सोमवार, 21 जुलाई 2014

कथांश -9.

  *
कल  रात बहुत देर तक बैठक जमी  .जिन्हें अच्छा ऑफ़र मिला ,उनमें मैं भी एक था ,लोग  घेरे बैठे रहे .  अभी और कंपनियाँ आनेवाली थीं देर-सवेर  मिलने की आशा सबको थी.
'सुबह निकलना है' - कह कर मुश्किल से जान छुड़ाई .
सोचता जा रहा था - बिना किसी सूचना के  अचानक  पहुँचूँगा .एप्वाइंटमेंट लेटर हाथ में है. सबको चौंका दूँगा .
साढ़े आठ वाली ट्रेन पकड़नी है सुबह, बारह-एक तक घर पहुँच जाऊँगा .
वसु दौड़ेगी - अरे भइया आए ! उसे उठा कर नचा दूँगा .माँ से कहूँगा  '  तुम बिलकुल निश्चिंत हो जाओ  . तुम्हारे आराम के दिन आ गए,'
 फिर किसी तरह जल्दी मीता के पास पहुँचूँ  .बाबूजी से भेंट करूँ.
 माँ से पूछ लूँगा -  मिठाई ले कर जाऊँ क्या ?
  मीता से कहूँगा,' अब मैं अपने बल पर खड़ा हूँ - मैं समर्थ हूँ .' बाबूजी  के  चरण-स्पर्श करूँगा कहूँगा - बस आपका आशीर्वाद चाहिए. और कुछ नहीं . उन्हें सोचने-समझने का समय दूँगा .बाकी मीता सँभाल लेगी .'


 रूम में पहुँचा . भाड़ से दरवाज़ा खोला .नीचे पड़ी  चिट्ठी दिखी -इनलैंड था .वसु का होगा ! मैंने ही  कह  रखा था ,इधर बहुत व्यस्त होने के कारण मैं नहीं आ पा रहा हूँ सप्ताह में एक बार अपने हाल ज़रूर लिख दिया करे.वह बराबर खबर देती है .
तुरंत खोल डाला .इधर-उधर की बातें फिर लिखा था 'भइया - मीता का वाग्दान हो गया.हो तो पिछले हफ़्ते गया था ,तुम्हें लिखना भूल गई थी.'
हाथ से कागज़ छूट पड़ा .और भी बहुत-कुछ लिखा था...फिर से पढ़ने की कोशिश की ,
अक्षरों पर नज़र घूमती रही .कुछ समझ नहीं आ रहा था.
गिलास भर पानी पी कर बिस्तर पर पड़ गया.
अंदर ही अंदर कितनी प्रतिक्रियाएँ उठ रही हैं.जाने क्या-क्या उमड़ा चला आ रहा है. तीखी चुभन जाग उठी है.
मीता, मुझे पता था तुम उन्हें बहुत प्यार करती हो.यह भी जानता था,हमारे परिवार के लिए उनकी धारणा क्या थी. ये भी जानता हूँ . तुम्हारे पिता मेरी माँ को परित्यक्ता समझते हैं.
सब कुछ जानते हुए भी, जाने क्यों मुझे विश्वास था . एक बार उन्हीं ने कहा था ,लड़का समर्थ और अपने को सिद्ध करनेवाला हो तो भी एक बात है .क्या मैं समर्थ नहीं , क्या मैंने अपने को सिद्ध नहीं किया ?

फिर भी इतनी उतावली ?
 उन्हें यही चिन्ता थी कि लड़का आगे क्या करेगा ,आमदनी पता नहीं कितनी हो ! पर मैंने  तो पूरा भविष्य सुरक्षित कर दिया.


 पिता हैं न !बहुत प्यार करते हैं बेटी को. उनके मन में शंकाएँ थी.

कहीं घर-द्वार नहीं , पिता से अलग . सब-कुछ स्वाभविक नहीं लगता .सम्मान्य - संभ्रान्त परिवार हैं हम? .समाधान कोई कैसे करता?
विग्रह तो था ही. जो होना चाहिए था वह नहीं था .पिता थे पर किसी ने कभी देखा नहीं उन्हें.  कहाँ से ला कर खड़ा कर देता ?

 वे पुत्री के पिता थे  .क्या-क्या सोचा होगा . सभी के पिता सोचते हैं .. पर..मेरे पिता ?
मन में कड़ुआहट भर आई .

