मंगलवार, 20 अगस्त 2013

सागर-संगम - 2.

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(पूर्व-दृष्य की निरंतरता . )
लोकमन - बहुत प्रसन्न हो रही हो कि हम देवों की संतान हैं पर उनके पराभव और नाश की गाथा से भी कुछ शिक्षा ले लो नटी ,कुछ विचार करो    बड़ी उन्नत सभ्यता रही थी उनकी वह कैसे मिट गई ?
(सब चुप हैं.)
लोकमन -उनकी घोर विलासिता और स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझने का अहंकार उन्हे ले डूबा .

सूत्र  -हाँ  जल प्लावन की कथा हमने भी सुनी है.,फिर क्या हुआ ,कवि ?

लोक -उधर सिन्धु की घाटी में थी द्रविड सभ्यता छाई ,
कला-शिल्प -संस्कृति अति उन्नत ,पूरी एक इकाई !
उन टीलों में दबी आज भी टेर-टेर कहती है -
मत अभिमान करो थिर कोई चीज नहीं रहती है !
 इक छोटी सी भूल कभी तो सब चौपट कर जाये !
हम क्या ?बीती संस्कृतियों के मिश्रण एक निराले ,
जिसे काल के दो पाटों ने नये रूप दे डाले !
 भारतवासी अपने को खुद काहे रहो भुलाये !
सूत्र -हाँ , धरती में समाए उस युग के अवशेष आज भी  उस विकसित  सभ्यता  की याद दिलाते हैं .
नटी -कैसी थी वह द्रविड संस्कृति ?हमने क्या कुछ पाया ?
सूत्र -कवि के मनोजगत में उसने कैसा चित्र बनाया ?
[क्षण भर को अंधकार ,फिर दृष्य सामने आता है -मंच पर मातृदेवी और नटराज की प्रतिमायें,दीपाधारों में दीप ,जलती हुई मशालों का प्रकाश वातावरण को रहस्यमय बनाता हुआ .लोक नर्तक और नर्तकियों का एक दल धीरे-धीरे प्रवेश कर रहा है .उनके अपनी -अपनी स्थिति लेने के साथ ही साथ कवि के स्वर उठ रहे हैं  -]
[प्रकाश मातृदेवी पर ]
तृष्णा ,तुष्टि ,चेतना ,निद्रा ,भ्रान्ति ,बोध सब एकाकार ,
इस अद्वैत इकाई में आ समा गये हो कर अविकार !
जननी ,जन्मभूमि ,जगदम्बा ,माया ,प्रक-ति अनेकों नाम ,
शक्ति स्वरूपा मातृ-देवि जड़ -चेतन का करती कल्याण !
[प्रकाश नटराज पर ]
यह बाल चन्द्र अमृतानन्द,डमरू में सृष्टि प्रवर्तन !
संहार-शक्ति है अग्नि वलय ,शिव नर्तन !
जड़ अपस्मार पर चरण ,अभय कर मुद्रा ,
जिससे कि संतुलित रहे मृत्यु औ'जीवन !
कैसा भरा-पुरा जीवन रहा था जिसकी स्मृतियाँ आज भी जीवित हैं . [नर्तकियों का नृत्य--]
धन-धान्य भरा आँचल लहराया रे !
धरती की गोद भरी सुख छाया रे !
 पुरवा डोले बन में कोयलिया गाये ,
 मौसम झोली भर-भर आनन्द लुटाये
सब तेरी करुणा ,तेरी माया रे !
 सब विद्या और कलायें रूप तुम्हारे ,
 सारे नारी तन व्यक्त स्वरूप तुम्हारे !
गति ही जीवन है मंत्र सुनाया रे !

 नटराज  व्योम बन छाये दिक्पट धारी !
 योगी-भोगी वे सृष्टि प्रवर्तनकारी !
सच -शिव- सुन्दर को हमने पाया रे !
 सूरज पिचकारी भर -भर किरणें मारे ,
 हँस रहीं दिशायें दोनों हाथ पसारे !
उत्सव है जीवन की प्रतिछाया रे !
(पटाक्षेप)
*

6 टिप्‍पणियां:

  1. बढ़िया प्रस्तुति-
    आभार आदरणीया-

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  2. बहुत सुन्दर पटकथा संवाद ,बहुत सुन्दर गीत ,एक पूर्ण रंगमंचनीय रचना
    latest post नेताजी फ़िक्र ना करो!
    latest post नेता उवाच !!!

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  3. वाह ! अतीत का इतना भव्य स्मरण ! बहुत सुंदर, प्रतिभा जी !

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  4. कितना भव्य था इतिहास .... बहुत मनोहारी वर्णन

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  5. अंतस में गुंजित होने वाला उच्चार! जैसे मेरे सामने ही चल रहे हों दृश्य।

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  6. बहुत ही उत्कृष्ट काव्य नाटिका , क्या टिपण्णी करूँ .. श्रेष्ट!

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