शनिवार, 28 मई 2011

नींद के झोंकों में सारा बाज़ार.


*
मेरी बेटी जब भी मेरे घर आती है उसे ढेर सी खरीदारी करनी होती है ,और वह भी मेरे साथ .उसके पापा ,भाई और अब तो पति भी उसके साथ शॉपिंग करने से कतराते हैं.,कुछ नहीं भी खरीदना हो तो देखने में क्या हर्ज है और हर दूकान में जा कर हर चीज़ देखेगी , उसका बस चले तो सारा बाज़ार खखोर डाले .एक चीज़ खरीदनी होगी दस देख डालेगी ,एक छत्री भी खरीदेगी तो 2 घंटे लगेंगे ,सारे रंग देख ले सबके ढंग देख ले-दो-चार दुकानों पर तुलना कर ले माल और दाम दोनों की .पूरा इत्मीनान करके खरीदे .

ये लोग कोई उसके साथ चले भी जाएं तो बराबर कर भुन-भुन करते रहेंगे .. एक छत्री के लिये इतना झंझट किसी एक दूकान से किसी भी ठीक से रंग की ले लो .पाँच मिनट लगते हैं और चार घंटे लगा दिए .हम नहीं जायेंगे कभी इसके साथ !'
और उसे शिकायत कि मुझे पूरी तरह देखने नहीं दिया आँखें दिखाते रहे खड़े-खड़े .
यह सब तो है ,पर चीज़ खरीदने में वह कभी धोखा नहीं खाती .

अब मैं न तो इन लोगों से कुछ कह सकती ,न उसे रोक सकती ,.तो मुझे ही साथ जाना पड़ता है . मैं कैसे मना करूँ ?दोनों,जल्द-जल्दी ,काम निबटाते हैं ,अब आगे 6-7 घंटे उसके साथ घूमना पड़ेगा ..

मैं तैयार होकर दवा खा रही थी .कहीं बाहर जाऊँ तो मैं क्या-क्या ध्यान रखा करूँ यह मेरे पति चलने के पहले हमेशा याद दिलाते हैं . वैसे मैं भी हर बार उनकी बताई बातें ध्यान रखने की कोशिश करती हूँ .

दवा खा रही थी कि वे बोले 'अरे,तुम इस समय वेलियम क्यों खा रही हो ..'

मैं चौंकी ,'वेलियम कहाँ ?एटेनोलाल है ,'

'देखो,देखो ..ज़रा पढ़ लिया करो , अनपढ़ गँवार तो नहीं ,अच्छी-खासी पढ़ी-लिखी हो !'

सकपका गई मैं तो एकदम .

देखा ,सचमुच वेलियम !

ऐसे मौंकों पर सारा पढ़ा-लिखा ,लगता है, जबरन लाद दिया गया हो .

काश, अनपढ़-गँवार होती ,मन चाहे ढंग से रहती यह सब सुनना तो नहीं पड़ता.

करूँ क्या ,मैं तो ख़ुद विस्मित हूँ .10- 12 दिन तो हो ही गए होंगे यह सब चलते, जब से बेटी आई है .

एक तो वैसे ही इतनी जल्दी रहती है ,और फिर मन में कई शंका थी ही नहीं .

मैंने वहीं एटॉनोलाल रखी थी ,भूल से हाथ में आ गई ,वैसे ही चमकीले पत्ते ,गोलियाँ भी बराबर ,ध्यान ही नहीं इतनी फ़ुर्सत किसे है कि पढ़- पढ़ कर देखे .और फिर उधऱ आड़ आ जाती है रोशनी भी कम है .अक्सर ही तो मैं अंदाज़ से ही काम चला लेती हूँ

पर मेरे पति ,हे भगवान !

अब तो जाने कित्ते पुराने उदाहरण पेश कर देंगे .

'लाओ, देखें तो सही कितनी खा लीं .'

बड़ी मुश्किल है ,इस समय यहाँ से टल जाने में ही भलाई है

'अरे ,बाहर कोई ...',मैं एक दम वहाँ से भागी,'शायद कोई है .'

'कौन है ?'

