शनिवार, 27 अप्रैल 2013

हिन्दी की जान !

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सुन रही हूँ पूर्ण-विराम की खड़ी पाई या डंडा हिन्दी की जान है,उसके बिना उस की मौत हो जाएगी.बचपन  में कहानियाँ सुनी थीं परियों की ,राक्षसों की ,जादूगरनियों की ,उनमें से किसी- किसी की जान ,कहीं पिंजरे के तोते में ,किसी छिपी डिब्बी में बंद माला में  या ऐसे ही कहीं एक जगह रखी रहती थी. तब बड़ा कौतुक होता था सुनकर .उसके पीछे खूब तमाशे होते थे. कोई पूरी तैयारी से उसे मारने पर तुला होता था. बचानेवाला तो हीरो होगा ही  पर दुष्ट लोग उसे अपने वश में करने के पूरे यत्न करते रहते थे.
आज वही हिन्दी के साथ हो रहा है. इतनी प्राचीना,आयु-प्राप्ता हो गई, पहले भरा कुटुम्ब रहा - सब एक साथ मैथिली ,मगही ,भोजपुरी ,राजस्थानी ,बुंदेली ,अवधी ,ब्रज ,बाँगड़ू ,और भी कितनी ,सब एक परिवार रहे .कोई बोली लिखें-बोलें हिन्दी होती थी. यह भी सबके साथ मिल कर चलनेवाली ,उदार-मना ,आपसी लेन-देन में विश्वासवाली .
समय बदला, मन बदल गये. कमरों में रहनेवाली बोलियाँ बाल-बच्चोंवाली हुईं . अपना -अपना अलग करने लगीं. उनके बच्चे तू-तू ,मैं-मैं पर उतर आये. अलगौझा होने लगा बँटवारे की नौबत आ गई .रह गई खड़ी बोली .अकेली क्या करे !जो अपनेवाले थे, घर से ,बाहर निकले तो अंग्रेज़ी के सम्मोहन में ऐसे फँसे कि मुँह चुराने लगे ,उपेक्षा करने लगे. जैसे हिन्दी के होने से उनकी शान घटती हो.
यों समय के साथ चलती आई है हिन्दी, तमाम नये चिह्नों को ग्रहण किया है ,बढ़िया निभ रहा है.बवाल है फ़ुल-स्टाप पर . सबके साथ उसका प्रवेश भी हुआ.पर उसे देख लोग भड़क गये .कबीर के शब्दों में कहें तो 'उनहिं  अँदेसा और .. ' एक  बिन्दु  आयेगा तो साथ लायेगा नौ सौ जोखिम . यहाँ लोग दीवार देख कर रुकते हैं ,छोटी-सी बिन्दी किनारे कर देते हैं. हर छोटी-छोटी बात पर  कौन ध्यान देगा ? नई पीढ़ी भी साथ छोड़-छोड़ भाग रही हैं.जब अपने ही कन्नी काटने लगें,कैसे सधेगी भाषा बिना डंडे के !जिस डंडे के कारण अब तक जमी हुई है, चलती-फिरती है ,वही छीनने पर उतारू हैं लोग , कैसे सँभलेगी, कहाँ तक अपना भार ढोयेगी .एक ही तो सहारा है .
 सो  वही डंडा पकड़ाये दे रहे हैं !
भाई लोगन का कहना है हिन्दी अब पुरनिया भईं ,इनके पास अपने ज़माने का एक ही तो निशान बचा -डंडा , सबसे निराला! उसे काहे हटाय दें ?  ई और लोग ,उहै डंडा खींचन पे उतारू .छोटी सी बिन्दी से साधना चाहते हैं. जो हिन्दी की राह का  रोड़ा है.वैसे ही कमज़ोर ठहरी लड़खड़ा कर लुढ़क जाएगी .अंग्रेजी आदि  भाषाओँ ने इसे खूब साधा. उन में इतनी व्याप्ति और मज़बूती है ,ऊपर से सब मिलकर साध लेते हैं- कितने भी रोड़े डाल कर देख लो !
इधर अपनी साथिन मराठी भी समर्थ है.उसने  विश्राम-सूचक लघु बिन्दु उत्साह से स्वीकारा ,मज़े से धार लिया .उसके अपने लोग हाथों-हाथ लेते हैं.
