बुधवार, 11 दिसंबर 2019

जब अक्ल घास चरने निकल जाय...

*
रात के दस बजकर अट्ठावन मिनट हो चुके हैं ,मुझे उत्सुकता है यह जानने की, कि  इस घड़ी में अंकों का रूप एकदम से कैसे बदल जाता है .
हुआ यह कि बेटे ने मेरे मुझसे पूछा ,'आपके बेडरूम में प्रोजेक्शन-क्लाक लगा दूँ?' 
'वह क्या होती है ?
बेड पर लेटे-लेटे देख सकती हैं कितने बजे हैं.ऊपर छत पर टाइम रिफ़्लेक्ट होता रहेगा .जब चाहें आधी आँख खोली और देख लिया.' 
'नहीं मुझे नहीं चाहिये फ़ालतू की चीज़ें, मैं मज़े से खुद देख लेती हूँ.' 
'अरे वाह, सुविधा है तो आराम उठाइये,' और उसने लाइट लगा कर कनेक्ट कर दी.
हल्का अँधेरा होते ही  कमरे की छतपर ए एम ,पी एम सहित समय के अंक उभऱ आते हैं.
सच में है तो मज़ेदार चीज़.समय देखने को हिलना भी नहीं पड़ता.  

 पलक झपकते संख्या कैसे बदल जाती है,पता ही नहीं लगता. बड़ा विस्मय होता है मुझे.
फिर मैंने निश्चय कर लिया आज देख कर ही रहूँगी.

उत्सुकता यह है कि  तत्क्षण बदलाव कैसे हो जाता है- अंक का भाग इधर से उधऱ खिसकता है या  दूसरा अंक एकदम  प्रकट होता है.
इस समय रात के दस अट्ठावन हो चुके हैं.लो,इधऱ मैं बोलती रही उधर  उनसठ हो गये. बस, अब देखकर ही रहूँगी. पलक भी नहीं झपकना, लगातार देखे जाना है .
सावधान हूँ पूरी तरह, कहीं चूक न जाऊँ. नहीं झपकूंगी,बिल्कुल नहीं.आज देख कर ही रहूँगी उनसठ के साठ एकदम कैसे हो जाते हैं . बराबर देख रही हूँ ,दृष्टि वहीं टिकी है.
  जबरन आँखें खोले हूँ .उफ्फ़, अभी तक नहीं हुए .एक मिनट कितना लंबा हो रहा  है .खोले हूँ आँखें बिलकुल नहीं झपने दीं. 
अरे, ये क्या हो गया? . उनसठ के दो ज़ीरो रह गए , साठ हुए बिना - दस के ग्यारह हो गए.  . मेरी सारी मेहनत बेकार!
अब समझ गई हूँ कि उनसठ के साठ कोई घड़ी नहीं करेगी ,मामला उनसठ पर ही रुक जाएगा ,परिणाम में मिलेंगे केवल दो शून्य. 

ओह, मेरी भी अक्ल घास चरने चली गई थी क्या ! 
-
- प्रतिभा सक्सेना.

बुधवार, 13 नवंबर 2019

मैं, अश्वत्थामा बोल रहा हूँ - 3.

*
द्वापर युग बीत गया. मानव के मान-मूल्यों के क्षरण की गाथा रच, मानव चरित्र का वह अद्भुत आख्यान,अपने अध्याय पूरे कर, छोड़ गया अंतर्चेतना के मंथन से प्राप्त नवनीत - गीता का जीवन-बोध!
संसार की उपेक्षा झेलते बड़ा हुआ मेरा मन कटु हो उठता है .एक पिता ही तो थे मेरे अपने   जो उस धर्मधारी की बलि चढ़ गये.

