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25 .
जुए में हारने के बाद पांडवों ने काम्यक-वन के लिये प्रस्थान किया. .
भविष्य का आभास सबको होने लगा था. कौरवों की शक्ति बहुत बढ़ गई थी .अब अपनी सामर्थ्य बढ़ाये बिना निस्तार नहीं .अर्जुन अपनी यात्रा पर निकल गये ! अवसर का उपयोग कर रहे थे - इन्द्रकील पर्वत पर तप में रत थे -दिव्यास्त्रों की प्राप्ति हेतु .
समय कब रुका है किसी के लिये .
जीवन बीत रहा है .पांचाली का सब मान करते हैं ,सुख-सुविधाओं का यथाशक्ति ध्यान भी रखते हैं - अपने -अपने ढंग से. सबसे मधुर संबंध हैं. पर द्रौपदी के मन के साझीदार नहीं हो सके वे कोई. मन की एक शून्यता किसी प्रकार भरती नहीं. मंथन थमता नहीं .
अर्जुन के साथ आती थी वैसी तृप्त निद्रा तब से नहीं आई .दुश्चिंता में निद्रा भंग हो जाती है .पता नहीं उद्विग्न मन लिये कहाँ - कहाँ भटक रहे होंगे !
दैनिक जीवन के अनुबंध निभाते दिन बीतता है . वनवास के प्रारंभिक दिनों में , सब कुछ अव्यवस्थित था ,जीवन बड़ा असुविधा भरा था .धीरे-धीरे गृहस्थी जमने लगी.
गृहस्थी कहेंगे उसे ? .
आदत नहीं थी ..पर आवश्यकता सब करा लेती है.
सब का भोजन बनाने में पांचाली अति श्रमित हो जाती थी .आवश्यक सुविधाओँ का अभाव और भीम जैसे भोजन-भट्ट !
सहायक सब थे ,जितना जिसका वश था .
एक दिन भीम बोले ,'आज मेरे लिये उतना भोजन मत धरना पांचाली ,मैं नहीं खा पाऊँगा .'
'क्यों?विस्मय से पूछा ' भीम और भोजन के लिये मना कर दें .
'हिडिंबा ने शूकर माँस स्वादिष्ट बनाया था .सब ने आग्रह से खिलाया मैं अधिक खा गया अब एक समय निराहार रहूँगा ..'
सब हँस पड़े ,' इतने योजन चलने में सब पच गया होगा .भीम .तुम निडर हो कर भोजन करो .'
'मैं जानती हूँ , मेरा श्रम देख कर कह रहे हो तुम .पर तुम यथेष्ट आहार न लोगे तो मुझे कैसे संतोष मिलेगा ?ना, , फिर मैं भी उपासी रहूँगी .'
आग्रह पूर्वक जिमाती है .कोई थोड़ा भी भूखा रह जाय ,सहन नहीं कर पाती वह .
प्रायः ही भीम-पुत्र आ जाता है .
कितना सरल स्वभावी है घटोत्कच ! किशोरावस्था पार कर चुका है -भीम जैसा ऊँचा-पूरा .बल्कि उनसे भी बढ़ कर .स्वस्थ ,परिश्रमी .
पांचाली ने ध्यान से देखा था -हिडिंबा-सुत में भीम की कितनी झलक है !
वही नेत्र ,वही स्नेहमय दृष्टि .किसी को सुख देने हेतु कुछ भी करने को तत्पर ,और मुख की भंगिमा बार-बार भीम की झलक मारती हुई .
देखती रह गई थी वह .
उसने बढ़ कर पांचाली से पूछा था ,'तुम मेरी भी माँ हो न ?'
मन कसक उठा - आज को मेरे पुत्र भी मेरे पास होते ...यदि.....!
तुरंत आगे बढ़ अंक में समेटती द्रौपदी बोली थी ,'पुत्र ,यह भी कोई पूछने की बात है .'फिर हँसते हुये ,'देखो न, मेरा यह पुत्र अब गोद में नहीं समाता .'