मतलब यह कि डंडा होगा, किसी की मनमानी नहीं चलेगी. हम तो कहते हैं हालातों ने जो नई ध्वनियाँ डाल दीं -ऑ,क़,ख़,फ़,ज़ आदि उन्हें भी धकिया दो ,पराई आवाज़ों की कोई जरूरत नहीं . हिन्दी हमारी माँ है ,जैसी है बढ़िया है .बुढ़िया है फ़ैशनेबल मत बनाओ(बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम वाली नौबत न आये) .हिलती-डोलती-चलती रहे बस!. ये  सब अविचारी उसका विराम-दंड छीन, फ़ुलस्टाप पर टिकाना चाहते हैं .अगर   माई भरभरा कर गिरी , तो कौन सेवा-सुश्रुषा करेगा? गिरी-पड़ी यों ही बिदा हो जाएगी..और तब सारा पाप-दोष ,देख लेना, इन्हीं डंडा छीननेवालों के सिर पड़ेगा!
तो फ़ुल-स्टॉपवाली बिन्दी को गोली मारो,बस डंडा उसके हाथ पकड़ा कर निचिंत हो जाओ !
समझदार को इशारा काफ़ी! 
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(हमारी मातृभाषा इतनी विवश और दुर्बल नहीं कि ,विराम का डंडा हटाने से धराशायी हो जाये .फ़ुलस्टाप लगाने से उसकी गतिशीलता किसी प्रकार कम नहीं हो सकती .हिन्दी ने भी अन्य भाषाओं की तरह बिन्दु के प्रयोग को जहाँ स्वाभाविक रूप में ग्रहण किया वहाँ उसकी गतिशीलता किसी प्रकार बाधित नहीं हुई . )

रविवार, 14 अप्रैल 2013

एक मोहक लोक-विधा की जीवन-यात्रा : नचारी .


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[कुछ प्रतिक्रियायें पढ़ कर लग रहा है कि 'नचारी ' का स्वरूप स्पष्ट हो सके इसके लिए कोई उदाहरण (हिन्दी भाषा में)सामने हो तो अधिक सुविधा होगी .एक नचारी -]

नोक -झोंक
'पति खा के धतूरा ,पी के भंगा ,भीख माँगो रहो अधनंगा ,
ऊपर से मचाये  हुडदंगा , ये सिरचढ़ी गंगा !'
फुलाये मुँह पारवती !
'मेरे ससुरे से सँभली न गंगा ,मनमानी है विकट तरंगा ,
मेरी साली है, तेरी ही बहिना,देख कहनी-अकहनी मत कहना !
समुन्दर को दे आऊँगा !'
'रहे भूत पिशाचन संगा ,तन चढ़ा भसम का रंगा ,
और ऊपर लपेटे भुजंगा ,फिरे है ज्यों मलंगा !'
सोच  में है पारवती !
'तू माँस सुरा से राजी ,मेरे भोजन पे कोप करे देवी .
मैंने भसम किया था अनंगा ,पर धार लिया तुझे अंगा !
शंका न कर पारवती !'
'जग पलता पा मेरी भिक्षा ,मैं तो योगी हूँ ,कोई ना इच्छा ,
ये भूत औट परेत कहाँ जायें ,सारी धरती को इनसे बचाये  ,
भसम गति देही की !
 बस तू ही है मेरी भवानी ,तू ही तन में औ' मन में समानी ,
फिर काहे को भुलानी भरम में ,सारी सृष्टि है तेरी शरण में !
कुढ़े काहे को पारवती !'
'मैं तो जनम-जनम शिव तेरी ,और कोई भी साध नहीं मेरी !
 जो है जगती का  तारनहारा , पार कैसे मैं पाऊँ  तुम्हारा !' 
मगन हुई  पारवती !]
