रविवार, 4 जुलाई 2010

किसी को मत बताना

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मुझे बाजार में घूमना बडा अच्छा लगता है ।क्या करूँ सार दिन घर में बैठे-बैठे ऊब जाती हूँ ,तो शाम को इच्छा होती है घूमूँ -फिरूँ ,खूब चीजें देखूँ ,मन में आये तो थोडी बहुत खरीद भी लूँ।अभी तो बच्चों -कच्चों का भी झंझट नहीं।पर इनका अजीब हिसाब है ।कहते हैं,''क्या रोज-रोज बाजार घूमना ।वही दुकाने ,वही चाजें ,तुम्हें जाने क्या मजा आता है वही सब देखने में!'
क्या मजा आता है? अब इन्हें क्या बताऊँ ! अरे नई-नई बातें सुनाई पडती हैं,नये-नये लोग आतेजाते दिखाई पडते हैं।कैसी साडियाँ चल रही हैं,किस तरह के ब्लाउज सिले जा रहे हैं,स्वेटरों में क्या-क्या फैशन आये हैं,कौन सी पिक्चरें लगी हैं,इस सबका ज्ञान कितना बढ जाता है।दुकानों पर चीजों का भाव पूछने में भी फायदा ही है ।चार लोगों के बीच किसी चीज की चर्चा चले तो झट् से कह दो ,'नहीं फलानी चीज तो आजकल इतने की है' या ' अब तो इस तरह का चलन आ गया है ।' कितना रौब पडता है दूसरों पर । और, कोई चीज जब खरीदनी हो तो दुकानदार पर रोब मार सकते हैं ' अरे, यह तो इतने दाम की है ,या पिछले महीने तो इतने की थी ।फिर उसकी अन्धाधुन्ध दाम बताने की हिम्मत नहीं पडेगी ।चार जगह जीजें देखना अच्छा ही रहता है ,चाहे लेनी न भी हों ।
इसी बात पर मेरी इनकी अक्सर झक्-झक् हो जाती है ।इनका विचार है,जब दुकान पर चीजों के दाम पूछे हैं तो कुछ खरीदो जरूर ।ऐसा तो कोई नियम मैंने कहीं पढा नहीं ।और फिर दुकानदार होते किस लिये हैं ! जब दस चीजें दिखायोंगे तब कहीं एकाध बिकेगी ।
मजा तो तब आता है जब बीस पच्चीस दिन के लिये नुमायश लगती है।रात के एक-एक बजे तक भीड-भडक्का ,रोशनी ,गाने ! इस महीने में दिन रुकते कहाँ हैं भागते चलते हैं।पहले का एक महीना उसके इन्तजार में और बादवाला उसकी मीठी यादों के खुमार में निकल जाता है ।
पर इन्हें पटाना जरा मुश्किल काम है ।
अबकी तो नुमायश बडे गलत समय पर लगी । महीने की समाप्ति हो रही थी तब शुरू हुई ।इसे तो महीने की पहली तरीख से लगना चाहिये । बच्चे अभी नहीं हैं तो क्या हुआ,आने-जानेवाले तो हैं ही नाते रिश्तेदार भी काफी हैं।हमारा घर नुमायश के पास है ,तो लोगों का आना-जाना रोज ही लगा रहता है।खर्चा पूरा है -महीने के आखीर में वही ठन्-ठन् गोपाल ।
पच्चीस से नुमायश शुरू हो रही थी;मैने इनसे कहा ,'चलो आज उद्घाटन देख आयें!,खाद्य मंत्री आ रहे हैं ।'
' 'अरे, खाद्य मंत्री आ रहे हैं !उनका नुमायश से क्या संबंध ?'
ये तो मुझसे इतने ज्यादा पढे-लिखे हैं ! इन्हें कौन समझाये कि मंत्री पद ही ऐसा है,जिसका सब से संबंध है ।जब, जहाँ ,जो मंत्री मिल जाय उसका उपयोग करो ।कोई नियमावली तो है नहीं ,न ही विषय बँटे हैं।अगर खाद्य मंत्री नुमायश का उद्घाटन करेंगे तो ये क्या रोक लेंगे ?
पर इनसे कहे कौन?इनके सामने तो मूर्ख बन जाने में ही फायदा है ।जब ये अपने ज्ञान का प्रदर्शन करते हैं तो मै प्रभावित होने का दिखावा करती हूँ.बीच में एकाध ऊलजलूल सवाल भी कर देती हूँ ,जिससे मेरी अनभिज्ञता टपके ।ये खूब रुचि ले-ले कर समझाते हैं,बीच -बीच में मेरी अल्प बुद्धि पर तरस खाते जाते हैं ।और इसके बाद कई ऐसे काम इनसे खुशी से करा लेती हूँ ,जो इनके बेमन के जोते हैं ।
नुमायश के उद्घाटन में इन्हें बिल्कुल मजा नजीं आया ।' पूरी दुकाने भी तो नहीं लगीं ' ,'इनका कहना है।पर एकदम से पूरी दुकाने लगी देख लो तो बाद के कई दिनों तक नुमायश देखने की उत्सुकता ही नहीं रहती ,बात करने के टॉपिक ही खत्म हो जाते हैं ।
