शुक्रवार, 27 अक्तूबर 2017

श्रीकृष्ण चरित्र का यथार्थ : एक दृष्टि .


पुरोवाक् -
भारतीय जन-मानस में श्रीकृष्ण की छवि, ईश्वर का पूर्णावतार होने के साथ परम रसिक नायक एवं प्रेम तथा करुणा के आगार के रूप में विद्यमान है .अपनी रुचि के अनुसार उसे इन दोनों के अलग-अलग अनुपातों में ढाल लिया जाता है.इन्हीं दोनों का गहरा आवरण उनके कठोर चुनौतियों भरे जीवन की वास्तविकताओं को गौण बना देता है .लेकिन गीता के गायक का व्यक्तित्व ,ठोस वास्तविकता से परिपूर्ण रहा है. 
      श्रीकृष्ण ने जिस धर्म की अनुशंसा की वह किसी परलोक के लिये नहीं , इसी लोक-जीवन के लिये ,शान्ति आनन्द और कल्याण का विधान है,जो समाज और व्यक्ति के जीवन को सुन्दर संतुलित और सरस बनाने का संदेश दे कर संगति ,समता एवं सहिष्णुतामय  जीवन की अपेक्षा करता है. वे सच्चे कर्मयोगी थे, जिन्होंने जो स्वयं जिया उसी का उपदेश दिया.जन्म से लेकर परमधाम प्रस्थान तक उनका जीवन संघर्षो में बीता. जनहित के लिये विषम स्थितियों से निरंतर जूझे, सब के प्रति जवाबदेह बन कर स्वयं में नितान्त निस्पृह,निर्लिप्त और निस्संग बने रहे.
       लोक कल्याण के लिये जो अपना ही अतिक्रमण कर गया वह व्यक्ति श्रीकृष्ण हैं . अनीति और अन्याय के विरोध में ,अपना मनोरथ सिद्ध करने को , किसी के या स्वयं के वचन का बहाना नहीं लिया .विषम स्थितियों को किसी भी तरह सम बनाना, समाज और व्यक्ति के लिये जो संगत और हितकारी हो वही करने को प्रेरित करते रहे . आगे का सारा भविष्य जिससे प्रदूषित हो जाये, जिसका निराकरण कभी न हो सके  उस स्थिति को टालने के लिये वे हर मूल्य पर तत्पर रहे.ऊपरी आदर्शों का आडंबर उन्होंने कभी नहीं पाला .उनका धर्म लोक-जीवन को सहज-स्वाभाविक एवं सुखमय बनाने की परिकल्पना लेकर चला था, नृत्य-गान आदि कलाओं से जीवन  में सरस ता का संचार होता रहे  वैयक्तिक विकृतियों का शमन और  मन का प्रसादन हो , जीवन आनन्द और कृतार्थता का अनुभव कर सके
       मानसिकता के उच्चतम स्तर पर प्रतिष्ठित उनका अदम्य व्यक्तित्व मानव-मात्र की मुक्ति का विधान कर गया . कंस के आतंक और षड्यंत्रों के बीच पल कर मानवता की रक्षा के लिये , प्रचलित मान्यताओं से विद्रोह की सीमा तक जा कर ,वे अन्याय एवं रूढ़ परिपाटियों का प्रतिकार करते रहे.
नारी को खाँचों की घुटन से निकाल कर ,उसकी मनुजोचित निजता और गरिमा को प्रतिष्ठित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . पशुबल से पराभूत की गई स्त्री को कलंकित मान कर त्याग देने की समाज-प्रचलित मानसिकता के निराकरण हेतु भौमासुर द्वारा अपहृता सोलह हज़ार नारियों को बंदी जीवन से मुक्त ही नहीं कराया उन्हें ,तिरस्कार से बचाने के लिये उनसे स्वयं विवाह करने का साहसिक कदम उठा कर , सामाजिक स्वीकृति और सम्मान प्रदान किया. नारी-पुरुष संबंधों का चिर-विवादित समाधान उनके संतुलित एवं उन्नयनकारी मैत्री-भाव में प्रतिफलित हुआ .
        मेरे मन में एक बात बार-बार आती है - अर्द्धांगिनी सहित छत्र-छँवर धारे, सिंहासनासीन ,बंधु-बाँधवों से सेवित प्रभुतासंपन्न भूपति के रूप में श्रीकृष्ण का चित्र मैंने कहीं नहीं देखा .देखा तो चक्र लेकर दौड़ते हुये ,रथ संचालित करते , गीता का उपदेश देते और देखा है ग्रामों के सहज-सरल परिवेश के बीच, गोप-परिवार के चपल बालक की कौतुक-क्रीड़ाओं वाली चर्या की झाँकियों में . श्रीकृष्ण का लोक-रंजक किन्तु अदम्य  कभी रूढ़ प्रतिमानों में नहीं बँधा - जूठन खाई,पीतांबर में पाञ्चाली के पदत्राण समेटे , युद्ध छोड़ भागे , स्वयं अपनी प्रतिज्ञा भंग करने में संकोच नहीं किया,मित्र से भगिनी का अपहरण करा दिया, हँसकर वंशनाश का शाप सिर धर लिया, अपने हित-साधन हेतु नहीं ,अनर्थों के निवारण के लिये अनिष्टों के निस्तारण के लिये . सबके कल्याण के लिये जो अपने ,यश-अपयश,सुख-दुख , हानि-लाभ से निस्पृह रहा हो , वही उच्चाशयी , श्रीकृष्ण के समान स्वयं अपना अतिक्रमण करने में समर्थ एवं सिद्ध-मति हो सकता है .