और उसने झट आगे बढ़ पांचाली को गोद में उठा लिया ,'इससे क्या .अब मैं तुम्हें उठा सकता हूँ .'
बिलकुल भीम की तरह -द्रौपदी को लगा .
उसने पूछा था ' कमल-सरोवर में स्नान कर आई हो माँ? नील-कमल की सुगंध छाई है जब से आया हूँ ..'
सब चुप ,भीम चकित - कोई कैसे बताये यौवन- प्राप्त पुत्र को पत्नी के देह-परिमल की बात !
नटखट बने-से सहदेव बोल उठे,'ये जहाँ रहती हैं योजन भर तक अपनी उपस्थिति ऐसे ही जता देती हैं .'
सब मुस्करा रहे हैं.
' कितनी सुन्दर है माँ .' शब्द जैसे अनायास. मुख से निकल पड़े हों ,फिर कुछ सोच कर 'मेरे और भाई कहाँ हैं ?'
'वत्स ,तुम्हारे पाँचो भाई अपने मामा और मातामह के पास रह कर उचित शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं ?'
घटोत्कच के आवागमन से वन-जीवन में विविधता का संचार होने लगा .
इस क्षेत्र में उसके अनुभव बहुत व्यापक हैं . अपने प्रयासों ले सब कुछ कितना सहज कर देता है .द्रौपदी की अनेक कठिनाइयाँ चुटकी बजाते हल हो जाती हैं .
पहली बार अपने लोग मिले हैं भीम के पुत्र को .
दोनों छोटे पितृव्यों के साथ खूब पटरी बैठ गई है .अब तक सबसे छोटे रहे उन दोनों को भ्रातृ-पुत्र अब मिला है . अपनी विद्याओँ का प्रशिक्षण देने से पीछे क्यों हटें भला !
पुत्र के हाथों हिडिंबा भेंटे भेजती रहती है . 'पहिल-बियाही ' है वह, छोटी भगिनी- समान समझती है पांचाली को !
*
26.
एक व्यक्ति चला गया है सबके हित के लिये - शक्ति और साधन-संधान हेतु .
शेष सब हैं .हाँ , शेष चार !
एक बड़ा धीर-गंभीर ,शान्त मौन रहकर अपनी-सी ही करने वाला .सदा नीति और धर्म का पल्ला थामे .
भीम संवेदनशील हैं ,सहानुभति है पांचाली से .सदा प्रयत्न करते हैं उसे प्रसन्न करने का .पर उनका स्वभाव -अलग है स्थिर हो कर बैठनेवाले नहीं. चंचल मन ,और फिर आँख ओट तो पहाड़ ओट .दिन में घर पर टिकते ही कितना हैं .पर्वतों-घाटियों को लाँघते घूमते भटकते हैं वनों में.और हिडिंबा भी तो है न .वहाँ जाना-आना लगा रहता है .
मानसिक स्तर सबका भिन्न है.
पाँच भाई पर परस्पर कितने भिन्न .बस दोनों छोटेवालों में कुछ साम्य लगता है.
जन्म के विषय में कथायें सुनी हैं - उत्सुकता जागती है मन में .पर पूछ नहीं सकती .किसी से ऐसी बात करे - प्रश्न ही नहीं उठता .
जो किसी से नहीं पूछ सकती सखा से पूछ लेती है .और वह बहुत सहजता से सारी उलझन दूर कर देता है.
'तुम्हारी तो बुआ लगती हैं मेरी सासु-माँ .सब जानते होगे तुम .एक बात मेरी समझ में आज तक नहीं आई .बहुत-कुछ सुनती रहती हूँ पर अनबूझा रह जाता है .'
'ऐसा क्या है ?
' सुनती आई हूँ दोनों सासुओं के पुत्र देवावाहन से प्राप्त हैं .समझ नहीं पाती कैसे.पतियों से कैसे पूछूँ उनके जन्म का विषय में ? और इस प्रकार की बातें परिजनों -परिचारिकाओं से करना शोभनीय नहीं .बस एक तुम से निश्शंक हो कर पूछ सकती हूँ .'
