बुधवार, 9 जुलाई 2014

कथांश - 8.

*

पूरे एक सप्ताह बाद आज मीता को इधर आने का मौका मिला है .
दरवाज़ा खोलते ही वसुधा ने शिकायतें शुरू कर दीं ,'अच्छा ,तब तो आगे कर दिया संगीत प्रतियोगिता के लिए ,और मुझे फँसा के  अपना गोल हो गईँ ...वाह दीदी !'
'अरे, घुसने तो दे ..मेरी बात भी सुन ..आज कैसे निकल पाई  ..'
बोलते-बोलते  वह अंदर आ गई . 
रसोई के बाहर माँ थाली में राई उछाल रहीँ थीं ,' मैं कहूँ कि मीता यहीं है कि कहीं चली गई  .' 
' वो रमन चाचाजी आए थे न ,बाबूजी के पुराने दोस्त.उन ने उन्हें रोक लिया . मेरा तो कहीं निकलना मुश्किल हो गया .पर वसू, तू क्यों नहीं आ गई ? ये शिकायत मैं करूँ तो ?'

' वहाँ कॉलेज के फंक्शन में तुम्हीं ने फँसाया .मैं वहाँ आऊँ तो बाबूजी   रोक लेते हैं 'आ शतरंज सिखाता हूँ '. मुझे नहीं सीखना .संगीत की प्रैक्टिस के लिए वैसे ई टाइम नहीं मिल रहा..'  
' वो तो उनकी आदत है ,पर इतना खुश मैंने उन्हें कभी नहीं देखा ,आजकल तो जैसे शकल ही बदल गई है  .'
'अच्छा ! तभी इधर नहीं आ पाई  ..कोई बात नहीं बिटिया ,घर में ये सब चलता है .'

'वो चाचाजी हैं न 'मीता-मीता' की पुकार लगाए रहते हैं .शतरंज खेलने बैठ गए तो समझो नहाने-खाने की छुट्टी .मुझे  ही बार बार टोकना पड़ता है .बाबू जी को तो वैसे ही अपनी सुध नहीं रहती.'
मीता का मुँह देखती, चुपचाप सुने जा रही हैं वे .
'.. मैं कहती हूँ तो - हाँ, बस अभी .बस दो मिनट .और फिर जम गए .जब जाकर सिर पर खड़ी हो जाऊँ कि मैं तो भूख से मरी जा रही हूँ  तब कहीं जाकर उठते हैं...'
'...आजकल तो खाने में भी परहेज़ नहीं करते..भूख भी ठीक से लगने लगी है.'
माँ ने टोका ,' परहेज़ नहीं करते ,ये तो गलत है . '
'मेरी तो सुनते ही नहीं .क्या करूँ माँ, कहते हैं खुश हूँ तो खुश रह लेने दे . हफ़्ता भर हो गया महराजिन से कह कर दे पराँठे,पकौड़े, कोफ़्ते ऊपर से हलुआ .इसी लिये मैं निगरानी रखती हूँ.उनका मुँह देख कर ज्यादा टोक भी नहीं पाती .'
'बेटा, अपने चाचाजी से कहना.दोस्त हैं न उनके ,वे समझाएँगे . पर  ,उनके सामने नहीं, पीछे.'
'हाँ, यही करना पड़ेगा .'

'ये मिर्च का अचार डाल रही हैं ,अरे वाह ..थोड़ा मेरे लिए भी...'
*
'आज पता है कैसी मुश्किल से निकल के आई हूँ ! बस, आपकी तबीयत का हाल जानने ..अरे, ये क्या बनाया है माँ ?...सूखेवाले गट्टे ..कब से नहीं खाए.महराजिन तो ठीक से बना ही नहीं पाती  .'
'हाँ, हाँ  तुम ले जाना. पर बैठो  ज़रा देर .'
'नहीं बैठ पाऊँगी माँ, आज विनय आ रहा है, चाचाजी का बेटा .'
'अच्छा ,रुकेगा फिर तो ?'
'रुकेगा कैसे? दो दिन की छुट्टी ली है बाबूजी से मिल लेगा और चाचाजी को साथ ले जाएगा ..वहाँ कॉलेज में पढ़ाता है न. '

माँ अपना काम करती रहीं . 
'वसु को दो दिन और गाइड नहीं कर पाऊँगी,कहना मंदा के साथ प्रेक्टिस कर ले ... वहीं गई होगी ..'
'हाँ !'
उनके अंदर कुछ ऊभ-चूभ होने लगा  है .
मीता चली गई, वे चुप देखती रहीं . 
 *
' तुम आ गए रमन ,मेरी सारी समस्याओं का हल मिल गया .मैं बहुत खुश हूँ ,  ज़िन्दगी का अब कोई ठिकाना नहीं  अन्दर से कुछ-कुछ लगने  लगा है .अब कभी भी कुछ हो जाए तो चिन्ता नहीं ,ये जो कुछ है अब तुम्हारे जिम्मे .'

