शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

कृष्ण-सखी 13. & 14.


13.
कृष्ण पक्ष की अष्टमी .वातायन से आती चाँदनी अपनी श्यामता  एवं उजास भरी  कूचियाँ फेर स्वप्नलोक का निर्माण कर रही है .
समय का अविराम चक्र अपनी गति से घूम रहा है .पांचाली के दांपत्य में चार वर्ष बाद अर्जुन के आगमन  का क्रम .
अभी चल रही है उनकी दीर्घ अनुपस्थिति..पर किसी का साहस नहीं होता कि द्रौपदी का एकान्त भंग करे . बस एक कृष्ण हैं ,जिनका उस रिक्त वर्ष में प्रायः ही आगमन चलता है .और तब भाइयों के वार्तालाप से निवृत्त हो कर वे ,और दैनिक-चर्या संपन्न कर द्रौपदी  कक्ष के आगे दोनो अपनी पीठिका और चौकी पर आ बैठते हैं .
रात बीतती रहती है , उपवन के वृक्ष हवा में झूमते-हिलते हैं ,आकाश में तारों की महफ़िल ,जहाँ अक्सर चंद्रमा भी अपने समय-सुविधानुसार उपस्थित  हो जाता है .
कृष्ण से  संवाद बिना बहुत दिन होने पर विचित्र सी व्याकुलता घेर लेती है.
तब उस अकेले कक्ष में मन में छाई  रिक्तता को पूरने जाने कहाँ-कहाँ की स्मृतियाँ, ,भूले-बिसरे प्रसंग बाढ़ की तरह उमड़ते चले आते हैं ,जिनमें कहीं कोई तारतम्य नहीं . और भूल-भुलैया बनी -सी विगत की गलियों में भटकी फिरती है पांचाली . .
.जीवन के सामान्य क्रिया-कलापों के बीच  उन्हीं  बातों का बार-बार साक्षात्कार करते कहाँ -कहाँ के विचारों में डूबने लगता है पार्थ विरहित, अकेला मन !
ढमाढम् .ढमाढम्..दूर कहीं से ढोल-चंग बजने की आवाज़ें आ रही थीं उस शाम  .बीच-बीच में उत्तेजित आनन्द से उन्मत्त स्वर लहरी.
वनवासियों का कोई उत्सव है .सारी रात नाच-गाना .पुरुष-नारी दोनों अपनी  विशेष-भूषाओं में सजे ,मद पी कर मत्त .
कितना सहज जीवन है इन धरती -पुत्रों का, न कोई कुंठा न व्यर्थ की चिन्ता .वजर्नायें नहीं, सहज आडंबरहीन जीवन .
 'आदिवासी कितना उन्मुक्त जीवन जीते हैं ,'द्रौपदी ने कहा था.
'हाँ ,देखो न ,सीधा-सरल जीवन  ,उत्सवों का आयोजन. खुल कर नाचते -गाते प्रसन्न रहते हैं ,अंतर का राग व्यक्त होना चाहता है प्रकृति के परिवेश में उसी की अभिव्यक्ति है यह .दबाओ तो विकार बन  जायेगा . एक राह मिल जाए जहाँ  द्विधा रहित हो कर ,अभिव्यक्ति की छूट पा सकें .अंतर में कुंठा पनप नहीं पाये सब-कुछ सरल और सुगम .कितने सहज संबंध इनके और कितनी सरलता से जुड़ जाते हैं .'
कृष्णा का ध्यान कहीं और पहुँच गया -
 कोई ज्योत्स्ना-स्नात राका रही होगी जब  गोपेश ने यमुना तट पर रास का आयोजन किया होगा.
मन में शंका उठी थी कृष्ण के महारास पर.
उस दिन पूछ बैठी थी वह,' और तुम्हारा महारास - वह नृत्य-गान का उन्मुक्त आनन्दोत्सव ! मर्यादित  नागर-समाज में उच्छृंखल व्यवहार  की छूट लेना तो नहीं .. ?'
