गुरुवार, 1 जनवरी 2015

कथांश - 29.

श्री सलिल वर्मा द्वारा पुनर्रचित ,कथांश - 29 अगली पोस्ट में प्रस्तुत है .
उस पर आपकी बहुमूल्य टिप्पणियाँ यथस्थान सुरक्षित हैं .
असुविधा हेतु क्षमा करें !

- प्रतिभा सक्सेना .
*
( प्रिय गिरिजा,
तुम्हारी मुश्किल ( टिप्पणी में अंकित)का अनुमान कर वह पोस्ट फिर से लगा रही हूँ .)
*

यात्रा पर निकलने से पहले वसु से मिलने गया था.

बहुत समय बाद अकेले में पारमिता से बात हुई . शुरू में तो   समझ में  नहीं आया  क्या बोलें.

चुप्पी को उसी ने तोड़ा ,बोली ,' जा रहे हो ..,घूम आओ, बदलाव तुम्हारे लिए अच्छा रहेगा .यात्राएँ नये अनुभव देती हैं '.

'हाँ , बहुत थक गया हूँ .इस भारीपन को झेलना मुश्किल हो गया  है  .कुछ दिन की छुट्टी चाहता हूँ .'

गंभीर थी वह भी ,' समझ रही हूँ . बड़े कठिन दिन झेले हैं तुमने .पर अपना ध्यान रखना .'

यह भी पूछा था,

'तुम्हें कैसा लग रहा है ब्रजेश?'

कैसा लग रहा है ?कुछ पल सोचता रह गया. ' जीवन के पड़ाव पार करता चल रहा हूँ. एक तटस्थ सी मनस्थिति-  दुखी नहीं हूँ .सुखी भी नहीं  . पर केवल अपना सोचने से काम कहाँ चलता है ?'

उसके मुँह से बस 'हूँ' निकला .

अधिक न मैं कुछ कह पाया ,न उसने  पूछा.

तैयारियों की बात होती रही .

'तुम्हारे लिए वसु और तनय ने कुछ खरीदारी की है ,'

फिर वसु के आवाज़ दे कर बोली थी - अब तुम्हींआ कर अपने सामने रखवा भी दो.'

वह बैठी देखती रही.

'दीदी ने कुछ  दवाओं  और ज़रूरी चीज़ों की लिस्ट बनवा दी थी - ये लो भइया .'

जाने की व्यवस्थाएँ  लगभग पूरी  हो चुकी हैं.

 चुप्पी-सी छाई है .

काम-धाम के  बीच अनायास छा  जानेवाले  निर्लिप्ति के क्षण मैंने देखे हैं. अपनी ड्यूटी सँभालते ,कोई इतना निस्संग क्यों हो जाता है? सब का कर्ता हो कर भी अनासक्त -   अपने में विलीन फिर अचानक वर्तमान , जैसे नाटक के दूसरे अंक में प्रवेश कर आया हो .

होस्टल के उस कविता-प्रेमी लड़के से सुनी एक पंक्ति मन में कौंध गई -' सात बार वेदी पर घूमे लेकिन केवल मजबूरी में, अपना दुख छोटा लगता है जब वे चरण याद आते हैं'.


तब भी  मन भीग उठा था , आज अनायास मन में फिर से वही वेदना  जाग गई .

लाख कोशिश करो सोच पूर्वाग्रहों से मुक्त  नहीं हो पाता.  मन विचित्र है  कभी लीन , कभी उचाट. कहाँ -कहाँ की दौड़ लगा आता है..फिर भी  कोई काम नहीं रुकता .  दुनिया एक ढोल है गले में पड़ा हुआ बीच-बीच में.आवाज़ होती रहनी  चाहिये - पीटे बिना गुज़र कहाँ ?

बस, अब दो दिन और , फिर अपना अकेले राम और अनजानी राहें !

*

अगले ही दिन मेरे नाम  एक अच्छा-खासा पार्सल आ गया !

'अरे, ये किसने भेज दिया ?' मुँह से निकला

 खोला तो हाथ का बुना एक पुलोवर,और मफ़लर .

