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भानमती से मैंने सिर्फ़ इतना पूछा था,' वैसी औरतों को छिनाल कहा जाता है तो वैसे आदमियों को क्या कहते हैं ?'
'मरदुअन को ?उनका कउन कहि सकत है सारे लैसंस (लाइसेंस) तौन उन्हई के पास हैं...' कहते-कहते रुक गई वह .
उसका मुँह तमतमा आया था.
समझ गई मैं काँटा कहीं-न कहीं खटक रहा है. इस बार मिली भी तो बहुत दिन बाद है.मुझसे अपने मन की कह डालती है, किसी से कहती नहीं हूँ न.
' क्या हुआ भानमती ? कुछ खास बात हो गई क्या ?'
'खास का, उहै हमेसा जो होवत है .बल(बलि) का बकरा बनन के लै तो बनी है औरतजात.'
बातों में लगाए रही कि अपनी बात कह सके.
उसने कहा था ,' जामें नेकऊ झूठ नाहीं .सब हमार देखी है .हमारी ननद के तएरे ससुर रहैं , सहर में आय बसे. अभै पिछले दिनन को किस्सा है .ताई को सिगरे जन अजिया बुलावत हैं
.ताऊ सत्त नाराइन की कथा कराए रहे . पूजा की चौकी की ढूँढ परी.
अजिया कहिन,' हमका पता है कहाँ धरी है, अभै लाए देत .'
'अरे अजिया ,तुमसे ना उठी,' सो हम उनके साथ हुइ गै '
अजिया उस कमरे में बहुत कम जाती थीं घर की सारी अंगड़-खंगड़ चीज़ें यहीं डाल दी जाती थीं.उस दिन महीनों बाद चौकी ढूँढने अजिया को वहाँ जाना पड़ा
इधरवाला कमरा पिंकी का .बचपन की दोस्त विनती और नीरजा के साथ मशगूल थी वह.
बातों का एक टुकड़ा कान में पड़ा
' ऐसा जी घिना जाता है ...'
अजिया के आगे बढ़ते पाँव रुक गए, भानमती साथ में.
..'इच्छा होती है वो झापड़ रसीद करूँ कि हिलती हुई दाढ़ें भी बाहर निकल पड़ें,' आवाज़ नीरजा की थी.
पिंकी बोली थी,'जानवर होते हैं सब के सब ,अपने घरों में असली चेहरों पर अच्छेपन की नकाब डाले रहते हैं, बाहर वही कुत्तापन .'
'ऐसे मरगिल्ले, अधेड़ उमर के लोग ,मरते भी नहीं..सोचो ज़रा, हमारे दादाजी की उमर के . भीड़ में घुस कर ऐसी उंगलियाँ चुभाते हैं
बड़ी मुश्किल से अपने को काबू में कर पाई मैं,' उसकी बोली में वितृष्णा छलक रही थी.
'अच्छा किया काबू कर लिया नहीं तो लोग तुझे ही बेवकूफ़ बनाते .'
वह कह देता', ऐ लड़की, क्या कह रही हो? ठीक से देखा करो कौन कर रहा है ,तुम्हारे बराबर की हमारी पोतियाँ हैं ',
'और सब उनकी हाँ,में हाँ मिलाते. उलटे तुम्हीं को दोष देने लगते .'
'.... अभी बाहर दादाजी को नमस्ते करते फिर से याद आ गया . लोग दादा बन जाते हैं पर ..'
पिंकी ने कहा था,'अगर यही लोग बुज़ुर्ग बन कर बसों वगैरा में थोड़ी निगरानी रखें तो किसी की छेड़खानियों की हिम्मत न पड़े.कितनी अच्छी हो जाए दुनिया हमारे लिए! पर ये तो खुद ही...'
चुपचाप सुन रही हैं , बात को समझ रहीं हैं दोनों .
भानमती मुनमुनाई ,'दादा बन जाने से का चरित्तर बदलाय जात है..?'
दोनों महिलाएँ अनुभवी हैं ,घर-बाहर आती-जाती सब देखती हैं.
दोनों के सामने प्रश्न है -आदमी में उमर का गरुआपन कब आता है?
मन की बरजोरी के आगे सही-गलत सब हवा हो जाता है?भीतर ही भीतर ताव खाती रहीं.
एकाध वाक्य बोल पाईं आपस में .
पहले सोचा लड़कियों के पास चलें ,फिर लगा उनकी बातें सुनाई दे गईं, पर अब जाकर बीच में बोलना ठीक नहीं .
'टार्च ले कर आयेंगे,
अंदर अँधेरा है ,'अजिया ने कहा ', चलो, भानमती.'
'आदमी कुत्ता होता है ' कह रहीं थी लड़कियाँ - विचार चलते रहे .
भानमती बोली थी,'सही कहती हैं बिटियाँ .माँस की गंध पाय के कूकर अस ललात हैं ,निगाह मक्खी अइस मँडरात रहत है....;'
ताव में आकर जब वह गाँव की वर्जनाहीन आक्रामक भाषा पर उतर आती है तब उसकी खुली अभिव्यक्तियाँ सुननी तो पड़ती हैं, पर वह सब लिखना वाणी को अपमानित करना लगता है . भानमती के शब्द नहीं दोहरा सकूँगी.
उसने जो बताया, बस उसका सारांश -
दामाद बहुएँ बेटे सब इकट्ठा थे. डाइनिंग टेबल वाली कुर्सी पर दोनों दामाद बैठे चाय पी रहे थे ,
सुमिता नाश्ता दे रही थी . अजिया आगे बढ़ गईं थीं ,दादाजी बेडरूम वाले गलियारे से इधर ही चले आ रहे थे.
भानमती आँगन के नल पर रुकी थी हाथ धोने ,
किचन के स्टोर तक आ पहुँची अजिया ने देखा टोकरी में धनिए की पत्ती लौकी से दबी पड़ी है. इन लोगों को इतना भी ध्यान नहीं कि सब्ज़ी ठीक से रखें दें ,लौकी को अलग करने वे नीचे झुकीं.
आधे झुके शरीर पर पीछे कुछ सरसराहट - बड़ी अरुचिकर अनुभूति .
चौंक गईं!
घुटनों पर हाथ धर सीधी खड़ी हुईँ ,पीछे मुड़ीं .
दादाजी थे - आँखों में विचित्र-सी कौंध और चेहरे पर टोहती-सी मुस्कान लिए .
अजिया ने तमक कर देखा आँखों से आग बरसाते ,'सब कुत्ते होते हैं..' .कहती आगे बढ़ गईं.
पीछे से आ रही भानमती सन्न!
दादा जी के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रहीं थीं.
दोनों दामाद हाथ में चाय का कप पकड़े रह गए .सुमिता मूर्तिवत् जैसे कुछ समझने का प्रयास कर रही हो.
सुनकर स्तब्ध मैं भी !
कहने-सुनने को अब बचा ही क्या ?
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