रविवार, 10 जनवरी 2010

एक शृंखला - नर-नारी संबंधों की


*
 स्त्री-पुरुष दाम्पत्य के दो चरम रूप हैं -पार्वती और सीता. एक शक्ति है ,प्रज्ञा है, विलक्षण व्यक्तित्व सम्पन्ना! जो अनुचित लगता है, सिर उठा कर विरोध करती है .और दूसरी, यद्यपि कृतित्व में वह भी पीछे नहीं, तेजस्विता में कम नहीं, पर उसे ऐसा निरूपित किया गया जिससे नारीत्व ही बेबसी और दैन्य का पर्याय बन गया .पुरुष की कृपा और दया का पात्र ,अति निरीह -व्यक्तित्व हीन. पत्नी है अगर तो सब कुछ सहना और रो-रो कर पति से कृपा-याचना करना!
पर दूसरी को कभी रोते नहीं पाया.,विषम परिस्थिति में भी नहीं. डट कर लोहा लेनेवाली है वह  -चाहे महिषासुर  हो चाहे पिता की यज्ञ-भूमि .पति ने कभी उसका तिरस्कार नहीं किया- अपने मन के अनुसार चलने पर भी. वह सजग और सचेत है समझती है अपने हठ और पति की विवशता को .पछताती है ,साथ ही दोष का निवारण करने को तत्पर होती है .एक करुणामयी है दूसरों पर करुणा करनेवाली .
 दाम्पत्य-सम्बन्ध का एक अन्य रूप है - राधा और कृष्ण ,परस्पर गहन अनुराग से योजित(पारिवारिक संबंधों के अतिरक्त).यों सामाजिक संबंधों की लंबी शृंखला रही है,जिनमें एक सबसे महत्वपूर्ण है मित्रता का . यद्यपि समाज में यह सहज स्वीकृत नहीं, यहाँ नारी तिरस्कार और लांछन का पात्र बन जाती है. लेकिन वह भी समाज में विद्यमान है.एक दूसरे को समझते हुये ,मनोबल बढ़ाते हुये ,ज़रूरत के समय निस्वार्थ भाव से सहयोग देते हुए यह सम्बन्ध ,परस्पर विश्वास पर आधारित हैं  ,यथा द्रौपदी और कृष्ण !
परकीया प्रेम में कितनी उमंग और ऊष्मा होती है , जाननेवालों ,कहने-सुननेवलों को भी रँगे बिना नहीं छोड़ती . मेरी सासु-माँ मगन होकर गाया करती थीं -
'कर मोहन सों यारी ,हे राधा प्यारी !'
जब मोहन ने खर्चा भेजा चार मोहर एक सारी .
सारी पहन राधा मँदिर में भैठीं ङँस रहे लोग -लुगाई !
जब मोहन ने पाती भेजी लिख दिया 'प्यारी प्यारी' !
लोक-मन ने उनके प्रेम को कभी स्वकीया की मान्यता नहीं दी, इसीलिये इस गीत में पत्र और खर्चा भेजने की बात हैं .हर युग अपनी मान्यताओं के अनुरूप अभिव्यक्ति देता रहा और यह संबंध स्वकीया से घनिष्ठ और विश्वसनीय होकर सर्व-स्वीकृत हो गया. उसकी उज्ज्वलता  और निष्ठा के कारण उसे  मान मिला उसे पूजनीय हो उठा. अपनी पत्नियों के साथ कृष्ण के मन्दिर कहीं हों या न हों राधा के साथ वे हर मंदिर और हर गीत में जुड़े रहे हैं .उनका प्रेम शारीरिकता और सामाजिकता की सीमा से परे था .परकीया-भाव  या मित्र-भाव जो जैसा माने !
राधाकृष्ण के प्रेम को कितने रंगों में, कितने रूपों में अंकित कया गया है .वास्तव में राधा-कृष्ण का सामीप्य केवल बाल्यवस्था का ,उनके मधुपुरी जाने से पूर्व का रहा था. उस की भंगिमा भिन्न है. परस्पर विलग रह कर वह गहराता जाता है .उसके बाद एक बार दोनों की भेंट तब होती है प्रभास तीर्थ में ब्रज भूमि से गोपों की एक टोली भी आई है .
