मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

एक थी तरु - 10 & 11.

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10.
गौतम दादा नौकरी करने बाहर चले गये .रह गये तरु और संजू .संजू घर में रहता ही कितना है - स्कूल ,खेल और अपनी पढ़ाई . घर में क्या होता है उसे पूरा पता ही नहीं रहता .अभी उमर भी क्या है उसकी .पन्द्रह साल में समझ भी पूरी कहाँ आ पाती है !तरु थोड़ी ही बड़ी होकर बहुत समझदार हो गई है .वह अधिकतर चुप ही रहती है.कहे भी किससे ! संजू से कहने से फ़ायदा ही क्या !जब वही कुछ नहीं कर सकती ,तो छोटा होकर संजू क्या कर लेगा !
अम्माँ का झुकाव तो शुरू से अपने मायके की तरफ़ बहुत रहा है .शुरू से ही उन लोगों के सामने वे पिता की आलोचना करती रहीं .वे लोग भी उनका मन हटाते रहे और पिता से असंतुष्ट रहे -शिकायतबाज़ी भी चलती रही .उनके मायके में कोई काम-काज होने पर स्थिति और दारुण हो जाती है .अम्माँ अपने भाई बहनों के सामने किसी प्रकार की कमी बर्दाश्त नहीं कर सकतीं .वे सबसे बढ़-चढ़ कर रहना चाहती हैं .नहीं तो उन्हें लगता है उनकी हेठी हो रही है .उन्हें बहुत दे कर वे उनसे सम्मान -स्नेह पाना चाहती हैं .कभी-कभी गुस्से के मारे वहाँ के कामों मे जाती ही नहीं, और महीनों अपनी कुण्ठा पिता पर निकालती रहती हैं .
बात बहुत बढने पर गोविन्द बाबू चिल्ला पड़ते ,"पैसा ,पैसा कहाँ से लाऊँ पैसा ?चोरी करूँ ,डाका डालूँ ?सब लाकर हाथ पर रख देता हूँ ,बाहर एक कप चाय तक नहीं पीता .''
उनकी शिकायतें जारी रहती हैं तो वे बिगड़ते हैं ,'..और चाहिये तुम्हें तो मुझे मार डालो ,मेरा खून पी लो हड्डियाँ बेच आओ ."
अम्माँ बोलने में बहुत कटु हैं ,उन्हें अपनी जीभ पर नियन्त्रण नहीं रहता .जाने कब की पुरानी बातें लाकर अन्हें अपमानित करने लगती हैं .पिता सुनते रहते हैं.क्रोध को भीतर -ही-भीतर निगलते रहते हैं .जब बर्दाश्त से बाहर हो जाता तो हाथ से उनके बाल पकड़ कर झकझोर देते हैं .वे भी झपटती हैं दोनों चिल्लाते हैं .तरु बीच में घुस कर बचाना चाहती है.
माँ चिल्लाती हैं ,"अच्छा बाप-बेटी दोनों मिलकर मुझे मार डालो ."
"अरे फाड़ डाली "--."पिता का आर्त स्वर कानों में जाता है ,"यही तो एक ढंग की कमीज़ थी .अब क्या पहन कर बाहर जाऊँगा ?"

"तो काहे रे लिये जुटे थे मुझसे, शरम नहीं आती है ."
"मेरे खून की प्यासी हो तुम.कभी चैन से रहने नहीं दोगी ."
तरु इस सबकी साक्षी नहीं बनना चाहती .
पिता का आर्त स्वर मन को बुरी तरह मथे डाल रहा है .ओफ़ कैसे जानवरों की तरह ....ओह, मुझे क्या हो गया है... ?  स्वयं को धिक्कारने लगती है .
विचारों पर काबू नहीं रहता .आवाजें फिर उसके कानों में आने लगी हैं .
"अब पता लगा तुम्हें ,दूसरों के सामने नीचा देखना क्या होता है !मुझे तो जिन्दगी भर नीचा दिखाया तुम लोगों ने --तुम स्वार्थी हत्यारे !"
"हत्यारा मैं नहीं तुम हो. मुझे खा कर चैन लोगी . सबको खा लोगी फिर भी सन्तोष नहीं होगा तुम्हें ."
"अपनी इच्छा पूरी करने के लिये मेरे बेटे को मार डाला --"वे फिर झपटी हैं कमीज फट रही है --चर्ररर-चर्ररर् .....

