रविवार, 29 जनवरी 2017

लिये लुकाठी हाथ !

  
*
बहुत समय बाद कबीर भारत आये  तो  देश में अंगरेजी की शान देख कर चकित हो गये  .
गुण-गान सुनते रहे  .... कैसा साहित्य -कैसी अधिकारमयी, ज्ञन-विज्ञान के क्षेत्र में में सबसे बढ़ी-चढी दुनिया की निराली  भाषा - पढ़नेवाले का दिमाग़ भी झक्क कर देती है .
 जानने  की इच्छा बलवती हुई . -भाग-दौड़ कर एक शिक्षक ,अरे हाँ मास्टर , जुगाड़  लिया.

कबीर से खार खाये बैठे  कुछ लोग मास्टर को भड़काने लगे ,
' ये आदमी बड़ा खुड़पेंची है ,मार बहस कर कर के दिमाग़ चाट डालेगा.अपने आगे किसी की सुनता नहीं .'.
लेकिन मास्टर भी एक ही राढ़ा .कहने लगा , 'एक से एक उजड्ड लड़कों से पाला पड़ चुका .ठीक करके छोड़ा है .
. पर ये है कौन ?'
'अरे, वही कबीर  .'
'तुम कैसे जानते हो ?'
'हम नहीं जानेंगे ? .हमारे बाप-दादे   और उनके भी बाप दादे जमाने से जानते आए हैं.'
'अच्छा !'
'हमेशा अपनी  लगाये रहता है ..कहता था पोथी-पढ़ि पढ़ि जग मुआ ,और  पुस्तक देओ बहाय...वो तो 
राम-राम रट के  स्वर्ग पहुँच गया था. '
'...तो अब कहाँ से प्रकट हो गया .'

'वहाँ भी चैन नहीं पड़ा . हमेशा अपनी तीन-पाँच लगाता  सो यहाँ ठेल दिया गया -जाओ बच्चू बदली हुई दुनिया की हवा खा आओ  .' ,
' हाँ ,लग  तो एकदम ठेठ रहा है .  पर  पहले से काहे हार मान लें ..जो होयगी देखी जायगी . ..'
और  बैठा लिया अंग्रेजी पढ़ाने .

चेता पहले ही दिया  ,'देखो कबीर,
 बहसबाज़ी मत लगाना .ये जैसी है वैसी है. नई भाषा की बाराखड़ी शुरू कर रहे हैं  अंगरेजी के अक्षर हैं ,
उनके हिसाब से चलना पड़ेगा तुम्हारे हिसाब से वो नहीं हँकेगे. '
हुँकारा भर लिया कबीर ने . 
दो दिन में सारे आखर सीख डाले. 
थोड़ा बिचके थे एकाध बार, 
पूछ बैठे थे,'ये एच डबलू ,वाई ज़ेड इनमें कई आवाज़ें हैं कौन सा सुर निकलेगा ?'.
'वो सब बाद में पता चलेगा .अंग्रेजी है कौनो देसी भाषा नहीं कि तुम अपने हिसाब से चला लो.'
जब आये कैपिटल लेटर, बड़े अक्षऱ .
कबीर बोले ,'गुरू जी, इहै अच्छर बड़े करके लिख दें तो ..?'

'अपनी टाँग बीच में मत अड़ाओ , जानते नहीं का बड़ेन का  का ढंग ही अलग होता है.सारा नकशा  बदल जाता है .'
कांप्लेक्स तो शुरू से रहा था कबीर में . सुन कर सिर झुका लिया,
'हम छोटे आदमी -बड़ेन के लच्छन का जाने !'
फिर शब्दों की बारी आई .
'ये स्पेलिंगें है -रटनी पड़ेंगी .'.
रट्टमपट्टा करना पड़ता है संस्कृतवालों को देख चुके थे कबीर .

 रैट मैन रैन  से आगे डाग पाट कार फ़ार तक आते कैच सुन सोच मे पड़ गए  ये फ़लतू का टी कहाँ से आय गया ? .थोड़ी के बाद - वूमेन,वीमेन में गड़बड़ा गए ,'ये  ई आवाज  पीछे वाले अच्छऱ पर है, पहले वाले से कैसे जोड़ी जाई ?'
 'ऐसा  ही होता हैं .'
'कइस बोलना है  ई कौन तय करता है ?'
'पता नहीं, पर सब मानते हैं.'
'किसउ ने तो तय किया ही होयगा .वाकी बात दुनिया भर ने मानी .तभै काहे नाहीं साफ़ बात कर ली,जिसकी आवाज़ लगी उहै बोले ... ?'
 मास्टर ने धमका दिया .लिहाज़ कर गये गुरु का . 