कई स्टाल तो ऐसे हैं कि रोज देखो तो भी जी न भरे ।जैसे मछलियोंवाला ,और वो कई तरह के आईनोंवाला जिसमेंअपने ही रूप तरह-तरह के दिखाई पडते हैं -कहीं मोटा ,कहीं एकदम पतला ,कहीं टेढा-मेढा और ऐसी-ऐसी अजीब बेमेल सी शक्ल जो अपनी हो भी और अपनी नहीं भी लगे ।शादी के बाद जब ये पहली -पहली बार नुमायश दिखाने ले गये तो शीशे में निराली शक्लें देख-देख मेरी तो हँसी ही न रुके ।ये बार -बार मुझे आँखें दिखायें और इनकी शक्ल शीशे में और जोकरनुमा लगे तो मेरी हँसी थमने के बजाय और उमडने लगे ।ये एकदम नाराज हो पडे तो मोटे और गोलवाले शीशे में इनका नया रूप देख कर मेरी खिलखिलाहट बेकाबू हो गई ।मैं मुँह पर पल्ला रख कर बाहर भागी । ये बाद में बडी देर तक नाराज होते रहे ।
तो बार-बार मेरे कहने पर इन्होंने कहा,'देखो मेरे पास सिर्फ पच्चीस रुपये हैं ,और अभी महीने के पाँच दिन बाकी हैं ।नुमायश के मौसम में वैसे भी कोई न कोई रोज ही आ धमकता है।'
'मैं बाजार से कुछ नहीं मँगाऊँगी ,नाश्ता घर पर तैयार कर लूँगी ।और वैसे भी आज तो कुछ खरीदना भी नहीं -बस चूडी और चाट !चूडियाँ तीन-चार रुपये की आ जायेंगी ।और चाट का क्या ,एक ही एक पत्ता खा लेंगे ।मन ही मन मैं खुश थी -चलो पाँच दिन और पच्चीस रुपये !
बमुश्किल तमाम हम लोग घर से निकले ।बडी भीड थी ,मंत्री जी जो आ रहे थे ।उद्घटन भाषण में रक्खा ही क्या था।हमने घूमने का लग्गा लगाया ।
'भीड़ काफी है ,साथ-साथ चलो ,' इन्होंने कहा ,'नहीं तो एक दूसरे को ढूँढना मुश्किल हो जायगा ।'
''मुश्किल काहे की ?तुम्हें तो मैं मील भर दूर से पहचान लूँ ।और फिर घर भी तो बहुत दूर नहीं।ढूँढने से अच्छा जो अकेले रह जाय वो घर ही पहुँच जाय।'
घूमते-घूमते मैं ज़रा रंगीन बल्बोंवाला बिजली का चक्कर देखने रुक गई ,फिर जो सिर उठाकर देख तो ये नदारद !अरे अब क्या होगा !मैंने चारों ओर देखा ।वो रहे ,मैं तो बेकार परेशान हो गई ।देखा ?कह रहे थे स्वेटर पहनूँगा और चलतेचलते सूट डाँट आये !
'अरे रुकिये न,कहाँ भागे जा रहे हैं ,' मैंने आवाज़ लगाई ।
इन्होंने पलट कर देखा और चाल धीमी कर दी।मैं लपक कर पास पहुँच गई ।आगे चलते देखा ये फिर दूसरी तरफ चलने लगे हैं ।मैंने हाथ पकड कर खींचा ,'कहाँ जा रहे हो /चलो ,उस चावाले से चाट खायेंगे ।'
वे चुपचाप बढ़ आये ।मैंने ही चाटवाले से पत्ते बनाने को कहा ।वे बिजली के खंभे की आड में खडे चुपचाप खाते रहे ।मैं चाट खाती खाती चहलपहल देखती रही ।आज ये मुझसे इतना बच क्यों रहे हैं !कुछ फरमायश न कर दूँ इस डर से ?खैर एक-एक पत्ता चाट ही तय हुई थी ।
'अच्छा तुम इसका पेमेन्ट करो ,तब तक मैं उधर चूडियाँ देख लूँ ।'
मैने जल्दी से चाट खतम की और चूडीवाले की तरफ बढ़ी।चूड़ियाँ छाँट ही रही थी कि उनकी ओर ध्यान गया वे फिर दूसरी तरफ़ आगे लिकले जा रहे हैं ।आज इन्हे हो क्या गया है?मैं फुर्ती से बढ़ी और पीछे से जाकर कोट का कोना पकड़ लिया ।
ये आने लगे ।मेरी निगाहें अपनी छाँटी हुई चूडियों पर लगी हुईं थीं, कहीं चूडीवाला कुछ गडबड न कर दे ।'
'चूडियाँ छाँट कर रखी हैं ,देर नहीं लगेगी ।पैसे दे दो फिर आगे चलें ।'
उनेहोने चुपचाप सौ का नोट निकाला।
देखा, घर पर मुझसे कह रहे थे पच्चीस रुपये ही बचे हैं ।कैसा निकलवा लिया ! !छिपाये पडे थे।नाट देख कर तो मेरा हौसला दूना हो गया।मन ही मन कुढ रहे होंगे ,इसीलिये कुछ बोल नहीं रहे ।अभी तो अपने मन की कर लूँ,घर जाकर मना लूँगी ।
अरे,.ये क्या हुआ ?मेरी चप्पल ती तल्ली नीचे रह गई और पाँव ऊपर आ गया ।उफ़ , इसकी तो बद्दी टूट गई ।कब से जुडा-जुडा कर पहन रही हूँ ,आज बीच रास्ते में धोखा दे गई ।मैं वहीं रुक कर खडी हो गई-एक चप्पल पहन कर चलूँ दूसरी वहीं छोड दूँ ? टूटी चप्पल हाथ में उठा लूँ ?दोनो चप्पलें पकड़ कर नंगे पाँव चलूँ ?कुछ समझ में नहीं आ रहा था।चारो ओर लोग ही लोग और मैं टूटी चप्पल को घूरे जा रही थी ।
भीड़ आवाज देना बेकार समझ आगे बछते इनके कोट की बाँह पकड कर मैंने रोका ,'देखो न,मेरी तो चप्पल टूट गई ।अब क्या करूँ ?और तुम बढे जा रहे हो ।मेरे पास तो पैसे भी नहीं जो रिक्शा लेकर घर चली जाऊँ ।'
'खरीदनी हैं ?'इनने अजीबसी आवाज में कहा ।
'और कैसे चलूँगी फिर ?अच्छा तुम .ये ले जाओ और इसी नाप की ले आओ। ' मैंने अपनी टूटी चप्पल रूमाल में बाँध कर देते हुये कहा, 'तब तक मैं फव्वारे पास उस बेन्च पर बैठी हूँ।'