होगा कौन ?मुझे तो पहले ही पता था .

'कोई नहीं है,मुझे ऐसा लगा था .'

वहीं से रसोई में घुस गई

इतने दिनों से बडी उलझन में थी .समझ में नहीं आता था -क्या हो रहा है मुझे ! बाज़ार में बराबर नींद के झोंके आते रहते हैं , कहीं बैठो तो लगता हैं आँखें बंद हुई जा रही हैं ,यहीं सो जाऊँगी .एकाध बार तो आँखें बंद ,सो ही गई होऊंगी ,फिर एकदम झटके से जागी . जैसे झूले में झोंके खा रही होऊँ .

आज समझ में आया सब वेलियम की कृपा थी . खाती कभी-कभी ही हूँ ,पर इधऱ तो धोखे में रोज़ ही ....खैर उसके बाद तो जगह ही बदल दी दोनों पत्तों की

.. गिरते-गिरते बची हूँ एकाध बार तो . सोचती थी क्या करूँ ,दिन में इतनी नींद और रात में सब ग़ायब . तीन साढ़े-तीन बजे तक जागना ,उफ़. अब समझ में आ रहा है रात में अलकसाते हुए उठ कर वेलियम की जगह एटेनोलाल ,तभी तो ,हिसाब बराबर है दोनों का .

पर अब सोचने से क्या फ़ायदा .

पर नींद के झोंकों में बाज़ार करने के अनुभव ?

उन्हें भी कभी भूल सकती हूँ भला !
 
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10 टिप्‍पणियां:

  1. यह कहानी बहुत कुछ कह गयी..बुढापा..बचपन..बाजार और दवाये ! हर किसी को झेलने ही पड़ जाते है !

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  2. अब समझ में आ रहा है रात में अलकसाते हुए उठ कर वेलियम की जगह एटेनोलाल ,तभी तो ,हिसाब बराबर है दोनों का .

    कभी कभी हो जाती है ऐसी भी घटना ... आगे से दवाई ध्यान से खायिएगा ... .

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  3. एक ही पोस्ट में सब कुछ रिश्तों की आत्मीयता ,नोंक झोंक ,आपकी लेखन शैली को नमन और आपको बधाई .

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  4. दवा तो जरा देख परख कर ही खायें...कभी ब़ड़ा धोखा न हो जाये.

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  5. नींद के झोंकों से बाजार करने का अनुभव तो बड़ा दिलचस्प है. किसी दिन बीवी के साथ शॉपिंग में आजमाएंगे.. :)

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  6. रोचक, सरस वर्णन।
    हालांकि कहूँगा तो यही मैं भी,"दवा देख-भाल के खाया करिए।"

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  7. शकुन्तला बहादुर31 मई 2011 को 5:39 pm बजे

    रोचक अनुभव है। इस अनुभव ने जो संदेश दिया है,उसे याद रखना
    लाभकारी होगा।क्या दवा खाते समय आपका मन असित और तरु
    की कथा में अटका रहता है? कृपया भविष्य में सावधान रहें

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  8. अत्यंत रोचक पोस्ट। नींद के झोकों के मध्य आपकी शौपिंग कैसी रही , जानने को उत्सुक हूँ। आपने सच कहा , हड़बड़ी में पढाई लिखाई रखी रह जाती है। और सबसे अच्छी बात आपकी यह लगी - " अनपढ़ होती तो अपने ढंग से ज़िन्दगी जीती"

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  9. रोचक! खुमारी का भी अपना ही आनन्द है।

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  10. बहुत छोटी सी बात को कितने रोचक ढंग से कहा है प्रतिभा जी.......अच्छा हुआ छोटी गलती हुई...आगे अब आप हमेशा सावधान रहेंगी|मुझे लगा आपको ज़ोरदार डांट पड़ी होगी...मैं तो प्रतीक्षा ही करती रह गयी और पोस्ट ख़त्म भी हो गयी...
    वैसे माँ भी कहतीं हैं..पढ़े लिखे लोग गंदे मरीज़ होतें हैं......और उनमे भी सबसे गंदा मरीज़ एक डॉक्टर स्वयं होता है....

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