फिर  आगये ,वी -डबलू ई,नी -के एन ई ई ,,ज़ू ज़ेडओओ. वी डबलू ,बी बीई और बी ईई. आई दो तरह से . ई वाई ई औऱ अकेली वाली सिर्फ आई
हे राम जी, चकराय गये बे तो .
'इन सब अच्छरन की स्पेलिंग भी अलग से सीखै के परी .?'
 'अब का अच्छरन की भी स्पेलिंग रटन का परी .एक-एक अच्छर की इत्ती बड़ी पूँछ -ई भासा है कि तमासा.!'
'अरे, चुप बे जाहिल !'
उस समय तो अचकचा कर चुप हो गये.पर मन ही मन कुलबुलाते रहे.
 थोड़े उद्दंड शुरू से रहे थे .सोचा , गुरू जी जरा गुस्साय ही तो लेंगे , बात तो पता चल जायेगी.
'गुरू जी ,मान लो कोई अच्छर सीख के पढ़ना चाहे तो लिखना सीखै के बाद उसे पढ़ना अलग से सीखना पड़ेगा 
?अइसा नहीं कि एक बार अच्छर आय जायँ तो अपने आप पढ. लें जैसे अपनी हिन्दी  ?'
'अरे .हिन्दी का क्या !कोई ऐरा-ग़ैरा नत्थूखैरा सीख ले, फिर ज़िन्दगी भर पढ़ता रहे .ये अंगरेजी ठहरी ,हमेशाअकल लगानी पड़ती है. ' .
'तो इसके स्पेलिंग और उच्चार कौन तय करता है ?'
'काहे ?'
'उसई से बात करें . लिखने-बोलने में कोई तालमेल नहीं .  कोई नियम-कनून होय तो उसके हिसाब से चलें .'
'ये रानी भाषा है अपने हिसाब से चलाती है .'

परेशान हो गये वो तो , लोगन को ई भासा सीखन की जरूरत काहे आन पड़ी ?
दुनिया में चलन है इसका ,इसे जानके विद्वान कहाओगे ,सब तुम्हारी सुनेंगे आदर-मान देंगे .        
कैसा चलन है दुनिया का -निश्वास लेकर रह गये 
मास्टर ने समझाया था
 कबीर देखो कानूनबाज़ी बीच में मत लाओ .ई जानकारन की भासा है, गँवार, कुँआ के मेढ़क जैसन की नहीं 

*
बड़ी मुश्किल में हैं कबीर , कैसेीअच्छर-माला है,
 कुछ तो अइसे कि  आवाज़ ही नहीं निकाल पाते ,जहाँ डाल देओ बेदम-से पड़ जाते  हैं .

 अजीब बात  talk Walk  दोनों में एल चुप्पा . इतना दब्बू कि आवाज़ नहीं निकलती. बहुत बार   बेकार पड़े रहते हैं . know  हो चाहे knot, दोनों में k बुद्धू सा बैठ गया .! knowledge लिखा है है कि कनऊ लद गे ,मनमाने आखऱ  ठूँस दिये , कैसे अवाक् बैठे हैं जगह घेरे  .एकदम बेआवाज़.ऐसी कैसी बाराखड़ी जिसके आखर जब दखो गूँगे हो  जायेँ !  अक्षर अपनी आवाज़ नहीं उठा सकते तो बेकार भर्ती  से क्या लाभ  ?
बजट शब्द सुना तो लिखने लगे -  budget होता है .अरे ये डी बीच में कहाँ से आ गई ?
.अड़ गये - ये फ़ालतू का अच्छर नहीं लिखेंगे    इससे कोई फ़रक नहीं पड़नेवाला .