 तय कर लिया था अब इस बारे में कुछ नहीं सोचूँगा ,बिलकुल, नहीं . 

इसके साथ जाने क्या-क्या याद आ जाता है.  अब तो बीत गया वह समय , आगे की सोच रे मन !
हमने जो किया अपने बल पर किया!किसी से माँगने नहीं गए.अपनी मेहनत से आगे बढ़े हैं .इस बात को तो वे भी मानते हैं. बिना किसी आसरे के ,सिर पर कोई हाथ नहीं  ,ट्यूशन का सहारा रहा था बस . हाँ, माँ के संघर्ष का एहसास भी है उन्हें .मीता के पिता ऐसे सेल्फ़मेड का महत्व जानते हैं !
कई बार सहानुभूति प्रकट की थी उन्होंने . पर मुझे स्नेह चाहिए .  उस सहानुभूति से आगे बढ़ आया हूँ .किसी की कृपा नहीं , बराबरी का -आत्मीयता का व्यवहार चाहिये और अपनी माँ के लिए सम्मान  भी !
  कुछ बन कर अपने को सिद्ध कर तुम्हारे घर आ रहा था ,मीता, तुम्हारे पिता के  चरण-स्पर्श करता .उनसे बाबूजी कहता .तु्म्हारे पिता को अपने से बढ़ कर मानता .पर वह नौबत ही कहाँ  आई ?
- कोई नहीं है मेरे लिए ,मुझे कुछ समय देने वाला थोड़ी प्रतीक्षा करनेवाला, कहीं नही  कोई !
 अजीब सी मनस्थिति में रात बीती.
सुबह तन्द्रा में डूबा था , बाहर से आवाज़ आई ,'अरे ,क्या कर रहा है तू ,तैयार हो गया ?'
होस्टल  का मेरा  मित्र आकाश था .
उठ कर  दरवाज़ा खोला वह अंदर चला आया
 मैं बिस्तर पर बैठ गया था , कुछ करने का मन नहीं कर रहा था ..
' घर नहीं जा रहे ?.तुम तो  ..'
' अब नहीं जा रहा..'

'क्यों ,क्या हुआ ?'
'बस नहीं जा रहा ,मन बदल गया .अब फेअरवेल के बाद ही इकट्ठा ही जाऊँगा.'
'इत्ती अच्छी नौकरी बिना एप्लाई किए मिल गई ,सैलरी भी बिना माँगे ड्योढ़ी .कल तो उछल रहे थे खुद जाकर सरप्राइज़ देनेवाले थे ,अचानक क्या हो गया ?'
क्या हो गया - क्या कहूँ ?
आकाश कह रहा था,
'इतना अच्छा ऑफ़र  ,तुम तो बड़े खुश थे, अब सुस्त क्यों पड़े हो? .'
' एक दिन को जाऊँ .क्या फ़ायदा !दो दिन बाद जाना ही है .कहीं बीमार पड़ गया तो मुश्किल हो जायगी .'
सो तो है .बार-बार का जाना-आना ,जब कि फ़ाइनली जाना ही है. दो दिन में क्या फर्क पड़ना है. "
'चल ,कल हम लोगों ने हल्ला-गुल्ला कर इतना जगाया , तेरे इस सेलेक्शन को सेलिब्रेट कर रहे थे न ! सो ले ,और थोड़ा .जाता हूँ.  ' 

उठ कर खड़ हो गया फिर बोला -
'कल की कल्चरल नाइट के लिए दुरुस्त हो जा तू ,तुझे भी नचाएँगे हम . कल आखिरी प्रोग्राम होंगे, हमारे लिए ,हमें बिदा करने के लिए .यहाँ का काम खत्म ,अब आगे बढ़ो !
वह  चला गया .
*

मैं चुपचाप लेटा रहा ,भीतर आँधियाँ चल रही हैं .
अकेला रहना चाहता हूँ .
वसु ने लिखा है पिछले सप्ताह ही सब हो चुका था ! लिखना भूल गई थी.
'भूल गई थी' ! जान बूझ कर नहीं लिखा उसने - झुट्ठी कहीं की !
झूठी होती है सारी औरतें .और नहीं तो ?