साथ में पत्र भी - 'ब्रजेश जी' संबोधन के साथ


 'जा रहे हैं .जाइये बहुत पिछले दिनों भार झेला हैं .मन का विचलन स्वाभाविक है ,कर आइये भ्रमण .मेरे बुने हुए ये ऊनी वस्त्र, विषम मौसमों में कुछ ओट दे सकें तो मुझे ख़ुशी होगी.आप पहनेंगे तो अच्छा लगेगा.

यही मनाती हूँ कि आपकी यात्रा अपने उद्देश्य में सफल हो.

एक बात और स्पष्ट करना चाहती हूँ मेरी ओर से आप किसी प्रकार से बाध्य नहीं हैं .आपका मन जो गवाही दे वही करें .विषम समय में माँजी,वसुधा जी और आपका बहुत अवलंब मिला .वे दिन पार हो गये. अब मैं सँभल गई हूँ .माता-पिता ने भी अब अपना दुराग्रह छोड़ दिया है .कुछ काम कर ही रही हूँ आप चिन्ता न करें .

 कुछ आपकी मजबूरियाँ रहीं, कुछ मेरी विवशताएँ .अब वह सब बीत गया .

 .कभी-कभी परिस्थितियाँ ऐसे मोड़ पर ला खड़ा करती हैं कि इंसान का वश नहीं रहता -अनचाहे भी ,उस माँग को पूरा करना होता है -आप चिन्ता न करें ...'

वसु-पारमिता के लिए  आभार आदि पढ़ते-पढ़ते  स्वेटर  पर दृष्टि गई,

उठा कर देखने लगा.  खोल कर देखा खूब आरामदेह -बढ़िया साइज़ . मफ़लर उठा कर  गले मेैं लपेट लिया .

मुँह से निकला ,'अच्छा है?'

वसु को आवाज़ लगाई ,'देख तो.. मेरे लिए ये क्या आया है .'

'अरे वाह भइया !' मारे उत्तेजना के उसने  दीदी को पुकार लगा दी.

'क्या हुआ?' कहती पारमिता चली आई .

सब खुश - कितनी समझदार लड़की!

मैनें दोनों तहा कर तुरंत बैग में रख  लिए .

उन लोगों ने चिट्ठी भी उठाई और पढ़ ली ,मेरे मना करने की कोई तुक थी भी नहीं.

मीता की प्रशंसा भरी बोली - 'देखा!'

मैंने चिट्ठी फिर उठा ली ,' पूरी पढ़ी कहाँ अभी..'

'स्वेटर ट्राई करने की जल्दी जो थी ..'


  आगेका पढ़ने लगा -


'  ज़रूरत के समय आश्रय और  आप लोगों का सहारा मिला .माँ ने जितना स्नेह दिया मेरे लिए वह तो वह जीवन भर की थाती है.और कुछ औपचारिक पंक्तियों के बाद ,'शेषकुशल' और .

हार्दिक शुभकानाएँ स्वीकारें.'


पूरी पढ़ कर बैग की पाकेट में घुसा दी .

अब तक वहीं खड़ी थी ,चलते-चलते पारमिता एक वाक्य उछाल गई -

'चलो, तैयारी पूरी हुई !'

*

सुमति को उत्तर दे दिया था  -

आपके बुने स्वेटर से बहुत आराम निलेगा .तन से अधिक मन को .नौकरी न मिले तो भी ज़रूरत के लिए ही पारमिता के पास कुछ रखा  आया हूँ ..संकोच न करें.


मैं आऊँगा .विनीता की शादी तब तक तय हो जायगी आशा यही है.

मन में आया था लिखूँ ,'उस दिन हाथ पकड़ तुम्हें साइड में खड़ा कर लिया था ,वह क्या यों ही? तब कुछ सोचा-विचारा नहीं था पर भीतर बैठा कोई करवा गया. मेरे आगत के लिए अवलंब जुटा गया.

 अंतर्मन, कुछ निर्णय अपने आप ले लेता है ,ऊपरी मन को पता भी नहीं चलता.'

पर यह कुछ उसे लिखा नहीं.


जिनसे आगे बढ़ जाना चाहो उनकी यादें अपने आप पीछे चली आती हैं .


उसने पूछा था कैसा लग रहा है ?

कह नहीं पाया ,पर   लग तो रहा ही है ,मन उड़ा-उड़ सा  कहीं टिकता नहीं.कुछ नहीं . एक रीतापन !जिसे भरने का कोई उपाय नहीं.

