रत्नावली को नये क्षितिज देखने की क्षमता भी दे गई थी. मूल-प्रवृत्तियों से आगे बढ़ कर मानसिक और बौद्धिक वृत्तियाँ भी सजग-सचेत हो गईं थीं. पूर्णतर जीवन की इच्छा ने जन्म ले लिया था. भरे-पुरे परिवार में पली संस्कारशील परिष्कृत, रुचि-संपन्न युवती थोड़ा अपने लिये भी सोच गई, ..बस, उससे यही ग़लती हो गई.

और तुलसीदास? जिस पौध को मूल से वाञ्छित पोषण न मिला हो, तो बहुत संभव है सहज-विकास कहीं न कहीं बाधित हो जाय. बालपन जिस विपन्न और सम्बन्धहीनता के शून्य में बीता वहाँ सुसंस्कारों की नींव कहाँ पड़ पाती? थोड़ा बड़े होकर गुरुजनों के सान्निध्य में जीवन को सही दिशा मिली थी. लेकिन पारिवारिक जीवन की पारस्परिकता कहाँ से विकसती. जो पाया उसके सेवन में संयत न रह सके. और घोर ग्लानि से ग्रस्त हो, गृहस्थ-जीवन को ही तिलाञ्जलि दे बैठे.

दस वर्ष से भी अधिक पति के साथ अंतरंग जीवन जी कर, रत्नावली उनकी क्षमताओं और दुर्बलताओं से भली प्रकार अवगत हो चुकी थी. घनिष्ठ सम्बन्ध ने आश्वस्त किया कि वह स्वाभाविक आदान-प्रदान में अपने लिये भी कुछ चाह सकती है. लेकिन यहीं धोखा खा गई.

रत्नावली की अभिव्यक्ति प्रखर और मुखर न होती, उसमें संवेदना की तीखी तड़प न होती तो तुलसी, वह तुलसी न होते जो आज हैं. तुलसीदास होते लेकिन रामचरित मानस, विनय-पत्रिका जैसे अनुपम ग्रंथ इस रूप में हमारे पास न होते. भक्ति का उदात्त रूप, वैराग्य के साथ लोक कल्याण की भावना, दाम्पत्य का इतना उज्ज्वल रूप, और जीवन के कुछ अत्यंत मार्मिक चित्रणों से हिन्दी साहित्य वञ्चित रह जाता.

नन्ददास सोच कर सिहर उठते हैं, नारी-जीवन की कैसी दुखान्ती कि पति हो कर भी न हो!

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(क्रमशः)





(क्रमशः)