'उच्छृंखल नहीं सहज और स्वस्थ बना रहा हूँ समाज को .जहाँ एक को सारी छूट और दूसरे को सारे बंधन वह समाज स्वस्थ हो ही नहीं सकता . समाज के सभी लोग भाग लें. नर-नारी दोनों.निर्मल आनन्द.नृत्य और गान खुले परिवेश में ,और कृष्णे ,दुरुपयोग तो किसी भी वस्तु का किया जा सकता है .उसके पीछे सुन्दर संभावनाओं की खोज क्यों पीछे रह जाय ?'
 'समाज के नियमों से तटस्थ रह ,इतना उन्मुक्त आचरण  कैसे कर लेते हो तुम ?इतनी नारियों को सम भाव से आत्मीय कैसे बना पाते हो ?और सहज इतने कि किसी को आपत्ति का कोई कारण दिखाई नहीं देता ?'
' आपत्ति क्यों ?सहज-स्वाभाविक व्यवहार, कोई दुराव-छिपाव नहीं .'
कितना चंचल है मन . थिर रहता नहीं .पल में कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है.
वह उत्सव की बेला बिला गई ,सामने आ गई. जीवन की प्रस्तावना-कथा .विविध संदर्भ जाग गए ,सखा के साथ बीते किसी काल-खंड की  स्मृतियों में पहुँच गई.
 वही शब्द कानों में गूँजने लगे -
.'उन ब्रज वनिताओं ने अपने नेह-पारावार में मुझे आकंठ स्नान करा मेरे तन-मन को निर्मल कर दिया.  उनके गुणों से कितना अभिभूत हूँ . और इतना कृतघ्न नहीं  ,कि अपने अहं की तुष्टि के लिए  उनमें  कमियाँ ढूँढ-ढूँढ कर ढिंढोरा पीटता रहूँ  , नारी जाति के लिए   कृतज्ञता कैसे व्यक्त करूँ ? यह जीवन जिनकी देन है ,उन्हें जीवन के संतापों से किंचित भी मुक्ति दिला सकूँ  . खोलना चाहता हूँ ये बेड़ियां, कि वे खुल कर साँस  ले सकें .इसीलिए ये गान ,नृत्य ,रास, फाग ,झूला-हिंडोला कि जीवन में रस का संचार हो .आनन्द जो तिरोहित रह जाता है  उसका आस्वाद ले सकें ..'
विस्मय होता है पाँचाली को . समझ नहीं पाती नहीं कब क्या करेगा !
'नारी के प्रति तुम्हारी दृष्टि कितनी संतुलित है ,कितनी मानवीय !'
' मेरा इस प्रकार यहाँ होना , मेरा जीवित बच जाना ,उन्हीं के कारण संभव हुआ  .
 जो आज हूँ, उनकी ही देन ,एक ने वर्षों कष्ट और ,दारुण मनोव्यथाएँ  झेलते हुए मुझे जन्म दिया ,दूसरी ने अपनी सद्यजात-कन्या  दे कर मेरे जीवन  की कीमत चुकाईमेरे शैशव को अमृत-पयपान काराया ,वात्सल्य से सींचा,निश्छल स्नेह से मेरा जीवन सँवारा . ब्रजनारियाँ मेरी बाल-सुलभ मनमानी ,मेरे सारे उपद्रव सहज-विनोद भाव से सहन करती रहीं . सच्चा आनन्द तो उन्हीं ब्रज की गलियों में पाया मैंने ,उस गोचारण के  सहभोज जितना रस मुझे कहीं नहीं मिला वैसे सरलमना संगी फिर मेरे जीवन में  कभी नहीं आये .और सिर्फ़ तब नहीं ,आगे का सारा जीवन भी तो ..यह जीवन क्या मेरा रह गया . उन सब का अधिकार इस पर मुझसे  कहीं अधिक है .'
अपनी अभिन्न सखी से सामने अपना मन खोल देता है यह पुरुष जिसे लोग असाधारण ,अलौकिक समझते हैं .
 'मित्र हो तुम मेरी ,तुमसे क्या छिपाना .'
 कभी  बोलते-बोलते रुक जाता है  .लगता है जैसे कंठ भऱा आ रहा हो .
मुख बोले या न बोले पांचाली से कुछ गोपन नहीं रहता.