व्याकुल सी मीता पुकार उठी  ,'बाबूजी..'
धीर बँधाते रमन बाबू बोले ' तू दुखी मत हो बेटी ,ये ऐसा ही है .बड़ी जल्दी हार बैठता है.बिलकुल ठीक हो जायगा मैं जानता हूँ .'
 '  घबरा मत बेटा ,अपनी ड्यूटी  पूरी कर निश्चिंत होना चाहता हूँ .' दोस्त की ओर घूम कर बोले, 'भाभी से मेरी ओर से माफ़ी माँग लेना रमन .उनके आने का इन्तज़ार भी नहीं किया .उनसे  कहना मैं रुक नहीं सका.'
बाहर का दरवाज़ा खड़का .
'कोई आया है .शायद, '
मीता उठ कर जा रही थी ,इतने में  वे आती दिखाई दीं .
'अरे ,माँ !'
'हाँ , मैंने  उन्हें आने को कहलाया था ..उन्हें इतना मानती है न तू .'
वे अंदर चली आईं -
 'आजकल तो खूब मौज कर रहे हैं ,बिटिया बता रही थी..  .'
' आइए, आइए. आज कुछ खास बात के लिए आपको आने का सँदेसा भेजा था .पहले भी  कई बार याद किया था .'

वे सुनती रहीं ,ध्यान में जाने क्या-क्या आता रहा . 
  ' कुछ रीत-नीत की बात करनी थी ,'
' मुझे लगा था आपकी तबीयत..मीता ने बताया था भाई साहब आये हैं, ' इशारा रमन बाबू की ओर  था.  
'आप बहुत बदपरहेज़ी कर रहे हैं...'
'मैं बिलकुल ठीक हूँ ,पर लगता है ज्यादा ही खा लेता हूँ आज कल .'
उनके बोलने को कुछ नहीं .
' बहुत दिनों बाद खुश होने का मौका मिला .अरमान पूरे कर लूँ ,ज़िन्दगी का कौन ठिकाना..'
'ऐसे मत बोलिए भाई साहब ,बिटिया पर क्या बीतेगी ये तो सोचिए ..' 
मीता की बुआ के साथ वे भी उन्हें भाई साहब कहने लगीं थीं .  
फिर अपने दोस्त से बोले ,' इन्हीं ने सहारा दिया है .जिज्जी अपने पूजा पाठ में मगन रहतीं थी ..उनसे बढ़ कर इनने बिटिया को अपनापा दिया. '

अधिकतर मौन रहेवाले  वे आज बोले चले जा रहे हैं ,
 'खुश होने का मौका कहाँ मिलता है ?  फ़िर  मीता की फ़िकर लगी रहती है .पर  हाँ, इधऱ कुछ ज्यादा ही हो गया ,मुझे भी लगता है ...कल   शाम से  बड़ा अजीब लग रहा है .बिलकुल उठने की इच्छा नहीं हो रही आज तो.'  .
'अब क्यों परेशान हो  ?अब तो विनय भी आ गया ...'

विनय? हाँ ,याद आया उन्हें - मीता ने बताया था .
तभी वह नाश्ते की ट्रे ले कर आई .
'लो मिठाई भी आ गई .'
'अरे विनय कहाँ है ,उसे भी बुला लो .बिटिया देख तो, नहा चुका कि नहीं ?'
फिर उन्होंने खुद ही आवाज़ लगा दी .
'आ रहा हूँ ,' कहता विनय चला आ रहा था .
आकर मीता की माँ को नमस्ते किया उसने -सुदर्शन संस्कारशील युवक.
प्रौढ़ महिला देख पाँवों पर झुकने लगा .
'ना बाबू, ना, ' उन्होंने बरजा .
'अरे, तो क्या हुआ ,बिटिया तो माँ कहती है इन्हें .कितना मानती है...इन से ही सारे गुन-ढँग सीखे हैं .इसकी माँ तो छुटपन में ही ..'
और विनय ने झुक कर उनके पाँव छू लिए .
आशीष देते-देते उनका जी धक्-सा हो गया .