 तब आदर्शों से व्यावहारिकता का पलायन पहली बार देखा था.फिर तो सहस्राब्दियों लंबा जीवन जीते मानव मानों की घिसावट कितनी बार देख चुका. अपने विचारों में बार-बार वहीं पहुँच जाता हूँ. उस पुराने जीवन में जिसके लिये मुझमें उत्कट जिजीविषा थी , जिसे बहुत पास से देखता रहा था. प्रारंभ से तरसा था हर  वस्तु के लिए, जब राजसी वातावरण में गुरु-पुत्र का का मान पाकर प्रत्येक सुविधा का भागीदार बन गया,तब आगे बढ़ते ,अचानक ही सब छिन गया. पिता की नेह छाया के लपेटे में सब चला गया और दे गया अंतहीन, एकाकी अशान्त व्यथाएँ.


लगता है,वह महागाथा अभी पूरी नहीं हुई. मसि की तरल श्यामता लेखनी की जिह्वा रँग  देती है,पुकार उठती है ,'समर शेष है लेखक,स्याही सूखी नहीं है.' और तब कोई आकुल अंतर से नये पृष्ठ  जोड़ता हैं,जैसे  क्रमशः की एक और  आवृत्ति हुई हो.
  
 प्रायः जिन्हें महान् समझा  जाता है उनकी दुर्बलताएं उन पर आरोपित  प्रभामंडल में ओझल रह जाती हैं. लोक-धारणा अपने  विपरीत किसी बात को सहज स्वीकार नहीं पाती, जिसका प्रतिफल झेलते हैं, कुछ लपेटे में आए बेबस लोग ,जो अपनी बात न खुल कर कह पाते,न अपनी मान्यताएँ बदल पाते हैं. कभी कोई आवाज़ उठे भी तो नक्कारखाने में तूती की आवाज़ किसे सुनाई दे!
जन साधारण  अपने आप में व्यस्त,जो सामने आ गया ठीक, न सच्चाई जानने में रुचि ,न अवकाश,और न साधन. वास्तविकता पर इतने आरोपण कि असली रंग जानना मुश्किल. शासक-शासित के बीच संवाद वाले तत्व,अपने हित या राजहित की करने में लीन ,जानते हैं कि जन में न इतनी क्षमता है ,न चेतना. विश्वास करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं उसके पास .स्पष्ट दृष्टि ही नहीं जहाँ ,वहाँ विवेक की बात करना व्यर्थ है. अपने तात्कालिक हानि-लाभ,हित-अनहित की बात उसकी समझ में आती है, दूरगामी परिणाम में कोई रुचि नहीं उसकी.
यही तब था और अब भी वही. तब का साक्षी रहा  मैं  था और आज भी दर्शक रूप में विद्यमान हूँ ,

मेरा जीवन पूरा कहाँ हुआ. मेरे अतिरिक्त सब बीतता चला गया,  मेरा अपना कोई नहीं है अब. तब भी एक पिता ही तो थे. कैसे छल से जग-विदित धर्मात्मा ने उनकी  हत्या करवा दी. मेरे पिता, जो उन सबके मान्य गुरु थे, पूज्य थे. अपने गुरुत्व से  कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया था अपने शिष्यों को .उन्हीं के साथ ऐसा गर्हित कृत्य.अपने स्वार्थ की सिद्धि हेतु सच के खोल में  सफ़ेद झूठ बोल गये वे, वे जो धर्मराज कहलाते रहे  ?
 हाँ,उन सब की दुरभिसंधि रही थी, मानता हूँ. लेकिन जिसकी येन केन प्रकारेण स्वयं को सही सिद्ध करने का स्वभाव बन गया हो, वह दूसरों की  सुनता कहाँ है !
हाँ, वही युधिष्ठिर,जो  भाइयों को अपने अनुसार चलाता रहा था.
 अब भी याद है मुझे उस दिन दुःशासन ने कहा था-
 'और भाई तो फिर भी किसी न किसी अर्थ  के हैं ये किस अर्थ के? ' शकुनि हाथ नचाते बोल उठा था, 'द्यूत पुरुष हैं वे,कोई अवसर छोड़ेंगे नहीं.भाइयों की कौन सुनता है.सदा अपनी चलाता है वह महा अदूरदर्शी.'
दुर्योधन ने तुरत कहा  - 'वह पत्नी जो पूरी उसकी है ही नहीं, न नीति से न रीति से,जरा-सा चढ़ा दो तो उसे भी दाँव पर लगा देगा .'
शकुनि उछल पड़ा था,'क्या निरीक्षण शक्ति पाई है भागिनेय, रास्ता दिखा दिया तुमने.मिल गई चाबी उसे चलाने की...'
'क्या हुआ मामाश्री?'
'बस अब पूछो मत ,देखे जाओ. भाई कसमसाते रहें ,स्त्री कुढ़ती रहे पर ये वही करेगा जो झक चढ़ गई ,और किसी की सुनेगा नहीं.
अब जीजाश्री को साधे रहना तुम्हारा काम.'

