मंगलवार, 13 मई 2014

कथांश - 5.

उस दिन देखा तो देखता रह गया .
तेरह-चौदह बरस की धूप-छाँही वय .
पड़ोस की  ग़मी में जाने के पहले माँ ने कहा था ,'बेटा, कुंडी मत लगाना .अभी जरा देर में आऊँगी तो पहले दरवाजे के नल पर नहाऊँगी , तब अंदर आऊँगी .
वहीं पीछे वाली रस्सी की अरगनी पर कपड़े टाँग कर वे बाहर निकल गईं .
मैं अंदर कमरे में अपना बस्ता फैलाए बैठा था.
4-5 साल छोटी गुड़िया जैसी बहन ,मेरे आस-पास मँडराती ,पास बैठ कर  कागज़ पर लाइनें खींचती अ -आ करती रहती या साथ लगे घर में खेलने चली जाती .
  तुलसी चौरे के  इधर आँगन में ,माँ चिड़ियों के लिए अन्न के दाने बिखेर देती थीं  ,और वहीं एक कूँड़े में पानी भी .चहचहाट मची रहती  .कुछ कौए भी मुँडेर से उतर आते .मुझे उनका आना अच्छा नहीं लगता.लगता है  पक्षी चेहरा देखकर मनोभाव ताड़ लेते हैं .उनके आते ही गौरैयाँ सहम जाती  .पर मेरे उधर बढ़ते ही कौए और कबूतर उड़ जाते  . गौरैयाँ चोंचें नचाती निश्चिंत चुगती रहती  .अक्सर  पीली चोंचवाली गुरगुचियाँ टहलती दिखाई देतीं,  ये लोग कभी अकेली नहीं आतीं ,झुण्ड में रहने की आदत , जब उतरती  4-6 इकट्ठी और चाँव-चाँव कर आसमान सिर पर उठा लेती  .उनका शोर सुनकर मैं विस्मित हो रहा था तब माँ ने उनके बारे में एक कहानी सुनाई थी - सात  बहनें और सबसे छोटा एक भाई. वह कथा बहुत दिनों कर मन में,कौतुक जगाती घूमती रही थी. 

बहुत देर लगातार पढ़ नहीं पाता मैं.बीच में मन उचटता है .ध्यान इधर-उधर चला जाता है .
 इतने में आवाज़ आई,' मुन्ना !'
 माँ  लौट आईँ थीं ,आँगन के नल पर स्नान करना था उन्हें.
अरगनी पर टँगे तौलिया की ओर इशारा कर रहीं थी - 'बेटे, ज़रा वो अँगौछा पकड़ा दे .'
नहा चुकी थीं, भीगा आँचल देह पर चिपका जा रहा था ,छिपाने के बजाय तन की गरिमा को और उजागर करता हुआ . दो स्वर्ण कलश कस्तूरी आच्छादनों से युक्त !  मुग्ध-सा मैं हाथ बढ़ा कर तौलिया पकड़ा आया . इन्हीं पयोधरों से निसृत दुग्ध-धारा से मेरा रोम-रोम सिंचा है .विभोर मन, अनोखी तृप्ति का बोध लिए कमरे में लौट आया . .मन विचित्र रोमांच से भरा - इसी आँचल का प्रसाद पा कर बड़ा हुआ हूँ .
किताब खुली रही मन  उड़ता रहा .
आज इतना बड़ा हो गया हूँ , समझ पा रहा हूँ कि पुरुष आजीवन इनके मोह से मुक्त क्यों नहीं हो पाता .


चौथी- या पाँचवीं में पढ़ता था मैं, तब भी कभी-कभी माँ के पास जा लेटता था .वक्ष से चिपका लेतीं थीं मुझे .और तब सब-कुछ भूल कर
,तुरंत शान्तिपूर्वक  निद्रालीन हो जाता.
 वे कहती थीं  गमलों में नहीं,धरती के क्रोड़ से उगने दो पौधों को ,उस मूल-माटी से सने ,वे धरा की ऊर्जा को पकड़ कर आकाश में उठते  दिशाओँ में फैलेंगे.गमले की छोटी-सी परिधि में कहाँ वह आकर्षण कि जड़ों को गहरे ,और गहरे खींचे !धरती की धड़कनों से जुड़ कर अधिक चैतन्य रह ,पोषण पाता  अपार ऊर्जा से सिंचेगा . मूल की  पकड़ शाखाओं को संतुलित रख , आकाश में मुक्त-भाव से सिर उठाने की छूट देगी . 

फिर मेरी जड़ों में कोई कतर-ब्योंत  वे कैसे सहन कर पातीं - मैं जो  उनकी  निर्मिति था .
*
अब  भी लगता है वे , सहस्र-सहस्र नेत्रों से मुझे देख रही हैं
 माँ , तुम्हार प्रसाद है यह जीवन , जिसका संस्कार किया है तुमने वही यह मन .तुम दूर नहीं हो. मुझसे दूर कहाँ रह सकती हो ,क्योंकि मैं तुम्हारी संतान हूँ.
पिता को मैं नहीं जानता .मुझे रचनेवाली तुम हो .जैसा तुमने ढाला ढल गया .  
आकाश से झरती ये प्रकाश-किरणें तुम्हारी दृष्टि-विक्षेप है, आशीषमयी प्रफुल्ल दिशाएँ तुम्हारी प्रसन्न मुद्रा ,शीतल-सुगंधित पवन तुम्हारे आँचल का परस. 