यहाँ पत्नी और सखी का अंतर सामने आता है .रुक्मिणी अधिकार संपन्ना है विवाहिता ,पटरानी ,संतान की जननी .पर कहीं बहुत विवश है .इतना ही विवश राधा का पति रहा होगा ,यद्यपि उसका वर्णन कहीं नहीं मिलता .पत्नी जानना चाहती है ,पति की बचपन की सखी ,जो आज भी उसके मन में विराजती है ,कैसी है.एक साधारण गोप-बाला कैसे इतनी महत्वपूर्ण हो गई ?
वह कृष्ण से पूछती है 'बालापन' की जोरी के विषय में .वे इशारा करते हैं - वह ठाड़ी उन जुवति वृन्द मँह नीलवसन तन गोरी .'
लोकाचार में रुक्मिणी कहाँ पीछे थीं! राधा से प्रीतिपूर्वक भेंटीं 'बहुत दिनन की बिछुरी जैसे एक बाप की बेटी. '(- सूरदास)
पर सौतिया डाह तो सगी बहनों में भी द्वेष भर देता है.
रुक्मिणी ने राधा को निमंत्रित किया -मन में कहीं था कि कहाँ गाँव की छोरी राधा और कहाँ द्वारकाधीश कृष्ण के ऐश्वर्य की अधिकारिणी ,पट्टमहिषी -रुकमिणी! देख कर चौंधिया जायेंगे ब्रज-बाला के नयन!
कृष्ण ने बाल-सखी के आगमन के उपलक्ष्य में पुर की नवीन साज-सज्जा करवाई .उसे रथ पर बैठा कर पुर का भ्रमण जो करवाना था .आतिथ्य के प्रति रुक्मिणी अति सजग रहीं -कृष्ण से पूछ-पूछ कर राधा की रुचियाँ जानी .
रानियों की दृष्टि उसकी की वेष-भूषा पर टिकी है -सतरँग लहंगा ,नीली ओढ़नी ,कानों में कर्ण फूल ,कंठ में वनफूलों की माला पहने है- राधा! मुख पर सौम्य शान्ति और परम तुष्टि !उसके अभौतिक लगते रूप के आगे रानियों के रूप-शृंगार फीके पड़ गये हैं.
टीस सी उठी रुक्मिणी के हृदय में .आठों पटरानियों की देख-रेख में छप्पन भोगों की रसोई बनी .राधा भोजन करने बैठी .कृष्ण की चाव भरी दृष्टि राधा के मुख पर! उसके मुख के ग्रास का स्वाद क्या श्याम को आ रहा है !
'तुम भी खाओ न मोहन ,बस मुझे ही खिलाते रहोगे !'
ऐसे चाव से कभी पत्नियों को खिलाया था !
नहीं ,पत्नी तो पति को खिला कर स्वयं तृप्त पाती है ,और श्याम राधा के भोग से स्वयं तृप्त हो रहे हैं .
कृष्ण ने कहा था तुम पत्नी हो सब अधिकार प्राप्त प्रिये ,राधा अतिथि है. आई है चली जायेगी ,क्या ले जायेगी तुम्हारा?
रुक्मिणी ने गहरी साँस भरी - क्या ले जायेगी ?तुम्हारे मन का जो कोना सुरक्षित है उस के लिये ! वहाँ मैं कहीं नहीं  .केवल वही विराज रही है ! इस भाव भरे अभिनन्दन के लिये क्या नहीं निछावर किया जा सकता !सौभाग्यशालिनी है राधा कि कृष्ण के सारे एकान्त क्षण उसे समर्पित हैं .
कृष्ण के साथ द्वारका -भ्रमण कर लौटीं राधा . भोजन कर शैया पर विराजीं ,रुक्मिणी स्वयं दुग्ध का पात्र लेकर पहुँचीं ,'लो बहिन ,स्वामी को अब तक स्मरण है कि रात्रि-शयन से पूर्व तुम दुग्धपान करती हो. कहीं चूक न हो जाये उन का विशेष आग्रह है .'
मनमोहन का उल्लेख सुन आत्मलीना राधा मुस्कराईं और पात्र हाथ में ले झटपट दूध पी लिया ,रुक्मिणी स्वयं खड़ी थीं रिक्त पात्र लेने के लिये .
रात में रुक्मिणी ने पाया कृष्ण के चरणों में छाले पड़े है .
'क्या बिना उपानह पैदल पुरी घुमाते रहे उन्हें, जो चरणों छाले डाल लाये ?' वाणी में किंचित तीक्ष्णता थी .
