अम्माँ जी को आते देख मैने सिर पर पल्ला डाला ही था कि उन्होने टोक दिया ,' बहू ,सिर ढाँकने की कोई जरूरत नहीं । अरे ,सिर ढाँकने के दिन अब हमारे हैं कि तुम्हारे ? '
मैं एकदम अचकचा गई , क्या कुछ गलती हो गई मुझसे ?
पूछ बैठी ,' हम तो शुरू से ढाँकते आ रहे हैं ,अम्माँ जी ! पहले तो घूँघट --- ।'
' कहा न अब कोई जरूरत नहीं है ।'
लगता है बहुत नाराज हैं !
मै तो हमेशा ध्यान रखती हूँ । हाँ ये कनु जब गोदी मे होता है तो हाथ- पाँव चलाता रहता है और मै खुला सिर ढँक नहीं पाती ।
' अम्माँ जी ,मै तो यहाँ घर के बाहर भी सिर पर पल्ला लिये रहती हूँ ।आप के पोते के मारे भले ही कभी ---।'
' सो सब हमे पता है, पर अब दताए देती है कि इस सब की कोई जरूरत नहीं ।'
' लेकिन अभी तक तो आपको कायदा पसन्द था --?'
भहुओं के सिर ढके रहने ,सबके सामने चारपाई पर न बैठने , दब ढँक कर रहने आदि को कायदा कहा जाता है ।
' ज्यादा इन्दरा गान्धी बनने की कोसिस मत करो बहू ,इतना तो तुम भी समझती हो कि सिर ढाँकने का क्या मतलब है ।'
मेरी कुछ समझ मे नहीं आया । सिर ढाँकने का भला क्या मतलब हो सकता है ? आदि काल से भरतीय बहुएँ यही सब करती आई हैं । अभी तक तो अम्मा जी को कायदा पसंद था ,खुद भी साड़ी की किनार माथे से एक इंच आगे निकाले रखती थीं -कहती थी इससे चेहरे की आब बनी रहती है। ' बच्चों के मारे या काम -धाम मे हम बहुओं का कभी पल्ला इधर-उधर हो जाय़ तो कहती थीं ,' हमें का ,तुम उघारी नाचो !'
और आज ?
मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ा । वे समझ गईं । स्पष्ट करने लगीं ,' देखो बहू ,पालिटिक्स करने के दिन तुम्हारे हैं कि हमारे ? अरे तुम कल की आई अभी से सिर ढँक कर पालिटिक्स करोगी और हम सिर खोले देखते रहेंगे ?'
मै चकित सी उनका चेहरा देख रही थी । उन्होने आगे समझाया ,' इन्दरा जी जब पालिटिक्स मे आईं ,उनका सिर ढँका रहने लगा ।अब सोनिया जी को ही देख लो ,सिर पर पल्ला डाले कैसी शालीनता की मूरत लगती हैं !जनम से विदेसी पर पालिटिक्स का पूरा कायदा करती हैं ।'
अम्मा जी की प्रखरता मैं आज देख पाई थी ।
वे आगे बताने लगीं ,' कायदा पसन्द था जब की बात और थी । सबन के घर यही होता था । तब मेहरारुन के लै तैंतीस परसेन्ट रिजरवेशन की बात नहीं थी ।'
मेरे ज्ञान चक्षु खुलने लगे! अम्मा जी के सिर का पल्ला धरे-धीरे खिसकता हुआ ढाई इ़ञ्च पीछे यानी कानों तक आ गया था !शरीर पर हल्के-फुल्के गिनती के आभूषण रह गए थे ,अब तक वे पहनने-ओढ़ने की बड़ी शौकीन थीं ! मै उसी पुरानी दुनिया मे खोई रही ,बाहर तो बाहर , घर मे क्या परिवर्तन हो रहा है यह भी मुझे नहीं दिखाई दिया ? अम्मा जी की तो इस बीच भाषा ही बदल गई थी १ इस परिवर्तन की शुरुआत काफ़ी पहले हो गई थी - वे चाय के साथ अख़बार पढने लगीं थीं ,मोहल्ले की महिलाओं के साथ बात-चीत के उनके टापिक बदल गए थे ।
