बुधवार, 24 फ़रवरी 2021

राग - विराग : 6.

6.

.नन्ददास तुलसी से काशी में प्रायः ही भेंट करते रहते थे.

'कुछ दिन टिक  कर एक स्थान पर रहो दद्दू, आराम रहेगा और लिखने-पढ़ने में भी सुविधा रहेगी.'

'समाज की वास्तविक दशा को जाने बिना लिखना उद्देश्यपूर्ण कैसे हो सकता है नन्दू? तीर्थयात्रा करता ही इसलिये  हूँ कि देश के सुदूर स्थानों तक पहुँचूँ,लोक-जीवन को पास से देखूँ, वास्तविकता समझूँ. और पुनीत स्थानों में जा कर मन का कलुष धो सकूँ.'

नन्ददास को चुप देख फिर बोले,' उन्होने सारा जीवन लोक-कल्याण में लगा दिया उनका भक्त अपना सुख ही देखेगा क्याचरण-चिह्न छोड़ गये हैं, अनुसरण करना हमारा धर्म.' 

'महान् हो दद्दा, मैं तो तुम्हारी छाया भी नहीं.'

'कुछ नहीं हूँ मैं, बस रामकाज में लगा हूँ. '

एक  दिन नन्ददास ने पूछा था,' दद्दूभौजी से नाराज हो?सच्ची बताना.... ,उस दिन .. तुम्हें झटका लगा था?'

तुलसी सिर झुकाए कुछ क्षण सोचते रहे ,फिर बोले,' झटका नहीं लगा, यह कैसे कहूँ ? लगा और बड़े जोर का लगा.लेकिन उस झटके से हिय के नयन खुल गये. जो मेरे भाग्य में नहीं वो कैसे मिलेगा! उसने तो मुझे चेता दिया.सच में नन्दू जो-जो मुझसे जुड़े सब असमय छोड़ गये. अब तुम्हीं विचारो जिसके बिना एक दिन में इतना व्याकुल हो गया, वह देह भी भंगुर है, मेरा जनम का अभुक्त दोष, उसे भी ले बैठे तो....

अपने ऊपर बड़ा पछतावा हुआ उस दिन. अब उसी से संबंध जोड़ूँगा जिससे कभी नहीं  टूटे.'

 'लेकिन भौजी बहुत पछताती हैं, उन्हें लगता है कि उन्हें संयम रखना चहिये था.'.

'रतन ने वही किया जो उचित था. हृदय में जो उमड़ती हुई बात परस्पर भी न बता सकें तो काहे का दाम्पत्य! अंतर्मन से जो कुछ राम जी की प्रेरणा से उमड़ा वह नहीं कहती तो मन निरन्तर कचोटता, अपराध-बोध सालता.'

 उनके मुख का भाव गहन हो उठा था

'बाल्यवस्था में जिनने भटकने से त्राण दिलाया, मैंने विवाह कर उन्हें बिसरा दिया.

नन्दू, मुझे भान हो गया है, संसार के सुख मेरे लिए नहीं है.'

कुछ क्षण सोचते रहे फिर तुलसी ने पूछा,

'तुम उनसे मिलते हो?'

'हाँ क्यों नहीं ?और चन्दू पर तो उनका अनूठा वात्सल्य है.'

चन्दू?नन्दास का छोटा भाई, नाम है- चंदहास.

'इस परिवार की बड़ी बहू हैं हमारी माननीया हैं. खोज-खबर रखना हमारा धरम.'

 और चन्दू, वह भी उधर गये पर मिले बिना नहीं रह सकता. भौजी के लिये सबसे लड़ जाता है.'

दोनों देवरों को रत्ना से बहुत सहानुभूति है. बड़ाई करते नहीं अघाते. उनकी निष्ठा और त्यागपूर्ण जीवन ने उनके वैदुष्यपूर्ण, संयत जीवन को और दीप्त कर दिया है.

पीहर और ससुराल के संबंधियो में रत्नावली का बहुत सम्मान है.