दुर्योधन की बात मुझे  सही लगी. मुझे भी उनके सब कार्य अपनी सुख -सुविधा से प्रेरित लगते हैं, चाहे पांचाली का विभाजन हो चाहे द्यूत के दाँव .दूसरों को माध्यम बनाता स्वार्थी व्यक्ति,जिसमें दूरदर्शिता का लेश नहीं. उनका किया-धरा भुगतने को शेष चार हैं ही,उन्हें काहे की चिन्ता.हर ओर से सुरक्षित . बस अँगूठे दादा बने चारो अँगुलियां नचाते रहने के अभ्यस्त.

वह समय बीत चुका  है ,शेष रह गई कथाओं को आगत जन अपने अनुसार व्याख्यायित करेंगे. कोई निष्कर्ष निकालना असंभव,क्योंकि वह काल खण्ड,अपनी सीमाओं सहित सदा को पहुँच से बाहर हो चुका है. महाप्रयोगशाला की घड़ी के गत-आगत के बीच  डोलते हुये लोलक सा रह गया - मैं अश्वत्थामा!
*

बुधवार, 30 अक्तूबर 2019

अपनी अपनी पैकिंग -


*
बड़ा लोभी है मन ,कहीं सुन्दरता देखी नहीं कि अपने भीतर संजो लेने को उतावला हो उठता है. और तो और प्लास्टिक के सजीले पारदर्शी लिफ़ाफ़े जिसमें कोई आमंत्रण-अभिन्दन या कोई और वस्तु आई हो फेंकने को सहज तैयार नहीं होता. इसे लगता है कितना स्वच्छ है इसमें अपने लिखे-अधलिखे बिखरे पन्ने सहेज लें,जो अन्यथा दुष्प्राप्य हो जाते हैं. जब ऊपरसे ही दिख जायेगा तो खोज-बीन करते मूड चौपट होने की नौबत नहीं आएगी.
अब तो सामान्य प्रयोग का सामान, और-तो-और नित्य प्रयोग  की छोटी-मोटी वस्तुएँ भी ,बेचने के लिये ,ऐसी आकर्षक पैकिंग में रखी जाती हैं जैसे संग्रहणीय वस्तुएँ हों.ये नहीं कि कागज़ में लपेटा और पकड़ा दिया.पैकिंग के लिये मैंने हिन्दी भाषा का शब्द खोजा तो कोई पर्याय,या समानार्थक शब्द नहीं मिला. वैसे भी समय के साथ नया ट्रेंड चलने पर नये शब्दों की आवश्यकता पड़ती है,तो यही सही!
कभी-कभी तो स्थिति ऐसी, जैसे विगत-यौवना को दुल्हन बना कर उस पर आवरण डाल दिया गया हो.अंदर का माल का पता ही नहीं चलता कि कैसा है.जैसा है किस्मत पर संतोष करिये. व्यवसायी का उद्देश्य कि बैग कहीं से पारदर्शी न छूटे जो अंदर की अस्लियत देख गाहक बिदक जाय. तो यह उपाय सबसे आसान. सावधानी इतनी कि कहीं जरा सी  संध से भंडाफोड़ न हो जाय. 
कितना पैसा खर्च होता होगा इस टीम-टाम में !
लेकिन पुराना माल भी तो निकालना आवश्यक है.
हाँ तो ,सामग्री से अधिक महत्व है उसकी पैकिंग का. अब वे दिन लद गए कि दूकान पर गए, हाथ में लेकर माल परखा और  सामने बैग में नाप-जोख कर डलवा लिया. 
हर क्षेत्र में यही हाल है अब तो. फ़ोटो में जो सुन्दर दिखे, वास्तविकता में वहाँ  कितना मेकप थोपा गया है आप नहीं जान सकते .समाचार पत्र में जो पढ़ रहे हैं उसके बैकग्राउंड में क्या-क्या समाया है कहीं स्पष्ट नहीं किया जायेगा. क्योंकि सामान से अधिक महत्व उसकी पैकिंग का है उसे मन लुभाऊ होना चाहिये.  ठीक भी है सामान कुछ दिनों बाद समाप्त हो जाएगा पैकिंग रहेगी चिरकाल तक. इसीलये गाहक को लुभाने में ऊपरी टीम-टाम अर्थात् पैकिंग का बड़ा महत्व है.  
केवल व्यवसायी ही नही लाभ के लिये ये उपाय सभी आज़माते हैं. उनके व्यापार का प्रश्न है तो इनके सहचार की ये रीत है. अपने स्वयं को एक आवरण के साथ प्रस्तुत करना- पैंकिंग नहीं तो और क्या है? और हम कौन इस से अलग हैं, हम सब पैकिंग में रहनवाले लोग हैं. जो जानते हैं आवरण ऊपरी वस्तु है ,आवश्यकता पड़ने पर बदला भी जा सकता है. 
हम वैसे के वैसे रहेंगे. किसी को आभास तक नहीं होगा कि अंदर क्या-क्या भरा है. 
ओढ़े रहिये चाहे जितनी पैकिंग ,अंदर के माल पर कोई आँच नहीं, बिलकुल निश्चिंत रहिये!
*