कृष्ण ने बताई सारी बात -
एक बार शिकार खेलते समय झाड़ियों के अंतराल से दिखाई देते हरिण पर महाराज पाण्डु ने शर-संधान कर दिया .
शराघात होते ही मानव-चीत्कार गूँज गया.
हरिणेों का एक जोड़ा मानव रूप में परिणत होता देख राजा चकित !
लक्ष्य पशु को बनाया था बन गया मनुष्य !
वे किंदम ऋषि थे जो अनायास उभर आई वासना की तृप्ति कर रहे थे - दिन होने के कारण पत्नी सहित पशु रूप धारण कर .
विस्मित सुन रही थी पांचाली अनेक प्रश्न मन में कौंधने लगे थे.
कृष्ण बता रहे थे -
बहुत विनती की पांडु ने यह भी कहा कि जोड़ा बनाये पशुओं पर वे कभी शर-संधान नहीं करते. वृक्षों के अंतराल से कुछ स्पष्ट समझ नहीं पाया इसलिये.अपराध हुआ .
पर मृत्यु से पूर्व उन्होंने शाप दे दिया - वासनापूर्ति के क्रम में, तुम्हारी भी, तृप्ति - क्षण से पूर्व ही , मृत्यु हो जायेगी! '
चकित-विस्मित सुन रही है .मन में शंकायें जाग उठीं असंतोष मुखर हो उठा .
'ये ऋषि-मुनि तपस्वी होते हैं ,सांसारिकता से दूर ,फिर इतना अहं क्यों होता है इन में ? दूसरे का दोष देखे बिना शाप दे देते हैं .यह तो अपनी सामर्थ्य का दुरुपयोग हुआ .शकुन्तला ,नल-दमयंती ...और भी जाने कितने निरपराध दुख पाते हैं अकारण ही ,अपनी मानवीय संवेदनाओँ कारण ही .'
' जीवन है यह ...चलता है ऐसे ही ..हाँ तो ..अपने दुर्भाग्य से दुखी महाराज पाण्डु ने वन में रहने का निश्चय किया .कुन्ती-माद्री दोनों पत्नियाँ भी साथ चली आईं.
उसके बाद पांडु को जब विदित हुआ कि निपूता होने के कारण उन्हें सद्गति नहीं प्राप्त हो सकती .तो चिन्तित रहने लगे.
बहुत विचार करने के बाद उन्होंने पत्नियों से कहा कि नियोग से ही वे पुत्र उत्पन्न करें .
'यहाँ बन में कौन ?ये वन के असंस्कृत वासी ?नहीं ,नहीं. सोच कर ही वितृष्णा होती है ,' कुन्ती बुआ चुप न रह सकीं.
'तो तुम्हीं कोई उपाय करो .'
कुन्ती बुआ ने उचित अवसर जान कर दुर्वासा के वरदान की बात बता दी - ऋषि के दिये मंत्र से 'जिस देवता का आवाहन करोगी मनोकामना पूरी करेंगे .'
'इससे अच्छा और क्या हो सकता है .कुन्ती, मुझे पुत्र चाहिये .'
'.दोनों की सहमति बनी - धर्म का पुत्र चाहिये .
माद्री को पांडु के साथ छोड़ कुन्ती देव- आवाहन करने चली गई '.
द्रौपदी के मन में प्रश्न उठते रहे - आवाहित देवता मनोकामना पूर्ण करेंगे, और धर्म राज की संतान पाने का निश्चय कर लिया ?कैसे ?
वह उलझन में पड़ गई
वे वर देंगे ,या स्वयं ही.. ? मंत्र का प्रयोग किये बिना यह कैसे जाना कि वे स्वयं ..स्वयं ही . . गर्भाधान हेतु उपस्थित होंगे ...कि संतान उन्हीं से ग्रहण करना है. पर माधव के सामने शंका प्रकट करना द्रौपदी को शालीनता के अनुकूल नहीं लगा . वह चुप सुनती रही .
