रविवार, 30 जनवरी 2011

कृष्ण-सखी - 3 .

*

3
पाँचाली ने कहा, 'नहीं माधव, और नहीं .राजवधू हूँ , सारी मर्यादाएँ निभाए रहती हूँ .बस तुम्हीं तक मेरी पहुँच है- मन को मुक्त कर पाऊँ जहाँ .'
कृष्ण हँसे , 'मन की मुक्ति मेरे सामने बस ,और जो पाँच पति हैं ?'
'वाह रे कृष्ण ,इतना भी नहीं जानते !जब एक साथ होते हैं तो कोई मेरा पति नहीं होता .सब एक- दूसरे के भाई होते हैं . और अलग-अलग मेरे पति .सब अपने-अपने ढंग के ..'
'जानता हूँ. अपने-अपने ढंग के हैं .पर पाँचाली, उनमें जुड़ाव है , एक मत है सबका- जैसे पाँच अँगुलियों की एक मुट्ठी....'
'इसीलिये तो.बहुत सावधान रहती हूँ .कहीं मेरे कारण भेद न पड़ जाए .नहीं ,नहीं ! मुट्ठी बंद ही रहे बस .'
हँस पड़े दोनों.
'तुम लोग किस बात पर हँस रहे हो ?'युधिष्ठिर आ निकले थे उधर .
'बड़े भैया , पाँचाली   पूछ रही थी पति को वश में कैसे  रखें?'
'यह मेरा ममेरा भाई बड़ा नटखट है,पांचाली ,इसकी बातों में उलझना मत .' हल्के से  हँस कर  चले गए वे .
 धर्मराज - सबसे पहले पति -प्रथम विवाहित .परम शान्त,गंभीर, कभी उमंग आवेश से आन्दोलित होते नहीं देखा , सबको नियंत्रित करने में समर्थ. समझ गई  है द्रौपदी  बड़े से बड़े आघात पर भी विचलित नहीं होगें - परम धैर्यधारी ! उसे  सबकी  पत्नी होने का अधिकार मिला ,पर कैसे- कैसे दंश झेलने पड़े हैं.पति उस सब में कहीं भागीदार नहीं . वे सब अधिकारी हैं पत्नी के एकान्त प्रेम और समर्पण के. पर स्वयं क्या दे पाते हैं ?
 कृष्ण मित्र हैं.सब कुछ कह सकती हूँ - बिना लाग -लपेट .शरीर से कुछ लेना-देना नहीं, मन का नाता है . पूरी तरह उँडेल कर हल्का कर लेती हूँ. आश्वस्ति पा लेती हूँ .
द्रौपदी के भीतर जो चल रहा है उसका आभास है कृष्ण को.
'तुम तो सब को वश में किए हो सखी .किसी उपदेश की ज़रूरत नहीं तुम्हें.'
'ज़़रूरत समझनेवाले तुम हो न  !'  व्यंग्य झंकार  गया  द्रौपदी के स्वर में.
कृष्ण ने ध्यान से उसकी ओर देखा .वह बोलती गई ,' सबकी सुनते हो  ,सबके सुख-दुख की ख़बर रखते हो न ?'
 'यहाँ  सुखी  कौन है कृष्णे? कुन्ती बुआ ,मां गांधारी ,कर्ण ,तात भीष्म ,या दुर्योधन  सुखी है ,जिसने कभी माता-पिता की स्नेह दृष्टि नहीं जानी ? सबने अपने मान बना लिये ,दूसरे पर क्या बीतेगी ,किसी ने सोचा ?'
'सब अपनी गाथा तुमसे गा देते हैं. इतने तटस्थ हो क्या तुम  कि सब तुम्हें अपना समझ लें ?  क्यों,गोविन्द, सबके दुखों का बोझ तुम्हीं उठाते हो ?'
' दुख में याद करते हैं सब .दुख ही मुझसे बाँटना चाहते हैं .सुख में मेरी याद किसे आती है ?तुम्हें भी तो नहीं .'
'सुख के क्षण कब आकर चुपके से निकल गए ,कुछ याद नहीं ? जिसे सुख कहा जाता है उसका अनुभव नहीं कर पाती मैं. वह सब ऊपर का आरोपण भर रह जाता है .जो मिलता गया स्वीकारती गयी .निभाये जा रही हूँ, अपनी क्षमता भर .सबको लगता है मैं  भाग्यशाली हूँ .पर भीतर कितनी अशान्ति ! सुख काहे में है ?मन ही नहीं तो क्या सुख और क्या दुख !   .पर एक बात मेरी समझ से बाहर है .