हमारी अम्माजी आठवीं जमात तक पढ़ी है उस जमाने की जब लड़कियों को पढ़ाने की जरूरत नहीं समझी जाती थी ,उनके मामा की शादी निकल आई तो इम्तहान नहीं दे पाईं ।अपनी क्लास टीचर की चहेती थीं ,लड़कियों पर उनका रौब था ।
अब उनकी बातों के विषय होने लगे हैं -बिट्टन देवी को काला अक्षर भैंस बराबर ,पर अपने वार्ड से सभासद के चुनाव में खड़ी हो रही हैं -अपनी इसकूल जाएवाली बिटिया से अक्षर लिखना सीख रही हैं ,अब अपना नाम लिख लेती हैं । हमारे सामने बियाह के आई परसादी की बहू घूँघट उतार कर अपने लै वोट माँगने सारे दिन बाहर घूमती है ,भासण देना भी सीख गई है ।
अम्मा जी भी हैणडलूम की किनारीदार साड़ी खरीद लाई हैं ,कहती हैं ,'पब्लिक के बीच अइसे ही अच्छा लगता है ।'
'देखो दुलरिया अब सिरीमती सियादुलारी कहाती हैं ! ढंग से कपड़े पहनने का सहूर नहीं था - अब करारी सूती साड़ी पे मैचिंग ब्लाउज़ पहनती हैं -क्या ठसके हैं !
चुनाव का मौसम है ! नगर सभासद के चुनाव मे कई महिलाएँ खड़ी हुई हैं । बिट्टन देवी कल रास्ते मे मिल गईं बोलीं , 'हमका वोट देना १'
अम्माँ मुझसे बोलीं ,' न पढ़ी न लिखी !इनका कउन वोट देगा !'
अम्माजी के बेटे ने कहा ,' वो जीत जाएँगी तुम देख लेना !पार्टी की रिज़र्व सीट है ! राबड़ी देवी कौन लिखी-पड़ी है , मुख्यमंत्री बनी बैठी हैं ।'
हालात अचालक ऐसे बदले कि हमने कभी सोचा भी नहीं था । ।बिट्टन देवी सीढियों से लुढ़क पड़ीं , पाँव की हड्डी टूट गई । लोगों को हमारी अम्मा से योग्य कोई जँचा नहीं । तमाम कोशिशों कर उनकी जगह नामाँकन करवा दिया ।
जीतना तो था ही!अम्मा जी इलेक्शन जीत गईं । गट्ठर भर फूल मालाओं से लाद दिया गया उन्हें । उन्होने पहले ही मुझसे कह दिया था ,'बहू ममारे भासण लिखने की जुम्मेदारी तुम्हारी ।'
' हम तो तैयार हैं ,अम्मा जी , लेकिन पिताजी ज्यादा अच्छी तरह --'
' ना बहू ,अब उनका मुँह नहीं तकना.। सिर झुकाए-झुकाए घर की चाहारदीवारी मे इतनी जिन्दगी गुजार दी ,अब सिर उठाने का मौका आया है --- बस तुम नेक मदद कर देना , फिर तो धीरे- धीरे हम भासण भी सीख जाएंगी । पर सुरू से अपनी हँसी हो अइसा नहीं करेंगी ।'
अपने पहले वक्तव्य पर सफल होकर बहुत खुश हुईं ,मुझे गले लगा लिया ,' अब देखो,बहू हम कैसी मुस्तैदी ले काम कराती हैं ।अभै तक तो इनके असिस्टन बने रहे --'
'क्या ,अम्मा जी ?'
'अरे वही जो हमेसा काम कराते हैं ।'
'एसिस्टेन्ट ?'
'हाँ,हाँ ,वही ।'
देसी मुहावरों का तो पहले ही उनके पास भणडार था अब अंग्रेजी के शब्दों का भी खुल कर प्रयोग करने लगी हैं ।
हमारे सलवार- कुर्ता पहनने पर भी अब कोई रोक नहीं रही । लोगों से कहती हैं, 'हमने तो बहुअन - बिटियन मे कभी फ़रकै नहीं माना ।'
ताज्जुब तब ङुआ था जब उस दिन पूजा के मौके पर अम्मा जी ठेठ देसी लहज़े मे बोलने लगीं ,' अरे हमार बिटवा -बहुरिया नीक रहैं ! ऊ न करित तो हम ई सब कहां कर पाइत ?'
