विश्वासहीनता लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
विश्वासहीनता लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

कथांश -1.

*
जीव ,  जब विगत संस्कार समेट संसार-यात्रा पर निकलता है तब अंदाज़ तो होता होगा किस-किस राह गुज़रना है - जनम तीर्थ-यात्रा बनेगा या वृथा चक्कर ?पता नहीं कितने-कितने स्थलों से हो कर जाना है .यहाँ आ कर भले ही विस्मृत कर बैठे, पाथेय तदनुसार पहले ही साथ धर दिया गया होगा - कब क्या झोली से निकल आए ख़ुद को पता नहीं .
मूंज की खरारी खाट पर  चित्त लेट कर आसमान को ताकना  अच्छा लगता है. संध्याओं के नित नये  रूप, रात्रियों में मखमली श्याम रंग पर टँके ,चमकीले सितारे.हर रात का अपना संभार .अमावस की मखमली श्यामता धीर-धीरे उजलाने लगती है .दूज की तनु चंद्र-रेखा ,शंकर के सघन जटा-जूट पर शोभायमान ज्योति-रेखा सी ,पंचमी की श्यामा सुन्दरी ,अष्टमी की सहज सहनीय सिन्दूराभ सौम्या  , दशमी की चंदनवर्णी तरुणा और पूर्णिमा की दुग्ध-धवल गौरांगना  ,सबका अपना पृथक् व्यक्तित्व .शुक्ल और कृष्ण पक्षों की आचार-संहिता के अनुरूप  वेष -भूषा धारण किए - हर ऋतु में एक नई रूप-सज्जा  से अलंकृत. 
 अष्टमी की  रात्रियों में गौर और श्यामता के मध्य  की सहज सहनीय उज्ज्वलता मुझे माँ की याद दिलाती है ,  उनके शीतल आँचल का आभास मिलता है, माँ की वात्सल्यमयी दृष्टि
नहलाती सी ,मन एक विलक्षण शान्ति से भर जाता है .
मैं जब पाँच वर्ष का था, मुझे ले कर  वे चली आईं थीं .कुछ दिन भाई के पास रह कर काटे .घर की सम्हाल की ,ट्रेनिंग की ,और प्राइमरी स्कूल में शिक्षिका लग गईं.तब माँ ,मामा के साथ रहती थीं .मामी काम-धाम में निपुण नहीं थीं .माँ ने सब संभाल लिया था,और  मामी निश्चिंत  .मुझे अजीब लगता ,पहले हम लोग आते थे तो मामी दौड़-दौड़ कर खातिरदारी करती थं -पिता दो-चार दिन रह कर लौट जाते. हम लोग दस-पन्द्रह दिन बाद तक आराम से रहते.चलते पर मनुहार करते मामा-मामी फिर आने का आग्रह करते बिदा करते.


बाद में वैसा कुछ नहीं. माँ दिन-रात काम में जुटी रहतीं ,मामी आराम से बैठी रहतीं या पड़ोस में बतियाने चली जातीं.मामी के बच्चों को भी उन्हें ही सँभालना पड़ता.वे कुछ नहीं कहतीं शान्त भाव से काम में लगी रहतीं अपने खाने का ध्यान भी नहीं . मुझे वे  बहुत थकी  लगतीं  . रात को अक्सर बेचैनी में हाथ-पाँव पटकते देखता था  मैं उन्हें.     आज समझ में आता है ,तब इतना नहीं सोच पाता था.
सात बरस का था तब एक बार आए थे पिता .मुझ से पूछा था चलोगे मेरे साथ ,वहाँ अच्छी तरह पढ़ पाओगे ?

मेरा जाने का मन नहीं हुआ .मैंने कहा था ,'बापू तुम यहीं आ जाओ न. '
पर वे नहीं रुके .
कैसे बहिन-भाभियों के बहकावे में आकर माँ पर इल्ज़ाम लगाया होगा पिता ने !इतने अविश्वासी थे वे ?
विश्वासहीनता की स्थिति बड़ी दुखदायी होती है .जो जानता है क्या सच है क्या झूठ और जो नहीं जानता वह भी मन ही मन व्याकुल रहता है .सबसे अदिक उत्ताप उन्हीं को झेलना होता है जो अपने होते हैं .जिनके साथ बहुत से दुख जिेये होते हैं उनसे कभी नाता टूटता नहीं .
 असहनीय होते हैं वे पल जब कोई आत्मीय लगता संबंध सारी कुरूपताएँ ओढ़े पूरी निर्ममता  के साथ अचानक सामने आ जाय ,जब कुछ सोचो और कुछ निकले. उस समय की हताशा झेलना कितना भारी पड़ता होगा.सारा विश्वास ज़रा में टूट जाए तो क्या बीतती है किसी पर! सारी दुनिया को लात मार कर पलट देने का मन करता है .

' बेटा ,मन लगा कर पढ़ना, ' कैसे कहती थीं ,आज समझ में आता है. उन्हें लगता होगा कोई कहने न पाये कि पिता से अलग कर बेटे का जीवन बिगाड़ दिया .

 दिन में वे कुछ घंटों को चली जाती थीं कोई कोर्स ज्वाइन किया था उन दिनों.
एक बार गईं तो दो-तीन दिन नहीं आईं ,फिर लेकर आईं थीं एक नन्हा-सा शिशु .लाल-लाल हाथ-पाँव उछाल कभी रोता कभी किलकता.

मेरा बिगड़ा हुआ मुख देख कर  माँ ने कहा था,'ये तुम्हारी बहिन है.'
'ये कहाँ से आ गई?'
'भगवान ने भेजी है ,तुम्हें राखी बाँधने के लिए .'
दिन भर पड़ी-पड़ी कपड़े गंदे करती ,रात में भी चिल्ला-चिल्ला कर रोती .मुझे देख कर हँसने लगती थी .
पर थोड़ी बड़ी होने पर मुझे अच्छी लगने लगी थी.
बाद में हम लोग दूसरी चले आये थे ,माँ ने स्कूल में बच्चों को  पढ़ाना शुरू कर दिया था .

*

(क्रमशः)