ऐसे आयोजनों की आहट पहले से आ जाती है ,कुछ तो तैयारी होती है अचानक नहीं हो जाता सब-कुछ .मीता को पता होगा , उसने माँ को बताया न हो ऐसा नहीं हो  सकता . वे  भी  कार्यक्रम का हिस्सा बनी रहीं  ?
 मीता ,तुम अगर अड़ जातीं तो ये  कुछ न होता .पिता सारी ज़िन्दगी बैठे रहेंगे - साथ देंगे तुम्हारा ?उन्हें समझा सकतीं थीं . बेटी थीं तुम . तुम्हारी माँ नहीं तो क्या अपने लिए खुद बोल सकतीं थीं .

सब ढोंग  है .दूसरों का विचार कि वह दुखी न हों ,और घर की इज्ज़त के लिए भी झूठा दिखावा करते देखा है तुम लोगों को .ऐसी झूठी मर्यादा की क्या ज़रूरत? 

 ओ  मेरी माँ , कभी किसी को सच बताया तुमने? सारी तोहमतें खुद पर लादती रहती हो .दूसरों को कुछ नहीं कहतीं .मुझे तक नहीं. माँ , तुम भी कितनी छलनामयी हो !
स्त्री को बनाया है प्रकृति ने -मायाविनि!जिसका सच कोई नहीं जानता - कौन सा रूप असली है, कौन नकली ? सारे असली या सारे नकली : या उन सबसे परे है  नारी-  सिर्फ़ एक पहेली . जिसे कभी सुलझा न पाया कोई .

मैं भी नहीं समझ पाया  न माँ को, न मीता को .स्त्री-चरित्र  को कौन जान सका है ?
मीता ,ऐसी संकोची तो नहीं हो तुम .पिता से लड़ लेती हो ,डाँट भी लेती हो- जानता हूँ मैं ! जब बाबूजी नहीं सुनते तो तुम्हारा हथियार होता  ' आज को माँ होतीं मेरी...'और  जहाँ उनकी दुखती रग छुई  ,वे पिघल जाते  - तुम्हीं ने बताया था मुझे.
पता नहीं वहाँ कैसे, क्या हुआ ,जो  इतने  दबाव  में आ गईं .. .
 दूसरे की कमी पर  पर्दा डालना , अन्याय सह कर भी विरोध नहीं  , इसलिए कोई नहीं जानता किसी पर क्या बीतती है .
घर के अंदर कुछ होता रहे दुनिया न जान ले कहीं ,और इसीलिए एकदम निडर हो जाता है आदमी !
पर इस तरह सारे जीवन को दाँव पर लगा देना ...उफ़ !
जब तुम स्वयं अपना नहीं सोचतीं ,कोई दूसरा क्यों सोचे !


अरे , मैं क्यों रो रहा हूँ ? ये आँसू क्यों बहे चले आ रहे हैं ?

कहाँ तक पोछूँ ?कौन देखता है यहाँ ! बहने दो.. .रुक जाएँगे अपने आप .

 स्त्री-चरित्र ऐसा क्यों है? क्या मिलता है इससे तुम्हें ?सबके लिए सोचती हो  , अपना ही नुक्सान करती हो तुम. इसीलिए तो..तुम्हारी  कमज़ोरी का  सब लाभ  उठाते हैं. 

औरत क्यों होती है ऐसी ? वह विवश नहीं , अपनी सी पर उतर आए तो क्या नहीं कर सकती ?फिर ..क्यों ऐसी बनी रहती है?
माँ ने शुरू से विरोध नहीं किया ,दबती रहीं ,अशान्ति से डर कर ,लोगों की बोली से बचने को .कभी किसी से कु़छ नहीं कहा. अपनी बात कहने पर उतारू नहीं हुईं  .जब तक वहाँ रहीं मनमानी सहती रहीं .पर तुम ऐसी क्यों हो ?
 मेरे मन में आक्रोश ही आक्रोश  है - क्यों नहीं  शुरू से सामना किया जाता? सच बोलने में मर्यादा भंग होती है क्या ? अच्छा तो ये होता कि ऐसा कुछ हो जाता कि  मेरे जन्मने की नौबत ही न आती .
पारमिता, तुम भी ऐसी हो ?
तुम मेरी कमज़ोरियाँ ,मेरी कमियाँ  जानती रहीं.मेरी सीमाओं से अवगत हो तुम ! फिर भी मुझे स्वीकार करती रहीं . 