चलते-चलते मैंने आवाज दे कर कह दिया ,'जरा जल्दी आना ,मैं नंगे पाँव हूँ ।'
जूते चप्पल खरीदने के मामले में इनकी पसंद अच्छी है ।.खूब मन से खरिदवाते हैं ,दस पाँच रुपये का मुँह नहीं देखते;कहते हैं ,'ज्यादा चलेगी तो कीमत वसूल हो जायेगी ।'
खाली बैठे-बैठ मन नहीं लग रहा था ।चारों ओर फेरीवाले घूम रहे थे।मैंने चूहे-बिल्ली की दौडवाला खिलौना और तारों से बुना एक अगर बत्ती स्टैंड खरीद लिया।उससे कहा ,'पैक कर दो ,अभी बाबूजी आयेंगे तो पैसे मिल जायेंगे ।'
कण्डी ले आती तो अच्छा रहता।पैकेट मैने अपने पास रख लिये।उस ठेले पर कैसे बडे-बडे सेव बिक रहे हैं,सोचा ले लूँ अगर ठी भाव लगा दे ।फिर विचार बदल दिया -दागी टिका देते हैं ये लोग ! मुझे वैसे भी पहचान नहीं है ।
इतने में कपडों का ठेला निकला ,मुझे याद आ गया - भतीजे के मुंडन पर कुछ सामान तो देना ही पडेगा ,क्यों न मौके से कुछ न कुच करीदती चलूँ ।पन्द्रह रुपये में एक सूट तय किया।तभी इन्होने चप्पलों का पैकेट लाकर डाल दिया ।
'ले आये ?'मैने बडी खुशी से पैकेट खोला ।बहुत सुन्दर चप्पलें थीं ।मैंने पहन लीं और पुरानीवाली पैक कर दीं ।
'इन लोगों का पेमेन्ट और कर दो ,मैंने कुछ सामान खरीदा है-कुल बीस रुपये!'
बीस का नोट मेरे हाथ में आ गया ।
देखा, गुस्से के मारे मुँह से कुछ बेल नहीं रहे हैं ,सोच रहे होंगे ,कित्ता खर्च कर दिया ।अगरबत्ती रोज दरवाजे में खोंचते फिरते थे , ले लिया तो घर में एक चीज हो गई ।खुद भी तो सौ का नोट छिपाये पडे थे ।खैर, देखा जायेगा ।अभी रास्ते में न बोलें तो न सही ,बेकार चख-चख करने से क्या फायद !
तीनों पैकेट मैंने इनकी ओर बढा दिये ,इन्पोंने चुपचाप पकड लिये ।
'चलो अब रिक्श कर घर चलें ,' मैने कहा और रिक्शेवाले को इशारा किया ।
'पचहत्तर पैसे लगेंगे ।'
मैने स्वीकार के लिये सिर उठाकर इनकी ओर देखा ।अरे ये क्या !मेरी ते सिट्टी-पिट्टी गुम !ये तो कोई और आदमी है ।
'आप ?आप कित्ती देर से मेरे साथ हैं ?'
'आप ही ने तो बुलाया था।'
'तो आपने कहा क्यों नहीं /'
'आपने कुछ बोलने का मौका ही कहाँ दिया मुझे !ये कर दो ,वो कर दो कहती रहीं ।'
'तो आप चले क्यों नहीं गये ?'
'मैं खिसकने को होता था तो आप बाँह पकड कर खींच लेती थीं ...फिर लोग और तमाशा देखते ।'
'मै समझी ,मैं समझी....' आगे मैं कह नहीं पाई कि मैं उसे क्या समझी थी ।
'मुझे मालूम है।अच्छा अब मैं चलूँ?'
हाथ के पैकेट रिक्शे पर रख वह घूम कर चल दिया ।मैं भौंचक्की सी खडी थी ।उसे चलते देख मुँह से निकला ,'लेकिन यह सब !अरे सुनिये तो ..'
'क्या रिक्शे पैसे नहीं होंगे,' वह घूम कर बोला और एक रुपया रिक्शेवाले को पकडा कर तेजी से आगे बढ गया ।
'बैठिये न !', रिक्शवाला ताज्जुब से मुझे देख रहा था ।
क्या करूँ अब मैं ?सारे पैकेट फें दूँ ,लेकिन चप्पल कैसे ...।किसी तरह रिक्शे पर बैठ कर घर आई।रास्ते भर चिन्ता सताती रही ।ये क्या कहेंगे !पैसे तो मेरे पास थे नहीं ,इतनी चीजें कहाँ से खरीदीं ?हाय ,राम अब मैं क्या करूँ ?मैंने कुछ जानबूझ कर तो किया नहीं ।ये आदमी भी कितने अजीब होते हैं !पहले उससे कुछ नहीं बोला गया !
चाबी मेरे पास ही थी।रिक्शा रुका तो पडोस के घर से इनके बोलने की आवाज सुनाई दी ।रिक्श्वाले ने पच्चीस पैसे वापस किये तो मैंने उसे ही दे दिये । दूसरे के पैसे रखना मुझे ठीक नहीं लगा ।
जल्दी से घर खोलकर मैंने सारा सामान अल्मारी में छिपा दिया ।इनके सामने सारी बात कहने की हिम्मत तो मेरी है नहीं।
पता नहीं वह कौन आदमी था ,क्या सोचता होगा ?होगा ,मुझे उससे क्या मतलब !मैं तो अब उसके सामने भी नहीं पडना चाहती ।
सारा सामान अल्मारी में कपडों के पीछे छिपा रक्खा है,किसी को चाहिये तो मेरे घर आकर खुशी से ले जाय ।मैं भी निश्चिन्त हो जाऊँ।
लेकिन एक शर्त है- किसी को कुछ न बताये ; इन्हें तो बिलकुल नहीं।

