सोमवार, 17 दिसंबर 2018

विराम-अविराम

[यह पूर्व- कथन पढ़ना अनिवार्य नहीं है -
संस्कृत, पालि,प्राकृत भाषाओँ में विराम चिह्नों की स्थिति - ( ब्राह्मी लिपि से ,शारदा,सिद्धमातृका ,कुटिला,ग्रंथ-लिपि और देवनागरी लिपि.)
संस्कृत की पूर्वभाषा  वैदिक संस्कृत जिस में वेदों की रचना हुई थी, श्रुत परम्परा में रही थी. मुखोच्चार के उतार-चढ़ाव, ठहराव भंगिमा आदि के द्वारा आशय को स्पष्ट करने हेतु पृथक किसी आयोजन की आवश्यकता नहीं थी  (श्रुत परंपरा का प्रयोग ही इसलिये किया गया था, कि उच्चारण, वांछित आशयों से युक्त और संपूर्ण हों.लिखित रूप में वह पूर्णता लाना संभव नहीं). अतः तब विराम-चिह्नो की आवश्यकता नहीं अनुभव की गई. संस्कृत का लिखित प्रचलन ई.पू. पहली शताब्दी से हुआएवं माध्यम रही ब्राह्मी लिपि .ब्राह्मी लिपि 10,000 वर्ष पूर्व से विद्यमान है  माना यह भी जाता है कि इसका अस्तित्व और पहले से रहा है.. कोई कहता है जब से यह ब्रम्हांड है, तब से ‘ब्राह्मी’ का अस्तित्व है. यह लिपि कहाँ से और कैसे आई, इसकी जानकारी नहीं मिलती..
अनेक विशेषज्ञों का यह यह मानना हैं कि ब्राह्मी दुनिया की सभी लिपियों की पूर्वज है. संस्कृत ने भी ब्राह्मी को अपने लेखन हेतु ग्रहण  किया . एशिया और यूरोप की लगभग सभी लिपियाँ ब्राह्मी लिपि से प्रेरित हैं. सम्राट् अशोक के स्तंभों पर यही लिपि है. तात्पर्य यह कि तब यह चलन में थी और  इसका प्रयोग भारतीयों द्वारा होता था.

अस्तु संस्कृत की लिपि ब्राह्मी रही,(संस्कृत की लिपि को  विद्वानों ने  सबसे प्राचीन लिपि माना है.) पालि के लेखन में भी इस का प्रयोग होता रहा था. .
 प्रारंभ में संस्कृत भाषा अव्याकृत रही थी, अर्थात उसकी प्रकृति एवं प्रत्ययादि का  विवेचन नहीं हुआ था (कथा है कि देवों द्वारा प्रार्थना करने पर देवराज इंद्र द्वारा) प्रकृति, प्रत्यय आदि के विश्लेषण विवेचन का "संस्कार" विधान होने के पश्चात् भारत की प्राचीनतम आर्यभाषा का नाम "संस्कृत" पड़ा. ऋक्संहिताकालीन "साधुभाषा" तथा 'ब्राह्मण', 'आरण्यक' और 'दशोपनिषद्' नामक ग्रंथों की साहित्यिक "वैदिक भाषा" का अनंतर विकसित स्वरूप ही "लौकिक संस्कृत" या "पाणिनीय संस्कृत" कहलाया। इसी भाषा को "संस्कृत","संस्कृत भाषा" या "साहित्यिक संस्कृत" नामों से जाना जाता है।
अध्यात्म एवं सम्यक्-विकास की दृष्टि से "संस्कृत" का अर्थ है - स्वयं से कृत या जो आरम्भिक लोगों को स्वयं ध्यान लगाने एवं परस्पर सम्पर्क से आई हो.पाणिनि ने नियमित व्याकरण के द्वारा भाषा को एक परिष्कृत एवं प्रयोग में आने योग्य रूप प्रदान् किया. धीरे-धीरे पाणिनि-सम्मत भाषा का प्रयोग, रूप और विकास प्राय: स्थायी हो गया. पतंजलि के समय तक आर्यावर्त (आर्यनिवास) के शिष्टजनों में संस्कृत प्राय: बोलचाल की भाषा बन गई थी.
इसमें विराम-चिह्नों के प्रयोग पर दृष्टि डालें तो - दूसरी शताब्दी BCE के उड़ीसा के राजा खारवेल के आलेखों में(उड़ीसा की हाथीगुम्फ़ा गुफ़ा),पूर्णविराम की स्थिति दिखाने के लिये वाक्य के बाद  रिक्त स्थान छोड़ा गया है.मज़ेदार बात यह कि खारवेल के लेखों में कहीं अक्षऱ छूट जाने पर उसे लाइनों के बीच में दे कर काकपद/हंसपद चिह्न से इंगित कर दिया गया है. खारवेल के लेख में भारतवर्ष नाम का प्रयोग हुआ है अशोक के शिलालेखों में जंबूद्वीप और पथिवी शब्द -यद्यपि इसका प्रयोग महाभारत और कुछ पुराणों में मिलता है
उसी समय के लगभग रामगढ़ की गुफ़ाओं विराम के समान खड़ी पाई मिलती है लेकिन वह अंकन एक पेंटर का है किसी शासक का नहीं.)
ग्रंथ नामक लिपि भी तमिल में संस्कृत ग्रंथों के लेखन हेतु  7वीं शताब्दी से प्रचलन में आई. ग्रंथ लिपि के लिये मान्यता है कि ये लिपि ब्राह्मी से विकसित है ..दक्षिण के पाण्ड्य, पल्लव तथा चोल राजाओं ने अपने अभिलेखों में इस का प्रयोग किया है.इसे पल्लव  लिपि भी कहा जाता है.
 क्योंकि वहाँ प्रचलित तामिल लिपि में सिर्फ अठारह व्यंजन वर्णों का चलन होने के कारण,संस्कृत की विभिन्न ध्वनियों का अंकन संभव नहीं था .
 विरामचिह्नों का आगमन भारतीय भाषाओँ में पाश्चात्य प्रभाव से हुआ. यद्यपि इसके कुछ अपवाद भी हैं - ई.पू. तीसरी शती में ब्राह्मी लिपि में अंकित पालि भाषा में(रामगढ़ गुफ़ा ) पूर्ण विराम के रूप में खड़ी पाई मिली है लेकिन वह किसी शासक के द्वारा न हो कर एक पेंटर के द्वारा है ,
 किसी विराम चिह्न का नियमानुसार प्रयोग नहीं मिलता.
   - डॉ. विष्णु सक्सेना के शोध-पत्र का आधार .]