सहसा वह कह उठती है , ' यह तुम कह रहे हो वासुदेव ?'
'बस एक तुम .तुम्ही से कह पाता हूँ...'
उसकी एकान्त मनोव्यथा की साक्षी है केवल पांचाली .उसी के सामने खुल पाता है वह ,
'हाँ पांचाली ,मैं .हँसता रहता हूं ,इसका यह अर्थ तो नहीं ,कि अंतर में दुखन नहीं मेरे. ..इन परिस्थितियों में कोई होता ,...'
 'जनार्दन ,तुम्हें समझ रही हूँ !'
'सब ने क्लेश ही तो पाया ,किसे कुछ दे पाया मैं .किसे सुख मिला मुझसे ,बस अशान्ति ही तो ..'
नयनों में कैसी निर्लेपता छाई जा रही है .जैसे कहीं बहुत दूरियां माप रहे हों .  ऐसे विषम क्षणों मे पाँचाली को अपना दुख बहुत छोटा लगने लगता है .
 क्यों कहती है ,क्यों पूछती है इतना सब ?
देखती चले चुपचाप ,क्यों हर बात जानना चाहती है !मन ही मन स्वयं को  धिक्कारती है - क्यों जगा देती है इस आनन्दी प्रतीत होनेवाले पुरुष के मन की सोयी व्यथायें ?
 मुझे तो हमेशा कठिनाइयों से उबारा है इस प्राणसखा ने .
आश्वस्ति हेतु कुछ कहना चाहती है .पर क्या ? कहने को है ही क्या  !
और वह चुप सुनती रहती है .
'तुम सोच मत करो सखी  ,ये तो देह धरे के दंड हैं . शरीर ही काला नहीं जीवन-कथा के सारे अध्याय उसी रंग से रचे गये .जन्म से अब तक जिसके साथ रहा अशान्ति के सिवा उसे क्या भेंट दे सका .माता-पिता कभी चैन से रह सके.. .दोनों माता-पिता ?
 केवल उनका नहीं संपूर्ण नारी जाति का वह ऋण नहीं चुका सकता जिसने किसी न किसी रूप में मुझे जीवन भर सहेजा .उसे पराभूत होते देखना मुझे सह्य नहीं .
चिर-ऋणी हूँ मैं उसका . किसी का सहारा बन सकूँ किसी को प्रसन्नता दे सकूँ....'
सिर झुकाये सुन रही है द्रौपदी.
 'मैं भूल नहीं पाता अपनी भगिनी को ,जिसने मेरी जीवन-रक्षा हेतु  कंस का आघात झेला ,उस  शक्ति स्वरूपा का अपरिमित ऋण है मुझ पर ..'
'क्या वे .. उनका वध कर दिया कंस ने ?'
'बस यही संतोष है .मुझे जीवन देनेवाली वह शक्ति-रूपा मेरी भगिनी जीवित है .'
'अच्छा ! मैंने भी सुना था नंदबाबा  और यशोमति-माँ  के एक पुत्री जन्मी थी ..जो..कंस के हत्थे चढ़ गई? '
'उस समय यही प्रचारित किया गया था .कहीं कंस को भनक लग जाती तो रक्षण देने वालों का भी जीना मुश्किल  हो जाता.,देवकी- माँ  के अन्य शिशुओँ ,मेरे उन सहोदर भाइयों की भाँति कंस उसे मार नहीं पाया था .जब वह उसे घुमा कर पटकना चाहता था अचानक वह उसके हाथ से फिसल गई .उसने समझा कहीं जा कर गिरी होगी . बच कहाँ सकती है .
सात शिशुओं को पटक कर मार देने वाले नृशंस हत्यारा !
 कंस की दासियाँ भी उससे खिन्न थीं .और ऊपर से  कन्या का वध ,जघन्य पाप  ! नहीं ,अब हम नहीं होने देंगे यह अत्याचार .तय कर लिया था उन  ने . उनके मन में विश्वास जमा था कि आठवीं बार यह हत्यारा सफल नहीं होगा .यह संतान नहीं मर सकती ,कभी नहीं मर सकती.