अचानक नन्ददास ने पूछा,'दद्दा, भौजी यहाँ आयें तो ...?'

तुलसी चौंके.

'कैसी बात करते हो?!

'नहीं सच में .उनकी बड़ी इच्छा है एक बेर तुम्हारे दरसन करें .'

'यह कैसे हो सकता है?'

काहे नहीं हो सकता ? आखिर को तुम्हारी पत्नी हैं . भइया, तुम भी तो कभी उन्हें सोचते होगे.'

'हाँ, बस यही मनाता हूँ कि वह सकुशल रहे ,कोई कष्ट न हो.' ..

' पर, वे तो यहाँ आ रही हैं '

वे चौंके ,' कब?'

'बस एक-दो दिन में यहाँ पहुँच जायेंगी.'

'यहाँ कहाँ रहेगी ?.मेरे पास कुछ भी तो नहीं उसके लिये.यह जगह उसके रहने जोग है ?जानते हो इन लोगों को ?कैसे कैसे साधु हैं यहाँ एक से एक गँजेड़ी ,भँगेड़ी. नारि मुई गृह संपति नासी ,मूँड़ मुँड़ाये भए सन्न्यासी. और कैसी-कैसी विकृत मानसिकता! .

नन्ददास क्या बोलें !

तुलसी कहते रहे ,'जैसी कुत्सा मनों में भरी  है, वैसी ही बातें करेंगे. रतन यहाँ आई तो कैसे देखेंगे उसेक्या कहने से छोड़ देंगे? जीभ पर लगाम देना तो जानते नहीं.

फिर एक चुप्पी.

' नन्दू ,तुम्हीं ने यह किया होगा .ऊँच-नीच कुछ नहीं सोचा.अरे, एक बार मुझसे ही पूछ लेते.'

मन में आया इनसे पूछना इतना आसान है क्या.

पर नन्ददास बोले कुछ नहीं.

तुलसी ने पूछा -' बताया किसने कि मैं यहाँ हूँ ?'

'तुम्हारी खबर रखती हैं वे , पिछली बार तुम्हार सँदेसा पा मगन हो गईं थीं भौजी,आनन्दाश्रु

 छलक आये थे. बोली थीं ,तुम्हारे दद्दा मुझे अपने से अलग नहीं मानते.'

झूठ नहीं बोलूँगा तुम्हारे आगे. उछाह केआवेश में मैं ही बता आया था .भौजी के मुख को देख कर मैं अपने को रोक न सका, '

सिर झुका कर बोले ,' पर हमने आने को नहीं कहा  था. वे तो कब से चाह रहीं थीं बस मौका नहीं मिला था.'

'और इस बार मिल गया?'

'हम तो वहाँ जाते ही कितना है! चंदहास से बात-चीत होती रहती है उनकी . चंदू वहीं रहता है न ..

हमें तो उसी से पता चला .'

'वह आयेगी यहाँ मिलने ?इस खुले डेरे में ,चारों ओर विकृत चर्चाओं की हवा में ...

ऐसे लोगों के बीच न आये रतन, लोग तो भद्दीबातें फैलाने को उधार खाये बैठे होते हैं .'

नन्ददास स्तब्ध .

'रतन यहाँ आयेगी, कहाँ टिकेगी ?'

तुलसी आवेश में बोले जा रहे हैं , 'मैं सब प्रकार से साधन हीन. भिक्षा माँग कर पेट भरता हूँ .मंदिर में उनने मस्जिद बना डाली. मैं राम का नाम लेकर वहीं कहीं सो जाता हूँ कि कपटी साधुओँ की चर्चा में न पड़ूँ. किसी से लेना एक न देना दो. लेकिन लोगों की कुत्सित दृष्टियाँ उस तक पहुँचेंगी.  कौन रोक लेगा?