पत्नी की मुख-मुद्रा देखते रहे कुछ पल वे ,उनके मन मे क्या चल रहा है वह नहीं अनुमान पाई .
'तुमने राधा को इतना तप्त दुग्ध पिला दिया ?
सारे किये- धरे पर पानी फिर गया हो जैसे - रुक्मिणी एकदम अवाक् ,हतप्रभ .
आगे पूछने -कहने को बचा ही क्या था !
द्रौपदी के साथ कृष्ण का संबंध भी नारी-पुरुष संबंधों का एक नया आयाम प्रस्तुत करता है .
पाँच-पति होते हुये भी द्रौपदी बिलकुल अकेली पड़ गई, बल्कि इस कारण और भी अकेली पड़ गई थी .सबका भिन्न स्वभाव ,न अपने मन की बात एक अकेले से कह सकती है ,न सबसे .उस पर अधिकार सब का था पर कर्तव्य की बार पाँच सम्मतियाँ आड़े आ जाती थीं. सारे के सारे एक से एक निराले स्वभाव के .युधिष्ठिर अति शान्त ,भीम अति उग्र ,नकुल और सहदेव कुशल और सुन्दर पर द्रौपदी के अनुरूप पति कहने में के लिये विचार करना पड़ेगा .एक अर्जुन ही थे जिनकी कामना द्रौपदी ने की थी .पर विवश थे दोनों जीवन के अधिकांश समय एक दूसरे विलग रहने के लिये .द्रौपदी और कर्ण का संबंध भी विलक्षण है . प्रेम और द्वेष एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, समझ में आने लगता है . एक दूसरे को सामने पाते ही दोनों जैसे आक्रोश से भर उठते हैं ,दसरे को नीचा दिखाये बिना चैन नहीं पड़ता .और फिर पश्चाताप का दंश चैन नहीं लेने देता .एक दूसरे को देख कर जैसे सुप्त कामना जाग उठती हो और वंचित रह जाने का दोष दूसरे के हिस्से .अनुरूप थे दोनों - अग्नि-संभवा द्रौपदी और सूर्यपुत्र कर्ण -दोनो प्रखर ,अपराजेय और अभिमानी . समझौता करना दोनो के स्वभाव में नहीं . जीवन भर दाह झेलने को अभिशप्त ! द्रौपदी, कर्ण को अपमानित कर स्वयं दग्ध होती रही और द्रौपदी को वस्त्रहीन करने की प्रेरणा देनेवाला कर्ण भी कभी आत्मग्लानि से छुटकारा न पा सका.
कैसा युग था कि द्रोणाचार्य जैसा गुणी दारिद्र्य से जूझ रहा था. द्रौपदी की विडंबनापूर्ण जीवन का एक और कारण .द्रुपद के मन में प्रारंभ से द्रौपदी के लिये अर्जुन की वर के रूप में कामना रही ,जिसकी सहायता से वे द्रोण से अपना प्रतिशोध ले सकें. प्रबल धनुर्धर ,कुंती-पुत्र के वर्णन मात्र सुन सुन कर आकर्षित हुई होगी वह -पर यह विशेषतायें तो दोनो कुन्ती-पुत्रों की थीं .इस दृष्टि से कर्ण और अर्जुन समतुल्य भले ही कहे जायँ ,पर कर्ण का ही पल्ला कुछ भारी पड़ता है कवच-कुण्डल और सूर्य जैसा तेजस्वी व्यक्तित्व . स्वयंवर कहाँ था ,सारे यत्न अर्जुन को जामाता बनाने के थे . और द्रौपदी ने चलती चर्चाओं से प्रभावित होकर अपना मन बना लिया .उसने न अर्जुन को देखा था न कर्ण को .स्वयंवर में जिसके लिये मानसिक रूप से तैयार थी वह नहीं आया ,और आ रहा था वह जिसके विषय में बस यही जाना कि उपेक्षित सूतपुत्र है. और उसने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण निर्यण ले डाला .