 तुमने कहा था जो मैं हूँ, वही अर्जुन है .तात्विक दृष्टि से सही होगा ,पर मेरी मानव बुद्धि दोनों में अंतर देखती है .पाँचो को एक कहते हो न .अर्जुन मेरा एक बटा पाँच पति.,युधिष्ठिर का आज्ञाकारी भाई ,कुन्ती माँ का बेटा ,पाँच पाण्डवों में से एक !पाँच बार उतना- उतना जोड़ कर एक पूरा बन सकता होगा -संपूर्ण व्यक्तित्व संपन्न एक समर्थ प्राणी! एक बार में मुझे एक हिस्से को पूरे मन से ग्रहण करना है ,दूसरी बार दूसरे को उतनी ही निष्ठा से. ऐसे पाँचो को समान समझ कर चलना है. कृष्ण, यह तो बड़ी ऊँची चीज़ है .ऐसी कोई साधना और किसी के लिये क्यों नहीं निर्धारित की गई ,एक मैं ही बची रह गई तोड़ने ,बाँटने ,और हर दाँव पर लगाने के लिये ?...पर अब छोड़ो  ..जाने दो वह सब. मैं भी तो अपनी आकुलता तुम्हीं से बाँटने बैठ जाती हूँ . '
'मित्र हूँ तुम्हारा !तभी न दौड़-दौड़ कर चला आता हूँ .  मैं भी तो तुम्हारे नेह पर ,तुम्हारी प्रखरता पर  विश्वास कर , जीवन के पृष्ठ खोल देता हूँ . कृष्णे, मैं टिक कर रह ही कहाँ पाया ? भागता रहा जीवन भर .रुक्मिणी हो चाहे भामा ,किसी के पास नहीं . पत्नियों को मेरी रानी होने का गौरव मिला ,संतान मिली पर मेरा सामीप्य नहीं .भटकता रहा मैं .सबका साक्षी बना मैं ! बस एक राधा के समीप नहीं रहा .'
पांचाली चुप है .
'मैं बोल रहा हूँ  और  तुम कहाँ खो गईं ? ,फिर कहोगी ...'
'तुम बोलते हो ,मैं सुनती हूँ. शब्द कानों में जाते हैं और मन उनकी किसी लहर में बह जाता है.उस डूब में तुम्हीं ले जाते हो फिर तुम्हीं खींच लाते हो बाहर .. '
कहते-कहते कुछ सोचती -सी द्रौपदी को हँसी आ गई , कहते हो राधा के समीप नहीं रहे 'झूठे कहीं के .उससे दूर तुम रहे कब ?वह भी डूबी रही और तुम सब कुछ करते हुये, हर जगह रहते हुये भी सिर्फ़ साक्षी रहे ,तुम्हारा भोक्ता मन तो वृन्दावन के एकान्त में चुप बैठा राधा का नाम जप रहा होगा । तुम कह कर छुट्टी पा लेते हो ,मुक्त हो जाते हो पर मेरे भीतर सब उतरता चला जाता है, उद्विग्नता और बढ़ जाती है. तुम्हारी वह विरहिणी मेरे भीतर आसन जमा कर बैठ गई है.ये कैसी स्थितियाँ हैं ,सोचना मुश्किल है ,कहना और भी कठिन .'
'कृष्णे ,मुझसे सहानुभूति हो रही है तुम्हें ?'
'सहानुभूति परायों से होती है कनु! तुम जो कहते हो वह मेरे भीतर कहीं गहरे में घटने लगता है.'
'हाँ,यही तो राधा ने कहा था .
उसने कहा था तुम जो करते हो मैं भी उसकी भोक्ता बन जाती हूँ .मुझे उससे छुटकारा नहीं मिलता .बार बार वह अनुभव अपने को दोहराता है -और तीव्र और सघन हो- हो कर .
'वह बोली थी -
'विवाह ?वह साँसारिक बंधन है कनु ,तुमसे मैं ऐसा नाता नहीं चाहती जो सांसारिक व्यवहारों के निर्वाह के लिये जोड़ा गया हो .मन चाहे कहीं और हो ,शरीर को निभाना पड़े वह संबंध मुझे नहीं चाहिये .तन से न हो भले ,मन लीन रहे वह अखंड प्रेम चाहती हूँ. '
कैसा लग रहा है , कृष्णा को? सुने जा रही है एकदम चुप .
