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सोमवार, 22 सितंबर 2014

कथांश - 20 .

 ' एक क्षण का भी स्वतंत्र अस्तित्व  होता है ,आज समझ पाया हूँ उसका  महत्व, उसकी सार्थकता . कुछ बीते हुए पलों की तृप्ति मन को छाँह दे गयी है .शब्दों में अपार शक्ति है , देख  लिया मैंने .कुछ शब्द मनःतपन पर शीतल प्रलेप धर गए , अंतर की उद्विग्नता कुछ  शान्त हुई , अंतर्विषाद विश्राम पा गया. आता-जाता रहेगा जानता हूँ पर वह उतना दारुण  नहीं.
लेकिन अपने को बहुत अकेला अनुभव करने लगा हूँ !
मन की बातें कहना चाहता हूँ . काग़ज़ों से ही सही . तभी लिखने बैठा हूँ   , लेखनी हाथ  आई तो अनायास लिख गया  - पारमिता.
मन में झाँका .कुछ उमड़ रहा है जिसे व्यक्त करना  है .अपनी ही   असलियत पहचानने को लिख रहा हूँ , अपने ही लिए . तुम्हें भेजूँगा नहीं  किसी का नाम ऊपर होने से लिखा हुआ चिट्ठी नहीं बन  जाता .मेरा अपने निज से वार्तालाप है यह ,तुम जाने कहाँ से बीच में आ जाती हो.
 यों चाहता भी हूँ  किसी रूप में तुम्हारा मन मेरा आभास  पा ले .विचार और इच्छाएँ सूक्ष्म होती हैं जैसे हवा ,यहाँ से वहाँ पहुँचते बाधा नहीं  उन्हें . कैसे भी ,किसी रूप में भास  जाएँगी तुम्हें.लिख रहा हूँ इसीलिए ,मेरे मन में जो है उससे अविदित नहीं रहोगी तुम.
यों इतना भी गांधी जी नहीं कि अपनी हर कमी उघाड़ता चलूँ .जानता हूँ डीसेंसी भी कोई चीज़ है !अपनी सारी  कमज़ोरियाँ  तुम्हें कैसे बता सकता हूँ ? अंततः पुरुष हूँ ,तुमसे जब मिलूँ सिर उठा कर ,थोड़ा बड़प्पन बना  रहे मेरा !
ये कुछ पन्ने ,जो केवल मेरे हैं - अपने से अपनी बात !
तुम्हें समझता हूँ, उतरा चेहरा याद कर मन  कसकता है .कमी मुझमें रही -पर जैसा  हूँ ,विवश हूँ  .तुम्हारे साथ वही बना रहूँ , अंत तक उसी रूप में - स्वाभाविक सहज!
जानता हूँ, कभी-कभी तुम मन ही मन  मेरे ऊपर हँसी हो .सामने -सामने नहीं ,कभी नहीं .मेरी कमज़ोरियाँ जानती हो तुम . उद्घाटित नहीं करती  दबा  जाती हो, यह  सोच कर कि मुझे कैसा  लगेगा.

औरों का सोचती हो तुम .मुझसे अपना सोचे बिना नहीं रहा जाता .ओ,पारमिता ....'
डोर-बेल बजी , बाहर कोई है - कलम रख दी मैंने .