रुका नहीं जाता .तरु दौडती है ,"अम्माँ , मत फाड़ो कमीज ..."
"तू चुप रह.बड़ी खैरख्वाह बनी है बाप की .मेरे लिये भी कभी लगता है ?..सब उन्हीं को पूछते हैं. नई कमीज नहीं बनवा सकते अपनी कमाई से .?"
वे नहीं बनवायेंगे तरु जानती है .वे खाना नहीं खायेंगे तरु जानती है .और वे किसी से कुछ नहीं कहेंगे -यह भी तरु जानती है .
और अम्माँ ? उन्हे शिकायत है कोई उनका ध्यान नहीं रखता !
पर जो खुद सबसे पहले अपने लिये ही सोचता रहे उसका ध्यान कोई कैसे रख सकता है?
*
तरु की समझ में नहीं आता क्या करे !
पिता आज फिर बिना खाये चले गये .क्या होता जा रहा है अम्माँ को?
उनके खाना खाने बैठते ही कुछ ऐसा होता है कि,वे थाली छोड़कर उठ जाते हैं .कितने कमज़ोर हो गये हैं --सारे दिन काम और किसी वक्त खाना चैन से नहीं ..जाना भी कितनी दूर पडता है पैदल जाते हैं .कभी सवारी नहीं लेते .
दफ़्तर की फाइलें पहले घर ले आते थे .अब नहीं लाते वहीं देर तक रुके रहते हैं .लौट कर आते हैं किसी से कुछ कहते-सुनते नहीं खाना मिला और कहा-सुनी नहीं हुई तो खा लिया लहीं तो बिना कुछ खाये चादर से मुँह ढाँक कर लेट जाते हैं .

जब वे थके हुये लौटते हैं तो वह थका-उतरा चेहरा और उनकी वे निगाहें सहन नहीं होतीं .आते ही पहले चोर निगाहों से चारों ओर देखते हैं ,अम्माँ नहीं होतीं तो तरु से पूछ लेते हैं ,"कुछ है खाने के लिये ?"
तरु तैयार रहती है इस समय के लिये .झटपट उठ कर थाली परस लाती है वे जल्दी -जल्दी खाने लगते हैं .बड़े-बड़े कौर तेजी से चबा कर गले से नीचे उतारते हैं .वह मनाती रहती है,पेट भर खाना खाने तक अम्माँ न आयें .पर कभी-कभी अध-खाई थाली वैसी ही पड़ी रह जाती है .अम्माँ की ज़ुबान रुकती नहीं वे थाली छोड़ कर उठ जाते हैं और मुँह ढाँक कर लेट जाते हैं .
लड़ाई पहले भी होती थी पर इतनी नहीं कि कोई भूखा रहे और दूसरा अपनी झक पूरता रहे .जब से अम्माँ बीमारी से उठी हैं और मायके होकर आई हैं उनकी सारी स्वाभाविकता समाप्त हो गई है .
पहले पिता भी नाराज होते थे ,बच्चों को डाँटते थे .अम्माँ पर झल्लाते थे ,कभी कुछ खाने की फर्माइश भी करते थे .पर अब घर ,घर नहीं लगता .जाने क्या होता जा रहा है .अब वे कुछ नहीं कहते .अम्माँ जो चाहें कहती रहें ,बोलेंगे नहीं ,चुपचाप पड़े खाली-खाली आँखों देखते रहेंगे .तरु को जाने कैसा लगने लगता है.