इनहोने फ़ौरन टोका ,'अम्मा ,अब तुम माननीय सदस्य हो ठेठ देसी भाषा भूल जाओ !'
'अरे ,बिटवा तुम लोगन के साथ इहै भासा बोल के हमार जिउ जुड़ात है ।'
हालात कितने भी बदल जायँ वे रहेंगी हमारी अम्माजी ही !
उनकी की पूछ बहुत बढ़ गई है । रोज ही से समारोहों के आमंत्रण मिलते हैं । दो-चार लोग उन्हे पूछते चले आते हैं । वे मुस्कराती हुई ,गौरव से भरी दालान मे कुर्सी पर जा बैठती हैं ।सबकी सहायता करने को तत्पर रहती हैं । कल ही कामवाली को समझा रही थीं ,'----देखो , कम तुम भी नहीं हो ।जाहिल औरतन की तरह उघटियाँ - पैचियाँ बन्द करो । काहे रोज लड़ाई पे तुली रहती हो ?'
और तो और अब बाबूजी की दृष्टि भी बदल गई है । अम्माजी के आत्म- विशवास भरे चेहरे को ऐसे देखते हैं जैसे किसी नई महिला के दर्शन कर रहे हों। अब कदर होने लगी है , घर की मुर्गी दाल बराबर नहीं रहेगी ।
मैं एकदम अचकचा गई , क्या कुछ गलती हो गई मुझसे ?
पूछ बैठी ,' हम तो शुरू से ढाँकते आ रहे हैं ,अम्माँ जी ! पहले तो घूँघट --- ।'
' कहा न अब कोई जरूरत नहीं है ।'
लगता है बहुत नाराज हैं !
मै तो हमेशा ध्यान रखती हूँ । हाँ ये कनु जब गोदी मे होता है तो हाथ- पाँव चलाता रहता है और मै खुला सिर ढँक नहीं पाती ।
' अम्माँ जी ,मै तो यहाँ घर के बाहर भी सिर पर पल्ला लिये रहती हूँ ।आप के पोते के मारे भले ही कभी ---।'
' सो सब हमे पता है, पर अब दताए देती है कि इस सब की कोई जरूरत नहीं ।'
' लेकिन अभी तक तो आपको कायदा पसन्द था --?'
भहुओं के सिर ढके रहने ,सबके सामने चारपाई पर न बैठने , दब ढँक कर रहने आदि को कायदा कहा जाता है ।
' ज्यादा इन्दरा गान्धी बनने की कोसिस मत करो बहू ,इतना तो तुम भी समझती हो कि सिर ढाँकने का क्या मतलब है ।'
मेरी कुछ समझ मे नहीं आया । सिर ढाँकने का भला क्या मतलब हो सकता है ? आदि काल से भरतीय बहुएँ यही सब करती आई हैं । अभी तक तो अम्मा जी को कायदा पसंद था ,खुद भी साड़ी की किनार माथे से एक इंच आगे निकाले रखती थीं -कहती थी इससे चेहरे की आब बनी रहती है। ' बच्चों के मारे या काम -धाम मे हम बहुओं का कभी पल्ला इधर-उधर हो जाय़ तो कहती थीं ,' हमें का ,तुम उघारी नाचो !'
और आज ?
मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ा । वे समझ गईं । स्पष्ट करने लगीं ,' देखो बहू ,पालिटिक्स करने के दिन तुम्हारे हैं कि हमारे ? अरे तुम कल की आई अभी से सिर ढँक कर पालिटिक्स करोगी और हम सिर खोले देखते रहेंगे ?'