'मुझे ही धूर्त,जुलाहा ,रजपूत जाने क्या-क्या कहते फिरते हैं .मुझे तो कोई अंतर नहीं पड़ता,  पर उसका क्या कोई मान-सम्मान नहीं?  कैसे-केसे विकृत आरोपण करते हैं लोग ,सोचा है कभी? अपनी कुत्सा के आरोपण में चूकेंगे नहीं. रतन के लिये ये स्थान नहीं .सब की कौतुकी दृष्टियों का केन्द्र होगी वह,यहाँ सब कैसे-कैसे सन्यासी हैं जानता हूँ मैं, पराई स्त्रियों को  लोग  कैसी निगाहों से दखते हैं .यहाँ तो सब ओर यही लोग हैं.  कौन साधु हैं ,कौन असाधु, कौन जाने !

'अपने मन की कुत्साएँ निकालने का एक मार्ग मिल जायेगा उन सबको . रसभरी चर्चा के लिये एक मसाला मिल जायेगा.रतन के साथ ऐसा हो, नहीं  नन्दू ,वह नौबत न आये .उसे मान न दे सका पर  दूषणों  से तो बचा ही सकता हूँ .'

 

तुलसी को इतना उत्तेजित पहली बार देख रहे थे.लगता है उनका अंतर्मन तक दहल गया हो जैसे.

क्या केवल उत्तेजना थी, आँखो में जो छलकन  उतर आई वह भी तो एक सच है.....

'तुमने बताया कि आजकल  यहाँ हूँ ?'

'  बातों  बातों में मैं ही कह बैठा था,तुम्हारे बारे में बहुत बातें पूछती हैं .'

मन ही मन पछता रहे थे नन्ददासरत्ना के प्रति सहानुभूति भरे मन ने बिना सोचे-विचारे ,चंदहास की बातों में आ, भावुकता में यह क्या कर डाला ?

लेकिन अब ... नन्द दास का चेहरा उतर गया.

' अब? वे तो आ रही हैं ,कल ....' नन्ददास घबरा कर कह उठे

'अब बता रहे हो जब  पानी बिलकुल सिर से ऊपर आ गया.'

'तो अब तुम्ही जानो!'

*

'तुम्हीं जानो' कहने भर से क्या मन शान्त रहता है!

ओह,रतन यहाँ ! आँखों के सामने !मैं सोच भी नहीं सकता!

 जीवन में बहुत तरसा हूँ , वहाँ से विरत हो कर चला आया .अब बस मन  पर संयम रहे  ,नारद जैसा मुनि ,विचलित हो सकता है फिर मेरी क्या विसात! 

प्रभु, अब परीक्षा न लो.रक्षा करो ! अपने आश्रय में पड़ा रहने दो. बुद्धि चेताती है किन्तु  मन के उत्पातों  से भय खाता हूँ . किसी दुर्बल क्षण में  सारे भान खो कर ,संयत न रह पाऊँ  ....

नाथ, तुम तो अंतर्यामी हो!

नहीं होगा, नहीं होगा मुझसे, फिर मिलना और फिर दूर हो जाना.

मुझे साहस दो प्रभु!

मानव बन कर अवतार लिया तुमने ,मानवी संवेदनाओं को भोगा, निभाया,

अब तुम्हीं मेरा मार्ग दर्शन करो! 

मैं आज जान पा  रहा हूँ वह कारण कि  माँ जानकी को,भवन से निर्वासित कर  वन पहुँचाने का, निर्मम दायित्व अनुज को सौंप दिया , क्यों स्वयं सम्मुख  नहीं आ सके थे !

और कोई मार्ग नहीं सूझ रहा प्रभु. इस समय की विचारणा जो  कहे वही स्वीकारता हूँ , उचित-अनुचित जो समझो -  मुझे क्षमा कर देना!

और अगली भोर, तुलसी बिना किसी को  बताए वहाँ से  प्रस्थान .कर गये.

*

(क्रमशः)

*


 

 

 

सोमवार, 22 फ़रवरी 2021

छोटे मियाँ सुभानअल्लाह!

 छोटे मियाँ सुभान अल्लाह. 