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हिन्दी के पाठकों के लिए 'नचारी' एक अल्प-ज्ञात विधा रही है ,जिसका  आगमन आदि-कालीन कवि ,मैथिल-कोकिल विद्यापति के काव्य में समारोहपूर्वक पूरी विदग्धता और रसात्मकता के साथ  होता है और फिर उन्हीं के साथ प्रस्थान भी.शासन बदले,नई चुनौतियाँ सामने आईं भक्ति की वह मस्ती गई जो विद्यापति और कबीर के स्वभाव में थी ,शौर्य और शृंगार की कदमताल रुक गई .बदलते परिप्रेक्ष्यों में ,कभी-कोई भूला बिसरा कवि ही 'आज मैं एकु-एकु करि टरिहौं.' कह कर आराध्य को ललकारने का साहस कर सका. दैन्य का विस्तार होने लगा. कविता की उमड़ती लहरें मर्यादा के बाँधों में सीमित हो दीन मुद्रा दिखाने लगीं, फिर 'नचारी' जैसी उन्मुक्त विधा की गुज़र कहाँ होती! 
  आदिकाल की काव्यधाराएं  क्षीण पड़  गईँ थीं .साहित्य-मंच पर मुख्य भूमिका निभाने अन्य भाषाएँ अपने संस्कारों सहित आ विराजीं. ब्रज और अवधी का प्राधान्य हो जाने से मूलरूप में मैथिली में रची जानेवाली यह  विधा  विद्यापति के बाद साहित्य-जगत से लुप्त हो गई, यहाँ तक कि ''नचारी'' संज्ञा  भी लोगों के लिए अपरिचित हो गई . लेकिन उसका लोप नहीं  .सीमित क्षेत्र में ही सही, 'नचारी' ने अपनी उपयोगिता बनाए रखी  ,और जन-जीवन से जुड़ी रही .हिन्दी का सामान्य पाठक भले ही परिचित न हो पर अपने क्षेत्र में इसने असीम लोक-प्रियता पाई और अभी भी लोक-जीवन को रस-विभोर कर रही है .
 'नचारी' को मुक्तक काव्य के अन्तर्गत लोक-काव्य की श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है. इनका लिखित स्वरूप सर्व प्रथम 'विद्यपति की पदावली' में प्राप्त होता है. इसकी रचना में लोक-भाषा (देसिल बयना ) का प्रयोग और शैली में विनोद एवं व्यंजना पूर्ण विदग्धता , रस को विलक्षण स्वरूप प्रदान कर मन का रंजन करती हैं. आराध्य की परम निकटता से प्रेरित, निश्छल मन की अंतरंगता और लोक-मन की बेधड़क उक्तियाँ , मुँह लगे सेवक के समान कहा-सुनी पर भी उतारू हो जाए पर उसके महत्व की स्वीकृति 'नचारी' का सर्वोपरि तत्व है- हँसी-ठिठोली ,उपालंभ ,शिकायत ,सब-कुछ ,निष्ठा के अटूट तार में पिरोया हुआ .'नचारी' भक्ति- काव्य का ही एक रूप है . 
 'नचारी' का संबंध नाच से भी जोड़ा जाता है .आराध्य के आगे अपनी लाचारी एवं विवशता को वर्णित करते हुए ,अपनी मनोभावनाओं  को बिना किसी लाग-लपेट के  प्रभु के सम्मुख नाच-गा कर प्रस्तुत कर देना इनका उद्देश्य है.अन्य देवताओं के लिये  और सामाजिक थीम पर भी नचारियाँ प्राप्त होती हैं .नेपाल में 'नचारी' की धुन पर भक्ति-गीतों का लेखन पर्याप्त मात्रा में होता रहा  है . विष्णु और गणेश,सूर्य,दुर्गा  की नचारियाँ मिल जाती हैं.
हिन्दी के शैव-साहित्य में नचारियों का विशेष स्थान है,इनमें आराध्य के प्रति भक्त की  भावनाओं का उद्रेक सर्वत्र विद्यमान रहता है. लिखित से पहले मौखिक परंपरा में प्रचलित रही हो यह संभव है क्योंकि नृत्य और गान के साथ उसकी स्वीकृति और लोक-प्रियता, दरबारी कवि के जीवन-काल में ही इतना व्यापक रूप पा ले यह बहुत आसान  नहीं लगता -विशेष रूप से जब प्रकाशन और प्रसारण के साधन विकसित न हुए हों . 'नचारी' का विस्तार सुदूर नेपाल से लेकर उत्तर भारत के पूर्वी क्षेत्रों तक है.. बिहार ,बंगाल, उड़ीसा, असम और नेपाल के साथ ही साथ अवध के भी ज्‍यादातर हिस्‍सों में  लोक-गीतों के रूप में  इसकी व्याप्ति रही है.अबुल फ़ज़ल के 'आईने अकबरी' में इनका उल्लेख होना ,इसकी लोकप्रियता का प्रमाण है.
