शुक्रवार, 9 जून 2023

क्या उत्तर देंगे?

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अपने समाज में अपनी सांस्कृतिक पहचान पर गर्व करने का और उसे अभिव्यक्त करने वाले सांस्कृतिक चिह्नों को धारण करने का कल्चर है क्या आप लोगों में ?    

आपकी विवाहित महिलाओं ने माथे पर पल्लू तो छोड़िये, साड़ी पहनना तक छोड़ दिया...किसने रोका है उन्हें?

तिलक बिंदी तो आपकी पहचान हुआ करती थी न...कोरा मस्तक और सुने कपाल को तो आप अशुभ, अमंगल का और शोकाकुल होने का चिह्न मानते थे न...आपने घर से निकलने से पहले तिलक लगाना तो छोड़ा ही, आपकी महिलाओं ने भी आधुनिकता और फैशन के चक्कर में और फारवर्ड दिखने की होड़ में माथे पर बिंदी लगाना क्यों छोड़ दिया?

आप लोगो ने नामकरण, विवाह, सगाई जैसे संस्कारों को दिखावे की लज्जा विहीन फूहड़ रस्मों में और जन्म दिवस, वर्षगांठ जैसे अवसरों को बर्थ-डे और एनिवर्सरी फंक्शंस में बदल दिया तो क्या यह हमारी त्रुटि है?

हमारे यहां बच्चा जब चलना सीखता है तो बाप की उंगलियां पकड़ कर इबादत के लिए जाता है और जीवन भर इबादत को अपना फर्ज़ समझता है....

आप लोगों ने तो स्वयं ही मंदिरों की ओर देखना छोड़ दिया, जाते भी केवल तभी हो जब भगवान से कुछ मांगना हो अथवा किसी संकट से छुटकारा पाना हो...

अब यदि आपके बच्चे ये सब नहीं जानते कि मंदिर में क्यों जाना है, वहाँ जाकर क्या करना है और ईश्वर की उपासना उनका कर्तव्य है....तो क्या ये सब हमारा दोष है?

आप के बच्चे कॉन्वेंट से पढ़ने के बाद पोयम सुनाते थे तो आपका सर ऊंचा होता था !

होना तो यह चाहिये था कि वे बच्चे भगवद्गीता के चार श्लोक कंठस्थ कर सुनाते तो आपको गर्व, होता!  

इसके उलट जब आज वो नहीं सुना पाते तो ना तो आपके मन में इस बात की कोई ग्लानि है, ना ही इस बात पर आपको कोई खेद है!

हमारे घरों में किसी बाप का सिर तब शर्म से झुक जाता है जब उसका बच्चा रिश्तेदारों के सामने कोई दुआ नहीं सुना पाता!....

हमारे घरों में बच्चा बोलना सीखता है तो हम सिखाते हैं कि सलाम करना सीखो बड़ों से, आप लोगों ने प्रणाम और नमस्कार को हैलो हाय से बदल दिया...तो इसके दोषी क्या हम हैं?

हमारे मजहब का लड़का कॉन्वेंट से आकर भी उर्दू अरबी सीख लेता है और हमारी धार्मिक पुस्तक पढ़ने बैठ जाता है!...

और आपका बच्चा न रामायण पढ़ता है और ना ही गीता....उसे संस्कृत तो छोड़िये, शुद्ध हिंदी भी ठीक से नहीं आती क्या यह भी हमारी त्रुटि है ?

आपके पास तो सब कुछ था-संस्कृति, इतिहास, परंपराएं! आपने उन सब को तथाकथित आधुनिकता की अंधी दौड़ में त्याग दिया और हमने नहीं त्यागा बस इतना ही भेद है!....

आप लोग ही तो पीछा छुड़ाएं बैठे हैं अपनी जड़ों से! हम ने अपनी जड़ें ना तो कल छोड़ी थी और ना ही आज छोड़ने को राजी हैं!

आप लोगों को तो स्वयं ही तिलक, जनेऊ, शिखा आदि से और आपकी महिलाओं को भी माथे पर बिंदी, हाथ में चूड़ी और गले में मंगलसूत्र-इन सब से लज्जा आने लगी, इन्हें धारण करना अनावश्यक लगने लगा और गर्व के साथ खुलकर अपनी पहचान प्रदर्शित करने में संकोच होने लग गया!...

तथाकथित आधुनिकता के नाम पर आप लोगों ने स्वयं ही अपने रीति रिवाज, अपनी परंपराएं, अपने संस्कार, अपनी भाषा, अपना पहनावा-ये सब कुछ पिछड़ापन समझकर त्याग दिया!

