शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

भानमती की बात - राष्ट्रीय गाली .


*
'इत्ते दिन कहाँ रहीं भानमती? हमें लगा तुमने यह देश छोड़ दिया.'
'देश कहाँ छोड़ा ,हम तो देस गये रहे .'
'ओह, अपने गाँव ...खूब मौज कर आई हो! क्या हाल-चाल हैं?'
'मौज? ससुराल में मौज करे को कौन जाता है .क्या नहीं किया- कुट्टी काटने से ले कर उपले पाथना तक.'
'क्या हाल-चाल हैं उधर के?'
'वही पुराने राग. इधर, सुने रहे  बड़े-बड़े तूफ़ान आये. दिल्ली की बात से गाँवन के लोग भी दहला गए '.
'अख़बार हैं, टीवी है. खबरें कहीं रुकती हैं .इस मुँह से उस मुँह, फैलती चली जाती हैं .पर अब  महिलाओं को न्याय मिलने की आशा है.'
उसने मुँह बिचका दिया,' लिख लेओ तुम,जब तक मरदन का नजरिया न बदले तब तक कुछ नहीं होने का.'
शुरू से का  देखते हैं बच्चे? मेहरुआ सबके लै ठिठोली की चीज, उसके रिश्तेदारन की कदर ही क्या. और तो और ऊ रिस्ते गाली बनाय के जिबान पे चढ़ा लिये. साला-साली सुसरा-सुसरी! औरत की इहै कदर तो ऊ जनम से देखित हैं ,घुट्टी में इहै तो पिया है .'
'हाँ, सही कह रही हो.  बच्चे सब समझते हैं, अरे माँ तक के भाई का सिर झुका रहता  है.'
'सोई तो, साले ससुरेन के रिस्ते सो गाली बना के धर दिये .और ई साले-सुसरे तो गाँव की- सहर की मुँह-लगी गाली है. एक बेर हमने अपने देउर को जरा-सा टोक दिया ,'काहे मेहरारू के रिस्ते हैं सो गारी बन गए?'
उसने का जवाब दिया हमें,' जिनके बाप-भाइन के लै कही, तिन्हें कोई परेसानी नहीं. ऊ देख लेओ, बैठी मुस्काय रही है.और तुम्हार पेटे में दुखन पड़ रही है.'
' वो तो है, उन लोंगों कुछ नया नहीं लगता, आदत जो पड़ी है.'.
'लड़कियन-मेहरुअन के लिये सब अलग नियम. देवर जेठ ,ससुर,.. सासु-  ननद ,सब पूजा-सेवा के हकदार. और तो और झगड़ा होय मरदन का, गारी दै-दै घसीटी जायँ मेहरुआँ! ऐसी-ऐसी गारी कि सुन लेओ तो कान के कीरे झर जायँ.....सच्ची में .'
' जानती हूँ भानमती, और ये बेकदरी अपने देश में ही देखी. विदेशों में नहीं सुनी.'
' सो सब दिखाई दे रहा है. तभी तो हमारे यहाँ के आदमी विदेश की औरत के पाँव तले बिछे जाते हैं .'
वह धीरे-से मुनमनाई -
 'देसी औरत की कौन कदर!'
*
भानमती आती है तो कोई-न-कोई सुरसुरी छोड़ जाती है.
अपने भारत की गालियाँ! ठीक कहा था उस ने- सुनो तो कान के कीड़े झड़ जायँ!
 अलग-अलग लोगों की , वर्गों की, अंचलों की गालियाँ, . हे भगवान!  पर जाने दो!  मुझे कोई गाली-पुराण थोड़े ही न लिखना है.
हाँ, ये संतुलनहीन संबंधों की दबंग मानसिकतावाला 'साला और ससुरा' सर्वत्र-व्याप्त है, सारे हिन्दुस्तान का यही नजरिया!
 बोलने में ध्वनि थोड़ी बदल जाती है ज़रूर- बिहार साइड में सारा-सरऊ, बंगाली लोगों के मुँह से 'शाला' निकलता है. पर बाज़ार में, व्यवहार में, प्यार में, तकरार में, हर जगह भरमार!
जनता चाहे तो इसे 'राष्ट्रीय गाली' का पद दिया जा सकता है .
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21 टिप्‍पणियां:

  1. गा ली अपनी भानमति, अपनी मति अनुसार |
    गाली देकर पुरुष का, करता पुरुष प्रहार |

    करता पुरुष प्रहार, अगर माँ बहन करे है |
    नहीं पुरुष जग माहिं, सहन चुपचाप करे हैं |

    मारे या मर जाय, जिंदगी क्या है साली |
    इज्जत पर कुर्बान, दूसरा पहलू गाली ||

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  2. रोचक लगेगा यदि इसे राष्ट्रिय गाली का पद मिल जाएँ |

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  3. मजेदार बात यह है कि इन गालियों को महाविद्यालयों में रेंगीग के नाम पर सिखाया भी जाता है। आप पुत्र को कितना ही संस्‍कारित कर दो, वह जैसे ही महाविद्यालय की सीढिया चढ़ता है, बस उसका पहला पाठ ही गाली देना होता है। अब तो पत्रकारों और फिल्‍म वालों की भी यही सभ्‍य भाषा हो गयी है।

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    1. घर से निकले बच्चे पर नियंत्रण रखनेवाले बाहरी तत्व प्रभाव डालने लगते हैं,संस्कार दृढ़ न हुए तो भटकन स्वाभाविक है.