बचपन  में मेरा बेटा कुछ ज़्यादा ही अक्लमन्द था..बाल की खाल निकाल देता था. एक बार उसकी एक चप्पल कहीं इधर-उधर हो गई ,वह एक ही चपप्ल पहने खड़ा था.मैने देखा तो कहा अच्छा एक ही पहने हो दूसरी खो गई ? और हमलोग इधऱ-उधर डूंढने लगे.

उसके पापा ने आवाज़ लगाई , 'आओ जल्दी..'

मैने उत्तर दिया,'उसकी एक चप्पल नहीं मिल रही है ,देख रही हूँ ..'

वह सतर्क हुआ बोला,' मम्मी एक तो है दूसरी नहीं मिल रही है.'

मैं खोजने में लगी रही ध्यान नहीं दिया .

देर होती देख उसके पापा चले आए.

'क्या हुआ ?' 

'इसकी एक चप्पल नहीं मिल रही .'

वह फिर बोला, ' एक तो पहने हूँ, दूसरी नहीं मिल रही.'

मेरे मुँह से निकला, 'अच्छा..'

नीचे से माली की आवाज़ आई - 

'ये एक चप्पल किसकी नीचे गिरी पड़ी है ?'

इन्होंने कहा, ' देखो एक नीचे गिरा दी है .'

उसने  फिर स्पष्ट किया,' एक नहीं वह दूसरी है .'

ताज्जुब से उसे देख कर बोले , 'हाँ,हाँ एक नीचे पड़ी है.' 

उसने ज़ोर से प्रतिवाद किया, ' एक नहीं  दूसरी नीचे पड़ी है '

'हाँ ,हाँ एक तुम्हारे पाँव में और एक नीचे' -मैंने समझाया .

वह क्यों समझता ,खीझता हुआ बोला दूसरीवाली नीचे है ,एक तो ये हैं.

हमलोगों ने आश्चर्य से एक-दूसरे को देखा .

मैंने फिर समझाने की कोशिश की 

'हाँ ,हाँ एक तुम पहने हो और एक नीचे '.

वह जोर से बोला -

'एकवाली तो मैं पहने हूँ नीचे  दूसरीवाली है .' .

हम दोनों निरुत्तर.

हम समझा रहे हैं,वह हमारी बात कब समझेगा आखिर!

कोई एक बार की बात थोड़े ही .आये दिन कुछ-न-कुछ

दशहरे पर रामलीला के बाद इन लोगों को रावण -दहन दिखाले ले चले.

रावण का पुतला देख कर मुझसे पूछा ,मम्मी ये सच्ची का रावण है 

'नहीं.'

'तो इसे जलाते क्यों हैं ?'

मैं चुप रही .

 'इसे जलाते क्यों हैं, मम्मी ?'

मैं कहूँ तो क्या कहूँ .

फिर वही, 'क्यों मम्मी?'

अच्छा अभी तो चलो .

लेकिन वह पूछे जायेगा जब तक समाधान नहीं हो जाये,पूछता रहेगा .

हार कर कह दिया, 'अभी चलो बाद में बताऊँगी .'

और कुछ भी सुन लीजिये- बिजली का बिल जमा कराना था. कहीं रख दिया था और मिल नहीं रहा था.

ढूँढ पड़ी थी - बिजली का बिल कहाँ है ?

 

वह बोला यहाँ है बिजली का बिल .

खुश हो कर हम लोग दौड़े ,'कहाँ ?' 

वह ले गया ,मिक्सी चलाने के लिये जहाँ से प्लग को कनेक्ट करते हैं उन सूराखों को दिखा कर बोला,ये है बिजली का बिल.'

बिजली का बिल? 

हम दोनों एक-दूसरे का मुँह देख रहे हैं. 

अब तक चूहे का बिल देखा होगा ,अब बिजली का भी देख लीजिये - यहाँ रहती है बिजली.

वाह रे भगवान, इन छोटी खोपड़ियों में दूसरों का दिमाग़ चाटने की अक्ल  भरने में तुम खूब एक्सपर्ट हो!