          अब थोड़ी चर्चा उनकी सखी ,मनस्विनी पाञ्चाली के संदर्भ में - इस नारी की प्रखरता और विदग्धता से हत पुरुष-वर्ग कितने रूपों में उस के विखंडन का, उसके गौरव को क्षीण करने का प्रयास करता है ,उसे अपमानित करने और नीचा दिखाने से कभी चूकता नहीं और विषम समय में सिद्धान्तों की आड़ ले कर स्वजन और गुरुजन भी किनारा कर जाते हैं .तब पग-पग पर विशृंखलमना होती है पाञ्चाली ,पर समेटती है अपने आप को  .कैसा कड़वा सच है कि अपने कर्तव्य पूर्ण करने के लिये , अपने दायित्व -निर्वहन के लिये नारी को स्वयं के प्रति कितना निर्मम होना पड़ता है , इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है- द्रौपदी .
               लेकिन कृष्ण जैसा सखा है उसके साथ - क्षीण होता मनोबल साधने को ,विश्वास दिलाने को कि तुम मन-वचन-कर्म से अपने कर्तव्य-पथ पर डटी रहो तो कोई बाधा सामने नहीं टिकेगी .तुम उन सबसे बीस ही रहोगी क्योंकि तुम्हारी बुद्धि, बँधी नहीं है ,विवेक जाग्रत है, निस्स्वार्थ भावनायें और निर्द्वंद्व मन है . पाञ्चाली के विषम जीवन की सांत्वना बने कृष्ण, उसे प्रेरित करते हुए आश्वस्त करते हैं कि दुख और मनस्ताप कितना ही झेलना पड़े , अंततः गरिमा और यश की भागिनी तुम होगी.और कृष्ण-सखी के जीवन में कृष्ण के महार्घ शब्द अपनी संपूर्ण अर्थवत्ता के साथ चरितार्थ होते हैं.
              मित्र के रूप में एक जीवन्त प्रेरणा बराबर  पाञ्चाली के साथ रही, जो प्रत्यक्ष कर गई कि विरोधी परिस्थितियों की निरंतरता में भी, असंपृक्त रह कर किस प्रकार व्यक्ति अपने निजत्व को अक्षुण्ण रख सकता है .
जाने कितने जन्मों के पुण्य जागते हैं तब ऐसे व्यक्ति का सान्निध्य मिल पाता है, जिससे जीवन कृतार्थ हो जाये. विपदाओँ से उबारने में सदा सहयोगी, सामाजिक विषमताओं को अपने नीति-कौशल से सम की ओर ले जाने वाला निष्काम कर्म-योगी कृष्ण और बिडंबनाओं से निरंतर जूझती तेजस्विनी पाञ्चाली की मित्रता एक उदाहरण है आज के देहधर्मी नर-नारियों के लिये कि संसार में बहुत-कुछ ऐसा है जिसकी अवधारणा, मानसिकता को उच्चतर स्तरों पर प्रतिष्ठित कर, जीवन को श्रेष्ठतर बना कर ,सांसारिक व्यवहारों का संचालन करती रहे . गिरावट और आक्रामक होती कामनाओँ से ग्रस्त आज की मनुष्यता को उबारने के लिये इससे बड़ा अवदान और क्या हो सकता है!
 नर-नारी के संबंध सदा से विविध रूपों में सामने आते रहे हैं .पारस्परिक संबंधों का जो  उज्ज्वल  रूप यहाँ चित्रित है वह बिंब-प्रतिबिंबवत् एक दूसरे की मनोभावनाओं को निरूपित करते हुये पारस्परिक प्रेरणा का स्रोत बनता है .देह के आकर्षण से परे दोनों की आत्मीयता जिस विश्वास पर आधारित है वह  सारे संबंधों को पीछे छोड़, मानव-जीवन के उच्चतर मान स्थापित करती है.  यह उपन्यास - कृष्ण-सखी .पूर्णावतार श्रीकृष्ण और याज्ञसेनी पाञ्चाली की मैत्री को आधार बना कर ऐसे ही घटनाक्रम की  मर्मकथा है. पूर्ण  आश्वस्ति और गहन निष्ठा से पूर्ण यह मैत्री जिसे मिल सके  उसका जीवन सचमुच धन्य हो जाता है . 
- प्रतिभा सक्सेना.






7 टिप्‍पणियां:

  1. वाह अन्त में आज के परिदृश्य का पूरा सार समाहित कर दिया ।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (29-10-2017) को
    "सुनामी मतलब सुंदर नाम वाली" (चर्चा अंक 2772)
    पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, आज के युवाओं से पर्यावरण हित में एक अनुरोध “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  4. सटीक ! गहन विश्लेषणात्मक विवेचना।
    अभिनव लेख।

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