छ समय पश्चात् वे लौटीं .
माद्री ने देखा परम तृप्ति के संतोष से दीप्त उनका मुख ! जीवन की स्वाभाविक इच्छाओं के दमन से उत्पन्न रुक्षता नहीं ,वन के कठोर जीवन की तिक्षता भी नहीं - नारीत्व की सार्थकता से परितृप्त वह प्रफुल्ल मुख !जैसे विरस होती वल्लरी सरस फुहार पाकर लहलहा उठे ,
वे सफला हुईँ .अनोखी आभा से जगमग. जैसे ताल के थिर हो गये जल में तरंगें झलमलाने लगें .जड़ीभूत हुए जीवन में नये चैतन्य की ऊर्जा संचरित होने लगे!.
.कुन्ती परिपूर्ण हो कर आई थी .
माद्री चकित देखती रह गई .
*
पांडु ने अनुभव कर लिया कुन्ती तुष्ट है ,प्रफुल्लित है .नारीत्व की सफलता पा ली है उसने .
जो वे न दे पाये , पत्नी ने वह किसी और से पा लिया है .
लाचार थे वे ,पुत्र चाहिये ही था .
युधिष्ठिर जन्मे .
'एक पुत्र पर्याप्त नही ' उन्हें लगा था .
दूसरी बार भीम भैया .
फिर कुन्ती ने कहा था ,'जिठानी जी को सौ पुत्रों का वरदान है .'
सुप्त कामना जाग कर लहरें ले उठी थी , उस चाव भरे मुख-मंडल को देखते रह गये असमर्थ पाण्डु.
कैसे मना कर सकते थे वे .
,'हाँ ,हाँ , संतान प्राप्ति से क्या किसी का जी भरता है !'
और फिर इन्द्र के आवाहन से अर्जुन की प्राप्ति .
माद्री ने हर बार तृप्ति और संतोष से परिपूर्ण, नारीत्व की सफलता से दीपित सपत्नी को देखा था, वह अधिक कुंठित होने लगी थी .
सहानुभूतिवश कुन्ती बुआ ने उन्हें भी मंत्र -प्रदान किया ,और संतान पाकर वे भी पुत्रवती हुईँ - दो पुत्र नकुल और सहदेव ..दोनों अश्विनीकुमारों से .'
'और श्वसुर जी वे ..वे कैसे ..?
' दोनों पत्नियाँ मातृत्व की दीप्ति से .दैदीप्यमान ,अपने पुत्रों के साथ प्रसन्न -मगन !
छोटे भाई धृतराष्ट्र के गृह में सौ पुत्रों और एक कन्या का जन्म हो चुका था .
घोर मनस्ताप में डूबे पाण्डु ,ऊपर से संतोष प्रदर्शित करते रहे .लेकिन पुरुष-मन ऐसी विषम स्थितियों कहीं शान्ति से रह सकता है?
विचार उठते रहे ,इस प्रकार निष्क्रिय पौरुष ले कर जीने से क्या लाभ !अपना बीज वपन कर दूँ किसी प्रकार ,मृत्यु अवश्यंभावी है ,हो जाये तो क्या !संभव है अपना अंश छोड़ जाऊँ .
कुन्ती बुद्धिमती थी ,माद्री अपेक्षाकृत भोली ,वयस में भी कम .एक दिन कुछ निश्चय कर वे माद्री के साथ वन-भ्रमण के लिये गये .
किंदम ऋषि का शाप फल गया .अकेली माद्री विलाप करती लौट आई .
घोर अपराध -बोध से ग्रस्त थी वह .दोनों पुत्र कुन्ती को सौंप पति के साथ चिता पर चढ़ गई .
सब कुछ जान लिया .पर पांचाली के मन में कुछ अनुत्तरित प्रश्न रह गये !
**
विचार उठते रहे ,इस प्रकार निष्क्रिय पौरुष ले कर जीने से क्या लाभ !अपना बीज वपन कर दूँ किसी प्रकार ,मृत्यु अवश्यंभावी है ,हो जाये तो क्या !संभव है अपना अंश छोड़ जाऊँ .