घटना क्रम में जो सामने आया, प्रत्यक्ष रूप से जो देखा, वह व्यक्तित्व उपेक्षणीय नहीं था , तन मन पर छा जानेवाला था . अर्जुन से रत्ती भर भी घट कर नहीं,कुछ बढ़ कर ही ! और कुछ निराली विशेषतायें जो उसके समूचे व्यक्तित्व को दुर्निवार बनाती थीं .पांचाली जीवन भर असंतोष के दाह से दग्ध होती रही .हर बार कर्ण को देख वह आक्रोश से भर जाती कोई बोध जाग्रत होता और उसे लगता वह छली गई है .पर किसने छला समझ नहीं पाती !पिता द्रुपद ,माता कुन्ती ?और इसी ऊहापोह में कर्ण को अपमानित करने का कोई अवसर नहीं छोड़ती . कुण्ठा स्वयं की, कर्ण का कोई दोष नहीं था ,अकारण उस पर आक्रोश निकालती रही,उसे नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी .राजाओं की सभा में कर्ण अकारण अपमानित हुआ.फिर बार-बार द्रौपदी से मर्म पर चोट करनेवाले वचन सुनता रहा .आखिर क्यों करती है मेरे साथ ऐसा ? जल रहा था वह अपमान की ज्वाला में .उसे परवश पाने पर वह संयत न रह सका.एक बार में सारे हिसाब चुका डाले .लेकिन क्या शान्ति मिली कर्ण को ?उसके जैसे गहन-गंभीर पुरुष से किसी को यह अपेक्षा नहीं रही होगी .निरीह को नीचा दिखाना उस परम धीर और मनस्वी के स्वभाव में नहीं था . अपमान के दाह ने विवेक कुण्ठित कर दिया था ,फिर अर्जुन उसका प्रतिद्वंद्वी !उसके प्रति भी आक्रोश था .कह डाला ऐसा कुछ जिसकी चुभन से वह स्वयं भी कभी छुटकारा न पा सका और जिसके क्रियान्वित होने पर वह कभी स्वयं को क्षमा न कर सका . दोनों एक दूसरे को चोट पहुँचा कर स्वयं पीड़ा झेलते अपराध-बोध से तिक्त मनस्थिति झेलने को विवश हैं . दूसरे को कष्ट पहुँचा स्वयं आहत होते हैं . स्वयं को धिक्कारते हैं भीतर ही भीतर .
द्रुपद के प्रतिशोध की ज्वाला से प्रकटी थी द्रौपदी और कुन्ती को कलंक से बचाने को दाँव पर लगा दिया गया कर्ण का जीवन .दोनो में से कोई सहज जीवन नहीं जी पाया . दूसरों के दाँव पर लगे रहे और कुण्ठाओं के बीच जीने को विवश रहे .कतनी दारुण यंत्रणा झेलते हुये पांचाली ने जीवन जिया होगा और मुँह खोल कर किसी से कुछ कह भी नहीं सकती . बस एक है जिससे उसका कोई संबंध नहीं लेकिन जिसने जीवन भर उसका साथ दिया उसके दुखों को समझा .वह थे कृष्ण- मित्र ,सखा जो उसे समझ पाता है ,जिसके आगे वह अपना मन पूरी तरह खोल सकती है !
कृष्ण का जीवन निष्काम कर्मयोग का पर्याय रहा .सब के बीच रह कर भी अलिप्त और सारे आरोपों ,अभियोगों, शापों को स्वाकार करते हुए भी शान्त संयत ,सहज. जब सच सामने आया होगा कि महादानी कर्ण कुन्ती का पुत्र- है ,तो दोनो को कैसा झटका लगा होगा. इतना बड़ा धोखा ! निरर्थक हो गया सारा जीवन .'अरे कर्ण' ,द्रौपदी के मन में पुकार उठी होगी- 'मैं भ्रम में पड़ी अनर्थ पर अनर्थ करती गई .तुम सबसे बड़े पुत्र थे,सबसे अधिक वरेण्य ,सर्वाधिक मान्य, .हृदय चीख चीख कर विरोध करता रहा और मैं अपने अहंकार में ,औरों की कही हुई बातों से निर्देशित होती रही .तुम्हें लेकर हर समय मन में एक द्वंद्व चलता रहा .एक दारुण महाभारत निरंतर मेरे भीतर . मुझे पाला गया केवल प्रतिशोध का साधन बनने के लिये.'