स्नेहमयी, शान्तिमयी .माँ तुम सदा-सर्वदा मेरे साथ हो ,मैं अकेला कहाँ !
अकेला नहीं ,पर कोई साथ नहीं दिखता -  मीता की याद आती है .
मन में तीव्र आवेग उठता है कंठ खोल कर आवाज लगाऊँ ,'पारमिता ,ओ पारमिता ,तुम कहाँ हो ?'

अब मेरे लिए वह पहलेवाली मीता नहीं  ,किसी की पत्नी है . पर बान्धवी है  मेरी ,और चिर-दिन  रहेगी!
*
(क्रमशः)

मंगलवार, 6 मई 2014

कथांश - 4 .

4.
उस दिन मैंने मीता से कहा था, 'मेरे नहीं तुम्हारे सही , किसी के पिता की तो छाँह हम पर रहे !'
बाद में देखा  माँ साथवाले कमरे में थीं , कपड़े ले कर बाहर निकल रही थीं .
कुछ देर पहले छत पर देखा उन्हें. ओह, कहीं सुन तो नहीं लिया !
उन्हें कहीं यह न लगे कि पिता की छाँह से वंचित रहने का मुझे पछतावा है 
ओ माँ ,तुम्हारे मन में अपराध बोध न हो कि तुम्हारे कारण हम वंचित रहे.
 केवल एक अनुकूलता के लिए तुम उस अस्वस्थ वातावरण में हमें पलने देतीं.तब जो होता वह क्या ठीक होता?तुमने दुख सहे अपने सुख के लिए नहीं.भविष्य पर किसी का वश नहीं.जो सबसे सही लगा वह करने का परिणाम ग़लत कैसे हो सकता है .  अपने सुख के लिए तो नहीं किया ,अन्याय से समझौता करते-करते तुम, तुम नहीं रहतीं और तब मैं भी जो हूँ, वह नहीं हो पाता.

 पिता  के साथ मैं  बहुत कम रहा था .जो समय मिला उसमें हम दोनों में कभी ताल-मेल नहीं रहा. घर में उनकी आतंकपूर्ण छवि  छाई रहती थी .उन्हें लगता था सब कुछ उनके हिसाब से होना  चाहिए .
मुझे याद है एक बार पिता ने मुझे बहुत मारा था .
वे माँ पर बिगड़ रहे थे. मैं वहीं खड़ा था .जो मुँह में आए वे कहे जा रहे थे  मुझे  बुरा लग रहा था कुछ देर सुनता रहा फिर बोला था ,'तुम बहोत गंदे हो .गाली बकते हो .'
वे आगे बढ़े और मुझे पीट डाला.