विराम- अविराम.
मेरे कंप्यूटर का हिन्दीवाला कुंजी-पटल विराम-चिह्न लगाने में गड़बड़ करने लगा है ,कितना ही खटखटाओ प्रश्न-चिह्न और विस्मयादिबोधक तो तशरीफ़ लाते ही नहीं - लेकिन अंग्रेज़ी का हो तो चट् हाज़िर. लगता है इनमें भी हिन्दी-कांप्लेक्स आ गया !
 एक वाक्य भी पूरा नहीं कर पाई थी कि बाहर की घंटी बजी . सोचा,पूरा ही कर चलूँ . अंग्रेज़ी का ऑन किया ,जरा सा इशारा मिलते ही प्रश्नू (प्रश्नचिह्न)आ विराजे. ओह, हड़बड़ी में चूक हो गई , यहाँ तो विस्मया(विस्मयादि प्रदर्शिका) की ज़रूरत थी.  फिर खटकाया,विस्मया भी हाज़िर .
मैंने लिखा था  - वाह,क्या ज़ोरदार बारिश हो रही है?!
और लिखते ही ध्यान आया पड़ोस की लड़की को बताया गया है कि जहाँ ,क्या ,कैसे,कहाँ ,कौन जैसे शब्द आयें समझ लो प्रश्न-चिह्न लगेगा.
बच्चों को कितनी अधूरी जानकारी देते हैं लोग ,सोचते-सोचते हड़बड़ी में खुद गलत चिह्न लगा बैठी.
 अब एक साथ खड़े थे गये दोनों ,प्रश्नू और विस्मया - एक दूसरे को घूरते हुए.
एक को  हटाना पड़ेगा, पर  बाहर जाने की जल्दी थी अभी तो .

 बहुत दिनों बाद  चित्रा आई थी .
चाय-पानी और गप्पबाज़ी में ढाई घंटा निकल गया.
आज तो काम पूरा होने से रहा, सो  उसके जाते ही वहीं कुर्सी पर पाँव पसार लिये. अलसाई लेटी थी आँखें मूँदे .
अचानक कानों में कुछ आवाज़े लगीं -
 'कैसी खराब आदत है,हर जगह मुँह बाये खड़े हो जाते हो,ज़रूरत हो चाहे न हो.'
'बिना बुलाये नहीं आता .बड़ी छम्मकछल्लो बनी घूमती है.'
'बे-ध्यान में खटका दिया तुम्हें ,भागते चले आये.यहाँ तुम्हारी कोई ज़रूरत नहीं , सोच-समझ कर मुझे बुलाया गया है.'
 'अपने को जाने क्या समझती है ,भाव दिखाने से कभी मन नहीं भरता तेरा!'
अरे ,ये कैसा झगड़ा हो रहा है. झाँक  कर देखा सँड़ासी जैसा मुँह बनाए प्रश्न-चिह्न और बड़ी अदा से हाई हील पर सधी, कमर पर हाथ धरे बिस्मयादि-प्रदर्शिका की तू-तू मैं-मैं चल रही है.
इन दोनो की तो जैसे छठी-आठैं है .बिलकुल नहीं पटती. एक दूसरे पर हमेशा खौखियाये रहते हैं.