 और कोई चाहे  कुछ करे ,  मीता ,तुम ने भी कुछ नहीं सोचा ?
 तुम्हें अच्छी तरह पता है कि  मैं हरेक के साथ नहीं रह सकता!
 न अपना, न मेरा, किसी का विचार नहीं किया तुमने !

तुम स्त्रियाँ ऐसी क्यों होती हो ?
 यही तिरिया चरित्तर है .शुरू से यही होते देखा है - मेरी बात पिता से छिपाना,और पिता की मुझसे. क्यों इतना डरती हो तुम लोग? और क्यों इतनी दब्बू हो तुम ?कपटी हो तुम सब !पूरा सच साफ़-साफ़ क्यों नहीं सामने बोलतीं औरों के लिए अच्छी बनती हो ,अपने स्वयं से यह प्रवंचना क्यों ? क्यों इतना भला बनने की कोशिश  जिसमें अशेष ग्लानि ही पल्ले पड़े ! इसी में तो मात खाती हो!
क्यों मीता, तुम्हें क्या कहूँ?पिता से बहुत प्यार  था तुम्हें ? इतना पढ़-लिख कर भी कुछ नहीं हो पाया तुमसे !

 उनने तुम्हारे कारण एकाकी जीवन बिताया ,पर इसका यह मतलब  नहीं कि तुम्हें ही दाँव पर लगा दें !
 सब-कुछ जानता था मैं .फिर भी लगता था सब ठीक हो जाएगा.बहुत आशावादी था ,अपने कुछ बनने का विश्वास था .समझ गया हूँ  अब  मेरे कुछ भी करने से पिछले अध्याय अनलिखे  नहीं हो सकते! 
जाने क्यों इतना विश्वास था मुझे !.
क्यों था?

*

8 टिप्‍पणियां:

  1. स्त्री मन की परतें खोलता, स्त्री मनोविज्ञान को उधेड़ता अद्भुत कथाक्रम...स्त्री सबकी शांति की कामना लिए सब कुछ सहती है पर स्वयं को कुछ नहीं गिनती, जैसे धरती सिर्फ देना जानती है

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  2. यह कथांश ज़रा लम्बा हो गया. इस बार एक पुरुष के मुख से एक स्त्री का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कुछ विस्तार से हो गया. किंतु जितने विस्तार से वह अपनी माँ को नारी का प्रतिनिधि चरित्र बनाकर अपने तर्क प्रस्तुत करता रहा, उतने ही विस्तार से उसने मीता के बारे में क्यों न सोचा.. केवल एक पंक्ति में यह कह देना शेक्सपियेर की तरह कि छलनामयी, तेरा ही नाम औरत है... और हो गया चरित्र चित्रण... अपनी माम के विषय में उसकी सारी सोच एक नारी चरित्र का प्रतीक नहीं बल्कि एक माता का चरित्र है! सारी नारियाम एक सी हों न हों, लेकिन सारी माताएँ ऐसी ही होती हैं!
    उसकी मन:स्थिति के विषय में कुछ नहीं कह पाऊँगा! कुछ बातें फ़्लैश बैक की तरह घूम जाती हैं मन में! बस अनुभव कर रहा हूँ उसकी पीड़ा को, अपने अंतस में!!

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  3. स्त्रियाँ कुछ अपने लिए नहीं करे तब भी तिरिया चरितर दिखाने का बोझ ढोए. अपने दर्द में डूबा मीता को न समझा .
    रोचक कथांश !