मेरे मन में डर बैठ गया था. उनके सामने पड़ने से बचता रहता था.
मुझे नहीं मालूम हम लोगों के लिए  पिता की इतनी बेरुखी क्यों थी .माँ कुछ भी अपने मन से करें उन्हें अनुचित लगता था  .किसी भिखारी को एक मुट्ठी अन्न दे दें तो पिता के वाग्बाण चलने लगते थे .तुम्हीं लोगों के मारे ये लोग कुछ करे-धरे बिना आराम से खाना चाहते हैं .वे सबको फटकार कर भगा देते थे . साधु-संतों से तो उन्हें चिढ़ सी थी.मुस्टंडे बस खाने भर के हैं कोई काम इनके बस का नहीं .तुम औरतें ही इनके दिमाग़ चढ़ाती रहती  हो
मामा-मामी से और लोगों से सुनकर जो जाना उसी से समझने की कोशिश की  .माँ ने कभी कुछ नहीं बताया मुझे . 
दोनों की उम्र में बहुत अधिक अंतर नहीं था पर पिता के मुख की कठोरता और स्वभाव का रूखापन उन्हें उनकी उम्र से बहुत बड़ा दिखाता था.
दोनों साथ होते तो लोगों ने प्रायः भ्रम हो जाता था .
कुछ मनचलों ने एक बार फब्ती कसी थी 'अरे बुड्ढे, हमारे लिए भी तो कुछ छोड़ दे.'
फिर उन्होंने माँ को साथ ले जाना छोड़ दिया था.माँ की सौम्यता और सुरुचि की प्रशंसा कोई करे  उन्हें नहीं भाता था .वे उनके काम में सदा कमियाँ ही निकालते  थे.
उनका कहना था औरत हो ,औरत की तरह रहो ,सिर पर चढ़ने की कोशिश मत करो ,जैसा कहता हूँ वैसा  करो ,
जिसे मैं नहीं चाहता ,तुम नाम मत लेना ,नहीं तो दोष तुम्हारा .साथ मेरे ही रहना है.मेरे हिसाब से चलोगी तो चैन से रहोगी ,पर तुम्हें मेरा साथ रास नहीं आता .अपनी अलग खिचड़ी पकाना चाहती हो .कोई ज़रा सी तारीफ़ कर दे सिर चढ़ जाता है तुम्हारा.  तुम्हारे मारे सब मुझे नीचा दिखाना चाहते हैं    .. क्या-भाई क्या बहन !तुम हो क्या  .पंख कतरी  चिड़िया स्वच्छंदता कैसे हो सकती है वह तो पिजड़े में ही खुश रहे .अपनी असलियत समझे रहे नहीं तो नोंच डाली जाएगी .
..निरंकुश मत हो ,जैसे कहते हैं  वैसे चलो .हम खुश तो तुम भी खुश .औरत  हो वश में रहो हमारे , ,स्वच्छंद आचरण ?छी-छी ,न घर की रहोगी न घाट की . ढली रहो मेरे साँचे में .
माँ चुप रहती थीं.
एक बार वे मायके में थीं .पिता किसी बात पर उनसे लड़ बैठे  .मामा -मामी को भी घसीट लिया कि वे ही दिमाग़ खराब करते हैं .चढ़ाते रहते हैं .
कहने लगे ,' क्या चाहते हो तुम लोग ? रख लो ,कितने दिन पूरा करोगे ,आखिर में रोती-धोती मेरे दरवाज़े ही आएगी.बच्चे को ले कर जायेगी कहाँ ?
और हम दोनों को वहीं छोड़ कर चले  गए - देखें कितने दिन सँभालते हो .दिमाग़ सही हो जायेगा तो एक दिन तुम्हीं ले कर वहाँ छोड़ने आओगे.'
बात इतनी-सी थी कि माँ के एक रिश्ते दार ने कहा ' दामाद बाबू नहीं आये ?
पिता सामने बैठे थे ,उसने उन्हें पहचाना नहीं और  माँ से पूछ लिया .
माँ ने पिता की ओर देखा
भाई ने कहा ,'ये क्या सामने तो हैं ,पहचान नहीं रहे?'
पर पिता उखड़ गए .
मेरा अपमान करने में  तुम लोगों को मज़ा आता है .माँ को देख कर बोले ',मुझे नीचा दिखाना  तुम्हारी आदत में शुमार है .' 
लाख मनाने की कोशिश की,हम लोगों की कोई चाल नहीं आपको गलत फ़हमी है . माफ़ी  भी माँगी  गई  . पर वे नहीं माने .कह गए,
'अभी तो नहीं ले जाऊँगा ,अब जब रखते न बने तुम्हीं छोड़ कर जाना .'
 माँ से क्या कहा यह मुझे नहीं पता. कुछ संवाद सुने थे पर याद नहीं करना चाहता. माँ ने  कभी किसी को बताया नहीं .
धमकी दे कर चले गए थे वे.

और तब से बस एक बार मिले थे जब मैं सात साल का था .
उन्होंने संदेशा भेजा था कि थे माँ स्कूल की नौकरी छोड़ दें और वापस लौट आएँ.पर माँ इसके लिए तैयार नहीं हुईं.
रिश्तेदारों ने भी समझाने की कोशिशें की - क्यों बच्चों का भविष्य बिगाड़ रही हो ?.बाप के बिना ये क्या कर पाएँगे .इस मास्टरी में क्या रखा है? पति अच्छा कमा रहा है, बैठ कर राज करो .पति-पत्नी में झगड़े तो चलते रहते हैं . कोई घर थोड़े छोड़ देता है .अपना नहीं तो बच्चों के भविष्य का ख़याल करो .
मैं बड़ा हो कर काम पर लग गया तो पता किया था .वे वहाँ नहीं रहते थे .बहुत सी उड़ती हुई बातें उनके बारे में सुनने को मिलीं थीं.
उस रात माँ को चुपचाप रोते देखा था .मुझ पर क्या बीती थी  मैं ही जानता हूँ .
 ज्यादतियाँ पिता करते रहे ,दण्ड सारे माँ को भुगतने पड़े .

पर  मेरे मन में कोई द्विधा नहीं ,  अच्छी तरह जानता हूँ अपनी माँ को .
अंतरात्मा की पुकार सुनी उन्होंने ,सुख-दुख की चिन्ता नहीं की . जो ठीक हो वह करने का परिणाम ग़लत कैसे हो सकता है ?
 आज मैं जो हूँ ,बस इसलिए कि वे मेरी माँ रहीं .
कोई खोज-बीन करने की ,उनके चरित्र का  प्रमाण-पत्र पाने की कोई इच्छा नहीं, कोयले और हीरे में जो अंतर न कर पाये उससे कोई बहस बेकार है .
माँ ,तुम्हीं से मैंने सीखा कि अनुचित को प्रश्रय देकर आगे बढ़ने का सपना देखना अंतरात्मा से द्रोह है.
 बस तभी एक ज़िद ठान ली थी कि मन गवाही नहीं देगा उससे समझौता नहीं करूँगा,कभी नहीं .
*
(क्रमशः)