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  4. साब गाली गलोच करने से किसा भला हुआ है | :)

    Tamasha-E-Zindagi
    Tamashaezindagi FB Page

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  5. सही चित्रण किया है आपने ..........

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  6. वाह!
    आपकी यह प्रविष्टि दिनांक 18-02-2013 को चर्चामंच-1159 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

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  7. main ek baat se poornat: sehmat hoon bhaanmatiji se..k jab tak purushon ka nazariya nahin badalta tab tak kuch nahin ho sakega.
    baaqi gaaliyon ke vishay par 2 rochak manovaigyanik baatein suni hain..1)kisi bhi tarah ke apshabd safty valve ke jaise kaary kartein hain.warna insaan ka gussa uske ander rehkar uska chain-o-sukoon chheen lega..aakhir sabhi insaan to swayam par utna niyantran nahin rakh paate ki aavesh mein bhi udaaseen rahein. 2) purush pradhaan samaaj mein maan-samman ka ek anchaaha kintu sarvmaanya sa theka naari ko mila hua hai...isiliye adhiktar gaaliyaan female based hotin hain..jise sunkar sunne wale ko takleef pahunche aur usi anupaat me sunaane wale ka pratishodh poora ho jaaye.

    halke fulke tareeke se jo baat kahi gayi pratibha jee..maine uske adhik hi peechhe jaake dekhne ka prayaas kiya.''achanak samaaj me itni uthal puthal machi hai..itna asantulan hai..iske pehle aisa kyun nahin tha'' is vishay par pichhle kuch dinon se bahut baat hui apne mitron aur maa se..jo maine paya woh ye hai ki shayad aadikaal se hi stri varg maun rehkar anchaahi baaton/ghatnaaon ke prati sweekriti deta aaya hai..isiliye vartmaan me ye saari baatein dincharya ka hissa ban gayin hain..virodh ke swar tabhi uthe hote..to shayad aaj sthiti itni shochneey nahin hoti.kyunki banaane waale ne to kewal insaan banaya..baaqi baaton ka chalan to manushya ne swayam hi aarambh kiya hai..ek baat yaad aa rahi hai..''zulm karne ke bajaaye zulm sehne wala bada apraadhi hota hai''..kyunki seh seh kar hum zulm ko justified karte rehte hain aur wo ek dridh sanskaar bankar vivek ke pare jaakar sehaj vyavhaar ke roop mein sthaapit ho jaata hai.yahi baat vyagtigat roop se mujhe gaaliyon ke paripekshya mein bhi satya parateet hoti hai.

    mere liye ek vichaarottejak post rahi..aabhaar Pratibha jee is post hetu..:)
    (thoda irrelevant keh gayi shayad..'tripti'' par bhi aise vichaar uthe the..unhe bada liya tha..is baar kehne se rok nahin paayi khud ko..:(..)

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  8. शकुन्तला बहादुर17 फ़रवरी 2013 को 5:53 pm बजे

    भानमती के विचार सही हैं कि पुरुषों की मानसिकता बदले बिना इस प्रकार की प्रवृत्ति पर नियंत्रण संभव नहीं है।मुझे लगता है कि गालियों से अपनी वाणी को दूषित करके अपना प्रतिशोध और आक्रोश
    निकालने वाले असभ्य,अशिक्षित (कभीकभी शिक्षित भी)और असंस्कारित होते हैं, जो कुंठित मानसिकता के कारण ऐसी गालियों से दूसरे को अपमानित करने की निंदनीय कुचेष्टा करते है।मुझे गर्व है कि मैंने अपने दोनों ओर के परिवारों में कभी ऐसी गालियाँ नहीं सुनीं,यद्यपि आम समाज में इनका प्रयोग ज़ोर शोर से होते सुना है।

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  9. भानमती ने बिलकुल सच कहा ... जब तक पुरुषों की मानसिकता नहीं बदलेगी तब तक कुछ नहीं होने वाला ....

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  10. आज 21/02/2013 को आपकी यह पोस्ट (संगीता स्वरूप जी की प्रस्तुति मे ) http://nayi-purani-halchal.blogspot.com पर पर लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!

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  11. गाँव की भाषा में वार्तालाप अच्छा लगा ,उस से भी अच्छी बात यह है की विदेश में रहकर भी ठेट गाँव की गाँव की भाषा लिख रही है
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  12. अच्छा -खासा व्यंग व विकृत मानसिकता पर करारा प्रहार ।

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  13. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।

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