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हिन्दी भाषा में परम्परा से चले आते कुछ ऐसे शब्द हैं जिनका ,समय के प्रवाह और परिस्थितियों के फेर में , अपने पूर्व अर्थ से बहुत अपकर्ष हो चुका है.सामाजिक परिवर्तनों और सांस्कृतिक अवमूल्यन के कारण शब्द भी अपनी व्यञ्जना शक्ति और प्रभावशीलता खो कर सामान्य और रूढ़ हो जाते हैं.
ऐसा ही एक प्रचलित शब्द है - सुहाग ,जिसका तात्पर्य अहिवात या विधवा न होना, अर्थात् पति का जीवित होना, यही सुहाग के लिये पर्याप्त है.फिर एक नई व्यंजना सामने आई -जिसको पिया चाहे वही सुहागिन .
मूल रूप में -सुहाग एक शब्द -मात्र नहीं यह व्यापक अर्थ से परिपूर्ण एक व्यंजक पद है. एक सांस्कृतिक अवधारणा है जिसमें नारी के सर्वांग-संपूर्ण जीवन की परिकल्र्पना -समाई है.सफल-सुखी नारी-जीवन का बोधक है यह छोटा-सा शब्द,
सुहाग की परिभाषा कर उसे किसी सीमा में बाँधना संभव नहीं, पीढ़ियों की मान्यताओँ और आचार-व्यवहार से पोषित धारणाएँ लोकमन पर गहरी पकड़ रखती हैं और सदियों के संस्कार-संचित ऐसे शब्दों की अनूभूति-प्रवणता मंद नहीं होती (फ़ालतू की बौद्धिक कसरतों से उसमें अर्थ -अनर्थ की संभावना कर ले ,कोई तो बात दूसरी है.)इस प्रकार के शब्दों का किसी दूसरी भाषा में उचित अनुवाद संभव नही होता , क्योंकि किसी भाषा के शब्द ,जिन मूल्य-मानों को वहन करते हैं वह उसकी समाजिक-सांस्कृतिक धरोहर है जिसे दूसरी भाषाएँ स्वाभाविक रूप में ग्रहण और व्यक्त नहीं कर पाती .
इस शब्द का सही अर्थ समझने के लिये एक लोक-प्रचलित पद्यमय कथन 'आरी-बारी' दृष्टव्य है,जो स्त्रियाँ अपनी व्रत-पूजाओं में अक्षत-पुष्प हाथ में ले कर श्रद्धापूर्वक कहती- सुनती हैं . सुहाग की कामना करती कुमारी कन्या ,अपने भावी जीवन की परिकल्पना में देवी से कृपा-याचना करती है -
आरी-बारी -
' आरी-बारी ,सोने की दिवारी ,
तहाँ बैठी बिटिया कान-कुँवारी .
का धावै ,का मनावै ?
'सप्ता धावै,सप्ता मनावै .
सप्ता धाये का फल पावै ?
पलका पूत ,सेज भतार ,
अमिया तर मइको ,महुआ तर ससुरो .
डुलियन आवैं पलकियन जायँ .
भइया सँग आवें ,सइयाँ सँग जायँ .
चटका चौरो ,माँग बिजौरो ,
गौरा ईश्वर खेलैं सार .
बहुयें-बिटियाँ माँगें सुहाग-
सात देउर दौरानी ,सात भैया भौजाई,
पाँव भर बिछिया ,माँग भर सिंदुरा ,
पलना पूत, सेज भतार ,
कजरौटा सी बिटियां सिंधौरा सी बहुरियाँ ,
फल से पूत, नरियर से दमाद.
गइयन की राँभन,घोड़न की हिनहिन .
देहरी भरी पनहियाँ ,कोने भर लठियाँ ,
अरगनी लँगुटियाँ
चेरी को चरकन ,
बहू को ठनगन
बाँदी की बरबराट,काँसे की झरझराट,
टारो डेली,बाढ़ो बेली,
वासदेव की बड़ी महतारी .
जनम-जनम जनि करो अकेली .'
मैं जानी बिटिया बारी-भोरी ,
चन मँगिहै ,चबेना मँगिहै ,
बेटी माँगो कुल को राज .
पायो भाग,
सप्ता# दियो सुहाग !
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(#सप्तमातृका)
सांसारिक जीवन में अपनी बहुमुखी भूमिका निबाहती ,सुखी समृद्ध गार्हस्थ्य की धुरी के रूप में कल्याणमयी नारी का स्वरूप ही सुहाग की मूल अवधारणा है.
- प्रतिभा सक्सेना.
कुछ नया। बहुत सुन्दर। आभार।
जवाब देंहटाएंसुहाग शब्द के मूल और हमारे लिए नये रूप से परिचय कराती सुंदर पोस्ट..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआपको जन्मदिन-सह नववर्ष की हार्दिक मंगलकामनाएं!