 प्रश्नू को लगता है जहाँ क्या ,कैसा ,कहाँ हो ,वहाँ उसे होना चाहिये.
विस्मया भी चौकन्नी रहती है. तुरंत बहस करती चली आती है - 'चलो हटो वहाँ से ,भाव व्यक्त हुआ है प्रश्न नहीं पूछा किसी ने....'
 ' तू काहे को बहस कर रही है, लिखनेवाला तय करेगा न'.
'हमारे भी कुछ अक्ल है,' कमर पर हाथ धरे विस्मया कहाँ चुप रहनेवाली.
कोलाहल सुनकर लगा कुछ और लोग भी हैं वहाँ.
उफ़, चैन से बैठना मुश्किल कर दिया. पलट कर देखा - अर्ध और अल्प विराम ,योजक, उक्ति  विवरण आदि लोग मज़मा लगाये खड़े हैं. दोनो का तमाशा देख रहे हैं.
ये लोग भी कम थोड़े ही हैं .अल्पू और अर्धू दोनों विराम छोटे हैं तो क्या खोटे भी हो जाते हैं कभी-कभी. आपस में नहीं बनती .अल्पू छोटा -सा है पर बड़ा तेज़ और बहुधंधी है, फ़ुर्तीला भी बहुत है. खूब सोशल है , हर जगह दिखाई दे जाता है. सामान्यतया से लोग इसे 'कामा' के नाम से जानते हैं. यही इसका ओरिजिनल नाम है भी - अंग्रेज़ी से आया है न!.
उक्ति ,और कोष्टक में भी दाँव-पेंच चलते रहते हैं .
योजक और विवरण -चिह्न अक्सर कनफ़्यूजिया जाते हैं, पर हल्ला नहीं मचाते .
पूर्ण विराम सबसे बड़ा ठहरा उसके सामने सब रुक जाते हैं, पूरण दा आ गये. जरा, रुको भाई.
पूर्ण-विराम पूछ रहा था-
क्यों रे अल्पू,तू छोटा है ,कहीं भी दुबक कर बैठ जाता है ,तुझे पता होगा बात क्या है .
 मैं भी उधर चली मेरी आहट सुन कर प्रश्नू और विस्मया चुप हो गये बाकी सारे हड़बड़ा कर की-बोर्ड  में जा घुसे(बिना बुलाये आ गये थे न).
जैसी उदार हमारी संस्क़ति है ,वैसी ही वर्णमाला (मुझे लगता है  विरामचिह्न लोग वर्णमाला के अंतर्गत होने चाहियें.)सबको धारण कर लेनेवाला विशाल-हृदय है उसका 
ये सब लोग पश्चिमी जगत से हिन्दी में आये हैं .संस्कृत की पूर्वभाषा थी छन्दस् ,जिसमें वेदों की रचना हुई, वह श्रुत परम्परा में रही थी. उसमें आशय को स्पष्ट करती विराम योजना मुखोच्चार से अनायास सम्पन्न हो जाती थी. (श्रुत परंपरा चली ही इसलिये थी कि उच्चारण,अपने पूरे उतार-चढ़ाव और भंगिमाओं सहित वांछित और संपूर्ण हों.लिखित रूप में संकेतों के अनुसार  बोलने में आरोह-अवरोह ठहराव,भंगिमा और  शब्दों के उच्चार में वही पूर्णता लाना संभव नहीं).
आगतों ने  भाषा के सहायक- उपकरण के रूप में प्रवेश किया था .
पहले बराबर का चिह्न धीरे से चला आया ,चलो ठीक है रहने दो भाई .फिर तो घुस-पैठ बढ़ती गई ,धड़ल्ले से लोग आने लगे
विवरण चिह्न, देख रहे हो न ,ये दो रूप धरता है .
दो बिन्दु लगा कर आगे पढ़ने का संकेत देता है ,जब लोगों ने  .
चिढ़ाना शुरू किया कि कैसा लदा है पीठ पर ,अपने से खड़ा नहीं हुआ जाता - तो दोनो बिन्दुओं के बीच  छोटी सी रेखा खींच नया रूप बना लिया .
अब एक नया ढंग चला है  एक तीर लगा कर बताता है ,'इधर देखो .'