रविवार, 20 अक्तूबर 2019

अक्ल की बाढ़

*
यह अक्ल नाम की बला जो इन्सान के साथ जुड़ी है बड़ी फ़ालतू चीज़ है. बाबा आदम के उन जन्नतवाले दिनों में इसका  नामोनिशान नहीं था. मुसम्मात हव्वा की प्रेरणा से अक्ल का संचार हुआ, परिणामस्वरूप हाथ आई  ख़ुदा से रुस्वाई. इसीलिये इंसान को  अक्ल आये यह कुछ को तो बर्दाश्त ही नहीं, उनका कहना है इंसान को खुद सोचने-विचारने की जरूरत ही नहीं . ख़बरदार! अपनी अक्ल कहीं भिड़ाई तो समझो गए दोज़ख में. और अक्ल के पीछे लट्ठ लिये घूमते हैं.
 मुझे अक्ल की दाढ़ ने बड़ा परेशान किया था. जब अच्छी तरह सिर उठा चुकी तब पता लगा. समझ में नहीं आता जब अक्ल आने की उम्र होती है तब यह  क्यों नहीं निकलती.पढ़ाई और एक्ज़ाम का समय था तब  हाथ नहीं आती थी बाद मे अचानक निकल कर तमाशे दिखाने लगी  .
अति सर्वत्र वर्जयेत् - मानी हुई बात है. अक्ल बढ़ेगी तो कुछ न कुछ गज़ब करेगी. तो इस अक्ल की दाढ़ को क्या कहा जाय?  अचानक कोई चीज़ बढ़ जाय तो बैलेंस बिगड़ जाता है. केवल अक्लमंद हो यह किसी के बस में नहीं - बैलेंस बराबर करने को बेवकूफ़ियाँ  लगी-लिपटी रहती हैं.सामने आने से कितना भी रोको ,जरा ढील पाते ही पाते ही प्रकट हो जाती हैं .
फ़ालतू की अक्ल ही सारी खुराफ़ातों की जड़ है जीना हराम कर देती है औरों का और अपना भी अचानक बाढ़ आती है तो दिमाग़ का बैलेंस बिगड़ने लगता है, अनायास अजीब वक्तव्य मुखर होने लगते हैं. एक उदाहरण लीजिए-   छत्तीसगढ़ के एक मंत्री महोदय का बैग चोरी हो गया. नाराज होते हुए उन्होंने कह डाला, ‘‘मोदी जी रेलवे में मंत्रियों के बैग चोरी करवा रहे हैं। 100 दिन के कार्यकाल पूरे होने की ये उनकी उपलब्धि है.'' यही कहलाता है- अक्ल का विस्फोट .
 वैसे तो दिमाग़ की कमी नहीं इस दुनिया में,ढूँढ़ने चलो हज़ार मिलते हैं, अपने बिहार की खासूसियतें तो जग-ज़ाहिर हैं. वहीं के एक मुख्यमंत्री जी की  ज़ुबान ज़रा फिसल गई ,फिर क्या था ,मीडियावाले तो इसी  ताक में रहते हैं. ले उड़े. तमाशा बनने लगा तो महोदय भड़क गए, 'बोले हमें  गलत ढंग से पेश किया गया.' खिसियाहट में पत्रकारों को उचक्का कह डाला.यों उनका कथन ग़लत भी नहीं था -ये लोग भी तो कच्ची-पक्की हर बात उचक लेते हैं. मंत्री जी आवेश में थे ही, आगे कहते चले गए,'हम तो लात खाने के लिए ही बैठे हैं, कोई इधर से मारता है तो कोई उधर से..' ज़ुबान कुबूलती चली गई. सच ही तो बोल रहे थे - बेचारे!
जानवरों में नहीं होती . कैसी शान्ति से रहते हैं .और ये फ़ालतू अक्लवाले !कभी इधर की कमी निकाली कभी उधर की चूक. न अपने को चैन, न दूसरों को चैन लेने दें.   .
अरे, पर मैं ये सब क्यों कहे जा रही हूँ? दुनिया जैसी है, वैसी रहेगी हमारे रोने-झींकने से कोई बदल थोड़े न जायगी.
अपने को क्या!