*



मंगलवार, 9 फ़रवरी 2021

राग-विराग -5.

 *

हिमाचल-पुत्री गंगा, शिखरों से उतर उमँगती हुई सागर से मिलने चल पड़ती है. लंबी यात्रा के बीच मायके की याद आती है तो मानस लहरियाँ उस ओर घूम जाती हैं.  इस स्थान पर आकर उन्होंने दक्षिण से उत्तर की ओर  प्राय: चार मील का घुमाव लिया है. परम पुनीता, उत्तरमुखी सुसरिता के इसी उमड़ते स्नेहाँचल के, आग्नेय कोण में स्थित है अनादि नगरी-  काशीपुरी! काशी शब्द का अर्थ ही है, प्रकाश देने वाली - जहाँ ब्रह्म प्रकाशित हो. समय-समय पर महान् चिन्तकों और आध्यात्मिक विभूतियों ने इसकी चैतन्यता को उद्दीप्त रखा है 

बालपन की दारुण दशा के बाद, भूख से बिलबिलाते,परित्यक्त बालक ने माँ अन्नपूर्णा  की छाँह में शरण पाई थी. तुलसी की सारस्वत-साधना की केन्द्र भी यही नगरी रही. गुरु नरहर्यानन्द जी के सान्निध्य और शेषसनातन जी के पास रहकर तुलसीदास ने पन्द्रह वर्ष तक वेद-वेदांग का अध्ययन किया था, यहीं रह कर  भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपराओं से परिचित हुये थे. दोनों सद्पुरुषों की परिष्कृत, उदात्त मानसिकता और सजग चेतना का प्रभाव तुलसी का कायाकल्प कर, उनके व्यक्तित्व में दीप्ति भर गया. शेष जीवन काशी से उन्हें विशेष लगाव रहा था.

उनके चचेरे भाई नन्ददास (जीवाराम के पुत्र)  भी युवा होने पर  काशी में  विद्याध्ययन करने आये. दोनों की परस्पर भेंट होती रहती थी. यहाँ रह कर परस्पर आत्मीयता विकसित हुई. नन्ददास, अग्रज  तुलसी के प्रति सम्मान और श्रद्धा का भाव रखते थे,और उनसे प्रायः सलाह-मशविरा करते रहते थे. कालान्तर में नन्ददास कृष्ण-भक्ति में दीक्षित हो, अष्टछाप के कवियों में गण्य हुये. 

एक बार वैष्णव भक्तों का एक दल द्वारका प्रस्थान करनेवाला था, नन्ददास भी जाने को उत्सुक थे.उन्होंने अग्रज से पूछा,बड़ा सुन्दर अवसर मिला है .हम भी उसके साथ जाना चाहते हैं.

काहे वहाँ क्या है ?

भगवान रणछोड़ के दर्शन का लाभ मिलेगा .उस पुनीत पुरी के वास का सौभाग्य मिलेगा. 

दल  के साथ जाओगे ? 

अपने समाज के साथ आनन्द ही आनन्द रहेगा. मस्ती में नाचते-गाते पहुँच जायेंगे.सब साथ होंगे ,किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं.

कुछ क्षण चुप रहे तुलसी.फिर बोले ,उसमें कुछ जोखिम भी है.

जोखिम ?

'तियछवि छाया ग्राहिनी' बीच में ही गह ले, तो...?

तुलसी  उनके  मस्तमौला, रसिक स्वभाव से भलीभाँति परिचित थे.

नन्ददास संकेत समझ गये . एक रूपवती खत्रानी पर रीझ कर कैसे सारी लोक-लाज छोड़ उसके घर के चक्कर लगाने लगे थे, परेशान होकर उसके परिवार जन गोकुल चले गये, तो वहाँ भी जा पहुँचे थे.

बात तुलसी तक पहुँची, उनकी धिक्कार और  गोसाईं विट्ठलनाथ जी के सदुपदेश से मोह-भंग हुआ. उन्हें कृष्णभक्ति रास आ गई ,कालान्तर में वे अष्टछाप के कवियों में मान्य हो गए.