कृष्ण मुझसे उन्मुख हैं या स्वगत-कथन चल रहा है -
'मैं अपने लिये कब जी पाया ?जीवन भर भटकता ही तो रहा हूँ ।जिससे अनायास जुड़ा था वह बहुत पीछे छूट गया ! '
कुछ पल मौन !
'और सबको मैंने पहले ही स्पष्ट कर दिया था - मैं  राजा नहीं, राजकुमार नहीं बंदी गृह में उत्पन्न हुआ एक बहुत साधारण व्यक्ति  ,एक ग्वाला ,जो निरंतर आघात झेलता रहा .गायें चराता था .संदीपनि गुरु का शिष्य होकर जीवन की शिक्षा ग्रहण की , कृष्णे, तुम मेरी मित्र हो तुमसे कुछ छिपाना नहीं है .
'रुक्मिणी से कह दिया था मैंने ,'तुम विवाहिता बन कर मुझे बाँधने की चाह मत रखना क्योंकि मैं जिन परिस्थतियों की उपज हूँ उनका भारीपन मुझे हल्का नहीं होने देता .जाने कितने ऋण सिर पर ले कर संसार में आया हूँ . वह चुकाना हैं मुझे .कर्ज़दार होकर सुख-शान्ति का भोग कहाँ ! यह अधिकार, मान-सम्मान ,सुविधायें, राज्य ,ऐश्वर्य-विलास मेरे लिये नहीं .ये माध्यम भर हैं जिनसे उद्देश्य पूरा हो .कोई नहीं समझेगा मेरी असंपृक्ति, मेरी विवशता को. सब को लगता है ये सारे उपक्रम अपने हेतु कर रहा हूँ .पर इनमें कहाँ मेरा स्वार्थ है ? आगत का अनुमान करता हूँ ,मन का दाह और बढ़ जाता है . मेरे ही कुल को लो - यदुवंशियों का हाल देखा है ?उनका मद और अविवेक उन्हें कहाँ पहुँचा गया !ऐसी दशा में वे कितना टिक पायेंगे ! नाश अवश्यंभावी है. कौन रहेगा मेरा अपना कहने को?'
चुप्पी छा गई कुछ देर .
फिर पांचाली के धीमे से स्वर-
'कैसा लगता होगा तुम्हें ?फिर भी कैसे रह पाते हो इतने स्थिर- चित्त ?'
'कैसा लगता होगा ! ' ,कृष्ण ने दोहराया,
'जिसके कारण माता-पिता बंदीखाने में पड़े रहे हों.
सात- सात भाई , जन्मते ही मौत के घाट उतार दिये गये ,जिसे बचाया गया है बहिन के जीवन को दाँव पर लगाकर ,उसका जीवन क्या उसका अपना रह गया ? इतना भार चढ़ा हो जिस पर कृष्णें , वह कैसे उत्सव का जीवन जी सकेगा ,कैसे चैन से  बैठ पाएगा !..
माता-पिता से दूर पाला गया . सदा षड्यंत्रों के दाँव, हर समय मृत्यु की छाया में जिया ..,सब के संताप का कारण बन गया मैं !
जो दुखों में डूबे रहे मेरे कारण उन्हें उबारना मेरा ही दायित्व तो है ...,'
कृष्णा को लग रहा है सबको आनन्द देनेवाला सबका साथ निभानेवाला यह व्यक्ति कितना अकेला है ,कितना निस्संग !
तब राधा स्तब्ध थी ,और आज द्रौपदी अवाक् !
यह क्या कह रहे हैं कृष्ण !क्या यही है रसिया कहानेवाला ,आनन्दी मोहन ,जिसने सारी ब्रज भूमि में रस की धार बहाकर -जनमन सिक्त कर दिया . सबको हँसाता रहा ,खेल खिलाता लीलाएँ दिखाता रहा - वह स्वयं इतना अनासक्त !
कृष्ण अपने आप में डूबे ,भान नहीं शब्द राधा के हैं या द्रौपदी बोल रही है -
'कनु ,और कोई तुम्हारे .साथ हो न हो ,हर स्थिति में हर अवस्था में मैं तुम्हारे साथ हूँ .'
'हाँ,तुम हो इसी से मैं रह सका हूँ . इस सहज विश्वास के आगे देश और काल के व्यवधान समाप्त हो जाते हैं .तुम मेरी चिर विश्वासिनी !'