अब तक जो जो किया ,जो जाना जो माना सब बेमानी लगने लगा होगा .
महाभारत अठारह दिनों में बीत गया पर कर्ण और द्रौपदी के भीतर जो महाभारत छिड़ा था उसका समाधान किसके पास था ?सारे विश्वास टूट गये ,आदर्श खंडित हो गये ,निष्ठायें झूठी सिद्ध हुईं .जिया हुआ पूरा जीवन व्यर्थ लगने लगा .अब तक जो जो कुछ किया ,जो जाना जो माना सब बेमानी लगने लगा होगा .जो किया गलत निकला.जीवन का महाभारत बीतते-बीतते सब पर पानी फेरता चला गया .
फिर आता है विवश पत्नीत्व !ज़बर्दस्ती विवाह कर पत्नी धर्म निभाती नारियाँ .कभी बूढ़े से, कभी अंधे से, कभी नपुंसक से बलात् ब्याह दी गईं .लिप्सापूर्ति के लिये अनुचित शर्तों पर सत्यवती को विवाह हेतु विवश किया गया तो उस के पिता ने अपनी शर्तें लगा दीं. इससे पहले गंगा ने भी उनसे अपनी शर्तो पर विवाह किया था . मनोविकारों की विकृति रूप शान्तनु से औऱ उनके आगे तक देखने को मिलता है . अपनी लिप्सा की संतुष्टि के लिये युवा पुत्र को अपने प्राप्य से वंचित होते चुपचाप देखते रहना . फिर चित्रांगद और विचित्रवीर्य जैसी संतान .भीष्म काशिराज की कन्याओं का हरण कर लाये और अपने नपुंसक भाइयों को सौंप दिया .तब की अरुचि और जगुप्सा की कीमत पर बनाये हुये संबंध से उत्पन्न हुये विकृत पुत्र- अंधे धृतराष्ट्र और विवर्ण पाण्डु  .धृतराष्ट्र की पत्नी ने आँखें पर पट्टी बाँध ली .जिनका दाम्पत्य जीवन स्वस्थ न रहा हो उनकी संताने शारीरिक अथवा मानसिक रूप से कुंठित न रहें तो आश्चर्य ही होगा . विकृत दाम्पत्य की संतानें विकार-ग्रस्त हो जाती हैं . माता पिता ने जिनका मुख भी नहीं देखा ,जिन के बचपन का आनन्द नहीं लिया वे पुत्र वात्सल्य से वंचित रह गये,श्रेष्ठ संस्कार कहाँ से पाते ! यह सब देख-जान कर गांधार नरेश शकुनि पर क्या बीतती होगी ? कैसा लगता होगा ?आपने राज-पाट से दूर बहिन के स्नेह में डूबे ,उसकी संतानों को स्नेह की छाया देने वे आये थे वे .उन्हें और सब से क्या, उनका उद्देश्य अपने भागिनेयों का हित संपादित करना था !न्याय की बात कहाँ ,जब गुण-संपन्ना सुन्दरी बहिन के साथ ही न्याय नहीं हुआ. धृतराष्ट्र की पत्नी बन कर जीवन के कितने सुन्दर अनुभवों से सदा वंचित रही, .किसी ज़रूरतमंद स्त्री को ब्याहा होता तो वह कृतज्ञ भी होती और प्रसन्न भी .
समझ में नहीं आता कि स्त्री को हमेशा विवश बनाये रखने की कोशिश क्यों की जाती है ,उसे परमुखापेक्षी देखने में शायद पुरुषोचित अहं की तृप्ति होती हो !उसके के साथ रोना और आँसू क्यों जोड़ दिये गये हैं? सीता को रोते हुये दुःखी दिखाना ,मूवीज़ में ,कहानियों में भई हमेशा रोती धोती औरतें .माँ है तो रो रही है, पत्नी है तो दुख सहन किये जा रही है,बहन है तो त्याग करना उस का कर्तव्य है .रोना और सहना उनकी नियति है- क्यों हँसती हुई प्रसन्न महिलायें क्या अच्ठी नहीं लगतीं? अगर संसार में रोने का ठेका स्त्री से ले लिया जाय और हमेशा उसे हँसते हुये और प्रसन्न रहने की सुविधा दी जाय तो संसार अधिक सुन्दर, अधिक संतुलित और मन-भावन हो जायेगा .