कबीर सही कह गए हैं -
'सुखिया सब संसार है खाये अरु सोवे ,
दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवै.'
*

मंगलवार, 27 अगस्त 2019

आस्थावान या आस्थाहीन?

*
मुझे याद है उन दिनों, की जब मोहल्ले के मंदिरों में सुबह-शाम झाँझ-मझीरे बजाकर आरती होती थी ,आस-पास के बच्चे बड़े चाव से इकट्ठे हो कर  मँझीरा बजाने की होड़ लगाए रहते थे.नहीं तो ताली बजा-बजा कर ही सही आरती गाते थे . उनके आकर्षण का एक कारण वह ज़रा-सा प्रसाद भी होता था- प्रायः ही बूँदी के या इलायची दाने , परम संतुष्ट भाव से दोनो हाथों से सिर चढ़ाकर जिस आनन्द-भाव में वे बाहर निकलते थे ,अपने आप में एक दृष्य होता था.
धर्म का आधार नैतिकता है ,उस के दस लक्षण इसी के परिचायक हैं.लेकिन धर्म और नीति के पुरोधा अपने-अपने ढोल पीटने की धुन में समाज को दिशा देने का  कर्तव्य  भूल जाते हैं .और माता-पिता एवं शिक्षक कक्षाओं में उत्तीर्ण हो जाने को योग्यता का मानदण्ड बना लेते हैं .यह तो पढ़ने-लिखनेवाले बच्चों की बात हुई ,जिन्हें शिक्षा पाने की कोई सुविधा नहीं ,उन  पर भी ध्यान देना भी ज़रूरी है. समाज को विकृतियों को बचाने के लिये प्रारंभिक अवस्था में उनको सही संस्कार मिल जाएँ तो अनेक विकृतियों से बचे रहने की संभावना बनी रहती है. आगत पीढ़ियों को  उचित संस्कार देकर ही विचलन से बचाया जा सकता है .