माँ की चिट्ठी आई है -  साधारण कुशल के बाद लिखा है - 
रमन बाबू के साथ विनय के  माता-पिता  हमारे घर आए थे ,वो सब यहाँ आने पर बताऊँगी . बाकी हाल लिखने के बाद अंत में जोड़ा था.'तुम्हें पता है मुन्ना ,पिछले दिनों एक बार मीता ने मुझसे कहा था -'वसु की चिन्ता न करना माँ ,मेरी बहिन है .मैं देखूँगी उसके लिए . पूरा कर दिया उसने अपना कहा. मैं तो उसकी  ऋणी हो गई,  कैसे चुकाऊंगी ?'
कुछ समझ में नहीं आया .दोनो बातों में क्या ताल-मेल ?
अब जाने पर ही पता लगेगा.
*
बड़ी  रुचिपूर्वक माँ ने वर्णन किया था .
बहुत दिनों बाद ,उस दिन सुबह वसु गाने की प्रेक्टिस करने बैठी थी.
उसकी आदत है ,कमरे  के दरवाज़े उड़का लेती है और फिर चारों ओर का भान नहीं रहता उसे .
 सुर निकाल कर गाने में लीन हो गई थी -
'प्रभू जी मेरे औगुन चित न धरो.'
बाहर की कुंड़ी खटकती रही ,उसे कहाँ सुनाई दे !
माँ ने पहले एकाध  बार टाला, शायद उठ जाये .फिर हार कर गईँ खोलने .देख कर तो एकदम चौंक गईँ ,न कोई  सूचना न ख़बर और रमन बाबू अपने समधी-समधिन सहित हाज़िर !
 'अरे, आइये,आइये '

अंदर आते-आते संगीत के स्वर कानों में पड़े -
' सम- दरसी है नाम तिहारो  ,चाहो तो पार करो ..'
कैसा गहरा भाव ,कैसा  स्वर -अंतर की गहराइयों तक  उतरा  जा रहा हो जैसे !  चारों जन एकदम चुप .
रमन बाबू  ही बोले ,'बिटिया गा रही है .'
'बड़ी बुरी आदत है .ऐसी डूब  जाती है गाने में कि दीन-दुनिया का होश नहीं रहता. अब देखिये न, मैं रसोई में थी ,सोच रही थी अब उठेगी अब उठेगी ,खोल देगी.पर कहाँ सुनाई दे उन्हें .आपको इत्ती देर खड़ा रहना पड़ा .'
'ये तो सरस्वती का वरदान है उसे .'
पत्नी बोलीं ,'कितना मधुर और गहरे उतरने वाला संगीत !'
'आज कल सिनेमा के गानों से कहाँ छुट्टी मिलती है लड़कियों को ,और यह ऐसा  पावन संगीत - मन प्रसन्न हो गया  !'
उन लोगों को बैठा  कर वे उधर गईं, उसे चेताने .
पर उसे  देख कर चुप न रह सकीं , 'उफ़फोह ,ये लड़की ..! कहाँ का पुराना घिसा सलवार-सूट चढ़ाये बैठी है, क्या कहेगा कोई ... ?'
 साथ-साथ चली आई समधिन -पीछे खड़ी थीं.
बोलीं  ,'कोई दिखावा नहीं उसमें ,ऊपरी बनावट से क्या होता ?वह सहज-सरल अपने आप में पूरी !'
माँ क्या कहतीं ,चुप हो गईँ . 
वसु ,सकपका कर खड़ी हो गई ,'आंटी जी ,नमस्ते ! अरे,मैंने देखा  नहीं ..'.'
''कोई बात नहीं , परेशान मत हो .अपना टाइम लो सुविधा से आना .'
अपनी वेष-भूषा पर कांशस हो गई थी वह,चुन्नी समेटती दूसरे कमरे में चली गई.

उधर से  राय साब की पुकार आई -

'जिज्जी, ख़ातिरदारी बाद में कर लेना.अभी ज़रा हमारे पास बैठ लीजिये .'
फिर बोले ,'  ये रमन बाबू और भाभीजी आपसे कुछ कहना चाहते हैं.'
'ऐसा क्या है, आज्ञा दीजिए समधी जी .'
'समधिन कहें या जिज्जी ?'
फिर बोले ,'क्या फ़र्क पड़ता है,मन में सम्मान भाव होना चाहिये .'
'बैठिए न आप .ये बताइये हमलोग आपको कैसे लगे ?'
'ये भी कोई पूछने की बात है समधी जी ?ऐसा घर-वर तो बड़े भाग से मिलता है , .'
'आपसे एक प्रार्थना है ,'उन्होंने अपनी पत्नी को इशारा किया और
पीछे की एक कुर्सी आगे खींच दी ,आगे  आ बैठी समधिन कह रही थीं,
' ...मैंने एक बार बहू से पूछा  ,'ये सब बातें कहाँ से सीखीं ,तुम्हारे तो माँ नहीं थीं? पता है उसने क्या कहा -
उसके शब्द थे जन्मदात्री माँ नहीं थीं ,पर एक माँ मुझे मिली थीं, जिनका प्यार और सँवार पाई .उनसे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला.'