'मेरा ,बड़ा बेटा है यह .मीता की माँ की गोद पला ,मेरी पत्नी उन दिनों बड़ी बीमार रहीं .ये बड़ा कमज़ोर था.कोई आशा नहीं थी  .. उन्हीं ने दिन -रात सेवा कर जिलाया  .वो  तो इसे उन्ही का कहती है.'
 मीता को वहीं अपने पास बैठा लिया था बाबूजी ने .
विनय पासवाली सोफ़े की सीट पर.

'मैं वैसे ही बीमार रहता हूँ ,अब निचिंत होना चाहता हूँ .आज ',...'कहते-कहते उन्होंने मीता का हाथ पकड़ा ,विनय से पूछा, 'तुम राज़ी हो न ?'
उसने संकोच से सिर झुका लिया .उसके पिता ने स्पष्ट किया ,' इसे  पहले ही सौंपा जा चुका है .'

'आपकी आज्ञा है, रमन बाबू ?
'शुभस्यशीघ्रम् ! हम तो इसकी माँ को ये खुशखबरी देने को उतावले हो रहे हैं.'
'बहिन जी ,जोड़ी अच्छी है न ?'
यंत्रवत् जिह्वा हिली,' बहुत बढ़िया !'
अपनी ही आवाज़ पर  चौंक उठी हों जैसे  - विनय को देखा ,फिर मीता को - खूब सिर झुकाए बैठी है.पता नहीं  चेहरे पर क्या भाव हैं .

ये तो  सभी जानते हैं, लड़की अपने वाग्दान पर लजाई रहती है.
बाबूजी ने मीता का हाथ पकड़े-पकड़े विनय से हाथ माँगा .उसने दाहिना हाथ बढ़ा दिया .
उस हाथ पर मीता का काँपता-सा हाथ रख कर बाबूजी ने दोनों हाथों से  थाम लिया -
'आज से मेरी बेटी तुम्हारी हुई. '
'और मेरा बेटा  ,वो तो शुरू से
तुम्हारा है ',  रमन बाबू ने एक वाक्य और जोड़ दिया .
माँ देखती रहीं - जड़ सी .
दोनों समधी एक दूसरे को बधाई देते गले मिल रहे हैं .
'अरे, मुँह मीठा कराओ '- महराजिन चौके से उठ आई हैं ,उन्हें आहट लग गई कि  कुछ खास हो रहा है .
बढ़ कर मिठाई की प्लेट बाबू जी को थमा दी .
'हमार तो जी जुड़ाय गवा .'
 आगे बढ़ कर दोनों की बलैया ली और खड़ी रही वहीं .

 मीता एकदम चुप है ,बैठी की बैठी .फिर धीमे से उठी .जा कर उनसे लिपट गई . अपने में समेट लिया माँ ने.
रमन बाबू बोल उठे ,'हाँ, आपको ही माँ माना है उसने ,और कौन है यहाँ ?'
'आपका ही आशीर्वाद चाहिए इन दोनों को !'
वे आगे बढ़ीं पर्स में से एक नोट निकाला और दोनों पर वार-फेर कर महराजिन को पकड़ा दिया .
विनय फिर उनके चरण-स्पर्श को झुका, सिर पर हाथ रख दिया उन्होंने .
'अब तू भी चली जाएगी बिटिया ' आँखं भर रहीं थीं ,मीता की भी .
 अधिक खुशी आ पड़े या दुख ,आँसू अनायास बहने लगते हैं !  

*

11 टिप्‍पणियां:

  1. कभी कभी जिन्दगी अपने सामने से फिसलती चली जाती है पर चाह कर भी कोई कुछ नहीं कर सकता

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  2. सचमुच ...दुःख हो या सुख आंसू हमेशा साथ निभाते निभाते हैं … भावपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए आपका आभार

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  3. बढ़िया प्रस्तुति-
    आभार आपका-

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  4. शकुन्तला बहादुर10 जुलाई 2014 को 8:20 pm बजे

    पारिवारिक परिस्थितियों में आए मोड़ का निर्वाह अत्यन्त सहजता तथा
    शालीनता से किया है । मार्मिक संस्मरण है । कुछ पंक्तियाँ याद आ गईं-
    "सुना था कि दुनिया बड़ी ही सदय है , मगर ये किसी ने न सोचा न समझा , कि कोमल कली के सुकोमल हृदय है । कहाँ की कली है , कहाँ पर खिली है , कहाँ जा रही है , किसे अब मिली है ? कि नैया किसी की किसी के सहारे , किसी दूसरे ही किनारे लगी है ।"
    कथा का प्रवाह बना हुआ है । सुन्दर अभिव्यक्ति !

