गुरुवार, 12 जनवरी 2017

मन की लगाम -

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शाम को जब भ्रमण पर निकलती हूँ तो  बहुत लोगआते-जाते मिल जाते हैं.
अधिकतर फ़ोन कान से सटाये बोलते-सुनते चलते जाते हैं ,अपने आप में मग्न .सामना हो गया तो हल्का-सा हाय उछाल दिया या सिर हिलाने से ही काम चल जाता है . ऐसा भी  नहीं लगता कि जरूरत आ पड़ने पर अनायास चलती-फिरती बात हो रही हो .बाहरी दुनिया से बेखबर  पूरे मनोयोग से लंबे वर्तालाप. और अब तो यह कोई नई बात नहीं,  कोई मौसम हो ,आस-पास कुछ भी चल रहा हो -सबसे निरपेक्ष ..अपनी बातें ,वही दिनरात की वारदातें साथ लिए रास्ता पार कर लेते हैं . अपने से  परे  कुछ देखने का  न चाव है, न अवकाश .
रास्ते के दोनो ओर के  परिदृष्य ओझल रह जाते हैं अपनी वही दुनिया जो साथ लगा लाये हैं. वे परम संतुष्ट हैं, कि समय बेकार नहीं जा रहा . टहलना हो ही रहा है ,साथ  अपना काम भी चलता रहेगा  (बहुतों के हाथ में कुत्तें की डोर, उसकी ज़रूरतों का ध्यान रखते हैं .वह काम भी साथ चलता है. फ़ोन पर बोलते-बोलते उसे ढील देना ,कहीं ज़रा रुक जाना ,सब अनायास चलता है .)
प्रकृति  लीला-विलास का अपना पिटारा खोले बैठी है . वन प्रान्तरों की ध्वनियाँ ,पंछियों की चहक ,वनस्पतियों की महक चारों ओर बिखरी हैं .उसके सहज कार्य-व्यापार  अपनी लय में चल रहे हैं
दिशाएँ उन्मुक्त हैं , धरती आकाश   के बीच रूप-रंगों का खेल ,अबाध गति से चलता है  मेरा बस चले तो इस लीलामयी के निरंतर प्रसारित संदेश अपनी झोली में भर लूँ ,लहरों की रुन-झुन,,पंछियों की लय-बद्ध उड़ान,गिलहरी ,खरगोश जैसे प्राणियों की कौतुकी चेष्टाएँ  की ,हवा मे हिलते   फूलों-पातों की चटक,सब समेट कर धर लूँ . ये लोग क्यों घर की दीवारों से बाहर उन्मुक्त वातावरण में आ कर भी अपने  मन को लगाम दिये रहते हैं . कभी तो छुट्टा छोड़ दिया करें . इस विशाल पटल पर  बहुत-कुछ है ,चरने-विचरने के लिये . इस मुक्त वातावरण  में यह  लगाम  ढीली कर दें तो संभव है  अन्य  दिशाओं में इतना चलायमान न रहे .
 धरती और आकाश के परिवेश पल-पल परिवर्तित होते ,एक नयापन निरंतर रूपायित होता  है . पर उन्हें इस सब से कोई मतलब नहीं . पता नहीं  ये लोग भ्रमण के लिये क्यों निकलते हैं .जब उसी मानसिकता  में रहना है तो बाहर जाने की ज़रूरत क्या है !.व्यायाम की मशीने बाज़ार में उपलब्ध हैं.तन को स्वस्थ रखना आवश्यक है ,नहीं तो दुनिया में  काम कैसे चलेगा.मन बीच में कहाँ से टपक पड़ा !
 तो ,ये दीवारों से बाहर आकर ,सैर करनेवालों के हाल हैं  अब उनसे क्या कहें कि ऐसे भी लोग होते हैं जो पुलिया पर बैठे  भी जन-जीवन का मुजरा लेने से हिचकते नहीं  . रोज़मर्रा की चलती राहें हों  या अप-डाउन करती ट्रेन का सफ़र हो , जीवन केअविराम बहते प्रवाह को आँकते-परखते , उसकेसचल दृष्य, अपने विनोद-कौशल से रंजित कर सर्व -सुलभ कर देते हैं, बाह्य संसार से उदासीन   लैपटाप या फ़ोन में नहीं घुसे रहते .
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5 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "प्रथम भारतीय अंतरिक्ष यात्री - राकेश शर्मा - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. बि‍ल्‍कुुल सही.;आज सब खुद में मग्‍न हैं।

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (15-01-2017) को "कुछ तो करें हम भी" (चर्चा अंक-2580) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    मकर संक्रान्ति की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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