मौखिक परंपरा में 'नचारी'-गीत मिथिला के घर-घर में प्रचलित हैं .विद्यापति(14 वीं शताब्दी)प्रथम 'नचारी' लेखक माने जाते हैं .अन्य कुछ नाम हैं परमहंस विष्णु पुरी(1425-1500),गोविन्द,कामश्याम,उमापति(1570-1650),लाल लक्ष्मीनाथ गोसाईं,कान्हा रामदास और चंद झा(1831-1907,.संस्कृत के  पंडित होते हुए भी विद्यापति का  ‘भाखा प्रेम’ अद्वितीय था.  देशी भाषाओं की लहर जब पूरे देश में फैल रही थी तो उन्होंने ही  अगुआई की थी. ' देसिल बयना सब जन मिट्ठा' कह कर वे भारतीय भाषाओं को सादर आमंत्रण दे रहे थे.राज-दरबार में रहते हुये भी उन्होंने समझ लिया था कि जन-रुचि के परिष्करण और रस के संस्कार देने के लिए लोक-भाषा के महत्व और साहित्य का समाजिक-जीवन से जुड़ाव कितना आवश्यक  है .लोक-शैली और लोक-भाषा में रचित नचारियाँ मन  का रंजन करती हुई , जन-जीवन में इतनी रमी हैं कि  तीज-त्यौहार,सामाजिक और धार्मिक उत्सव .विवाह जनेऊ आदि और लोकाचार के हर अवसर पर इनका गायन नये रंग और उल्लास भरने लगा  .
विद्यापति का काव्य सरस, मधुर एवं देसिल बयना में होने के कारण इतना लोक-प्रिय हो गया कि उनके जीवनकाल में ही  लोक-कंठ का शृंगार बन गया और समाज के विभिन्न वर्गों ने इसे अपनी जीवन-पद्धति में शामिल कर लिया . 
 मैथिल-कोकिल ने तत्कालीन समाज की स्थितियों को अनदेखा नहीं किया था.महेशवाणी और 'नचारी' के माध्यम से  गरीबी, पराधीनता और विभेद को जिस कौशल से उन्होंने सामने रखा वह दृष्टव्य है- वे ही अपने अराध्य शिव से कह सकते हैं कि ‘क्यों भीख मांगते फिर रहे हो, खेती करो इससे गुण गौरव बढ़ता है.’ (बेरि बेरि अरे सिब हमे तोहि कइलहूँ, किरिषि करिअ मन लाए/ रहिअ निसंक भीख मँगइते सब, गुन गौरब दुर जाए).
उनकी उक्तियों में 
 मध्ययुग के समाज की दशा के साथ सामंती समाज के नारी-मन की वेदना बोल उठी है 
- 'कौन तप चूकल हूँ भेलहूं जननी गे (हे विधाता, तपस्या में कौन सी चूक हो गई कि स्त्री होके जन्म लेना पड़ा!)'
 यह काव्य-विधा आज भी अप्रासंगिक नहीं हुई है ,लोक-जीवन और उत्सव-परंपराओं में में रसी-बसी है . बाबा नगरी देवघर में बसंत पंचमी के मेले की परंपरा  प्राचीन काल से चली आती है.है. उत्तरवाहिनी गंगा से कांवर लेकर बाबाधाम पहुँचे काँवरियों को 'तिलकहरू' कहा जाता है. इसमें मिथिला प्रांत के भक्तों द्वारा बाबा बैद्यनाथ का तिलकोत्सव  होता है. वे पार्वती  के मायके वाले हैं अतः शिवरात्रि के पूर्व यहाँ आ कर बाबा बैद्यनाथ का तिलक कर विवाह का न्योता देते हैं. 'नचारी' और महेसबानी गा कर वे मगन-मन नत्य करते हैं और उत्सव मनाते हैं.मिथिलांचल में भी सावन महीने में मधुश्रावणी पर्व पर नव-विवाहिताओं के  'नचारी' गायन से घर आँगन और बगीचे गुंजायमान होने लगते हैं 
 'नचारी' विधा का यही स्वर  30-32 के अवज्ञा आन्दोलन में एक नया रूप धरता है .