आधी रात कन्या का आगमन - सूचना दी गई थी कंस को.
' ठठा कर हँसा था वह.सोते से उठकर चला आया .एकदम कोमल अवश कन्या का वध उसके लिये कौन कठिन काम ,
सद्यजात थी. वैसे ही रहने दिया परिचारिकाओं ने .गर्भ का तरल  यथावत् शरीर से लिपटा रहा. फिसलन भरा आर्द्र तन ,ऊपर से  तैल आलेप दिया उन लोगों ने .
उतावली में उसने ने उठा कर जैसे ही झटके से घुमाना चाहा  हाथ से एकदम फिसल गई .हड़बड़ाहट में अवधान रहित और भौंचक हुये कंस के सामने कई दासियाँ दौड़ आईं ,'अरे, कितनी त्वरा से ...एकदम दृष्टि से ओझल! किधर चली गई वह ...'कहते हुये दासियों ने उसका ध्यान बटा कर छिटकते शिशु को अति लाघव से झेल लिया,झुक कर चारों ओर खोजने के मिस हाथों-हाथ  गायब कर दिया .  .
'अरे ,कितना वेग आपके करों में महाराज.एकदम से कौंधी और ओझल !  दृष्टि विफल हो गई कुछ नहीं  दिखा किधर ,कैसे ? हम सब तो हत्बुद्ध रह गये  .'
भरमा गया कंस और बालिका को चुपके से विंध्याचल पहुँचा दिया गया. वही गोप-बालिका है विंध्यवासिनी !
( 'नंद गोप गृहे जाता,यशोदा गर्भ संभवा ,ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी .' -दुर्गासप्तशती)
वह जीवित है ,विद्यमान है , हमारे साथ है!
दोनों के प्रमुदित नयन मिले ,एक दूसरे के परितोष में मग्न , परम आश्वस्ति से आपूर्ण .
कोई कुछ बोल नहीं रहा .
 कैसी  अनिर्वच स्वस्ति के क्षण !
14.
'राधा का साथ ? एक बार ब्रजभूमि से निकला फिर वहाँ का सब कुछ स्वप्न बन कर रह गया, '
माधव ने कहा था.
'फिर कभी नहीं मिले तुम ?'
' हाँ ,मिला था  एक बार. प्रभास-तीर्थ में- बस एक बार !'
द्रौपदी सुनती रही ,मन की आँखों से देखती रही .
 सूर्यग्रहण ! प्रभास तीर्थ पर मेला लगा है .
कृष्ण आये हैं परिवार और  रुक्मिणी के साथ.उधर ब्रजभूमि से गोपों की टोली आई है .नन्द-यशोदा से वसुदेव-देवकी मिले . कितने कृतज्ञ .
रुक्मिणी ने बंकिम हास्य के साथ कृष्ण से  पूछा था ,'बरसाना की राधा के विषय में बहुत सुना है.  कहाँ है तुम्हारी वह बालापन जोरी,मुझे भी दर्शन करा दो .'
विचित्र सा उल्लास कृष्ण के मुख पर छाया था .
ब्रज-मंडल से आई टोली की युवतियों की ओर इशारा करते हैं
' वह ठाड़ी तहँ जुवति वृन्द मँह नीलवसन तन गोरी .'
(- सूरदास)
नीलांबरी राधा ! इस दुनिया की नहीं लग रही थी ,लगता था किसी दिव्यलोक से उतर कर आई है .,कृष्ण के नयन अपार अनुराग से भरे .उन्होंने अपने आप को पहले ही तैयार कर रखा था , जानते थे राधा आयेगी .
 रुक्मिणी देखती रही नयनो में ईर्ष्या कौंधी .
द्रौपदी  को ज्ञात था, कृष्ण ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था -राधा से मेरा दैहिक संबंध कभी नहीं रहा .मन की अंतरंगता थी ,परम मित्र के समान .उसने मुझसे कभी कुछ नहीं चाहा-बस देती रही ,अपार विश्वास और अपरिमित अनुराग . जैसी तब थी बल्कुल वैसी की वैसी है राधा !