फिर उन्होंने जोड़ा ,'आपने ख़ूब सँभाल लिया ,माँ की कमी नहीं रहने दी.'
'मुझे शुरू से ही वह अपनी लगी '
'सच है, अपना समझे बिना कोई इतना नहीं कर सकता .'
रमन बाबू बोले,'अपनी बात कहो न !'
'...समधिन हों ,तो भी मेरी जीजी ही हैं आप ,वैसे दोनों ही रिश्ते अच्छे हैं... '

'जो आपको भाए .मैं सब में खुश .'
'विनय तो आपका हो गया .हमारे छोटे बेटे तनय को आपने देखा है?'
हाँ ,खूब ! हमारे घर भी आए थे तनय बाबू पिछली बार . लग ही नहीं रहा था कहीं बाहर के हैं ,मुन्ना से तो उनकी खूब जम गई थी ..'
'उसके लिए भी ऐसी ही लड़की चाहिये .' रमन बाबू बोल रहे थे.
'अरे , लड़कियों  की आपको क्या कमी ?इशारा मिले ,दौड़ के आयेंगे लोग ,ऐसे संबंध के लिए .'
'तो फिर आप ही अपनी छोटी बिटिया को उसके लिए ..'
माँ आँखें फाड़ कर देखती रह गईँ !

'आपकी बिटिया को कब से अपनी बेटी मान रहा हूँ . अब आज्ञा दें तो  अपने घर बाकायदा बिदा करा के ले जाऊँ  !...तनय है न हमारा ?'
माँ बिलकुल अवाक् -सच है या सपना ?
'क्या हुआ जिज्जी ?'
'ऐसा सौभाग्य हमारा !अरे ,तर गये  हम तो ..पर आपने तनय बाबू से पूछा ?"
'उसी की इच्छा से आगे बढ़े हैं.'
पता लगा, खूब पटती है  देवर-भाभी में . वहाँ पहले ही सलाह हो गई है .यहाँ तो अब आये हैं .'

सब बता कर माँ ने कहा था  'मीता का यह ऋण कैसे उतार पाऊंगी ?
'कोई ऋण-विण नहीं ,' मैंने तुरंत कहा ,'कॉलेज में चार साल उसकी निगरानी की है .कैसे-कैसे बचाया है सब जानती है वह .'
दाहिना हाथ अनायास बाएं कंधे पर चला गया ,अभी तक कभी-कभी टीसने लगता है.

*
बाद में मैंने पूछा था ,'वसु को भी मंज़ूर है ?'
''अरे, उसे काहे नहीं होगा? भरा घर ,इतना अच्छा लड़का ..'
फिर भी एक बार पूछ तो लो .'
ये माँ के बस का नहीं ,जानता था. मैंने ही बात शुरू की
' तेरी दीदी ठीक हैं वहाँ ?
'हाँ भइया ,उनने पॉली टेक्नीक में एप्लाई भी कर दिया है .'
'अच्छा!'
'हाँ ,बाबूजी ,माँ ,मतलब उनके बाबूजी- माँ,सास-ससुर तैयार हैं. वे चाहें सर्विस करें चाहें  कुछ और ... .वे लोग बहुत अच्छे हैं .'