आज इतने वर्षों बाद आप लोगों की नींद खुली है तो आप अपने ही समाज के दूसरे लोगों को अपनी जड़ों से जुड़ने के लिये कहते फिर रहे हैं!

अपनी पहचान के संरक्षण हेतु जागृत रहने की भावना किसी भी सजीव समाज के लोगों के मन में स्वत:स्फूर्त होनी चाहिये, उसके लिये आपको अपने ही लोगों को कहना पड़ रहा है.... विचार कीजिये कि यह कितनी बड़ी विडंबना है!

यह भी विचार कीजिये कि अपनी संस्कृति के लुप्त हो जाने का भय आता कहां से है और असुरक्षा की भावना का वास्तविक कारण क्या है?

आपकी समस्या यह है कि आप अपने समाज को तो जागा हुआ देखना चाहते हैं किंतु ऐसा चाहते समय आप स्वयं आगे बढ़कर उदाहरण प्रस्तुत करने वाला आचरण नहीं करते, जैसे बन गए हैं वैसे ही बने रहते हैं...

आप स्वयं अपनी जड़ों से जुड़े हुए हो, ऐसा दूसरों को आप में दिखता नहीं है,,

और इसीलिये आपके अपने समाज में तो छोड़िये, आपके परिवार में भी कोई आपकी सुनता नहीं,, ठीक इसी प्रकार आपके समाज में अन्य सब लोग भी ऐसा ही आपके जैसा डबल स्टैंडर्ड वाला हाइपोक्रिटिकल व्यवहार (शाब्दिक पाखंड) करते हैं!

इसीलिये आपके समाज में कोई भी किसी की नहीं सुनता!... क्या यह हमारी त्रुटि है?

दशकों से अपनी हिंदू पहचान को मिटा देने का कार्य आप स्वयं ही एक दूसरे से अधिक बढ़-चढ़ करते रहे,,

और आज भी ठीक वैसा ही कर रहे हैं ...

परंतु हम अपनी पहचान आज तक भी वैसे ही बनाए रखने में सफल रहे हैं, तो हमें देखकर आपको बुरा लगता है!

हमसे ईर्ष्या होती है हमसे घृणा करने लगते हैं आप अपनी संस्कृति और परम्पराओं को नहीं संभाल पाए तो अपनी लापरवाही और विफलता का गुस्सा हमारी जड़ों को काट कर क्यों निकालना चाहते हैं?

दूसरों को देखकर विचलित होने के स्थान पर आवश्यकता ये सीखने की है कि कैसे अपने संस्कारों में निष्ठा रखी जाती है, कैसे उन पर गर्व किया जाता है, कैसे तत्परता से उन्हें सहेज कर उनका संरक्षण किया जाता है!

अपनी पहचान को आप खुलकर प्रदर्शित कीजिये, इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं है.... किंतु अपनी संस्कृति तो आपको बचानी नहीं है, उसे अपने हाथों स्वयं ही नष्ट करने पर तुले हुए हो!

अपने समाज में अपनी सांस्कृतिक पहचान पर गर्व करने का और उसे अभिव्यक्त करने वाले सांस्कृतिक चिह्नों को धारण करने का कल्चर तो बनाइए पहले! 

(- जी हाँ, किसी ने कहा है यह, मैं तो केवल सामने रख रही हूँ.- प्रतिभा सक्सेना.) 

शनिवार, 3 जून 2023

तृप्ति की क्वालिटी -

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पहले एक पहेली बूझिये फिर आगे की बात -

'कोठे से उतरीं, बरोठे में फूली खड़ीं.'

इन फूलनेवाली महोदया का तो कहना ही क्या!(इन पर एक पूरा पैराग्राफ़ लिखना अभी बाकी है).  

बीत गए वे दिन जब घरों में भोजन बनाना जैसे कोई नित्य का आयोजन होता था.किसी विशेष अवसर पर तो अनुष्ठान जैसा. सुरुचि -सावधानी के साथ विधि-विधान से यत्नपूर्वक बनाना और चाव-भाव से  खिलाकर तृप्त कर देने का उछाह . न कोई शार्ट-कट , न रेडी मेड साधन,और न कोई जल्दी-पल्दी.पूरे विधान के साथ ,सधी हुई आँच पर पूरे इत्मीनान से पकाना ,कोई हबड़-तबड़ नहीं. कोई कहीं  भागा नहीं जा रहा है.- न पकानेवाले  न खानेवाले.  