भावनामय जीवन कभी जरा-जर्जर नहीं होता क्य़ा !युग-पर- युग ऊपर से निकलते चले जायें उसका राग मंद नहीं होता, उसकी ताज़गी कभी कम नहीं होती ?
 - और कैसे मिलीं राधा और रुक्मिणी - 'बहुत दिनन की बिछुरी जैसे एक बाप की बेटी'(सूर)
रुक्मिणी महलों में निमंत्रित कर लाई थी उस सरल हृदया को.
आतिथ्य के प्रति अति सजग  हो ,कृष्ण से पूछ-पूछ कर राधा की रुचियाँ जानी .
 भवन में उस कक्ष की सज्जा स्वयं कृष्ण ने करवाई . राधा के प्रिय पुष्प ,मोरपंख और बाँसुरी,जो बिदा के समय उसी ने  कनु को भेंट की थी, सजा कर रखे .कमल पँखुरियों से सज्जित कर अपने सामने उसकी शैया सज्जित करवाई. ,क्या पहनेगी ,क्या खायेगी ,कहाँ सोयेगी उसके एक-एक पल का विवरण उनके पास था .
कक्ष के वातायन से मनोहर उपवन की शोभा , कदंब और तमाल के वृक्ष ,ऋतु-पुष्पों सहित  तुलसी-मंजरियों  की गंध समेटे पवन के झोंके ,और चंद्र-ज्योत्स्ना का अबाध आगमन .
 कक्ष में मणि-रत्नों के नहीं , बस माटी का स्नेह-दीप .
निद्रा से पूर्व , भरका हुआ गौ-दुग्ध भिजवाना उसे -  स्वर्ण -रजत के नहीं ,काँसे के पात्र में ,
और सुनो रानी,हीरे-मोती पाटंबर सब उसके लिये व्यर्थ हैं - देना ही चाहो तो नीलांबर-पीतांबर और वनमाला ही अर्पित करना.
पटरानी का मुख देख कर बोले थे -बस एक ही दिन का आतिथ्य तो उसका  ,सारा वैभव -विलास और अधिकार तुम्हारा !
स्वयं रहे सारी व्यवस्थाओं में व्यस्त.
 राधा के आगमन के उपलक्ष्य में पुर की नवीन साज-सज्जा  करवाई गई ,अपनी बालसखी को रथ पर बैठा कर पुर का भ्रमण जो करवाना था .
   पर सौतिया डाह तो सगी बहनों में भी द्वेष भर देता है .
अपने कनु को देख मुस्कराई राधा .बोली कुछ नहीं .
कृष्ण के साथ द्वारका -भ्रमण कर लौटी थी ,उसके बाद भोजन किया माखन -मिश्री ,फल प्रिय थे उसे .
शैया पर विराजीं ,रुक्मिणी स्वयं दुग्ध का पात्र लेकर पहुँचीं ,'लो बहिन ,स्वामी को अब तक स्मरण है कि रात्रि शयन से पूर्व तुम दुग्धपान करती हो. कहीं चूक न हो जाये - उन का विशेष आग्रह है .'
 मन- मोहन के ध्यान में लीन राधा ने कृतज्ञ हो ,  मंद  स्मित पूर्वक  , रुक्मिणी के हाथ से  पात्र ले लिया .
रुक्मिणी खड़ी रहीं .
पास रखी वेदिका पर रखने का उपक्रम करते देख बोल पड़ी , 'विश्रान्त लग रही हो  ,बाल सखा के साथ नगर-भ्रमण करते थक गई होगी!.. कहीं ऐसा न हो दुग्ध धरा रह जाय और तुम निद्रालीन हो जाओ .नहीं, मैं यहीं खड़ी हूँ ,पात्र ले कर ही जाऊँगी .'
'कितना कष्ट कर रही हो मेरे लिये ,' उपकृत थी  राधा शैया पर स्थान बनाते हुये बोली ,'बैठो बहिन .'
' नहीं अब चलूँगी ,स्वामी की सेवा करनी है .तुम शयन करो .'
अनुरोध का मान रखा राधा ने  झटपट दूध पी लिया .
*
 रात में रुक्मिणी ने पाया कृष्ण के चरणों में छाले पड़े है .