शंकर की गृहिणी साक्षात् अन्नपूर्णा हैं .ऐसे विचित्र परिवार में जहाँ एक वाहन वृषभ, दूसरा सिंह ,तीसरा मयूर और चौथा मूषकऊपर से पति तन में सर्प लपेटे. ऐसी गृहस्थी चलाना उन्हीं की सामर्थ्य है . भोजन भी देखिये, एक पुत्र के छःमुख ,दूसरा गजमुख, विशाल उदर धारे , पति को कोई चिन्ता नहीं जब चाहेगा वैरागी बन जायेगा. शुरू में तो गौरा विमूढ़ रह गई होंगी! शिकायत किससे करें? सबने मना किया था ,माँ तो बारात लौटाने पर उतारू हो गईं थीं ज़िद तो ख़ुद ने पकड़ी थी,' विवाह करूँगी तो केवल शंकर से नहीं तो कुँवारी रहूँगी .' और यहां पति कुछ सुननेवाला नहीं ,समाधि लगा कर बैठ गया तो कब जागेगा कुछ पता नहीं.अपने तन की चिन्ता नहीं गज-खाल लपेट भीख माँगने में विश्वास करनेवाला. झोली ले निकल जायेगा, साथ में भूत-प्रेतों की टोली- उससे तो पार नहीं पा सकती गौरा . ऊपर से भाँग धतूरे का लती -ज़रा सी खुशामद में आशुतोष बनकर बिना विचारे वरदान देने वाला -सम्भालती-निपटती फिरें बाद में पार्वती !
पर उन्होंने ही कहाँ कामना की थी सांसारिक सुख-वैभव की .पहले से जानती थीं उसे. जिस गौर-पुरुष में समाहित होकर अवगुण भी गुण बन गये थे ,जिस महान् विराट् और निस्पृह व्यक्तित्व के सम्मुख देव-दनुज नतशिर थे , जिसने कभी अपने हित का नहीं सोचा ,कभी किसी से छल नहीं किया, किसी से कुछ अपेक्षा नहीं की उस शंकर को ,उस विषपायी को जो सृष्टि का भयानक हालाहल पी डालने में समर्थ है, पी कर भी कण्ठ में रोके रहता है कि कहीं विश्व पर उसका विषम प्रभाव न हो जाये .उसका निर्लिप्त स्वभाव और असीम संयम ,बहुत भाता है पार्वती को. उसके दुर्निवार आकर्षण से इतना अभिभूत कि सब-कुछ छोड़कर चली आई .और वही पति बहुत सम्मान करता है . अपनी प्रिया को आधे तन में धारण कर लिया है ,उसके अतिरिक्त अन्य कोई नारी कभी उससे नहीं जुड़ी ,किसी रूप ,किसी जन्म में नहीं.इसीलिये हर नारी पार्वती के समान पति की प्रिय बनने की कामना करती है.
अनुरूप पति पाकर धन्य हो गया जीवन .उनका दाम्पत्य आदर्श है .शंकर ने कभी पत्नी की अवमानना नहीं की .अनुकूल-प्रतिकूल ,सभी परिस्थितियों में उनका साथ दिया .उनसे अनन्य प्रेम किया .कभी कोई व्यवहार उचित न लगने पर भी उनका तिरस्कार नहीं किया ,क्योंकि उन्हें उन पर पूरा विश्वास है .परीक्षा लेने के लिये सती ने सीता का रूप धर कर राम को भ्रम में डालना चाहा .शंकर को उचित नहीं लगा .पर पत्नी के सम्मान में कोई कमी नहीं आने दी .वामांग में नहीं बैठा सके तो सम्मुख आसन दिया , उद्विग्न और दुखी न हों इसलिये कथा सुनाने लगे ,लेकिन बहलावे में आनेवाली नहीं थीं पार्वती .समझ गईं. व्यथित मन कथा-वार्ता से कैसे बहले.जो हो गया वह तो हो गया था परिणाम से बचा नहीं जा सकता  .लेकिन कोई मनोमालिन्य नहीं ,कहा-सुनी ,क्रोध,तिरस्कार कुछ नहीं .कुछ नहीं कहा शंकर ने .पत्नी का अनादर नहीं किया .इसी सज्जनता के कारण सती की आत्मग्लानि दूनी हो उठती है .ऐसा जीवन वह झेल नहीं पाती और पुनः एक बार अपने मन की कर अपने पति के मान के लिये पिता के यज्ञस्थल पर आत्मदाह कर लेती है .