पूरे मनोयोग से तैय्यारी और पूरी रुचि से आस्वादन. 

संतोष .और प्रशंसा के दो बोल सुनने को मिल जाएँ तो लगता सारा श्रम सार्थक हो गया. वे दिन कब के बीत गये .

परिवार में 6-7 लोग होते ही थे ,आए-गए भी  बने रहते थे. और खुराक,आज से कहीं अधिक .अपने से ही देख लें, कितना खा और पचा लेते थे औऱ अब जैसे डर-डर कर खाते हैं ,

हाँ ,तो जैसे रुचिपूर्वक ,इत्भोमीनान से भोजन पकाया जाता था और उतने ही चाव से परोसा-खिलाया जाता था .खाना अब भी घरों में पकता है पर उन दिनों के साथ ही वह भाव, चाव और स्वाद ग़ायब हो गए है.

न वह आयोजन,न वह व्यवस्था ,वह सामग्री ,वे साधन और वे प्रयास भी अब उसके पासंग भर भी नहीं .अब कहाँ चूल्हा, और धुएँ की  सोंधी महक ,अब तो गैस की कसैली गंध,नॉब को खोलते -बंद करते प्रायः ही हवा में तैर आती है.सिल-बट्टा कही दिखाई नहीं देता और न जम कर पीसने वाले. पत्थर की सिल पर पिसे उस ताज़े पिसे मसाले की बात ही और थी,जो मौसमी तरकारियों में सिझ कर जो अनुपम स्वाद  देता,ये पनीर ,न्यूट्री नगेट और खुम्भी,जैसी माडर्न चीजों की उसके आगे क्या बिसात! पिसे मसाले कहाँ? महरी या नाइन ,हल्दी भी सिल पर पीस कर नारियल की नट्टी में रख देती ,कि दाल में पड़ जाय.बाकी तो खड़े मसालों के साथ सिल पर पिसेगे ही.

वो अरहर की आम पड़ी  चूल्हेवाली दाल जिसमें देसी घी में लहसुन-मिर्च का करारा छौंक लगा हो ,उसके आगे  म़ॉडर्न करियाँ फीकी पड़ लगती हैं.हमारे घर लौकी के बड़े-बड़े टुकड़े दाल चढ़ाने के साथ ही डाल कर घुला दिये जाते थे ,जिससे दाल में विलक्षण स्वाद का आ जाता थ. सिल पर पिसी चटनी की तो बात ही क्या !

आज पिसे मसालों के डिब्बे और दुनिया भर के पैकेट अल्मारी में भऱे हैं, पर उन गिने-चुने मसालोंवाला स्वाद खो गया है.हर चीज़ में टमाटर डालने की रीत नहीं थी,सब अपना एक निराला  स्वाद लिये थीं  तरकारी का रसा कृत्रिम रूप से गाढ़ा न हो कर मसालों की असली गंध में बसी तरावट वाली तरलता सँजोये रहता था.तरकारियों ,और बटलोईवाली दाल के क्या कहने ,जिसे चूल्हे पर चढाने बाद पहला उबाल उतार फेंकना जरूरी होता था. और लोहे के बड़े चमचे में अंगारों पर रख कर बनाया हुआ,दूर तक गमक फैलाता ,देशी घी का तीखी मिर्चोंवाला करारा छौंक बटलोई मैं छनाक से बंद होता देर तक छुनछुनाता,स्वाद की घोषणा कर देता था.

 काँसे की थालियाँ, फूल की कटोरे कटोरियों के साथ चम्मच घर में गिनती के रहते थे .वे लंबे गिलास विस्थापित हो गए. भारी पेंदी की पतीलियाँ और लोहे की कढ़ाइयाँ जाने कहाँ खो गईं . कुकर और पैन उपस्थित हैं.नानस्टिक में दो बूँद तेल से काम चल जायेगा.और देशी घी भी लोगों को नुक्सान करने लगा है,अब तो रिफ़ाइण्ड आयल ,रिफ़ाइण़्ड प्रकृति के अनुकूल पड़ता है.

खाना चलते-फिरते फटाफट बनता है ,प्लेटों में परस कर पेट  भरने का पूरा इन्तज़ाम होता है.चम्मचों की कमी नहीं .डिज़ाइनदार ,श्वेत ,झमकती फ़ुल,हाफ़ ,क्वार्टर प्लेटों से टेबल सजा है ,छुरी चम्मच,नैपकिन सब उपस्थित फिर भी जाने क्यों मन वैसा नहीं भरता. 

लगता है तृप्ति की क्वालिटी अब बदल गई है.

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