कंघे से बाल झाड़ती तरु पूरी खिड़की खोल कर खड़ी हो गई .अभी विपिन स्कूल जाने के लिये सड़क पर निकलेगा .तरु की निगाहें सड़क पर लगी हैं .
"विपिन,एइ विपिन !"
कैसी धुन में चला जा रहा है सुनता ही नहीं.
फिर वह खिड़की से सिर निकाल कर ज़ोर से चिल्लाई ,"अरे, ओ विपिन 1"
उसने सिर उठाकर देखा ,"मुझे बुला रही हो ?"
तरु ने सिर हिलाया वह आकर खिड़की के नीचे खड़ा हो गया .
"विपिन ,मेरा एक काम कर देगा ?"
"क्या?"
"पिताजी को खाना पहुँचा देगा ?"
"आज फिर ऐसे ही चले गये ?"
"उन्हें नौ बजे जाना था ,मैंने सोचा तेरे हाथ भेज दूँगी ." कह कर उसे शक हुआ,विपिन ने झूठ पकड़ तो नहीं लिया .वह अपनी ही धुन में था .
"लाओ जल्दी ."
तरु के पीछे-पीछे वह अन्दर आ गया .तरु ने पराँठे- सब्जी पत्ते में लपेट कर लिफ़ाफ़े में डालते हुये कहा ,"देख यहाँ किसी को पता न लगे .लेकिन कैसे ले जायेगा ?"
"ये बैग है न मेरा .कपड़े में लपेट दो. इसी में रख लूँगा .हाँ ,ऐसे ."
"वहाँ वो कुछ पूछते तो नहीं न?"
"ना ,मैं तो जाता हूँ उनकी मेज पर रखता हूँ और निकल आता हूँ. .स्कूल को जल्दी रहती है न."

**
"भाभी जी, हमारी बीमारी के दौरान आपने खूब सम्हाला .बराबर टिफ़िन भर-भर कर खाना भेजती रहीं .इत्ता तो अपनी सगी जिठानी भी नहीं करती .."

"अरे बहू , मुसीबत में ही तो एक दूसरे का साथ दिया जाता है .कहो, अब तो ठीक हो न ? "

"हमारे ये तो आपके गुन गाते नहीं अघाते .कहते हैं भाभी जी जैसी लच्छिमी तो आज तक नहीं देखी .हम भी ठीक होकर सब से पहले यहाँ आये हैं ."
अम्माँ झट से प्लेट भर गाजर का हलुआ निकाल लाईं उनके सामने रख दिया ,"बैठो बहू , बडी कमज़ोरी आ गई है .लो, यह खा लो .सुबह ही तरु ने बनाया है ."
"अरे वाह, गाजर का हलुआ !अबकी तो हम एक बार भी बना नहीं पाये .बच्चे कहते ही रह गये ."
"अरे, तो यहाँ से ले जाओ .बच्चों का मन क्यों रह जाये .यहाँ तो बना ही है ."
"हमारे शर्मा जी तो कहते हैं -गौतम के पिता हमारे बड़े भाई की जगह हैं .ऑफिस में सालों एक ही कमरे में बैठते थे .आज कल कुछ तबीयत ढीली चल रही दीखे भाई साहब की ?हमारे ये तो उनके बारे में हमेसा बात करते रहवें हैं .आजकल उन पे भारी काम आगया है .बीमार आदमी मेहनत भी नहीं कर पावें ."
अम्माँ ने शंका भरी दृष्टि से उनकी तरफ देखा ,"अच्छा !"
"किसी अच्छे डॉक्टर का इलाज कराओ ,भाभी जी .ये पेट का मरज पुराना हो के बडा दुखी करे है ."
"तो उनकी वकालत करने आई हो.तुम्हें कैसे मालुम ?"
बात शर्माइन के पल्ले नहीं पड़ी, लेकिन अम्माँ के कहने का ढंग उन्हें बडा अजीब लगा .
"लो, एक दफ़्तर में, मालूम भी न होवे ?एक बार तो चक्कर खा के गिरते-गिरते बचे .हमारे इन ने सम्हाल लिया ."
"हाँ, उन्हें मित्रों की क्या कमी ?"
"क्यों न हो ,इत्ते सीधे आदमी हैं .भाई साहब को तो कभी ऊँचा बोल भी बोलते न सुना .अब उनके खाने का बहुत ध्यान रखो ,भाभी जी .पराँठे बिल्कुल बन्द कर दो .टेम-बेटैम खाने से भी बदन को थोड़े ही ना लगे ."
आवाज़ धीमी कर के वे बताने लगीं - बड़े साहब ने तो यहाँ तक कह दिया कि काम नहीं कर पाते तो छुट्टी ले लो .ठीक हो जाना तब काम पे आना .अब भाभीजी तुम्हीं उनका ध्यान करो ?"
अम्माँ के चेहरे के भाव बदलने लगे थे ,वे ताव में आ गईं,"ओफ़्फ़ोह ,पराये आदमी से बड़ी हमदर्दी है .बड़ी सगी बनती हो उनकी . अरे, हमें सब मालूम है ,तुम्हीं लोगों ने सगापन दिखा-दिखा कर उनका मन हमसे फेर दिया है ."
"बस करो ,गौतम की अम्माँ ,बहुत कह लिया .हमें क्या करना .आप जानो वो जाने .बरसों से साथ रहे हैं ,पुराना मेल-जोल है .बीमार सुना सो कह दिया .नहीं तो हमें क्या मतलब !"
"हाँ,हाँ ,क्यों नहीं ?बरसों पुरानी मोहब्बत है ,निभानी ही चाहिये ."
शर्माइन ताव में आकर खडी हो गईं ,"अब तो पाँव नहीं धरेंगे इस घर में .होम करते हाथ जलते हैं .ऐसी औरतों से भगवान बचाये ."