*
(क्रमशः)

5 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी यह प्रस्तुति आज ही पढ़ पायी ....बाकी दो मैं बाद में पढूंगी ....बहुत सुन्दर लेखन ...कृष्ण और द्रोपदी का संवाद बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर गया ...

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  2. इस सम्वाद की अगली कड़ी की प्रतीक्षा है!

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  3. ''यहाँ सुखी कौन है,कृष्णें कुन्ती बुआ ,मां गांधारी ,कर्ण ,तात भीष्म ,या दुर्योधन सुखी है ,जिसने कभी माता-पिता की स्नेह दृष्टि नहीं जानी ? ''

    :-o
    दुर्योधन के लिए ये कभी सोचा ही नहीं..इतने सालों में...कभी नहीं सोचा के दुर्योधन भी किसी नज़रिए से दुखी है.............बहुत अचरज हो रहा है खुद पर...!

    ''विवाह ?वह साँसारिक बंधन है कनु ,तुमसे मैं ऐसा नाता नहीं चाहती जो सांसारिक व्यवहारों के निर्वाह के लिये जोड़ा गया हो .मन चाहे कहीं और हो ,शरीर को निभाना पड़े वह संबंध मुझे नहीं चाहिये .तन से न हो भले ,मन लीन रहे वह अखंड प्रेम चाहती हूँ. ''.......क्या बात कही है एकदम राधा वाली...:):)..मन ki जाने कौन कौन सी पीड़ाएँ ये पढ़ मुस्कुराने लगीं...:):)

    ''मैं जिन परिस्थतियों की उपज हूँ उनका भारीपन मुझे हल्का नहीं होने देता''
    ''इतना भार चढ़ा हो जिस पर कृष्णें , वह कैसे उत्सव का जीवन जी सकेगा ,कैसे चैन से बैठ पाएगा !.''
    ''सब के संताप का कारण बन गया मैं !''

    :-o:-o
    हे भगवान्! प्रतिभा जी.....
    :(
    मैंने इन पहलुओं पर तो कभी भी भूले से भी गौर नहीं किया है........i mean...२८ वर्षों कि जिंदगी में कभी भी नहीं सोचा ऐसा.....श्रीकृष्ण को कोई दुःख भी हो सकता है.....??? ऐसा सोच भी कैसे सकती थी मैं ना..?? और तो और वक़्त बेवक्त...जिंदगी के उतार चढ़ावों से व्यथित होकर भगवानजी से खूब लड़ाई भी की हैं......मगर कभी भी आज तक उनसे ये नहीं पूछा कि..,''आप ठीक हैं या नहीं...''
    और आज आपका लेख पढ़कर सन्न हूँ एकदम......जाने सोने जाउंगी तो कहाँ कहाँ कि बातें ज़ेहन में डेरा डालेंगी.......:/:/

    खैर...मैं विषय से भटक गयी फिर से.....आपके शब्द मुझे नयी दुनिया में ले गए....जहाँ से ढेर सारी आत्मग्लानि और ह्रदय पर भार लेकर लौटी हूँ......:'(

    बहुत बहुत अच्छा लिखा है प्रतिभा जी.....आप तो मतलब एकदम ही धन्य हैं...जो ऐसा सोचतीं तो हैं ही हैं.....साथ ही साथ मेरे जैसे मूरख लोग आपके शब्दों की वजह से लाइन पर आते हैं ......

    आपका लेख भगवान् को और करीब से जानने पर मजबूर करता है...मैंने हमेशा ही अपने दुःख दर्द श्रीकृष्ण को सौंपे हैं.......अब ध्यान रखूंगी...उनकी मन:स्थिति का भी...:)

    लाईये आपका हाथ जिससे ये लेख लिखा.......क्यूँ?? अरे ! उसे माथे से लगाना है प्रतिभा जी.....आपने मुझे ''श्रीकृष्ण'' की पीड़ा समझाई है...जिसका -0.0000001 % भी मैंने कभी जाना नहीं और न ही ऐसा सोचा कभी..

    चलते चलते एक हलकी फुलकी बात,,,:)
    पूरे संवाद के दौरान...कृष्ण के रूप में ''नितीश भारद्वाज'' और पांचाली के रूप में ''रूपा गांगुली'' ही दिखाई दिए.....(आपको पता ही होगा..दोनों ने बी.आर.Chopra की महाभारत में ये भूमिकाएं निभायीं थीं.....)

    ab शुभरात्रि !!

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  4. शकुन्तला बहादुर30 जनवरी 2011 को 11:02 pm बजे

    प्रतिभा जी,
    आज ही तीनों भाग बड़े मनोयोग से पढ़े हैं,मन में गहरे उतर गये हैं।
    अगले भाग की प्रतीक्षा में मन आतुर हो रहा है।पाँचाली की त्रासदी तो जग विदित है और कृष्ण के करिश्मे भी, किन्तु कृष्ण के जीवन की विवशता और उनके मानसिक संवेगों-अनुभूतियों को गहरे चिंतन के साथ, आपने बड़ी कुशलता से उकेरा है। अपूर्व चित्रण!!!बधाई!!!

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  5. अपूर्व (कम से कम मेरे लिए), अलौकिक, अद्भुत।
    कृष्ण को जानना, मानना अलग बात है, और कृष्ण में भीगना अलग।
    इस लेखन पर बारम्बार साधुवाद।
    प्रतीक्षित रहूँगा सदैव..

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