सब छोड़ कर अलग रहूँ कुछ दिन थोड़ा .हल्का हो लूँ .अधिक संयत हो कर लौट आऊँ, बस .

*

वापसी कब?

अभी निश्चित नहीं, पर  आना तो है ही,  सारे रिश्ते-नाते ,रीति-नीति  निभाना है ..सुमति के पिता को आश्वस्त कर आया हूँ .आगे रहने का एक ढर्रा भी बनाना है.

गले में टँगा, ढोल बजाये बिना निस्तार कहाँ !

पलायन नहीं ,आगे की तैय्यारी के लिए .एक के बाद एक सिर पड़े आघातों को सहला सकूँ जिसमें , बिखरती हुई ऊर्जा  समेट सकूँ, इतना अवकाश बहुत ज़रूरी लग रहा है!


पारमिता ,मैं तुम्हें भी विरत नहीं खुशियों में डूबते देखना चाहता हूँ .जो मेरा साथ निभायेगी उसे भी प्रसन्न और तुष्ट रखना चाहता हूँ. अपने आप को कहीं सार्थक कर सकूँ - यत्न यही रहेगा  .


 जब वसु से कहा था,' मैं छुट्टी ले कर जा रहा हूँ ,यों ही घूमने-फिरने.. .'

वह परेशान हो उठी ,' भइया, तुम चले जा रहे हो  मुझे अकेली छोड़ कर?'

'नहीं पगली .अकेली कहाँ तू?. और तुझे तुझे कैसे छोड़ूँगा, अकेली बहन मेरी .लौट आऊँगा .यहाँ  तनय है और तेरी दीदी भी है  न!'

'मेरा  मायका होगा कभी कहीं ?..भाभी लाओगे न भइया ?

'हाँ बहिन ,जीवन के सारे ज़रूरी काम पूरे करूँगा ..अभी  थोड़े दिन छुट्टी दे दे बस ..!'

'ठीक है .राखी से पहले  जरूर लौट आना. राह देखूँगी . '

' चल, मान लिया !'

यही सही - अभी तो काफ़ी दिन हैं राखी के .

*

13 टिप्‍पणियां:

  1. अतीत से मोह छूटे नहीं छूटता...यही पावों की बेड़ी बन जाता है...दुनिया एक ढोल है...यह खूब कहा आपने, यह अंक भी एक श्वास में पढ़ गयी...नये वर्ष के लिए शुभकामनायें...

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  2. शकुन्तला बहादुर3 जनवरी 2015 को 6:22 pm बजे

    "अपारे काव्यसंसारे कविरेक: प्रजापति:....।"रचनाकार ने जो सृष्टि रची है
    उसमें पात्रों का प्रगट और अन्तर्धान होना विधाता सदृश ही हो रहा है ।
    कथा के प्रवाह में कहीं भी कोई अवरोध नहीं है । सुमति के पत्र और पार्सल से सुखानुभूति हुई , साथ ही पारमिता के पास कुछ छोड़ने की बात भी मन को आश्वस्त कर गई । प्रतिभा जी के उर्वर मस्तिष्क और सशक्त लेखनी ने पूरी कथा में सभी पात्रों का चरित्र सौम्य ,शान्त और संयत चित्रित करके मन पर उनकी छाप छोड़ी है और कथा को मनभावन बनाया है । उन्हें साधुवाद !!

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  3. "अपनी ड्यूटी निभाते कोई इतना निस्संग कैसे हो जाता है ? सबका कर्त्ता-धर्ता होकर भी अनासक्त..."--ब्रजेश का यह सोचना उसकी अंतर्व्यथा को व्यक्त करता है . मनोदशा का जैसा चित्रण आपके लेखन में है वह बहुत कम देखने मिलता है . एकदम तटस्थ और निर्मम फिर होकर भी दिल-दिमाग का कोना कोना झांकते हुए आप चरित्र को परिपूर्ण बनाती हैं कि पाठक अभिभूत हो जाता है .