वे एकदम बाहर निकल गईं .
**
11.
"हाँ ,मै हत्यारा हूं !और तुम जो दिन-रात मेरा ख़ून पीती हो ,तुम कौन हो ?.....कभी नहीं सोचा भूखा हूँ कि थका ,वहाँ से खट कर आता हूँ और यहाँ तुम नोचने को तैयार मिलती हो .घर में पाँव रखते ही क्लेश मचाना शुरू कर देती हो .मुझे तो कहीं भी चैन नहीं ."
"मैं खून पीती हूँ कि तुम ?तुमने मार डाला मेरे बेटे को .--."
"मैनें मार डाला ? तुम यही समझती हो .तो मुझे मार डालो ,तुम्हारी छाती ठण्डी हो जाये .."
"मैं काहे को मार डालूं?भगवान सब देखते हैं .वही समझेंगे ."
"कुछ नहीं देखता ,भगवान है ही कहाँ ,है तो अन्धा है ."

"फिर काहे को सोमवार का व्रत करते हो ?काहे को ये तस्वीरें लाकर टाँगी हैं "अपने पाप के बदले ही तो करते हो ."
"मैनें कोई पाप नहीं किया .न कुछ बदले के लिये कर रहा हूँ ."
"मैं खूब समझती हूँ.,तुम और तुम्हारे संगी-साथी ,जो तुम्हारे साथ मिल कर मुझे परेशान करते हैं ."
उन्होने विवश क्रोध से उनकी ओर देखा ,"मेरा कोई संगी नहीं --तुम नहीं मानती तो लो --"उन्होने राम जी की फोटो उठा कर फेंक दी ."मैं लाया था न तस्वीर ?अब से नहीं करूँगा व्रत .आग लगा दूँगा इस पूजा-पाठ में .."
"भगवान को क्यों मुझे झोंक दो आग में. मार डालो मुझे,' वे चिल्ला कर झपटती हैं .गोविन्द बाबू ने पकड़ लिया है .रोक लिया है वे छूटने की कोशिश कर रही हैं . किसी तरह बस में नहीं आ रही हैं .चिल्ला रही हैं ,"हाँ मारो ,मारो मारो मुझे .मार डालो....."
वे हाथों से अपना सिर पीटती हैं ,दीवार से टकराने की कोशिश करती हैं .गोविन्द बाबू ने पकड़ा है . उनकी आँखें लाल हो गई हैं .वे छूटने की कोशिश कर रहीं हैं ,गोविन्द बाबू ने झिँझोड़ कर खड़ा कर दिया है .वे चिल्लाते हुये ज़मीन पर पड़ गईं .
दरवाजे पर कुछ आहटें होती हैं आवाज आती है ,"क्या बात है गोविन्द बाबू ?"
उढ़के हुये दरवाजे धक्का पड़ते ही खुल गये हैं ,पड़ोसवाले दरवाजे पर खड़े कह रहे हैं ,"गोविन्द बाबू ,बड़ी बुरी बात है ."
पीछे से कुछ और चेहरे झाँक रहे हैं .
तरु की मां को जमीन पर पड़ा देख पड़ोसिन अन्दर आ गई है.
"कैसे मारा है बिचारी को ."
"आप तो पढ़े लिखे आदमी हैं, शरम आनी चाहिये आप को ."
पड़ोसिन ज़न पर तरु की माँ के पास बैठ गई है .
"अरे इनकी तो दाँती भिंची है,बेहोश हो गई दीखें ." कई लोग अन्दर घुस आये .
"तू ना रोके ,तरु अपने पिता जी को ?कटोरी में पानी ले आ ,चिम्मच भी लेती अइयो ."