समय के अनुरूप मैथिल कवियों ने अपना कथ्य इस शैली में सँवार लिया .चारों ओर के आघात झेलती बिहार की धरती  लोक-गीतों में अपनी व्यथा उँडेल देती है .एक किशोर कवि  'प्रलयंकर'के कंठ से 'नचारी' में ढल  कर अत्याचार के विरुद्ध  आक्रोश फूट निकला -
'दुर दुर कहेन छे सरकार,
आपन बैसल मौज करे छै,
प्रजा करे हाहाकार
दुर दुर कहेन छे सरकार,'
  जनता को सचेत करते एक मुसलमान कवि की शिकायत,   'अल्हुआ(शकरकंद) भ गेल साबूदाना'
बिहार के किसान- आन्दोलन में लोक-कवि का स्वर पुकार कर पूछता है-
'क्यों बाबू साहेब,क्यों गरीब
क्यों बागमंत क्यों कमनसीब
सब बैसय हमरी छाती पर ,
कटहर हो अथवा नारिकेर .'
और भी -
'हम भार सम्हारी सबहि केर,
खाम्ही खुट्टा लरबर लरबर,
जे करइत हो चरमर चरमर
हम ओ भरिगर पुरना मचान' .
इसके साथ ही -
'पीसे अछि हमरा जमिंदार,
सोके अछि हमरा सूदवाला ,'
उधर नदियों की बाढ़ चैन नहीं लेने देती-
'चौपट्ट करे छवि साल-साल 
जीवछ करेह कोसी कमला,'
दुर्भाग्य यह कि उन्हें कोई भी  नहीं बख़्शता, 
'कुश तिल लै आवति ओझा जी,
हंटर लै घुमति दरोगा जी'
और तो और देवता भी लेवता बन गया है.
-हम से वे भी अपना मतलब साधने लगे हैं -
'रहता प्रसन्न बरहम बाबा,जो दूध बहावैं भरि छावा.'
   बिहार के मिथिला क्षेत्र में एक पमरिया नामक समुदाय, निवास करता है. जो इस्लाम का अनुयायी है. पर बच्चे के जन्म के मौके पर ये लोग हिंदू समुदाय के भजन, लोकगीत आदि गाते हैं.अगुआ अपने पुरुषोचित माने जाने वाले वस्त्रों को बदलकर घाघरा चुनरी आदि पहन ढोलकी और झालर के साथ शुरू करते हैं .'आहे दुर्गा जी के नामे,' 'आहे भोला बाबा के नामे', दोहराते दोहराते, नाचना गाना शुरू करते इस्लाम को मानने वाले ये तीनों 'नचारी', महेशवाणी गाने लगते हैं और बच्चे को  दुआ देते हैं. कुछ समय पहले तक ऐसा दृश्य सचमुच घर-आंगनों में दिखाई दे जाता था . डमरू ध्वनि के साथ 'नचारी' के स्वर, देवधर से भागलपुर और काशी में भी अब तक सुनाई देते हैं . 
आज के साहित्य के लिए यह भले ही अप्रचलित विधा हो गई हो लेकिन अपनी जीवंत अनुभूतियों ,सहज भंगिमाओं , ताज़े रंगों सतत प्रवाहित भाषा और अनूठी शैली के साथ ''नचारी'', साहित्य-मंच पर अवतरित हो कर प्रतिष्ठित हो जाए तो हिन्दी और उसकी सहयोगिनी भाषाओँ में एक नयी प्रतीति जगा सकती है. 
(मिथिला और बिहार के रचनाकारों से विशेष आग्रह - अगर 'नचारी', अपनी अनूठी भंगिमाओं सहित, हिन्दी मंच पर  जम गई तो यह उस अंचल का अमूल्य उपहार होगा - प्रतिभा.)
- उदाहरण ,उद्धरण आदि में सहायता हेतु गूगल का आभार .



गुरुवार, 4 अप्रैल 2013

भानमती समझ गई...


  संत कबीर ने कहा था-
'देस-विदेसे मैं फिरा गाँव-गाँव की खोर ,
ऐसा हियरा ना मिला लेवे फटक -पछोर.'
भानमती ने सुना, तुरंत बोल उठी,' दीदी जी ,किसउ आदमी को फटक- पछोर करते देखा है कभी?'
'नहीं, कभी नहीं' - उत्तर भाविनी ने दिया. 