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  5. कथानक का यह मोड़ अनपेक्षित था मेरे लिये. नए चरित्रों से परिचय और पिछले कथांश से काफ़ी समय बीत जाने के कारण पात्रों को याद रखना कठिन हो रहा था.
    एक भावुक कर देने वाला घटना क्रम. एक बीमार पिता, बिन माँ की बेटी, एक रिश्ते से भी बढकर मित्र और (कहानी में अप्रत्याशित मोड़ न आये तो) एक सुशील-आज्ञाकारी पुत्र... यह दृश्य मुझे मेरे बचपन में ले गया और एक कमी का एहसास करा गया जो आज दुर्लभ है या हमारे बच्चों को फ़िल्मी कहानी या टीवी सीरियल की तरह लगता होगा!
    लेकिन इस पूरे कथांश में वसुधा की कमी खल रही है. वसुधा की मित्र और वसुधा की अनुपस्थिति... कोई विशेष कारण??
    .
    बाक़ी तो माँ, मेरे लिये सीखने का सा अनुभव है. आपकी कविताएँ हों या कहानियाँ, पाठकों के लिये दर्ज़ी की बनावट (टेलर मेड) सी होती है, मजाल है कि एक सूत भी इधर-उधर हो जाए! :)

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  6. मीता की मित्र को वसुधा की मित्र लिख गया ऊपर!

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  7. बहुत सुन्दर प्रेरक और भावपूर्ण कथांश । मीता को वधू के रूप में चयन रमन बाबू की बुद्धिमानी ही थी । बेटी के पराई होने की कल्पना भी माँ को विचलित करती ही है चाहे वह माँ मुँह बोली हो ।
    लेकिन विनम्र अनुरोध है कि पात्रों को कुछ और स्पष्ट करें क्योंकि जिन्होंने पूर्व कथाएं नही पढ़ी हैं उन्हें कथ्य समझने में कुछ देर लग सकती है ।

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  8. ब्लॉग पर पोस्ट नहीं कर पायी ...
    आज कथांश के सारे अंक एक साथ पढ़े .... नायक के मन में माँ के प्रति पिता द्वारा किया गया दुर्व्यवहार ... माँ की जीवटता और उनके दिए संस्कार सभी का बहुत मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है .... वसुधा के मन में उठती जिज्ञासा बड़ी स्वाभाविक तरीके से वर्णित की है ... ज़िन्दगी की सच्चाई को कहता कथांश चल रहा है .
    - संगीता स्वरूप .

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  9. अनामिका जी द्वारा प्रेषित ई-मेल से प्राप्त -
    उफ़ इतना कुछ लिखा था , कुछ भी पोस्ट नहीं हुआ। चाह रही थी कहानी यूँ ही निर्बाध चलती रहे और अंत में मैं अपनी प्रतिक्रिया दूँ , लेकिन मीता का रिश्ता पक्का होने और माँ के आशीर्वाद देने के समय, माँ की मनोस्थिति समझ कर चुप न बैठ सकि. माँ की स्थिति ऐसी है की मन में कुछ और होते हुए भी उन्हें मुँह पर आशीर्वचन देने पड़ते हैं। कई बार इंसान हालात के हाथो कितना मजबूर हो जाता है. …बहुत सजीव चित्रण है.

    आपकी कहानी में माँ की जीवटता , बेटे की उहा-पोह, माता के प्रति उठती भावनाए। …।बहुत ही सजीव चित्रण किया है और ऐसा सिर्फ आप ही कर सकती है. सलिल जी के कॉमेंट्स से पूर्ण सहमत हूँ की हमारे लिए ये सीखने सा अनुभव है …। मजाल है इस टेलर मेड में एक सूत इधर से उधर हो जाए।

    बेसब्री से अगले क्रम की प्रतीक्षा है।

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  10. kitna manohari drishya kheencha hai. main manobhaavon ke pariprekshya me keh rahi hoon.ro to is post bhi li dher sa..magar achha laga yahan..kaafi saari baatein positive si thin. ant me maa kya soch rahi hongi...kaise lauti hongi wapas ghar...isi me ulajh gayi.
    meeta aur maa donon ki man:sthiti jaanne ki utsukta hai..aur sabse achhi baat ye hai..k wo kewal ek click door hai...:) (late se aane ke faayde bhi hote hi hain..hehe)

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