"कैसे बेदरद मरद होवें ,औरत को पैर की जूती समझें ."
कोई नहीं आता तो उठ कर खड़ी हो जातीं अब पड़ी रहेंगी .तरु जानती है पर कह नहीं सकती .
"ये बिचारी तो किसी का दुख भी ना देख सके  .हमारी बीमारी में रोज़ बदाम घिस के लावे थी और बिना पिलाये जावे ना थी ..अब देखो कैसी पड़ी है ?और ये बच्चे... अपनी माँ की सम्हाल भी ना करें ."
पड़ोसिन अपने पति की ओर घूम कर बोली ,'तुम ,घर से थोडा गुलूकोज ले आओ जी ."
तरु अन्दर से ग्लूकोज का डिब्बा ले आई है पानी में घोल रही है .
"बिचारी को ना मरद पूछे ना बेटा-बेटी ."
*
"तरु कहाँ गईं थीं ?"
"पिता जी ,मीना के घर .'
"तीन घन्टे हो गये तुम्हें घर से निकले हुये ,कुछ तो सोचना चाहिये !"
तरु पिता के बिल्कुल पास चली आई ,धीरे से बोली ,"पिता जी, मेरे पास पॉलिटिकल साइन्स की किताब नहीं है .मीना रेगुलर है .लाइब्रेरी से इशू करवाती है अलग-अलग राइटर्स की .उसी के साथ पढ़ लेती हूँ ."
"घर के लिये क्यों नहींले आतीं ?अपनी अम्माँ की आदत जानते हुये भी ....''
तरु की आँखों मे विवशता छलक उठी है .
"वह हफ़्ते भर को लाती है पिता जी ,साथ में डिस्कस करने में देर लग जाती है. ...उसके कॉलेजवाले नोट्स भी वहीं देख लेती हूँ .अब उससे कहूँगी .घर में लाकर उसके नोट्स बना दिया करूँगी .फिर साथ में बैठ कर उसे डिटेल्स मे बताना तो पड़ेगा ही .''
पिता ने फिर कुछ नहीं कहा .
बी.ए. का फ़ार्म भरवाते समय ही उन्होंने कहा था ,"तुम्हारी अम्माँ को लड़कियों को पढ़ाना पसन्द नहीं .मेरे पास किताबों के लिये अलग से पैसे नहीं .घर का हाल तुम देख ही रही हो ,फारम तो किसी तरह भरवा दिया पर आगे कैसे करोगी ?"
अम्माँ का हाल खूब अच्छी तरह जानती है तरु .उन्हें पढाई से चिढ़ हो गई है .पढ़ने की बात पर, किताबों की बात पर ,कॉलेज की बात पर आपे से बाहर हो जाती हैं .
तरु की एक सहेली है ,मीना -बचपन की साथिन .उसने कॉलेज में एडमिशन लिया है .तरु ने उसी का साथ पकड़ लिया है .वह किताबें लाती है ,तरु उससे लेकर नोट्स बना देती है.मीना को बने-बनाये नोट्स मिल जाते हैं .वह अपने क्लास नोट्स भी तरु को सौंप देती है और तरु बैठ कर पूरा मैटर छानती है .
मीना के विश्वास पर ही पिता को आश्वस्त कर दिया था उसने,कि कॉलेज की बात नहीं करेगी ,किताबें नहीं खरिदवायेगी ,घर का काम पूरा कर तब कुछ और करेगी. फिर भी दो-तीन किताबें पिता ने लाकर दीं थीं .