 शोध-छात्रा भाविनी से संतों-भक्तों की चर्चा चल रही थी.भानमती अपने खेत की मूँगफली लाई  थी,वहीं  बैठ गई कान लगा कर सुनने लगी.
 'तुलसी ने ग्राम-वधुओं और सीता का कितना मनमोहक चित्र खींचा है -
बहुरि बदन बिधु आँचल ढाँकी ,पिउ तन चितै भौंह करि बाँकी.खंजन मंजु तिरीछे नैननि .
निज पति कहेउ तिन्हहिं सिय सैननि.'
भानमती खिलखिला कर हँस पड़ी.
 चौंक कर मैंने पूछा,'क्या हुआ?' 
'देख लेओ, भगत जी का हाल ,सारा धियान मेहरुअन पर लगाये रहे- ऊ कइसे पूछिस ई कइसे बताइस, .तुम देखो ई मरद लोग इहै सब तो तकत रहत हैं.'
 सिर में खुजली-सी हुई. फिर ज्ञान-चक्षु खुलने लगे.भाविनी ने सचेत हो कर पैंतरा बदल लिया था.
वैसे भी भानमती जो है सो है ही ,इस लड़की भाविनी को उसकी नाम-कहानी से जान लीजिये -
माता-पिता ने चाव से नाम रखा था मन-भावनी .चलते-फिरते लड़के बोल जाते 'ओ मन-भावनी!'
सो हाई स्कूल में 'मन' उड़ा कर उसने भावनी कर लिया (भला हुआ भवानी नहीं किया). फिर और समझ आई तो इ की मात्रा और जोड़ ली - भाविनी बन गई.
हाँ, बात हो रही थी फटक-पछोरवाली.
 मैं भी गाँवों में घूमी, शहरों में घूमी ,देश-देशान्तर देखे ,पुराने से ले कर नए ज़माने तक .पर आज तक किसी आदमी को फटक-पछोर करते नहीं देखा.
'अउर गजब देखो, कबीर इन्हइ  से आस लगाये कि वे  फटक-पछोर कर लेवें.किसी को सूप पकड़ना भी न आता होगा ,वो तो औरतें ही हैं सारी  फटक- पछोर ,बीनना-चुनना ,पिसना-कुटना कर राँध-पका कर उन लोगन का पापी पेट भरती हैं.
आदमी-जन तो  पान चबाते  ,नशा करते, बीड़ी पीते  खैनी रगड़ते हैं. और फिर दुनिया के रंग देखते पंचायत करते या फिर संतई छाँटत, भाँग-गाँजा ,चिलम के दम लगाय के  उपदेश पियावत  हैं .' 
 उसने बड़ी हैरत से यह  भी पूछा,' ई संत लोग मेहरारुन को हमेसा काहे कोसत रहत हैं?
'उन्हें लगता है औरतों ने सारी दुनिया को  बिगाड़ रखा है.'
 'अपना संत हुई जात हैं  कच्ची गिरस्थी  मेहरिया के सिर .काहे से कि गिरस्थी की जिम्मेदारी इन केर बस की नाहीं. 'अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम 'ठाली बैइठे इन केर धियान तहूँ औरतन में परा रहत है. '
भाविनी ने ऊपर से जड़ा ,'उन्हें  चक्की पीसते देखते हैं खुद ज्ञान-लाभ करते हैं.'
'ऊ दही-मही  बिलगावे तौन निरीच्छन ई करें   उजलापन-कालापन कुरूपता का जिकर करें. '  
,. ये साधु-संत  चैन से नहीं रह पाते.उन्हें तो यही चिन्ता खाये जाती है कि औरतें  क्या कर रही हैं? क्यों कर रही हैं?..उनका विचार है औरतों को सुधार देंगे तो दुनिया सुधर जायेगी .और आदमी? उसे सुधारने का तो सोचना ही बे-कार .  गृहस्थी को जंजाल कह  कर निकल जाते  हैं .और घूम-घूम कर वहीं चारों ओर मँडराते हैं .इनका अच्छी-बुरी औरत का भेद कितना स्वार्थभरा ...केवल पति की सेव करे अपने को  पूरी तरह नकार दे ,तब औरत सच्ची पतिव्रता है,नहीं तो डायन. कबीर ही क्यों, सारे संत एक हैं इस मामले में.'