एक बात और -
 मूल देवताओं से हट कर नये-नये आश्रयों  की संख्या  में इजाफ़ा होता जा रहा है . लोग किसी नये पीर,संत या देव की सूचना सुनते ही दौड़ पड़ते हैं . स्वार्थ-सिद्धि की सिफ़ारिशों के लिये एक नया ठीहा जो मिल गया! कितनी तत्परता से नये-देवताओं की उद्भावना और स्थापना हो जाती है.सामान्य जन बिना विचारे ही ऐसे प्रयोगों के लिये उत्साहित रहता है.कैसा स्वार्थी विश्वास कि अपनी मूल मान्यताओं को भुला कर नये ठिकानों में समाधान  खोजते फिरते हैं. समझ में नहीं आता इसे आस्थावान होना का कहा जाय  या आस्थाहीन!
इस दौड़ में अपनी परंपराएँ और उनकी शुचिता की बात भुला दी जाती है .अभी पिछले दिनों विष्णु-पत्नी लक्ष्मी को कुछ समय पहले उदित हुए एक नये देव के चरणों में बैठा दिया गया था(बाद में  विरोध के स्वर उठे थे )लेकिन अपनी सुदृढ़ परंपराओं का विदूषित होना किसी का मन कैसे सहन कर लेता है,
गीता के गायक,कर्मशील  कृष्ण को तो हमारे पुराणकारों ने ही लंपट-लफंगा बना डाला, उसकी परिणति क्या होती चली गई ,सर्वविदित है .राधा एक गुमान भरी प्रदर्शन-प्रिय युवती रह गई जिसके पीछे गली के लड़के लगे रहते हैं  ( याद कर लीजिये सिनेमा का गाना जिसा पर लोग हाव-भाव के साथ नाचते हैं )ऐसे उपक्रम समाज को पतन की ओर ले जा रहे हैं ,राधा-भाव की ऐसी दयनीय परिणति,और ऐसी  कुत्साओं के समावेश से,धर्म की भावना  तमाशा बन जाती  है .
हर संप्रदाय या धर्म के कुछ अपने नियम-अनुशासन होते हैं ,जिन्हें उसके अनुयायी शिरोधार्य करते हैं,भारतीय परंपरा मे विकसित,जैन और बौद्ध धर्म बहुत बाद में आये लेकिन उनमें भी नीति-नियमों का अनुशासन मान्य है ,पर हमारे समाज का एक बड़ा भाग किसी नियमन  को नहीं मानना चाहता,उनका मज़ाक उड़ा कर अपने आपको उससे ऊपर समझ लेता है .

 धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर खुली छूट मिलने के स्थान पर कुछ अनुशासन होने चाहियें जिससे कि बिना सोचे-समझे कैसे भी कुछ करने की मनमानी न हो .कैलेण्डरों में और निमंत्रण पत्रों ,में देवी-देवताओं के चित्र ,और अब तो स्टिकर्स का भी प्रयोग होने लगा है,जो बाद में बेकार हो कर कूड़े  में फिंक जाते हैं, पाँवों के नीचे आते हैं और गंदगी में पड़े रहते हैं. ऐसी स्थितियों पर  रोक लगनी चाहिये.
धर्म में आती जा रही इस अराजकता पर ,सामान्य जन बिना सोचे-विचारे ,केवल अपनी सुविधा के लिये  दौड़ पड़ता है ,उस पर भी अंकुश लगना ही चाहिये . मनमानी न हो ,समाज जाग्रत हो, इसके लिये  समुचित प्रयत्न होने  वाञ्छित हैं .

 ऐसी एक संहिता की भी आवश्यकता है
 जिसमें धर्म का सर्वजन-सुलभ, सहज  निरूपण हो,जिसे सामान्य व्यक्ति ग्रहण कर सके,जिसे कोई विरूप न कर पाये., नैतिकता शिक्षा पर समुचित बल हो    समय-समय पर उसका व्यावहारिक आकलन और सुधार भी होता रहे.
 कुंभ जैसे अवसरों पर धर्माचार्य मिलकर  समुचित विचार और समीक्षा कर लोगों का मार्ग-दर्शन करें तो कितना अच्छा रहे ..
  लोग गंभीरता से अपनी आस्था पर जमे रह सकें तो विचलन की संभावना न रहे ,क्योंकि
धार्मिक परिप्रेक्ष्य व्यक्ति के ही नहीं सामाज के मानदंडों को भी प्रभावित करते हैं .
*