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  4. माँ! जब जब कथांश पढता हूँ तब तब पारमीता और ब्रजेश के प्रसंग एक घुटन सी पैदा करते हैं. शायद अपने निजी अनुभवों की छाप दिखती है. लगता है आपने उनके सम्वादों में कहीं कोई कटौती कर दी है, लगता है अभी उन्हें बहुत कुछ कहना था, लगता है न जाने कितने भावनाओं के बाँध अभी खुले नहीं, लगता है...!!
    गिरिजा दी ने भी लिखा है कि मनोदशा का वर्णन आप बख़ूबी करती हैं और शायद मैंने भी पहले कहा था कि शेक्सपियेर के आत्मालाप की तरह आपने सभी पात्रों के समय-समय पर मनोसम्वाद द्वारा उन पात्रों को स्थापित करना बहुत ही कलात्मकता से दिखाया है. लेकिन मैं एक खुले दिल से मीता और ब्रजेश के सम्वाद की आशा लिये बैठा हूँ. जब एक हज्जाम एक पेड़ के सामने राजा के सिर पर दो सींग कहकर मन हलका कर सकता है, तो ये दोनों बहुत कुछ दबाये क्यों बैठे हैं या इनके मन में एक दूसरे से पूछने कहने को क्या कुछ नहीं होगा! वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन, उसे इक ख़ूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा... मैं उसी ख़ूबसूरत मोड़ के इंतज़ार में बैठा हूँ!
    स्वेटर का प्रसंग बहुत ख़ूबसूरत बन पड़ा है माँ! बहुत कुछ याद आ गया पुराना सा. लगा मुझे आपने परे धकेल दिया है और आज भी उस स्वेटर की ऊष्मा मुझे स्पर्श कर रही है! यह आपके दृश्यांकन का कमाल है कि मैं समय की नदी में पीछे बहता चला जाता हूँ!
    आज कहानी के सुखद अंत का एक अंकुर रोपा है आपने. शायद कथांश का मीठा फल इसी वृक्ष पर फलेगा!
    विलम्ब के लिये खेद माँ! बेटा व्यस्त था इन दिनों!!

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    1. सलिल ,तुम्हारी बात पढ़ते-पढ़ते एक प्रयोग करने की इच्छा जाग उठी - अतिथि लेखक के रूप में तुम इस प्रकरण को अपने हिसाब से लिखो तो एक नई दिशा खुले.मुझे पूरा विश्वास है तुम अच्छी तरह कर लोगे .
      कोई तुलना या चैलेंज नहीं ,कहानी में संभावनाओं का अंत नहीं होता .बस दो दृष्टियाँ सामने आयें -फिर आगे सोचेंगे क्या करें !

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  5. भैया बहुत बार बताते रहे हैं आपके बारे में ..आज यहाँ तक ले आए ...
    मैं चुप हुँ पढ़कर ...पीछे से पढूं... पहले ...
    लेकिन ये भी सच है कि भैया जिन संवादों की बात कर रहे हैं .... वे लिख सकते हैं प्रयोग के तौर पर ही सही ...
    सादर ...

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    1. आप यहाँ आईँ ,मुझे प्रसन्नता है .अापकी प्रतिक्रिया से उपकृत हो कर और अच्छा लगेगा -आभार !

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  6. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  7. माँ अपने इस कथांश को फिर पोस्ट किया है . इसमें सलिल भैया ने काफी कुछ अपनी ओर से जोड़ा है लेकिन जो इस बात से अनभिज्ञ है वह किसी तरह भी नहीं जन सकता कि यहाँ किसी और ने भी अपना हुनर दिखाया है . मैं भी नहीं जान पाती अगर वे मुझे न बताते . भाव और भाषा का अनूठा तालमेल है यह . मुझे लगता है कि सलिल भैया वाले प्रसंग व संवाद अलग फॉण्ट या कलर में होते तो परिवर्तन का पता चलता .अब में ढूढ़ रही हूँ कि कहाँ क्या बदला है . दरअसल उनहोंने अपनी टिप्पणी में ब्रजेश व मीता के बीच सम्वादों के जिस खुलेपन की बात की है , मन में दबी बातों को बाहर निकालने की अपेक्षा की है वह मुझे तो अब भी उतना नहीं दिखा . शायद उसकी गुंजाइश है नहीं . ब्रजेश के आत्मकथन प्रभावशाली हैं .
    निश्चित ही यह प्रयोग न केवल अनोखा है बल्कि कई नई संभावनाओं का एलान भी है .

