शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

निवृत्ति कहाँ ?

*

चाहा था दर्शक बन ,

बंध- अनुबंध रहित ,

पार कर अपेक्षा, दायित्व सभी ,

मगन मन.

बहती धारा के रंग देखूँ सिर्फ़ दर्शक बन.

बैठ कर किनारे ,

सुनूँ जल-तरंगवाले लयलीन स्वन

लहरों का नर्तन .

*

जल -निधि की कोई उत्ताल चेतना तरंग

तल से समेट निज मंथन के संचित पल -

सीप-शंख का प्रसाद ,

रेतियों को सौंप लौट जाए हिलोर संग,

चुन-चुन सँवारूँ वही निश्छल समर्पण .

*

लेकिन निवृत्ति कहाँ ?

उपालंभ- अनजाने दोष-आरोपण,

प्रश्नों के घेरे-

अनुताप का निमित्त बन.

कैसी विडंबना-

न कोई निराकरण !

*

भारी थी गठरी कर्तव्य के लपेटों की,

निभा दिए .

भार जो बना था, वो

उधार भी निपाट दिया

.लेकिन निवृत्ति कहाँ ,

कहाँ निस्तार !

पाँव श्लथ,

देहरियों के ही विस्तार

पार करते-करते जाऊँगी हार !

*

जो उतार फेंकी थी कथरी पुरानी ,

ओढ़ ले उठा कर चुपचाप,

कुछ कहे बिन .

विवश उसी कटघरे में ,

चलो , लौट चलो मन !
*



5 टिप्‍पणियां:

  1. www.hamarivani.com
    शुक्रवार, २१ जनवरी २०११
    निवृत्ति कहाँ ?
    *

    चाहा था दर्शक बन ,

    बंध- अनुबंध रहित ,

    पार कर अपेक्षा, दायित्व सभी ,

    मगन मन.

    बहती धारा के रंग देखूँ सिर्फ़ दर्शक बन.

    बैठ कर किनारे ,

    सुनूँ जल-तरंगवाले लयलीन स्वन

    लहरों का नर्तन .

    *

    जल -निधि की कोई उत्ताल चेतना तरंग

    तल से समेट निज मंथन के संचित पल -

    सीप-शंख का प्रसाद ,

    रेतियों को सौंप लौट जाए हिलोर संग,

    चुन-चुन सँवारूँ वही निश्छल समर्पण .

    *

    लेकिन निवृत्ति कहाँ ?

    उपालंभ- अनजाने दोष-आरोपण,

    प्रश्नों के घेरे-

    अनुताप का निमित्त बन.

    कैसी विडंबना-

    न कोई निराकरण !

    *

    भारी थी गठरी कर्तव्य के लपेटों की,

    निभा दिए .

    भार जो बना था, वो

    उधार भी निपाट दिया

    .लेकिन निवृत्ति कहाँ ,

    कहाँ निस्तार !
    पूरी ज़िन्दगी की भाग दौड के बाद यही विचार आते हैं मन मे। गहन चिन्तन। शुभकामनायें।

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  2. जो उतार फेंकी थी कथरी पुरानी ,
    ओढ़ ले उठा कर चुपचाप,
    कुछ कहे बिन .
    विवश उसी कटघरे में ,
    चलो , लौट चलो मन !
    bahut sundr bhavavyakti ,badhai

    जवाब देंहटाएं
  3. पथ-शपथ-श्लथ-उन्मत-जीवंत जीवन का समस्त निचोड़ है यह, ज्ञान के दीप बटोरे जा सकने वाली यह सुन्दर कविता भान कराती है कि जीवन को लौट लौट वहीँ आना है।
    सम्मोहन रचते हैं आपके छंद।

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  4. गहन चिंतन का प्रतिफल है यह रचना।

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