कुछ खिसियाते-से नन्ददास बोले,अब वे बातें काहे बीच में लाते हो दद्दा, तु्म्हारी बात सुनी नहीं क्या हमने ? हमने विट्ठलस्वामी से दीक्षा ले ली है.अब तो ब्रजराज श्याम ही हमारे सर्वस्व हैं. 

नन्दू,अकेले भ्रमण में व्यक्ति अपनी खुली आँखों के चतुर्दिक् देखता-समझता चलता है. और साधु तो सबका कल्याण चाहता है. हमने तो तुम्हें चेता दिया है.

नन्ददास चुप सुनते रहे.

तुमने कबीर जी की वह उक्ति सुनी है 'लालन की नहिं बोरियां...'..?

हाँ,हाँ यों है - 

'सिंहन के नहीं लेहड़े ,हंसन की नहिं पाँत,

लालन की नहिं बोरियाँ साधु न चले जमात.'

कैसा गूढ़ अर्थ छिपा है इसमें .

समझ रहे हैं , लेकिन हम तो कृष्ण प्रेम के मार्गी हैं. निचिंत रहे दद्दू,सप्ताह -दस दिन में हम लौट आयेंगे.

तुलसी दास ,लघु भ्राता को प्रोत्साहित करने में कभी पीछे नहीं रहे

 उन्होंने कहा था नन्दू ,तुम भी कुछ कम विद्वान नहीं हो .अपने अनुभवों का पाठ भावसंपदा  भी बढ़ाएगा ,तुम कुशल हो.जहाँ अन्य कवि  कवित्त गढ़ते हैं तुम उक्ति को ऐसे जड़ देते हो जैसे स्वर्ण में रत्न. और अभी तो निखर रहे हो .

अपने भ्रमण-क्रम में तुलसीदास जी ,वृन्दावन पहुँचे. तब तक वे राम-भक्त के रूपमें पर्याप्त ख्याति पा चुके थे. वृन्दावन श्रीकृष्ण की लीलाभूमि रहा है तुलसी ने अनुभव किया कि  यहाँ के आम, ढाक, खैर भी राधा-राधा का जाप करते हैं.

जब वे ज्ञान गुदरी में श्री मदन मोहन के परिसर में पहुँचे  तब भक्तमाल के रचयिता नाभादास तथा कुछ अन्य जन भी वहाँ उपस्थित थे.रामभक्त, तुलसी के आगमन की सूचना सबको हो गई थी.

मन्दिर के पुजारियों में परशुराम नाम का एक पुजारी बोला ये तो मदन-गोपाल की लीलाभूमि है, यहाँ रामभक्त कैसे पधार गये?

और तुलसी को देख हँस कर बोला, आपके इष्ट तो राम जी हैं !

 'बिना आपुने इष्ट के नवै सो मूरख होय.'

तुलसी दास जी ने सुना ,शान्तिपूवर्क विग्रह के हाथ जोड़े, विनत हो कर बोले- 

'कहा कहौं छवि आज की, भले बने हो नाथ,

तुलसी मस्तक तब नवै, जब धनुष बान ल्यो हाथ.'

.अचानक श्याममूर्ति में मुद्रा-परिवर्तन का आभास हुआ सबके विस्मित नयनों में धनुर्धारी की ओजपूर्ण मुद्रा झलकी, 

और गद्गद् तुलसी ने भूमिष्ठ हो दण्डवत् प्रणाम किया.

घटना की स्मृति-स्वरूप यह दोहा प्रचलित हो गया -

 ‘मुरली मुकुट दुराय कै, धर्यो धनुष सर नाथ। तुलसी लखि रुचि दास की, कृष्ण भए रघुनाथ।.’  

इतिहास साक्षी दे या न दे , लोक-श्रुति साक्षी है कि भक्त की मान-रक्ष हेतु, कृष्ण की मूर्ति राम की मूर्ति में परिणत हो  गई थी.

(क्रमशः)

*