अम्माँ बहुत अस्वस्थ रहती हैं और बहुत असन्तुलित .तरु के ऊपर घर का सारा काम आ पड़ा है .वह चुपचाप सब निपटा लेती है ,फिर वे उसके आने-जाने पर ज्यादा रोक-टोक नहीं करतीं .शुरू-शुरू में कई बार उन्होंने टोका तो तरु बहुत स्पष्ट स्वर में बोली ,"अम्माँ ,मैं कभी कोई गलत काम करूँ या तुम किसी से मेरी शिकायत सुनो तो मना करो.बेकार में क्यों रोकती हो ? मैं सिर्फ़  मीना केघर जाती हूँ,उससे मुझे बडी़ मदद मिलती है .."
पर जिस दिन उसे बाहर दो-तीन घन्टे हो जाते ,वे नाराज़ होने लगतीं .चिल्लाती हैं ,पढाई को कोसती हैं ,तरु को कहनी-अनकहनी सुनाती हैं .
पता नहीं इन्हें पढ़ने से क्यों इतनी चिढ़ है,तरु समझ नहीं पाती .समझाने की कोशिश करने पर वे उसी पर उलट पडती हैं .वे क्या चाहती हैं तरु समझ नहीं पाती .
मीना ने एक मोटी सी किताब तरु को दी है .खुद वह कहीं बाहर जा रही है .चाहती है हफ्ते भर में तरु नोट्स बना ले फिर विस्तार से उसके साथ डिस्कस भी कर ले .तरु ने हामी भर ली है .
तरु रात को एक बजे तक जागती है ,दिन में लगकर बैठने का समय नहीं मिलता .इस एक किताब में पूरा मैटर है,अब इस पेपर के लिये कहीं और भटकने की जरूरत नहीं .काफी प्रश्न बनते हैं जी-जान से तरु उनके उत्तर का मैटर तैयार करने में जुटी है .
एक दिन सिर मे दर्द होने लगा .उसने किताब खिसका दी और दस बजे से पहले ही सो गई .
सुबह किताब मेज पर नहीं थी .
"मेरी किताब कहाँ गई ?"
संजू उठाता तो बता देता ,पिता तो उठाते ही नहीं .फिर किताब कहाँ गई ?
"अम्माँ , मेरी किताब मेज़ पर रखी थी ?"
"मुझे परेशान मत करो ."
"मैंने यहीं रखी थी ,तुमने उठाई है क्या ."
"हाँ मैनें उठाई है .एक-एक बजे तक जग कर तन्दुरुस्ती चौपट कर रही हो .ऐसी क्या जरूरत है किताबें पढ़ने की ?"
"मेरे पढ़ने से तुम्हारा क्या नुक्सान है ?"
एक वो पढ़ती थीं उनने बड़ा सुख दिया ,एक तुम दोगी ."उनका इशारा शन्नो की ओर था .
मैंने ऐसा-वैसा कुछ नहीं किया .मैं घर का काम भी कर लूँगी ."
"लड़का कहाँ मिलेगा इतना पढ़ा-लिखा ?और उसकी माँगे पूरी करने को पैसा कहाँ से आयेगा ?"
"वो सब बाद की बातें हैं ,वो किताब मीना की है जल्दी वापस करनी है ."
"दिमाग तुम्हारे भी बढ़ते जा रहे हैं .मेरा कहा सुनती नहीं हो .फिर कहोगी नौकरी करूँगी ."
"..पर वो किताब मुझे वापस करनी है ."
"तुम सुनोगी नहीं तो यही होगा ."
"वह लाइब्रेरी की किताब है.मैं उससे माँग कर लाई हूँ .उस पर फ़ाइन पडने लगेगा .मुझे देना है ."
"मैं नहीं जानती ."