शुक्रवार, 18 जनवरी 2019

मैं अश्वत्थामा बोल रहा हूँ (2) -

  *
           वही पुरातन परिवेश लपेटे ,लोगों से अपनी पहचान छिपाता इस  गतिशील संसार में एकाकी भटक रहा हूँ .चिरजीवी हूँ न मैं ,हाँ मैंअश्वत्थामा !
            कितनी शताब्दियाँ बीत गईं जन्म-मरण का चक्र अविराम घूमता रहा , स्थितियाँ परिवर्तित होती गईं,नाम,रूप बदल गये - बस एक मैं निरंतर विद्यमान हूँ उसी रूप में ,वही पीड़ा अपने मे समेटे. जो घट रहा है उसका साक्षी होना मेरी नियति है. .सांसारिकता से मोह-भंग हो गया है .दृष्टा बनने का यत्न करता हूँ ,पर सदा तटस्थ नहीं रह पाता. माथे के घाव की रह-रह टीसती पीर बेचैन कर देती है ,भीतर कोई वेग उमड़ता है .केवल अशान्ति पल्ले पड़ती है.
          विगत और वर्तमान दोनों मेरे संगी - जिसकी उपज हूँ उससे छूट सकूँ ऐसा कोई उपाय नहीं, और पल-पल बदलते संसार के बीच नित्य नये आज में जीवित रहना है .गुरुपुत्र  होने के नाते तब सब स्वजन थे मेरे- विरोधी कौन रहा था कह नहीं सकता.संभवतः कोई नहीं. मुझे दुर्योधन से सहानुभूति थी. उसने ही मेरे विपन्न परिवार को आश्रय देकर मान-मर्यादा दी थी.अर्जुन मेरे गुणी  पिता का प्रिय शिष्य था और मैं प्रिय पुत्र. सर्वाधिक समर्पित शिष्य के प्रति गुरु का विशेष झुकाव स्वाभाविक था. आत्मज के प्रति भी स्नेह कम नहीं था पर कभी-कभी उससे ईर्ष्या होती थी मुझे. कुछ विद्याएँ उन्होंने केवल मुझे दीं थीं .और वही मेरे इस दारुण दुख का कारण बन गईँ .
शताब्दियों का मौन जब टूटता है, एक बाढ़-सी उमड़ती है -तमाम धाराएँ,मुक्त होने को व्याकुल और मार्ग रुँधने लगता है.
        अब लगने लगा है कि महाभारत किसी धर्मविशेष की न हो कर मानव के जातिगत क्रिया-कलापों की असमाप्त गाथा है, जिस का मंचन विश्व पटल पर अनवरत चल रहा है. निरंतर चलते इस  घटना-क्रम में एक के बाद अनेक त्रासद और वीभत्स स्थितियाँ  उत्पन्न हो रही हैं ,
         वही सब दोहराया जा रहा है ,आदर्शवाद का चोला पहन कर झूठ-सच एक कर देने का वही कौशल - मुझे  धर्मराज युधिष्ठिर की याद आती है ,उनका जीवन ही जैसे सत्य और नीति की प्रयोगशाला बन गया था.  छोटे भाई की जीती हुई वीर्य-शुल्का कन्या, को माँ के सम्मुख भिक्षा के रूप में रख कर उसमें हिस्सा पाने का आयोजन सफल रहा था. फिर उसे द्यूत के दाँव पर लगा देना ,उनका एकाधिकार. यह भी याद है कि पांचाली ने जब-जब अपनी बुद्धि और अधिकार का उपयोग करना चाहा, उसे विरत करते रहे. राजसभा में बुलाये जाने पर उसने दूत से जब प्रश्न पूछने प्रारंभ किये तो तुरंत लिख कर भेजा -'इस दशा में जब तुम रोती हुई इस कुरु-सभा में आओगी तो हमें सबकी सहानुभूति मिलेगी.'
          सबको नहीं पता होगा पर मैंने उनके नीति कौशल का खेल, वह  मुड़-तुड़ा परचा देख लिया था. कैसा लगा था मुझे,उस क्षण ,ओह, कैसी विरक्ति जागी थी .और बाद में वे  मेरे पिता के,अपने गुरु के विश्वास पर  भी अपना सत्य का प्रयोग कर गये.मुझे वितृष्णा हो गई थी उनसे.
         कैसा विरूप कर  दिया जाता है सत्य को कि ,नीति ,न्याय और औचित्य के लिये  न होकर वह मतलब की लादी हुई गठरी भर रह जाता है
काश, कि वे कृष्ण के जीवन से  कुछ सीख लेते. उन्हीं के बांधव कृष्ण, समाज पर बोझ बन गई रूढ़ियों को तोड़ने में सदा पत्पर .और वे जीवन भर धर्मराज बने रूढ़ परंपराओं की दुहाई देते सबके लिये मुसीबतें न्योतते रहे.जब कि विषम  स्थितियों में कृष्ण अपनी वैयक्तिक सीमाओं से ऊपर उठ कर  यथार्थ-परक और लोक हितकारी निर्णय लेने वाले सिद्ध हुए, स्वयं के, यश-अपयश  से ऊपर उठ कर प्रतिज्ञा भंग करने को तत्पर हो व्यापक कल्याण की आयोजना करते रहे. यहीं नहीं रुके वे. निन्दा होगी इसका विचार किये बिना,रण छोड़ कर पलायन किया, आपातकाल  समझ नीति से च्युत होना भी उचित समझा .
उन्होंने स्थापित किया कि नीति का उद्देश्य औचित्य की रक्षा है ,लोक-कल्याण का हेतु है ,  मर्यादा का निर्वाह, निर्दोष-असहाय को संरक्षण देना है. यदि वही भंग हो रहा हो तो नीति, अनीति बन जाती है.