10 टिप्‍पणियां:

  1. हा हा!! गजब कर डाला आपने...अब तो फ्री की चप्पल फटकारते घूमिये, अब काहे का डर...वो आदमी तो अब आपको देखते ही दौड़ लगा देगा ...सामने पड़ने का तो सवाल ही नहीं. :)

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  2. प्रतिभा सक्सेना5 जुलाई 2010 को 10:27 am बजे

    अच्छा बता दिया समीर जी,आपने,अब निश्चिन्त हुई मैं!
    -प्रतिभा.

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  3. शकुन्तला बहादुर5 जुलाई 2010 को 8:50 pm बजे

    अन्त भला सो भला। कहीं आपको उस भले आदमी के पीछे पीछे उसके घर तक पहुँच कर अपनी ग़लतफ़हमी पता चलती ,तब तो
    बुरी हालत होती। वैसे मज़ा तो ख़ूब आया होगा-चाट,चूड़ियाँ,चप्पल!! चपत पड़ी उस बेचारे पर।

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  4. हा हा हा...
    रोचक संस्मरण
    भीड़ में गुम चेहरे खिलखिलाती यादें दे गये।

    प्रणाम
    सादर।

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  5. बहुत ही मजेदार एवं रोचक संस्मरण...।
    आज की बात होती तो लेने के देने पड़ जाते...ना जाने इतने कर्ज की वसूली किस किस रूप में होती।

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