'क्या बिना उपानह पैदल पुरी घुमाते रहे उन्हें जो चरणों में ये छाले डाल लाये ?' वाणी में किंचित तीक्ष्णता थी .
पत्नी की मुख- मुद्रा देखते रहे कुछ पल  ,उनके मन में क्या चल रहा है , वह नहीं अनुमान पाई .
'तुमने राधा को इतना गर्म दूध पिला दिया ?'
सारे किये- धरे पर पानी फिर गया हो जैसे - रुक्मिणी एकदम हतप्रभ .
कृष्ण ने द्रौपदी से कहा था ,''सखी ,वह ताप ,'मेरे हृदय को अब तक दग्ध कर रहा है. '
पर तब रुक्मिणी से कहा था ,',उसे इतना गर्म दुग्ध क्यों पिलाया तुमने ?
पत्नी ने सफ़ाई दी ,'मेरी ऐसी कोई योजना नहीं थी .गर्म दूध दिया था इसलिये कि वह खोई सी रहती हैं ,विलंब से पियेंगी तो भी ठंडा नहीं होगा .इतनी बेखबर रहती हैं मुझे पता नहीं था .'
फिर कुछ नहीं कहा था कृष्ण ने .
उस रात वे सोये कहाँ ?
जाने कब की सेंती धरी बाँसुरी निकाल लाये  .और कुंज- भवन में चले गये.
रह-रह कर सारी रात बजती रही बाँसुरी - धीमे-धीमे स्वर ,
कैसा आकुल राग?
राधा सो रही है .कितनी आश्वस्त, कैसी  गहन शान्ति के ज्वार में डूबी.
ऐसी विश्राम भरी निद्रा कभी आई थी क्या? बीच में आई किंचित् सजगता, आभास देती है कान्हा का, यहीं- कहीं  आस-पास है वह  .विलक्षण तृप्ति से भरा  मन  .बाँसुरी की आकुल तान ,थपक  बन बन , फिर-फिर  तन्द्रा में खींच ले जाती है .
वातायन से आती शुभ्र चन्द्र-रश्मियाँ  उस मीलित पलकों वाले निद्रित मुख का प्रक्षालन करती बही चली आ रही हैं .कक्ष में सब-कुछ अपार्थिव  हो उठा है .
उसी मनोभाव  में आत्मविस्मृता  पांचाली जाने कब निद्रा-लीन हो गई .
(क्रमशः)


6 टिप्‍पणियां:

  1. यह श्रृंखला आपकी सोच, आपके अध्ययन और शोध का परिचायक है।

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  2. कृष्ण के मन को जैसे खोल कर रख दिया है आपने .. पांचाली से कृष्ण मन की बात करते थे ... कितने अन्तरंग सखा थे .. महारास की विस्तृत जानकारी भी मिली ..बहुत मनभावन श्रृंखला

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  3. पांचाली और कृष्ण संवाद एक अलग ही अनोखी दुनिया में ले जाता है, जी चाहता है पढ़ती ही रहूँ....... अति सुन्दर संवाद.

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  4. शकुन्तला बहादुर9 दिसंबर 2011 को 6:24 pm बजे

    विदुषी लेखिका ने अपने अगाध ज्ञान-वारिधि से विविध को रंगों सँजो सँजो कर,शब्द-तूलिका से जो मनोरम चित्र बनाए हैं ,वे अलौकिक हैं,अनुपमेय हैं। नारी की महिमा को कृष्ण द्वारा उजागर करवाने का गौरवपूर्ण दायित्व तो निभाया ही है, साथ ही कृष्ण के दिव्य स्वरूप को लौकिक स्तर पर लाकर भी ,उसकी दिव्यता को बड़ी कुशलता से प्रतिष्ठित करके मुझे अभिभूत सा कर दिया है। इस लेखनी को नमन!!!

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  5. बहुत समय बाद तृप्त हुआ मन...नयन तरल शीतल हुए।
    शेष शकुन्तला जी ने कह ही दिया है...उनके संग मैं भी बस नमन ही कर रही हूँ आपकी लेखनी को।

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