शंकर जैसा पति एवं अनन्य प्रेमी - प्रिया की मृत देह को कंधे पर डाल उन्मत्त सा धरती आकाश मझाता भटकने लगता है .संयम के बाँध टूट जाते हं ,वैराग्य हवा हो जाता है मर्यादायें एक ओर धरी रह जाती हैं, रह जाता है एक व्याकुल प्रेमी जिसकी प्रिया उसे दूर हो जाने की संभावना मात्र से अपने प्राणों पर खेल गई है . उनके दाम्पत्य के विभिन्न रूपों के दर्शन मन में झंकार विस्मय  जगाने के साथ साथ बहुत सहज भी लगते हैं .कहीं लोक पक्ष को उजागर करते, कहीं चेतना के ऊँचे और सूक्ष्म धरातलों को समाहित करते हुये.
एक और घटना, गौरा-महेश्वर के दाम्पत्य की - शिव नटराज हैं तो गौरी भी नृत्यकला पारंगत !एक बार दोनों में होड़ लग गई कौन ऐसी कलाकारी दिखा सकता है जो दूसरे के बस की नहीं और इसी पर होना था हार-जीत का निर्णय .नंदी भृंगी और शिव के सारे गण चारों ओर खड़े हुये ,कार्तिकेय ,गणेश -ऋद्धि,सद्धि सहित विराजमान ,कैलास पर्वत की छाया में हिमाच्छादित शिखरों के बीच समतल धरा पर मंच बना .वीणा वादन हेतु शारदा आ विराजीं ,गंधर्व-किन्नर वाद्ययंत्र लेकर सन्नद्ध हो गये .दोनों प्रतिद्वंदी आगये आमने-सामने -और नृत्यकला का प्रदर्शन प्रारंभ हो गया .दोनों एक से एक बढ कर !कभी कुमार शिव को प्रोत्साहित कर रहे हैं ,कभी गणेश पार्वती को .ऋद्ध-सिद्धि कभी सास पर बलिहारी जा रही हैं कभी ससुरजी पर !गण झूम रहे हैं -नृत्यकला की इतनी समझ उन्हें कहाँ ! बस, दोनों की वाहवाही किये जा रहे हैं .हैं भी तो दोनों धुरंधर !अचानक शिव ने देखा पार्वती मंद - मंद मुस्करा रही हैं.उनका ध्यान नृत्य से हट गया,गति शिथिल हो गई सरस्वती . विस्मित नटराज को क्या हो गया . बहुयें चौकन्नी- अब तो सासू जी बाज़ी मार ले जायेंगी .'
'अरे यह मैं क्या कर रहा हूँ ',शंकर सँभले ,
पार्वती हास्यमुखी .
'अच्छा ! जीतोगी कैसे तुम और वह भी मुझसे ?'शंकर नृत्य के नये-नये दाँव दिखाते  अचानक हाथों से विचित्र मुद्रा प्रदर्शित करते हुये जब तक गौरा समझें और अपना कौशल दिखायें ,उन्होने ने एक चरण ऊपर उठाते हुये माथे से ढुआ लिया !
नूपुरों की झंकार थम गई,  सुन्दर वस्त्रभूषणों पर ,जड़ाऊ चुनरी ओढ़े ,पार्वती विमूढ़! दर्शक विस्मित ! यह क्या कर रहे हैं पशुपति ! शंकर हेर रहे हैं पार्वती का मुख -देखें अब क्या करती हो ?
ये तो बिल्कुल ही बेहयाई पर उतर आये पार्वती ने सोचा .वह ठमक कर खड़ी हो गईं -'बस ,अब बहुत हुआ . मैं हार मानती हूँ तुमसे !'
पीछे कोई खिलखिला कर हँस पड़ा .सब मुड़कर उधऱ ही देखने लगे .त्रैलोक्य में विचरण करनेवाले नारद जाने कब आ कर वहाँ खड़े हो गये थे.
बस यहीं  नारी नर से हार मान लेती है .
लेकिन यह गौरा की हार नहीं ,शंकर की विवशता का इज़हार है !
*