 'चुनरी में लगा दाग़ इन्हें फौरन दिखाई दे जाता है.' भाविनी कहाँ चुप रहनेवाली.
 ' भानमती,  अपने मर्यादाशील तुलसीदास जी तो उदाहरण सामने रख कर सिखाते हैं. उद्दंड, अहंकारी पति  से पत्नी कैसे बात करे, पूरा खाका खींच दिया -
 रहसि जोरि कर पति पद लागी ,बोली बचन नीति रस पागी .

नीति-संगत बात ,पति का  भला हो जिसमें, कहो ज़रूर.पर तुम्हारा दर्जा बराबरी का नहीं किसी के सामने कभी मत कहना ,पति की शान घटेगी. मौका देख कर कहीं अकेले में ,पहले उस के हाथ जोड़ना फिर झुक कर चरण स्पर्श करना.  आज्ञा पाकर  परम विनीत हो स्वामी,नाथ कह के शुरुआत करना.
और भी देखो-
  हिमाचल की पत्नी के मन में द्विधा है, विवाह योग्य पुत्री की जननी, पर पति के सामने एकदम गऊ - 
'पतिहिं एकान्त पाइ कहि मैना ,
नाथ, न मैं समुझे मुनि बैना .' 
'हमने सब सुनी है ,बोलो भला नारद की बात बे समुझी नायँ होंयगी ?औरत में ई सब समझै का माद्दा आदमी से जियादा होवत है.'
'पर नीति कहती है ,पति के सामने मूर्ख बने रहने में ही हित है .अक्लमंदी देख कहीं वह कुंठित न हो जाय .मन ही मन चाहे हँसी आ रही हो,जानबूझ कर बेतुके सवाल पूछे. पति का उत्साह बढ़ेगा.उसका मनोबल ऊँचा होगा .पत्नी के अनुकूल रहेगा ,यहाँ तो बेटी का मामला है .कहीं ज़िद पर अड़ गया जड़ आदमी (पर्वत है न )तो मुश्किल हो जायेगी.'
वे दोनों मुखर, मैं सुने जा रही चुपचाप. 
 'इहां बसब रजनी भल नाहीं..' 
कह कर इनने सीता जी को एक रात माता-पिता के पास रुकने नहीं दिया ,
रत्नावली के साथ का अनुभव था .सो सावधान कर दिया.'
अब भाविनी मेरी ओर घूमी -
'..और जायसी हैं संत आदमी ,पर  नख-शिख और शृंगार के क्या अपरंपार वर्णन - दंग रह जाते हैं हम तो ! कोई तो प्वाइंट नहीं छोड़ा. '
हमारी भानमती विशेष पढ़ी-लिखी नहीं पर,लोक की सारी सामर्थ्य समाए है .भाषा भदेस हो जाये भले ,अभिव्यक्ति-कौशल के सामने बड़े-बड़े पानी भरें .
'औरत, रांड भई तौन बिन मालिक की गइया ,सबै दुहन को,जुलम करन को  तैयार. अउर मरद रँडुआ होय, चाहे घर-छोड़ा , बैल से साँड हुई जात है- हर जगह मुँह मारन को उतारू .संत होय  चाहे साधारन मरद लच्छन उहै रहत हैं .आदमी भए से चैन कहाँ परत , मेहरारू होवन का शौक चर्रावत है. .'
भाविनी और मैं एक दूसरे का मुँह तक रहे हैं ,
कहती तो ठीकै है हमारे कबीर, संत-शिरोमणि,कौन कम रहे ? लौट-लौट कर सिन्दूर ,काजल ,चुनरी ,पर कविताई करते ऐसे मगन हुए कि  ,खुद सजने लगे और राम की दुल्हनिया बन कर ही तृप्त  हुए .
 .एक और देखे थे ,जिनने पुरुष देह पर राधा रूप धर लिया , घघरी-उढ़निया ओढ़, चूड़ी- टिकुली कर आफिस में जा बैठते थे .बाकी दुनिया के लोगन का देखि लेओ ,होरी माहियाँ साल भर की  भड़ास निकार लेत  हैं .'

पढ़ी नहीं तो क्या हुआ, कढ़ी है हमारी भानमती! ओहिकी बातन का जवाबै नहीं हमरे पास! 
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