तरु गिड़गिड़ाने लगी है. अम्माँ किताब नहीं देतीं .
वह नहीं देंगी उन्हे झक चढ़ गई है .
उसने सारा खोज डाला .
अब क्या करूँ मैं?
तरु परेशान .अभी डेढ सौ पेजेज़ के नोट्स बनाने को पड़े हैं .कल सुबह वापस करनी है किताब !कैसे होगा ?
"किताब दे दो अम्माँ ,बता दो कहाँ रखी है ."
वे चुप हैं कुछ बोलती ही नहीं .
तरु खीझ रही है, उन पर कोई असर नहीं होता .
तीसरा पहर बीत गया तरु क्या करे ?
"अम्माँ. मुझे किताब चाहिये "
"तुम मरो जाकर किताब के पीछे --."
वह बिल्कुल निरुपाय हो गई ..क्या करे अपना सिर पटक ले !
"कुछ और कर लो अम्माँ ,मुझे मार लो ,पीट लो .किताब दे दो ."
"मेरी किताब देदो ,अम्माँ ."
किताबों से कुछ नहीं होगा .जिन्दगी भर पछताओगी .तुम मेरा कहा बिल्कुल नहीं सुनती हो ."
वे पढ़ाई के सख्त खिलाफ हैं .तरु पर कुछ असर नहीं पड़ता .उसे सिर्फ एक धुन है--पढ़ना है,पढ़ना है .बी.ए. पास करना है .वह और सब कर लेती है ,पढाई के बारे में कुछ नहीं सुनती .गुस्सा आने पर अम्माँ खूब उल्टा-सीधा बकती हैं ,तब थोड़ी देर के लिये किताब बन्द कर रख देती है .
पर आज तो उन्होंने किताब छिपा दी है .
तरु रो रही है .रोते-रोते कह रही है ,"किताब उसकी है ,मुझे किताब दे दो ."
"रोओ,खूब रोओ ," अम्माँ गुस्से में आ गई हैं ," ज़िन्दगी भर रोओगी तुम .देख लेना .रोए नहीं चुकेगा !"
कुछ देर बक-झक कर वे मन्दिर चली गईं .
बावली-सी तरु घर भर में चक्कर लगा रही है .
सब जगह ढूँढ चुकी .किसी तरह चैन नहीं पड़ रहा ..कोई उपाय समझ में नहीं आ रहा .फिर नये सिरे से खोज शुरू हुई .
मसाले के डब्बे के पीछे वह क्या चमक रहा है ?
वही है ,वही है किताब !
तरु उठाती है साड़ी के पल्ले से पोंछती है .
अब सुबह का इन्तजार नही करेगी .रात में ही काम लिपटाकर संजू से किताब भिजवा देनी है ..नहीं तो कहीं उन्होने फिर उठा ली तो !
दस बजे तक संजू से भिजवा दे ?पर समय ही कितना है ?
सिर्फ छः घन्टे और शाम के खाने की व्यवस्था भी उसी बीच !
जल्दी-जल्दी सारा काम खत्म करती है .मन में बड संशय है .हो पायेग या नहीं ?नहीं हुआ तो मीना क्या कहेगी ?फर उससे किताब माँगने की हिम्मत कैसे पडेगी ?डेढ सौ पेज ! नहीं हो पायेगा तो... ?
नहीं हो पायेगा .लिखना किसी तरह नहीं हो पायेगा !पढ़ लूँ . फिर याद करके लिखूँगी - तय कर लिया उसने .
बाहर के दरवाज़े बन्द कर दिये ,किताब खोल कर बैठ गई ..साथ के कागज़ पर सिर्फ मेन प्वाइन्ट्स ,नंबरवाइज़ !