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  4. शकुन्तला जी द्वारा प्रेषित ई-मेल से प्राप्त -
    आत्मकथा की विधा में लिखी गई इस कथा में मुख्य पात्र ब्रजेश का आत्मविश्लेषण अतीव मनोवैज्ञानिक रूप में चित्रित है । ऐसा लगता है कि पात्र के मन के अन्दर बैठ कर लेखिका ने उसके सूक्ष्माति सूक्ष्म मनोभावों को पढ़ कर शब्दों की तूलिका से चित्रित कर दिया है । सफलता प्राप्त होने पर अटूट आत्मविश्वास एवं हर्षातिरेक से भरे व्यक्ति की आशाओं पर तुषारापात हो जाने की मानसिक स्थिति की अभिव्यक्ति सहज स्वाभाविक और मार्मिक है । वस्तुस्थिति का ज्ञान न होने से सम्पूर्ण स्त्री समाज पर- विशेषकर अपनी माँ, बहिन और मीता पर किये गए आक्षेप अनुचित या अत्युक्तिपूर्ण नहीं लगते । "स्त्रीचरित्रम् पुरुषस्य भाग्यं,देवो न जानाति, कुतो मनुष्य: |" यही उक्ति ब्रजेश के प्रलाप का भी आधार है । वेग से बहते पर्वतीय जलप्रपात को यदि अचानक रोक दिया जाए तो जैसा तूफ़ान उठ खड़ा होगा , ठीक वही स्थिति है । मन की उस हलचल और भावों की उथल-पुथल को दूर तक खुला बहाव चाहिये ही
    ब्रजेश का मानस-मंथन अत्यन्त प्रभावी और मन की गहराइयों को छूने वाला है । अप्रत्याशित रूप से घटित वज्रपात सम घटना की प्रतिक्रिया का चित्रण करने में लेखिका के मस्तिष्क की उर्वर कल्पना तथा लेखनी की दक्षता से मैं अभिभूत हूँ । कथा के सुन्दर ,स्वाभाविक प्रवाह के लिये प्रतिभा जी को साधुवाद !! आगे की कथा के लिए जिज्ञासा बनी है ।।
    शकुन्तला बहादुर

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  5. बृजेश स्वयम को मीता के अनुरूप बना कर उसे जीवन संगिनी बनाना चाहता था और जब वो इस लायक हुआ तो मीता का रिश्ता किसी और से हो चुका था।ऐसी परिस्थिति में उसके मन के उद्द्वेगों को बहुत सूक्ष्मता से मंथन कर उकेरा है । नारी छलनामयी नहीं परिस्थिति की दास हो जाती है । ज़िन्दगी के यथार्थ को कहता कथांश।

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  6. apne man ki baat n hone par brijesh kya koi bhi uske sthan par ho isi tarah katu shabdo me rosh poorn aalaap karta hai .aise aalaap me uske bahut kareebi bhi beshak ghere me aa jate hain. aur is sthiti ko aapne jitni sookshamta aur sateekta se varnit kiya hai ...shayad is se behtar aur koi tareeka ho hi nahi sakta. is kadi ko padhne k bahut din baad tak brijesh ka pralaap mere man-o-mastishk par sawar raha. ye feelings hi is katha ki safalta batati hain.

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  7. katu yatharth..!!! yahi hota hai bahudha...shiksha, naukri, sanskar, vyaktitva sabke pare yahi drishti hai logon ki dekhne kee. pita nahin dikhte to prashn khade hote hain k ''ek ekaaki palak ke roop me swayam ko safal banaane wali tathakathit parityakta maa ke bachchon se vivaah kee baat bhala kis tarah chalayi jaaye? ye bachche jaane kiske honge?'' ..mujhe samajh nahin aata..jin pariwaron me sabhi sadasya hote hain..un gharon kee bhala kya guarantee hoti hogi...''mehaj pita ka mukh athva astitva'' !!
    ye baatein tod deti hain aisi striyon ko aur unki santaanon ko ..yatharth kachotta rehta hai. ateet se aap kabhi bhi peechha nahin chhuda sakte yadi aap ek stri hain aur vivah yogya bachchon kee maata.
    jeewan ke in kshanon se maine atyadhik ghrina ho jaati hai.jahan kewal pita ka 'hona' saari uplabdhiyon ko..maa kee tapasya ko shoonya kar deta hai. aur usse adhik shoonyata bhar deta hai bachchon ke mann me. pita ka mujhe nahin pata kintu jaanne kee atyadhik utsukta hai..unke jeewan me rikt'ta aati hogi bhala..??
    peedadaayi hai aisi kahaniyan padhna ..jahan bhoomikaon me swayam ka jeewan buri tarah uljha hua mile. paripakw'ta sab kuch karti hai..fir kyun nahin ye sab kadvi yaadein dhundhlaa deti..? kyun mann anvarat ateet ke chakkar kaat kaat kar un palon ko dekh dekh sisakta hai...jahan kuch drishya aaj bhi utne hi sajeev aur chalaaymaan hain..!! :(

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