मै चकित सी उनका चेहरा देख रही थी । उन्होने आगे समझाया ,' इन्दरा जी जब पालिटिक्स मे आईं ,उनका सिर ढँका रहने लगा ।अब सोनिया जी को ही देख लो ,सिर पर पल्ला डाले कैसी शालीनता की मूरत लगती हैं !जनम से विदेसी पर पालिटिक्स का पूरा कायदा करती हैं ।'
अम्मा जी की प्रखरता मैं आज देख पाई थी ।
वे आगे बताने लगीं ,' कायदा पसन्द था जब की बात और थी । सबन के घर यही होता था । तब मेहरारुन के लै तैंतीस परसेन्ट रिजरवेशन की बात नहीं थी ।'
मेरे ज्ञान चक्षु खुलने लगे! अम्मा जी के सिर का पल्ला धरे-धीरे खिसकता हुआ ढाई इ़ञ्च पीछे यानी कानों तक आ गया था !शरीर पर हल्के-फुल्के गिनती के आभूषण रह गए थे ,अब तक वे पहनने-ओढ़ने की बड़ी शौकीन थीं ! मै उसी पुरानी दुनिया मे खोई रही ,बाहर तो बाहर , घर मे क्या परिवर्तन हो रहा है यह भी मुझे नहीं दिखाई दिया ? अम्मा जी की तो इस बीच भाषा ही बदल गई थी १ इस परिवर्तन की शुरुआत काफ़ी पहले हो गई थी - वे चाय के साथ अख़बार पढने लगीं थीं ,मोहल्ले की महिलाओं के साथ बात-चीत के उनके टापिक बदल गए थे ।
हमारी अम्माजी आठवीं जमात तक पढ़ी है उस जमाने की जब लड़कियों को पढ़ाने की जरूरत नहीं समझी जाती थी ,उनके मामा की शादी निकल आई तो इम्तहान नहीं दे पाईं ।अपनी क्लास टीचर की चहेती थीं ,लड़कियों पर उनका रौब था ।
अब उनकी बातों के विषय होने लगे हैं -बिट्टन देवी को काला अक्षर भैंस बराबर ,पर अपने वार्ड से सभासद के चुनाव में खड़ी हो रही हैं -अपनी इसकूल जाएवाली बिटिया से अक्षर लिखना सीख रही हैं ,अब अपना नाम लिख लेती हैं । हमारे सामने बियाह के आई परसादी की बहू घूँघट उतार कर अपने लै वोट माँगने सारे दिन बाहर घूमती है ,भासण देना भी सीख गई है ।
अम्मा जी भी हैणडलूम की किनारीदार साड़ी खरीद लाई हैं ,कहती हैं ,'पब्लिक के बीच अइसे ही अच्छा लगता है ।'
'देखो दुलरिया अब सिरीमती सियादुलारी कहाती हैं ! ढंग से कपड़े पहनने का सहूर नहीं था - अब करारी सूती साड़ी पे मैचिंग ब्लाउज़ पहनती हैं -क्या ठसके हैं !
चुनाव का मौसम है ! नगर सभासद के चुनाव मे कई महिलाएँ खड़ी हुई हैं । बिट्टन देवी कल रास्ते मे मिल गईं बोलीं , 'हमका वोट देना १'
अम्माँ मुझसे बोलीं ,' न पढ़ी न लिखी !इनका कउन वोट देगा !'
अम्माजी के बेटे ने कहा ,' वो जीत जाएँगी तुम देख लेना !पार्टी की रिज़र्व सीट है ! राबड़ी देवी कौन लिखी-पड़ी है , मुख्यमंत्री बनी बैठी हैं ।'
हालात अचालक ऐसे बदले कि हमने कभी सोचा भी नहीं था । ।बिट्टन देवी सीढियों से लुढ़क पड़ीं , पाँव की हड्डी टूट गई । लोगों को हमारी अम्मा से योग्य कोई जँचा नहीं । तमाम कोशिशों कर उनकी जगह नामाँकन करवा दिया ।
जीतना तो था ही!अम्मा जी इलेक्शन जीत गईं । गट्ठर भर फूल मालाओं से लाद दिया गया उन्हें । उन्होने पहले ही मुझसे कह दिया था ,'बहू ममारे भासण लिखने की जुम्मेदारी तुम्हारी ।'
' हम तो तैयार हैं ,अम्मा जी , लेकिन पिताजी ज्यादा अच्छी तरह --'
' ना बहू ,अब उनका मुँह नहीं तकना.। सिर झुकाए-झुकाए घर की चाहारदीवारी मे इतनी जिन्दगी गुजार दी ,अब सिर उठाने का मौका आया है --- बस तुम नेक मदद कर देना , फिर तो धीरे- धीरे हम भासण भी सीख जाएंगी । पर सुरू से अपनी हँसी हो अइसा नहीं करेंगी ।'
अपने पहले वक्तव्य पर सफल होकर बहुत खुश हुईं ,मुझे गले लगा लिया ,' अब देखो,बहू हम कैसी मुस्तैदी ले काम कराती हैं ।अभै तक तो इनके असिस्टन बने रहे --'
'क्या ,अम्मा जी ?'