घड़ी की सुइयाँ बराबर आगे बढ़ रही हैं .तरु ने दृढ़ निश्चय कर लिया है .पूरा करना ही है .पढ़ रही है वह .पढ़े जा रही है.-एक चित्त !पन्ने एक-एक कर पलटे जा रहे हैं .दस,बीस,तीस पचास ,सत्तर ,सौ !
अरे ,अभी पचास और हैं !सिर को झटका देकर वह फिर जुट गई .दस बजने में आठ मिनट बाकी हैं .,वह संजू को किताब पकड़ा आई ,भैया जल्दी से पहुँचा दो ."
संजू को भेज वह गिने हुए प्वाइन्ट्स लिखने बैठी .

चारों तरफ कहीं कुछ नहीं है ,किसी का भान नहीं ,किसी पर ध्यान नहीं . .संजू कब आया कब गया उसे कुछ पता नहीं ..इधर-उधर क्या हो रहा है होश नहीं .कितने भी बज जायें अब कोई चिन्ता नहीं .वह लिख रही है .लिखती जा रही है ,सिर्फ़ लिखती जा रही है .सब याद आता जा रहा है जैसे दिमाग़ में पढ़े हुए पन्ने कहीं लिख गये हों और तरु उतारती जा रही हो !

हाँ, सिर्फ मस्तिष्क बोल रहा है ,तरु लिख रही है .कलम चल रही है--और कहीं कुछ नहीं .कहीं कोई नहीं ! अकेली तरु और उसकी चलती हुई कलम !

कहीं कुछ नहीं हो रहा है इस समय !


******
(क्रमशः

6 टिप्‍पणियां:

  1. nice कृपया comments देकर और follow करके सभी का होसला बदाए..

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  2. पहले अंश को पढ़ने के बाद जितनी ज़्यादा उत्सुकता हुई थी तरु के बारे में जानने की....आगे के अंश पढ़ कर मन फीका हुआ जा रहा है।
    और बड़ी खीझ उठती है तरु की माता जी के व्यवहार से....:(

    बहरहाल.....
    जो बुरा है वह भी लेखन की खूबियों की वजह से पढ़ने में अच्छा ही महसूस हो रहा है..उम्मीद है अगले अंश में तरु के घर की ये पारिवारिक कलह किसी अंजाम तक पहुंचेगी....

    बहुत विस्तार से भी किसी दृश्य को नहीं खींचा aapne मगर छोटी छोटी बातों को भी बारीकी से लिखा है प्रतिभा जी..तो स्वत: ही सजीव हो उठते हैं शब्द, पात्र और उनके चेहरे के भाव तक भी....जैसे वो ''एक कम चाय तक बाहर नहीं पीता'' वाली बात मुझे तो बड़ी अच्छी लगी ...गोविन्द जी कितना खीझ रहे होंगे यहाँ इस दृश्य में...स्पष्ट रूप से उनकी विवशता को अनुभव किया जा सकता है...मैंने तो किया..:)

    खैर,आभार इस ansh के लिए....:)

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  3. प्रिय तरु,
    मैं तुम्हारी आभारी हूँ .
    बहुतों को रुचिकर नहीं होगा यह लेखन खिन्नता भी होगी .लेकिन सब-कुछ रुचि के अनुकूल हो यह कोई ज़रूरी तो नहीं !
    तुमने कुछ कहा ,अच्छा लगा

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  4. गूगल साईट वेरिफिकेशन , ऊपर लिखा आ रहा है ! कृपया गूगल टूल्स में जाकर दुबारा रजिस्टर्ड करें !

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  5. रुचिकर तो नहीं ही है, किन्तु जैसा की आपने भी कहा जीवन में सब कुछ लीक पर, और उचित ही तो नहीं होता।
    पर हाँ, खीझ बहुत होती है , सोच कर तरल की स्थितियाँ। सबको संतुष्ट रखने का यत्न करना भी कितना कठिन है, कितना संयम माँगता है!
    अंत तक आते आते, तरु का जीवट देखना अच्छा लगा।

    उत्सुकता के साथ प्रतीक्षा रहेगी अगले अंक की।

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  6. व्यक्ति की परिस्थितिजन्य मनोदशा का बेहतरीन चित्रण ।

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