रविवार, 17 अगस्त 2014

कथांश - 14.


*
अजीब होती हैं ये महिलाएँ भी . कितनी भी देर बैठी बतियाती रहें - चलने के लिए  के लिए  दरवाज़ा खुलते ही  भीतर से कुछ ऐसा उमड़ता है कि  कहे बिना चैन नहीं पड़ता . देहरी पहाड़ और ,मन पर गरुआ बोझ.  पाँव कैसे उठें ? सो चौखट के आर-पार से मुँह  जोड़े आलाप में डूब जाती हैं.
 वही मीता और कौन ! 
तब बड़ी जल्दी थी,जाने के लिए उठ गई .अब पन्द्रह मिनट हो गए , बाहर  दरवाज़े पर खड़ी वसु से गप्पें लड़ा रही है .
पता नहीं क्या बातें हैं जो खतम होने का नाम नहीं लेती ! कोई  किसी से कम नहीं.... सब एक सी  .
और मैं यहाँ  बेवकूफ़ों जैसा इंतज़ार कर रहा हूँ .
एक और खीझ - कल  राय साब ने फिर गज़ब किया. मेरी माँ से बहिन का रिश्ता जोड़ , इधर  पूरी पैठ बना ली !
अब तो  मन बिलकुल उचट गया है . कहाँ निकल जाऊँ, जहाँ ये सब देखना न पड़े ! रात बड़ी मुश्किल से गुज़ारी .आगे क्या करना है  , तभी सोच लिया था ,और अब यहाँ खड़ा हुआ हूँ .
मोड़  से, उझक-उझक कर झाँक लेता हूँ -उसका अता-पता नहीं.
बड़ा अजीब लग रहा है कोई देखे तो क्या सोचे ! ....क्या करूँ ? कुछ इधर-उधर करने लगता हूँ ,पर दृष्टि पर बस नहीं , बार-बार उधर  चली जाती है .
चलो ,अब बंद हुआ दरवाज़ा , वह बढ़ रही है . मैं मोड़ से आगे की ओर चल दिया .
इधर ही से तो निकलेगी
'अरे ब्रजेश, तुम यहाँ ?'
'हाँ ,ज़रा इधर जा रहा था , अच्छा हुआ मिल गईँ ,तुमसे एक बात कहनी है .
वह रुक गई 'क्या ? कहो .'
­परसों शाम मैं जा रहा हूँ ,..फिर तुम जा चुकी होगी .सब बदल जायेगा .कल मेरे साथ चल सकती हो ?
'कहाँ ?'
कहीं भी,जहाँ कोई डिस्टर्ब न करे  .
' हाँ .'
मुझे लगा कुछ सोच में है.
'डरो मत. परायी अमानत में ख़यानत नहीं करूँगा ...
'वह बात नहीं ,कल बाबूजी का चेकप है न , अभी कुछ करती हूँ जाकर..बताओ कहाँ ?'
कॉलज कैंटीन आ जाना ,दस के करीब .फिर देख लेंगे .'
'ओ.के .'
वह आगे बढ़ गई.
*
राय साब के बारे  में  सोच कर मन और खटा  जाता है . कर गए न नया तमाशा !
 क्या किया वो भी सुन लीजिये -

उनके यहाँ  तिलक की तैयारियाँ ज़ोरों पर  - कौन आयेगा ,कौन जा जाएगा   ,कब- कैसे -कहाँ  और तमाम बातें -  उनकी समस्या वो जाने !
राय साब चिंतित हैं , रहें, हमें क्या !
 पर माँ से सलाह करने चले आए  .
माँ ने कहा, 'घरवालों को बुला लीजिए ..सहारा रहेगा.'
'अरे जिज्जी,सहारा होता तो बात ही क्या थी .एक बिंदो जिज्जी थीं जिनका आसरा था सो स्वर्ग सिधार गईँ .'
माँ बिचारी क्या कहें !
पर वो बोले जा रहे ,'अब क्या बताऊँ..घर की बातें हैं ..'
और  बिना पूछे , बताए भी  जा रहे -
'... सब को लगने लगा था घर में घरनी का  होना बहुत जरूरी  है ,एक बेटा तो  चाहिये ही .मैंने दुबारा ब्याह को मना कर दिया .  
भाई लोग चाहें उनका लड़का गोद ले लूँ , छोटी बहिन के पति की नीयत का क्या कहूँ ? पहले वे लोग आते-जाते रहे -अरे, अपना मतलब रहा सबका ... पैसे का लोभ ! जब मैंने चाहा कोई आ कर बिटिया को सँभाल ले ,उनकी शर्तें लगने लगीं  .ये बिन्दो जिज्जी  विधवा थीं सो चली आईँ . निभाया भी खूब आज को होतीं तो...'
'सबूरी करो भइया, सब ठीकै-ठाक हो जाएगा ..'
'आप इतना कर रही हैं दिन-रात एक कर रही हैं . बिटिया भी आपके पास भागी रहती है -गुन-ढंग  सब आप ही ने सिखाये .जिज्जी को कहाँ ये सहूर ! मेरे लिए आप बहिन से बढ़ कर..'
'बिटिया हमें पराई कब लगी ? शुरू से अपनापा हो गया था .'
वे चुप सोचते रहे ..अचानक बोले ,'जिज्जी, कितने समय से ये कलाई सूनी है . आप इतना करती हैं तो एक धागा लपेट कर हमें भी सनाथ कर दें ..'
'अरे, पर ...' वे  अवाक् रह गईँ .
राय साब फिर बोले ,'जिज्जी कहता ही नहीं, आपकी उतनी ही इज्ज़त दिल से करता हूँ ..'
'आप परेशान न, हों हम लोग सब तरह आपके साथ हैं ...आपके सगे रिश्तेदार भी आते होंगे ..'
 पर राय साब ने बहिन बना ही लिया उन्हें .बोले ,' सगे होते तो आड़े बखत  में साथ होते ... सब अपने स्वारथ के हैं .'
और हमारा घर भी विवाह क्षेत्र बन गया .