'अरे वही जो हमेसा काम कराते हैं ।'
'एसिस्टेन्ट ?'
'हाँ,हाँ ,वही ।'
देसी मुहावरों का तो पहले ही उनके पास भणडार था अब अंग्रेजी के शब्दों का भी खुल कर प्रयोग करने लगी हैं ।
हमारे सलवार- कुर्ता पहनने पर भी अब कोई रोक नहीं रही । लोगों से कहती हैं, 'हमने तो बहुअन - बिटियन मे कभी फ़रकै नहीं माना ।'
ताज्जुब तब ङुआ था जब उस दिन पूजा के मौके पर अम्मा जी ठेठ देसी लहज़े मे बोलने लगीं ,' अरे हमार बिटवा -बहुरिया नीक रहैं ! ऊ न करित तो हम ई सब कहां कर पाइत ?'
इनहोने फ़ौरन टोका ,'अम्मा ,अब तुम माननीय सदस्य हो ठेठ देसी भाषा भूल जाओ !'
'अरे ,बिटवा तुम लोगन के साथ इहै भासा बोल के हमार जिउ जुड़ात है ।'
हालात कितने भी बदल जायँ वे रहेंगी हमारी अम्माजी ही !
उनकी की पूछ बहुत बढ़ गई है । रोज ही से समारोहों के आमंत्रण मिलते हैं । दो-चार लोग उन्हे पूछते चले आते हैं । वे मुस्कराती हुई ,गौरव से भरी दालान मे कुर्सी पर जा बैठती हैं ।सबकी सहायता करने को तत्पर रहती हैं । कल ही कामवाली को समझा रही थीं ,'----देखो , कम तुम भी नहीं हो ।जाहिल औरतन की तरह उघटियाँ - पैचियाँ बन्द करो । काहे रोज लड़ाई पे तुली रहती हो ?'
और तो और अब बाबूजी की दृष्टि भी बदल गई है । अम्माजी के आत्म- विशवास भरे चेहरे को ऐसे देखते हैं जैसे किसी नई महिला के दर्शन कर रहे हों। अब कदर होने लगी है , घर की मुर्गी दाल बराबर नहीं रहेगी ।
हम्म......पोस्ट तो अच्छी लगी....और सबसे विशिष्ट है......अम्मा जी ki भाषा.....आपने कितनी कुशलता से लिखा है उनके संवादों को.....एकदम आपकी पोस्ट पर शब्दों पर खूब खूब स्नेह उमड़ आया........:)
जवाब देंहटाएंवैसे...ये संस्मरण था कि एक कहानी जैसा कुछ...:( ??
क्यूंकि कुछ अधूरा सा लगता रहा....अम्मा जी में आया परिवर्तन तो मिला पढने को..मगर इसके पहले वो कैसीं थीं.....क्या सोचतीं थीं....वो आपने ज़्यादा क्यूँ नहीं लिखा..?? :(
खैर.....
:) मुझे तो आपकी निपुणता बेहद पसंद आई...भाषा पर आपकी पकड़ बहुत बढ़िया है.......अविनाश कह रहा था...कि ''दीदी, उनके लोकगीत पढ़िएगा..''....मैं बस एक ही पढ़ पायी थी...कुछ बादल करके शीर्षक था....मगर ये वाली पोस्ट ने साबित किया आप वाकई बहुत अच्छे लोकगीत लिखतीं होंगी.....:)
badhayi is पोस्ट ke liye....:)