'और सब लोग तो ठीक हैं. ये तनय ज़रा गड़बड़ है उनके घर में '
वह चौंकी ,'क्या ?'
'बड़ा झगड़ू लगता है .'.
वह कुछ बोली नहीं .
'उसका उजड्डपन मुझे पसंद नहीं ..'
' वैसे तो नहीं होगा . शादी-ब्याह में लोग हो जाते हैं..' .
'उससे तो तेरी  नहीं पट सकती , तू बता- मना कर दूँ ?'
खिसिया कर बोली ,'मुझे नहीं पता !'
'कितना लड़ा था तुझसे शादी में .नहीं,नहीं उसे तो दूर से नमस्ते  ..'
' ये सब मुझ से क्यों कह रहे हो ?माँ देखो ... ..'
'क्यों परेशान कर रहा है उसे ?
'.तो तू ने 'हाँ' कर दी  उसके लिए ?'
'मैंने कुछ नहीं कहा.. .'
मन ही मन हँसी आ रही है पर जानबूझ कर छेड़े जा रहा हूँ .
'तो ठीक  ,वह नहीं  कोई और ढूँढ़ूगा ..'
'मुझे नहीं करनी किसी से '
'तनय से भी नहीं न ?'
'मैं नहीं जानती .माँ , देखो न फ़ालतू में .'
वे भी हँस रहीं थीं .
'अरे, क्यों उसके पीछे पड़ा है  ?'
 बाद में  माँ को आश्वस्त किया था मैंने ,'बहन की शादी ठाठ से करूँगा .
कोई ये न कहे कि ...' पर आगे  नहीं बोल पाया.
माँ  समझ गईँ थीं .
हम दोनों चुप हो गए थे फिर .
*
वसु चली जाएगी ,माँ का उनका मन  कच्चा हो रहा है .क्या लग रहा है समझ रहा हूँ एक वही तो थी मैं चला जाता हूँ ,वे बिलकुल अकेली .उस दिन कहने लगीं,'औऱ मैं हमेशा क्या-क्या सोचती कर घबराती रही. जहाँ कोई मुश्किल आई ,अपने आप उसका हल निकलता रहा वह हमारे लिए हमेशा भाग्यशाली रही  मैं उलटा उसी पर खीजती थी. मैने कभी उसकी कदर नहीं की. रहा   .हुई थी तो मेरी नौकरी लग गई .

उनकी आँखों मे आँसू छलक आये
और मैं हमेशा डाँटती -टोकती रही ,कभी सुख नहीं दे सकी अपनी बेटी को .
माँ ,तुमने हमेशा ठीक किया .मैं तो खुश रही हमेशा .पर अब तो तुम बच्ची बनी जा रही हो .लगता है तुम्हारा ध्यान रखना पड़ेगा .'
'तू तो हमेशा से ही ,सहती आई है ,पछतावा तो मुझे रहेगा .'
'पछतावा क्यों रहे,'मैं एकदम बोला ,'ऐसा करो अभी शादी की तारीख आगे बढ़वा देना.पहले उसकी कदर कर अपना मन भर लो  ब्याह तो फिर भी हो जायेगा..' 

 कई बार ऐसी बातें सुन कर  कुछ खीझ-सा गया था .बहुत ज़रूरी था उनका ध्यान हटाना  नहीं तो वे यही सोच-सोच कर दुखी होती रहेंगी.
'आगे कभी टालने की बात मत करना,मुन्ना शुभ- शुभ बोल बेटा .अडंगे की बात भी नहीं करते !'

माँ बहुत प्रसन्न थीं ,संतुष्ट कहूँ तो ग़लत नहीं होगा . बहुत बड़ी चिन्ता दूर हुई थी उनकी और हाँ ,मेरी भी . 
माँ  ने कहा था ,' बहिन का संबंध तय हो रहा है. पहल उनकी ओर से हुई है , तुम्हें उनके घर हो आना चाहिये .दीवाली आ रही है ,अच्छा मौका है .मिठाई ले कर चले जाओ .'
'ठीक है एक दिन को चला जाऊँगा .'
गया था उनके घर . उसके सास-ससुर के पाँव छुये थे ,बाबू जी कहा था उन्हें .
विनय से गपशप होती रही थी -पर अनचाहे ही एक गड़बड़ हो गई . कह  नहीं सकता किसी से -  मन बड़ा अव्यवस्थित हो रहा है .
*
(क्रमशः)