उन्होंने फिर  मेरे लिए पूछा ,' बरख़ुरदार कहाँ है ?'
वसु जब बुलाने आई ,मैंने इशारा कर दिया -नहीं.
 'माँ ,भैया तो कहीं गए हैं .'
'हाँ, परसों जा रहा है ट्रेनिंग पर .तैयारी में लगा है.' 

बहुत हो गया सगापन !  मुझे लग रहा था ये टलें किसी तरह .
 उधर वे माँ से सहानुभूति प्रकट कर रहे थे ,'कैसा अभागा इन्सान है - देवी जैसी पत्नी को ठोकर खाने छोड़ दिया ..'
'भइया प्लीज़ ,इस बारे में कोई बात मत करो !'
अच्छा किया माँ ने .इन्हें हमारे घर से क्या मतलब ?फ़ालतू बातें करते हैं .  मैं तो चुपके-से बाहर निकल गया था.
*
(क्रमशः)

6 टिप्‍पणियां:

  1. सच ही रिश्ते सगे और पराये कहाँ होते हैं रिश्ते तो रिश्ते होते हैं...सुंदर कथाक्रम !

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  2. मीता और ब्रजेश की मुलाकात के बारे में जिज्ञासा ही रहने दी है । प्रतीक्षा है अगली पोस्ट की ।

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  3. शकुन्तला बहादुर21 अगस्त 2014 को 8:29 pm बजे

    दोनों कथांश १३ और १४ विलम्ब से एक साथ ही पढ़े हैं । कथा-प्रवाह सहज स्वाभाविक मन पर छा जाने वाला है । सारे दृश्य शब्दों के माध्यम से आँखों के सामने आते जाते है और संवादोंसे पात्रों के चरित्र उभरते आते हैं । मीता और ब्रजेश की भेंट की जिज्ञासा शायद अगले कथांश में शान्त हो सकेगी । कथा-क्रम सुन्दरता से चल रहा है ।

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  5. सलिल,तुम्हारी शंकाएँ -
    1.गली में ब्रजेश की मीता के साथ हुई इण्टेंशनल मुलाक़ात के बीच सम्वादों की कमी क्यों?
    मीता को चलने का उपक्रम करते देख ब्रजेश पहिले ही घर से निकल गया था .अगले दिन के जिस प्रोग्राम का,उसने निर्णय किया था, के लिए बात करना ज़रूरी था.वहाँ खड़े होकर इंतज़ार करना अटपटा भी लग रहा था,पर मीता को ब्रजेश ने यही शो किया लगा कि अनायास सामना हो गया. घर के इतनी पास बातें करने बाहर खड़े हों,मुझे लगा यह उचित नहीं होगा.
    2. राय साहब का चरित्र - एक एकाकी वृद्ध और स्नेहिल पिता का चरित्र है .हर पिता पुत्री के लिए वही चाहेगा जो उन्होंने चाहा.रही बात राखी बँधवाने की तो बहिन कहते हैं राखी पर कलाई सूनी रहना खटकता होगा ही,बँधवा ही लें ! विवाह में रिश्तेदारों पर सब कुछ छोड़ नहीं सकते .जानते हैं उन्हीं से निस्वार्थ सहायता मिलेगी .पर किस रिश्ते से कि आये हए रिश्तेदार अपना अधिकार हनन न समझें और बहिन के नाते करने-धरने का अधिकार उनका बना रहे -इसलिए वे राखी-बंध बहिन रहें जो सगी बहिन के सामने से ही बेटी की सँभाल और व्यवस्थाओं में सहायक रहीं थीं .उचित ही सोचा उन्होंने .जीजा की आलोचना सहनुभूति के अतिरेक में कर गए -केवल मानवीय दुर्बलता.
    सलिल, रचनाकार की सहानुभूति सब पात्रों के साथ रहे तभी कथा की स्वाभाविकता और विश्वसनीयता है संभव है .परिवेश और मनोविज्ञान व्यवहार को प्रभावित करता है और लोक मान्यताओं की बात भी.
    मन में संशय रहे सलिल, तो अवश्य बताना !

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  6. merko bhi sanshay hai :(:(:( !!!!

    ye ki Meeta Aur Brajesh paraspar vivah ke ichchhuk hain...athva maa aur meeta ke mann me aisi koi baat hai..ye to rai sahab se na chhupi hogi ! we bujurg hain anubhavi bhi. to us bhaavi vivah sambandh ya sahi kahoon to sambhana ko unhone taal diya...sirf Brajesh ke pita ki wajah se. to ab jab maa ye saare vivah kaaryon ko rasmon ko nibha rahin hain ya nibhayengi to fir 'pratishtha' ahat na hogi??/

    (maine bahut speed me sab ansh padhein hain Pratibha ji/./.jitna padha wahan se laga k isiliye meeta aur brajesh ka vivah na ho saka..ki rai sahab ko aapatti thi Brajesh ke background pe....yadi main gaalt houn to kshama kijiyega,....adheerta ko bhi kshama kijiyega....) :(:(

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