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  8. शकुन्तला बहादुर8 जनवरी 2015 को 6:16 pm बजे

    आपके इस प्रयोग ने एक नयी दिशा खोल दी । सलिल जी की प्रतिभा भी
    प्रशंसनीय है । अच्छा लिखा है । वैसे गिरिजा जी ने ठीक ही लिखा है कि
    ब्रजेश और पारमिता के बीच संवादों की कमी का उन्हें अनुभव हुआ था ,
    वह तो अब भी वैसी ही है । प्रतिभा जी ने दोनों के चरित्र अत्यन्त शालीन
    और संयत तथा मितभाषी दिखाए हैं , इस दृष्टि से उनके द्वारा अपनी मनोव्यथा दूसरे पर प्रगट न करने का औचित्य भी है । एक बात और है -
    ब्रजेश की मानसिकता को देखते हुए उसके द्वारा तत्काल स्वेटर पहिनना तथा मफ़लर लपेटना , स्थिति के अनुरूप नहीं लगता । बच्चों जैसी उतावली को मन स्वीकार नहीं कर पाता है । ब्रजेश का आत्मनिवेदन और
    अन्य संवाद रुचिकर हैं । कथा के प्रवाह में कहीं अवरोध नहीं आया है ।
    सलिल जी का साधुवाद !!

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  9. अभी तक माँ का कमेण्ट नहीं आया है इसपर. जबकि व्यक्तिगत रूप से उनकी प्रतिक्रिया मुझ तक पहुँच चुकी है. सबसे पहले तो मैं माँ का आभार व्यक्त करना चाहूँगा कि उन्होंने मेरे कन्धों पर इतना बड़ा दायित्व रखा. मैंने उस दायित्व को माँ की आज्ञा मानकर निभाया. जबकि व्यक्तिगत तौर पर मैं जानता हूँ कि यह मेरे लिये असम्भव कार्य था.
    प्रथम, इस कथांश के पात्र मेरे नहीं थे और न उनकी डोर मेरे हाथों में थी.
    द्वितीय, मैं इस पूरे अंक को अपनी तरह से नहीं लिख रहा था बल्कि माँ के लिखे को अपना दृष्टिकोण प्रदान कर रहा था.
    तृतीय, इस कड़ी के तीनों हिस्सों को मैं एक पोस्ट में समा देना चाहता था. यानि कोई अंश छूट न जाये.
    और अंतिम, अपनी आदत के अनुसार यह भी सोच मन में चल रही थी कि पोस्ट अनावश्यक बड़ी न हो जाये.
    पारमिता और ब्रजेश के सम्वादों को मैंने अपनी सोच के अनुसार रूपांतरित नहीं किया. उन्हें मूल प्रस्तुति के विस्तार के रूप में प्रस्तुत किया है. मैं अभी भी अपनी सोच पर कायम हूँ, क्योंकि मैंने पहले भी कहा है कि इस पूरी कथा में मैं कहीं स्वयम को पाता हूँ. स्वेटर वाले अंश पर उसे तुरत पहन लेने वाली बात का औचित्य मैं इस रूप में देना चाहता हूँ कि यह उपन्यास अपने समापन की ओर अग्रसर है, इसलिये सांकेतिक तौर पर ब्रजेश के मन-मस्तिष्क का परिस्थिति के अनुरूप समायोजन दिखाने की चेष्टा की है. एक इशारा अतीत से मुक्ति का. (शायद इसके पीछे मेरा पाठक मन छिपा हो, क्योंकि आगे की कहानी मुझे नहीं मालूम).

    कहानियों में सम्वादों के मैंने हमेशा महत्व दिया है. लेकिन लिखते समय मेरे सामने सबसे बड़ी समस्या यह थी कि मेरी भाषा बिल्कुल अलग है माँ से. और उनकी भाषा के साथ मेरा कोई मेल नहीं. इसलिये वह संतुलन बनाये रखना मेरे लिये बड़ा कठिन था. माँ के सम्वादों को जस का तस बनाये रखने की पूरी कोशिश की है मैंने.

    मुझे इस कथांश का सबसे अच्छा हिस्सा वह लगा जहाँ मैंने सुमति के पत्र को सम्वादों में ढाला है. कारण ऊपर स्पष्ट कर चुका हूँ.