इस भासा का कोई ठिकाना नहीं   ,चाहे जो लिख लो चाहे जो बोलो -पता नहीं कौन तय करता है ?
पता होता तो उस से बात करते .
लिखेंगे कोलोनल ,पढ़ेंगे कर्नल .टी बेचारी अक्सर ही साइलेंट मिलती है .एम.सी लिख कर मैक पढ़ेंगे .मात्रायें बोलेंगे पहलेवाले में ,बादवाले में वूमेन ,वीमेन .
ऊब कर कह उठे 
 ई नटनी का काहे घुसाय लिया घऱ में   ढंग की कोई बात नहीं, हर तरफ़ से बेतुकी  .अपनी घरवाली बानी,अच्छी खासी ,नियम-कानून मानैवाली .अपना असलीपन बरकरार रखनेवाली कैसी सुघर -सुलच्छनी.
 .लोग अचरज  मैं - अब तक तो  तो देसी आदमी अंगरेजी की चार किताब पढ़ ले तो अपने आप को तीसमारख़ां  समझने लगता है ,ई तो सबसे निराला है. कमियाँ निकाल रहा है .
कोई हँसा किसी ने  समझाया , किसी ने खब्ती बताया.
 पर कबीर  धुन के पक्के,
तुल गये - .उठा ली लुकाठी और चल पड़े बाज़ार की ओर..

 चौराहे पर खड़े लाठी चटकाने लगे .
लोगों ने  उत्सुकता से देखा . कुछ आकर वहीं खड़े हो गये,' क्या हो गया ,भई ?
 और लोग आगये ,फिर और  लोग. 
वहाँ तो मजमा लग गया .

बोलने लगे कबीर-


'सुनो  ,लोगन सुनो ,  अपनी भासा , जिसने जनम से गोद  खिलाया,तोतले बोलों पे लाड़ लुटाया, दिल-दिमाग के रेशे-रेशे में अपना नूर समाया ,  उसमें कितनी  ममता माया .जरा अकड़ नहीं   प्यार से भरी  देस-देस के ढाँचे में  ढल गई कहीं राजस्थानी  ,कहीं अवधी कहीं ब्रज कितनी बोलियाँ बोल - सबसे नाता निभाने .को तैयार .
उसई को बेदखल किये दे रहे हैं.
जो गलत है वो काहे सहते हो ,चिल्लाओ ,शोर मचाओ ,दुनिया जाने कि अपनी सुघर -सुलच्छनी अनुशासित घरवाली बानी  बेदखल हो रही है ,  और बाहरी लोगों के साथ भागी आई बहुरूपिन को  घर में बिठा लिया ,सिर चढ़ाये हैं . उसके पीछे पुरखों की अमानतें लुटाये दे रहे हैं.उसी के नचाये  नाच रहे हैं .
जरा भी ग़ैरत  बची है कि नाहीं ?.'
 कुछ लोगो ने सुना ,फिर औरों ने सुना .
कबीर बोलते रहे  -
'ई कैसी साजिश चल रही है?देखो तो , सच्चे नेम नियमवाली , चाकर बन गई और वो  जो  घर में घुस आई उसके ठाठ हो गये .उसके लच्छन ही निराले हैं ,कौल-फ़ेल का कोई इत्मीनान नहीं .'

'बात तो ठीकै कह रहा है .हमारी पहचान मिटाय के रट्टू  तोता बनाय रहे हैं -'
पर कुछ को लगा - यह तो  ख़ब्ती है.

 पराये घर  में जो रानी बनी बैठी  उसके टुकड़खोरों को  खबर हो गई .
ये तो सारी बखिया उधेड़ी जा रही है ,सारे गुन-औगुन और  सच्चाई    सामने आने लगी  तो हम कहीं के ना रहेंगे.
 बाहरवाली का राजपाट गया तो हमें कौन पूछेगा?
  पीढ़ियों से अच्छे-अच्छे ओहदन  पर दूध-मलाई खाते आये .  ये लोग हम से रौब खाते थे,दब के रहते थे .लगता है अब   रूखी-सूखी नहीं पचती , 