पूरी लंबाईवाले पूरण दादा  (पूर्ण-विराम) की गिनती के हमारे बूढ़-पुरनियों में हैं . पता नहीं कब से विराज रहे हैं. लंबे इतने हैं,अक्सर ही टेढ़े हो जाते हैं. गिरें तो कहीं फ़ैक्चर न हो जाय सो लोग इ्हें आराम करने की सलाह देते हैं. बहुतों ने इनकी जगह बिन्दु को तैनात कर दिया है. रोड़े जैसै अड़ कर रास्ता रोक लेने में माहिर है न.रुकना ही पड़ेगा सबको .पुरातनपंथी हल्ला मचाते हैं ,अरे पूर्ण विराम ही तो एक हमारा है. उसे रहने दो बाकी सब तो नई दुनिया से आए हैं.
अरे भाई, अब तो सब अपने हैं सब के सब तत्पर रहते हैं  ,अपना-पराया  मत करो  - वसुधैव कुटुम्बकम्. और सच तो यह है,  जिस खड़ी रेखा को पूर्ण-विराम बताया जा रहा है वह अपने में ही संदिग्ध है. ग्रंथों में देख लीजिये वहाँ अर्ध- विराम के रूप में भी प्रयुक्त है. किसी भी धार्मिक ग्रंथ को उठा लीजिये, अर्धाली पूरी होने पर एक खड़ी रेखा पूरा होने पर दो रेखायें,अर्थात् पूर्ण विराम. कभी-कभी तो उनसे भी काम नहीं चलता ,छंद संख्या देने बाद फिर वही दो लकीरें.अब हम क्या कहें -प्रमाण सामने है ,तो फिर हम एक खड़ी पाई को कैसे प्रामाणिक पूर्ण-विराम मान लें ?
  अब उक्ति चिह्न - उक्ति को जब कहीं से लाया जाता है तो सबसे पहले अपनी सुरक्षा के लिये दोनों ओर सीमाओं का अंकन करवा लेती है. उसे कहीं से उठा कर लाया जाता है सो अच्छी तरह समझती है . अकेली महिला को देख लोगों की अतिक्रम (मर्यादा का) करने की आदतें जग-विदित हैैं. वह सावधानी रख कर पहले ही पूरा प्रबंध कर लेती है.
रेखा हमेशा की उतावली, हाई लाइट करती, अपनी धाक जमाती चलती चली जाती है- कर लो, कोई क्या कर लेगा.
कोष्ठक तीनों जेलर टाइप के हैं. मूल रूप से गणित के वासी हैं .जनता  की सुविधा सरलता के लिये कुछ लोगों को अंदर बंद कर लेते हैं. ये लोग  तीन भाई हैं .बड़ा वाला गंभीर व्यक्ति है, मँझला भी अधिकतर अपने में ही रहता है. ये छोटावाला अधिक तत्पर है ,और सबको स्पष्टीकरण देता रहता है .
बाकी बची लोपामुद्रा , लोप होने की मुद्रा है न इसकी. छोटा नाम इस पर  अधिक जँचता ,है सो घर में लोपा कहते हैं हम .
प्रतिशत ,डालर ,पाउंड,  अपना विदेशीपन कायम रखे हैं
  कंप्यूटर के आने के बाद तमाम लोग बाउंड्री पार कर कूद आये. कितने अंग्रेज़ी के रास्ते आये  लेटिन से अल्फ़ा,बेटा डेल्टा आदि प्रविष्ट हो गये  &*^3@ ,और भी जाने कौन-कौन.
परिवार है आबादी बढ़ेगी ही .
देखो भाई ,ज्ञान-विज्ञान की शाखाएँ चल निकली हैं. उऩकी अपनी गति-मति , सब फलती-फूलती बढ़ेंगी वांछित दिशाओं में .
आगे का हाल - अब पूछो मत ,देखे जाओ .
आगे-आगे देखिये होता है क्या !
***
- प्रतिभा सक्सेना.

6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (19-12-2018) को "ज्ञान न कोई दान" (चर्चा अंक-3190) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. पूर्व कथन मेरे लिये समझना आसान नहीं था क्योंकि पढ़ना जरूरी नहीं है लिखा था इसलिये पढ़ ले गया वो बात आलग है सर के ऊपर से निकल गया। लेकिन आपका लिखा हमेशा पढ़ने का मन करता है थोड़ा सा भी समझ में आ जाये अच्छा लगता है।

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  3. आपके कथन का पूर्वार्द्ध पढ़ कर मुझे हँसी आ गई,सुशील जी.

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