    मेरे लिये यह सबसे बड़ी उपलब्धि है कि आदरणीय शकुंतला जी और गिरिजा दीदी ने मेरे काम को सराहा. माँ की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है, बिना यह सोचे हुये कि वत्स सलिल ने यह काम किया है!! वैसे मेरे नाम के आगे सर्वप्रिय, श्री, कुशल, गद्यकार आदि लगाकर आपने पहले ही ज़्यादती की है, क्योंकि इनमें से कोई भी विशेषण मेरे लिये उपयुक्त नहीं है. और यह बात मैं ईमानदारी से कह रहा हूँ!

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  10. मैं गिरिजा से पूर्णतः सहमत हूँ .अनुभूति-प्रवण सलिल हैं ही साथ में उनका क्षेत्र अधिक व्यापक है .वे पहले ही कह चुके हैं कि ' मैं हमेशा कहानियों को फ़िल्मों के फ़ॉर्म में विज़ुअलाइज़ करता हूँ'
    व्यक्ति की रुचियों और प्रीफ़रेंसेज़ का प्रभाव साहित्य पर आता है पात्रों के मन में पैठ कर उन्हें अनुभव कर उन्होंने जो जुड़ाव किये वे दृष्य विधा से प्रभावित हो सकते हैं क्योंकि रूप में ढालना साहित्य के दृष्य और श्रव्य(पाठ्य) रूप में भिन्न प्रकार से होता है (फ़िल्में मुझे दृष्य-काव्य का ही रूप लगती हैं).वें अपने सप्रेषण में पूरी तरह सफल रहे हैं .
    रही बात भाषा की ,जो बहुत वैयक्तिक और स्वार्जित वस्तु है ,साहित्यिक भाषा में भी किन्हीं दो लोगों की भाषा एक सी होना संभव नहीं उसका किसी पर आरोपण नहीं किया जा सकता-सबकी अपनी ख़ूबियाँ हैं.
    मैने पहले भी स्वीकार किया था,' यह सोच-सोच कर अच्छा लगता है सलिल, कि तुम शब्दों को दृष्यों में देखते हो ,वर्णन को अनुभव करते हो और चरित्रों(पात्रों)से जुड़ उनकी मनोभूमि तक पहुँच बना कर साक्षात् कर लेते हो.'
    एक को पढ़ते-पढ़ते पाठक कंडीशंड हो जाते हैं,उसमे आए हुए नये फ़ार्म के प्रति अतिरिक्त सचेत.लेकिन यही दो व्यक्ति बारी-बारी से एक-एक अध्याय लिखना दें शुरू कर तो वे दोनों का ताल-मेल बैठ जाता है और पाठक भी अनुकूल होकर अधिक उत्सुक एवं सचेष्ट.
    सलिल ने स्थितियों और मनोदशाओं को बख़ूबी आत्मस्थ किया और निभाया है. पूर्व-लेखन से समरसता रखते हुए और उसके अनेक प्रतिबंधों के प्रति आदर-भाव रखते हुए उन्होंने जो कर दिखाया वह सराहनीय है.
    सलिल !वत्स,बहुत स्नेह-सम्मान पा रही हूँ तुमसे - मैं अपनी बात क्या कहूँ शुरू से मर्यादाशील परिवार में रही ,ऊपर से बहुतों से छोटी.आज तक ,'बेटा'-'बेटी' संबोधन आज तक कभी मुख से नहीं निकला ,लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि मन में भावनाएँ नहीं .सामने -सामने कह न पाऊं तो मेरी इस कमी को क्षमा करते रहना.
    नाम के आगे सर्वप्रिय, श्री, कुशल, गद्यकार आदि तुम्हारे लिए कितने उपयुक्त हैं यह मैं जानती हूँ.यों भी ,व्यक्तिगत संबंध अपनी जगह, मंच पर तुम भी स्वतंत्र रचनाकार हो, वह पहचान और सम्मान रहेगा ही.

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  11. :''-)
    meri hardik shubhkamnayein naye prayog ko aur aap sab log ko Pratibha ji.takneeki khaamiyon ke karan in sabse vanchit ho rahi hoon...hoti rahungi aage bhi...mann me tees rahegi aur rehti hi hai ki jaane kya kya post ho gaya hoga.magar samay samay pe aake yahan hoti halchalein dkeh ke bahut bhala to lagta hi hai..thoda sa mann bheegta hai k main iska hissa nahin ban pa rahi hoon..kewal aur kewal internet ke karan,
    kshama kijiyega!


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