3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुगठित लेख है...पढ़ते-पढ़ते पता नहीं चला कब अंत हो गया.....इसमें से बहुत सी बातें मुझे पता भी नहीं थीं.........आपने जितना कुछ कर्ण के लिए कहा...उसे पढ़ बड़ा सुकून मिला।

    द्रौपदी और श्रीकृष्ण की मैत्री को नए सिरे से जाना पहचाना....द्रौपदी को इतनी तकलीफें भी हो सकती हैं.....ऐसा सोचा नहीं कभी...न ही किसी से इस बात पर चर्चा हुई.....यूँ भी द्रौपदी से जुड़ाव कम रहा है...मगर है तो नारी....और मैं भी....सो दुःख ही हुआ जानकार और खुद पर रोष..

    रुक्मिणी-श्रीकृष्ण-राधा.....इनमे तो मैं बहुत confused थी....कभी दिल किसी की तरफ भागता तो दिमाग दूसरे की तरफ...अंतत: श्रीकृष्ण ही जीत गए....तीनों लोकों के स्वामी और अपने ही प्रेम के लिए तड़पते रहे.....वही महसूस करते होंगे खुद को सबसे असहाय और विवश।


    माँ पार्वती और भगवान् शिव....हम्म...abhi लिखते लिखते hi ये विचार आया...कि क्या ज़रूरी है...देवी देवताओं के उदारहण ऐसे ही हैं...जो हम देखते सुनते आयें हैं......? ये इतिहास ...पुराण...वेद....संभवत: पुरुष प्रधान समाज ने अपने अनुसार चित्रित किये हों......??
    हो सकता है...माता सीता ने अग्नि परीक्षा का बहुत विरोध किया हो.....पर बलात उन्हें अग्नि में ढकेल दिया गया हो.......पर संसार को कुछ और बतलाया गया।और भी बातें इसी तरह से बदल दीं गयीं हो..?? और जो आज स्त्रियों के लिए अनुकरणीय बन गयीं....क्यूंकि आदर्श नारियों ने ये अपने समय में किया था।

    आपकी ही बात याद आई......आपने ही कहा ना....''इस भौतिक संसार में कहाँ ढूँढ रहे हो सूर, चिरंतन लीला है यह पर मनोमय-कोश की .कौन समझाए तुम्हें !यहां कुछ नहीं मिलेगा ..नहीं ! कभी नहीं ''
    :)

    ''समझ में नहीं आता कि स्त्री हमेशा विवश बनाये रखने की कोशिश क्यों की जाती है ,उसे परमुखापेक्षी देखने में शायद पुरुषोचित अहं की तृप्ति होती हो !उसके के साथ रोना और आँसू क्यों जोड़ दिये गये हैं।''

    :(
    ये बात आप ही के ब्लॉग पर कहीं और भी पढ़ी थी....तब भी इतना ही क्रोध आया था...हम नारियां भी तो बार बार यही दोहराते रहते हैं.....क्यूँ नहीं रानी लक्ष्मीबाई...रानी दुर्गावती....का उदारहण देते.......?

    अब ज़माना और है ना...अब स्त्री और पुरुष की संज्ञा खोखली हो गयीं हैं....शिक्षा ....हम्म चलिए अच्छा ये बात नहीं दोहराती...:)

    मगर आप यदि किसी ऐसी वीरांगना को भी शामिल करतीं इस श्रंखला में....जिसने har रिश्ते से ऊपर उठ कर इतिहास बनाया हो.... .तो बहुत अच्छा होता..

    :)

    खैर...
    खूब सारी बधाई...आपके ये लेख मेरी अज्ञान हृदयभूमि पर वर्षा के जल की तरह बरस रहे हैं....और मैं हर लफ्ज़ बुद्धि से सोख रही हूँ...मन में सहेज रही हूँ......

    (आपके लेखन को समझने की ही सामर्थ्य नहीं अभी तो.....कभी कुछ गलत कह दूं..समझ लूं..तो भूल सुधार कर दीजियेगा आप ही...)

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  2. Ji.......aapka ye lekh poorn hai...kuch bhi shesh nahin likhne ko.....
    maine abhi fir se padha to paaya...wo kya hai jahan bhi stri bechari ho jaati hai..wahin khoon khaul uthta hai ....so josh mein kuch keh gayi thi.....:( kshamaaprarthi ~!

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  3. क्या सचमुच में कर्ण से प्रेम करती थीं द्रौपदी?? इसकी सचाई जानने के लिए आप fundabook.com वेबसाइट पर प्रकाशित इस लेख को पढ़ सकते हैं https://goo.gl/RIwhLB

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