           कृष्ण के चरित्र की गहनता और गंभीरता को पुराणकारों ने विरूपित कर डाला. निस्पृह भाव से कर्मशील रह,जिसने गीता का बोध अपने जीवन  में सिद्ध किया , उसे अति विलासी एवं लंपट का रूप दे कर लोक के मानसिक विलास का मार्ग खोल दिया.लोक-मानस में उनका वही रूप बस गया ..'महाजनो येन गतः स पंथा'- उक्ति चरितार्थ हुई, और पूर्णावतार,कर्मयोगी कृष्ण ,शृंगार देवता बन गये. जब कामना की उद्दाम तरंगों में विहार करने को मिल रहा हो (साथ ही  भक्ति का अभिधान जिसे अभिनन्दनीय बना रहा हो)  फिर निष्काम कर्म को कौन पूछे? यही पृष्ठभूमि आगे के अनेक कर्मकण्डों का आधार बन गई ,कृष्ण लीला की आड़ में अश्लीलता परोसी जाने लगी. शताब्दियों तक भक्ति के नाम पर नैतिकता का अवमूल्यन होता रहा . धर्म की यह गति धर्माचार्यों को क्यों नहीं खटकती आश्चर्य होता है.
           धर्म और नीति के नाम पर युठिष्ठिरी-नीति का अनुसरण करनेवाले महापुरुषों को कौन नियंत्रित  करता ? अनुकर्ता ,शान्तिदूत बन कर .दूसरे के अतिक्रम को  टालते चले जाते हैं ,अहिंसा के नाम पर  एक गाल पर थप्पड़ खाकर दूसरा गाल भी आगे बढ़ा देने का उपदेश देते हैं .इस नीति में घटा कुछ नहीं है, बढ़ाव ही हुआ. सत्य का अनुशीलन ,सरल -सहज पारदर्शी व्यवहार न रह कर कैसे अनेक प्रयोगों का रूप धर सकता है नीति को अपनी अपने अनुसार विविध रूपों में कैसे ढाला जा सकता है , धर्म की धारणाएँ  अवसरानुकूल कैसे रूप बदलती हैं , देखता चला आ रहा हूँ .
         मानवता मरती रहे अश्वत्थामा जीता रहेगा ,नहीं मर सकता वह - उसे दारुण दुख सहन करते चिर काल जीवित रहना है.
         सदियों के अंतराल से उठती,अभिशप्त मानवता की विकल पुकार हूँ, मैं  अश्वत्थामा !
*
(क्रमशः)