 और देखो आज उसकी बात सुन कर उठाने लगे  .
वो मजमा लगा के चिल्लानेवाला मिल गया तो  हमारे खिलाफ़ हल्ला मचा रहे हैं.ये अक्खड़ देसी लोग ,क्या जाने अंग्रेजी की नफ़ासत ,कितनी पहुँच है ,कितना रुतबा है !ये सब इनके गले नहीं उतरेगा .
 ये देसी लोग हमारे  सुख-चैन में पलीता लगा देंगे  
. बताओ भला कबीर को अंगरेजी सिखाने की क्या  जरूरत थी ?वह  तो हई  उजड्ड  .अपना सुख-चैन भी नहीं देखेगा - जमीन-आसमान एक कर देगा 
करो भई, कुछ करो .
ये जाहिल लोग ,उसी भरम-जाल में उलझते  रहें . यहाँ की इन सब बानी-बोलियों को लड़ाओ .आपस में ये भिड़ी रहें ,और हमारा उल्लू सीधा होता रहे .
औरों को लड़ाओ ,दूध-मलाई खाओ !

पर अब कबीर  सामने आ खड़ा है - लिये लुकाठी हाथ!

11 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (31-01-2017) को हाथ छोड़ के, "गोड़ से", चरखा रहे चलाय-; चर्चामंच 2587 पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. ई-मेल से प्राप्त -
    वाह ! वाह!! प्रतिभा जी । क्या कहने हैं !!!
    हिन्दी और बोलियों से संबंधित , आज के यथार्थ को कबीर के माध्यम से क्या ख़ूब व्याख्यायित किया है । लोकभाषा के संवादों ने
    प्रसंग को और भी अधिक रोचक बना दिया है । अंग्रेज़ी की ऊटपटाँग स्पेलिंग्स और ध्वनियाँ में कोई तालमेल नहीं बैठता है , उस
    सन्दर्भ में कबीर द्वारा उठाए गए प्रश्नों और उद्धृत उदाहरणों से मन में उठने वाले प्रश्नों को बड़ी प्रामाणिकता से प्रस्तुत किया गया है ।
    पता नहीं हम भारतीयों ने कैसे रट रटा कर इस उल्टी सीधी भाषा को सीखा ही नहीं अपने में रचा बसा लिया ? ये सोचकर बड़ा
    आश्चर्य होता है । जिसके अक्षर और शब्द हर पल अपना रंग रूप बदलते रहते हैं वह सचमुच नटिनी ही तो लगती है ।
    आलेख में हास्यरस का पुट भी है और तर्कसंगत तथ्यों पर भी स्पष्टता से प्रकाश डाला गया है । हिन्दी के वट-वृक्ष से बोलियों की
    शाखाएँ काट काट कर उसे ढूँढ बनाने का जो षड्यन्त्र चल रहा है , उस ओर भी संकेत है । साथ ही हिन्दी की सरलता एवं सहजता के साथ अंग्रेज़ी की दुरूहता और मानसिक उठापटक का तुलनात्मक दृष्टि से आकलन भी प्रभावी है ।
    एक सशक्त, सार्थक और सामयिक समस्या पर आधारित प्रभावी आलेख के लिये अनेकश: साधुवाद !!!
    शकुन्तला बहादुर
    कैलिफ़ोर्निया

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  3. कबीर के माध्यम से कितना सच कहा है आपने ... व्यंग की धार सच में चुभती हुयी है ... हास्य का तड़का लेख को बहुत ही रोचल बना रहा है ...

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  4. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’केन्द्रीय बजट का इतिहास - ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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  5. आभारी हुई ,राजा कुमारेन्द्र सिंह जी !

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  6. वाह, कबीर के तर्कों का कोई जवाब नहीं, put पुटऔर but बट...बचपन में यह सवाल तो हमने भी उठाया था..पर अब तो बाहर वाली का राज बढ़ता ही जा रहा है..फिर भी हिंदी और भारतीय भाषाओँ का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता

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  7. प्रतिभा जी, असल में मातृभाषा का जबाब नहीं है। क्योंकि वह इंसान को सीखनी ही नहीं पड़ती। उसी वातावरण में पले बढ़ने के कारण वो अपनेआप आ जाती है। अंग्रेजी की कठिनाइयां बहुत ही सुन्दर तरीके से प्रस्तुत की है आपने।

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  8. ☺☺☺☺☺☺☺☺
    सदा की तरह रोचक नवीन ।
    शकुंतला जी से पूर्णत: सहमत हूँ।

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  9. ☺☺☺☺☺☺☺☺
    सदा की तरह रोचक नवीन ।
    शकुंतला जी से पूर्णत: सहमत हूँ।

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