कुन्ती बुद्धिमती थी ,माद्री अपेक्षाकृत भोली ,वयस में भी कम .एक दिन कुछ निश्चय कर वे माद्री के साथ वन-भ्रमण के लिये गये .
किंदम ऋषि का शाप फल गया .अकेली माद्री विलाप करती लौट आई .
घोर अपराध -बोध से ग्रस्त थी वह .दोनों पुत्र कुन्ती को सौंप पति के साथ चिता पर चढ़ गई .
सब कुछ जान लिया .पर पांचाली के मन में कुछ अनुत्तरित प्रश्न रह गये !
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(क्रमशः)
कितना सूक्ष्म, कितना विस्तृत!
जवाब देंहटाएंचमत्कृत हूँ, मुग्ध भी।
पांचाली की जिज्ञासा पर कृष्ण द्वारा पूर्व उपाख्यानों का उद्घाटन सुरुचिपूर्ण है और ज्ञानवर्धक भी। कथा का प्रवाह और सरसता निरन्तर बनी हुई है।सूक्ष्मातिसूक्ष्म तथ्यों के ज्ञान की व्यापकता से मैं विस्मित
जवाब देंहटाएंहूँ और अभिभूत भी। लेखनी का साधुवाद !!!
Beautiful narration. Hats off to you mam.
जवाब देंहटाएंपांचाली के हर कृत्य का सूक्ष्म विश्लेषण और पांडवों के जन्म की कथा जानने की उसकी जिज्ञासा ...सब पढ़ कर अभिभूत हूँ ..
जवाब देंहटाएंaap jitni mehnat karti hain uske liye hamre chand shabd likh dena tuchh hai. lekin jitni gyan ganga beh kar ham tak pahunch rahi hai aur jitne ham laabhanwit ho rahe hain uske liye main aapki jingi bhar rini rahungi. aapne meri jigyasa poorn ki. iske liye bahut abhibhoot hun.
जवाब देंहटाएंdhanywad kah kar apke lekhan ki garima ko tolungi nahi.
पांचाली और पाण्डवों की महागाथा का अंश पढ़कर बहुत अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंबहुत बेहतरीन....
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
कितना विचित्र है न सब प्रतिभा जी..द्रौपदी की ममताघटोत्कच के लिए अनुभव कर मन प्रसन्न होता है....पर कभी कभी सोचती हूँ..तो लगता है कैसे उस समय की नारी अपने मन को समझा पाने में समर्थ होती होंगी? हिडिम्बा की तरह पांडवों की अन्य पत्नियाँ आखिर किस तरह से एक दूसरे के अवचेतन को प्रभावित करती होंगी? जैसे कि कहा जाता है..पांडवों के और भी विवाह हुए..किसी न किसी रूप में धर्म और अधर्म के युद्ध में सहायक बनने हेतु । क्या उनकी स्त्रियाँ मात्र अपने स्वामी के युद्ध विजय के लक्ष्य को ही सर्वोपरि रखकर अपने मन की उथल पुथल को शांत कर लेतीं होंगी? शायद उनका मानस क्षेत्र अतिविकसित और अधिक स्वस्थ होता होगा।अपने अधिकार क्षेत्र में दो या अधिक नारियों के अस्तित्व से उन्हें कम ही पीड़ा पहुँचती होगी....मैंने यही निष्कर्ष निकाला..:)
जवाब देंहटाएंलेखन और इस अंश के लिए कुछ नहीं कह सकती...मैं योग्य ही नहीं...इसलिए अपने मन की दो चार बातें कह लीं।पांचाली का हर अंश मेरे मन में बहुत सी दुविधा और शान्ति छोड़कर जाता है।जाने कितनी देर अपने विचारों को आपके शब्दों पर तौलती रहूंगी मैं..:)
(miss किया 'पांचाली' बहुत अधिक....पढ़कर मन को तृप्ति हुई..:) )