शुक्रवार, 22 अगस्त 2014

कथांश - 15.

*
  'माँ, आज जरा दोस्त के साथ व्यस्त हूँ.'
 स्कूटर ले कर  निकल पड़ा था ,अगले दिन .
कैंटीन से बाहर ही मिल गई वह, आ कर बैठ गई .
शहर के बाहर का रास्ता पकड़ा.
''इधर तो नदी है न ?' उसने पूछा .
'हाँ ,चल रहे है वहीं डूबने !'
'पागल हो गए हो ?'
'घबराओ मत ,तुम्हें कुछ नहीं होगा जब तक मेरे साथ हो .'

नदी किनारे  आ गए ,
स्कूटर खड़ा कर दिया एक ओर सीढ़याँ उतरने लगा,वह भी साथ में
 पानी में पैर डाल कर बैठ गए पास-पास .
पानी बहा जा रहा है ,लहरों की हलचल  और आते-जाते हवा के झोंके  .
'तुम्हें अनुभव करना चाहता हूँ, बस ' -हाथ बढ़ा कर थाम लिया हाथ .बैठी रही चुपचाप .फिर कंधे से सिर टिका दिया उसने .  केशों की लटें उड़-उड़ कर मेरी ठोड़ी को ,गालों को सहला जाती  हैं .
'मीता''
रहा नहीं गया. अचानक आगे बढ़ कर मीता को समेट लिया . सीने से आ लगी है .मुख दिख नहीं रहा सघन केशराशि की मदिर गंध नासिका में समाई है . आँखें मुँद गईँ क्षण को.सीढ़ी से  गिर न पड़े कहीं, अपने से लगा लिया. कब से बहुत समीप अनुभव  करना चाहता था ,आज इतनी पास है .
 ''तुम से बहुत उलटा-सीधा कहा है -माफ़ करोगी मुझे ?
' कुछ मत कहो !'
'मीता ,तुम्हें कितना परेशान किया है मैंने !'
'रुलाओ मत बिरजू !'
समय बीत रहा है .
मैने कहा ,'प्रेम सुख नहीं है .'
मेरे मुख की ओर देखती रही फिर बोली
'प्रेम स्वार्थ नहीं है .'
उसका मुख देखना चाहता हूँ  पर सिर झुका हुआ है उसी सघन केश-राशि की ओट .
धीरे -से गोद में उसका सिर रख लिया . केशों पर हाथ फेरता हूँ.
मुख सीने आ लगा .
 मेरी  पीठ को समेटते हुए उसने दोनों हाथों की अँगुलियाँ फँसा लीं.
हम चुप हैं.
 केशों पर सिर टिका कर आँखें मूँद ली मैने.
लहरों की आवाज़ बीच-बीच में कानों से टकराती है .बहते पानी पर पड़ती धूप  की  झिलमलाहट परावर्तित हो घाट की सीढियों पर रोशनी के जाल बुन रही है. हवा के झोंके बिखरी अलकें उड़ा रहे हैं ,बार-बार अपने कानों, पर गालों पर डोलती उनकी रेंगती-सी छुअन. समेटता हूँ .बार-बार वही गुदगुदाती-सी सरसराहट ,अँगुलियों से फिर-फिर समेटता हूँ .
लगा वह धीरे-धीरे सिसक रही है ,'मीता, रोओ मत .'
कोई उत्तर नहीं.
चुपचाप थपक रहा हूँ .
नदी की लहरें उठती-गिरती बढ़ी जा रही हैं .
एक गहरी साँस निकल जाती है .
कुछ नहीं है कहने-सुनने को .
हम दोनों चुप, परस्पर अनुभव करते हुए.

धूप खिसकती हुई इधर तक आ गई  .
उठो मीता, छाँह में चलें उधऱ .'
उसका औँधा मुख  दोनों हाथों से ऊपर करता हूँ .
दोनों हथेलियाँ आँखों पर रखे रहती है ज़रा देर. खोलती है लाल-सी लग रही हैं ..
मुझे देखती है कुछ क्षण - कैसी स्निग्ध दृष्टि !
वह उठ गई है बिखर गए  केशों को एक हाथ से झटक  दूसरे से पिन निकाल कर दाँतों में दबा लिया ,दोनों हथेलियों से बिखरापन समेट फिर लगाने में व्यस्त  ,दोनों  साइड्स में बारी-बारी से .लहराती सी किरणों की सुनहरी दमक केशों में  भर गई है  .बहुत गोरी नहीं  पर मुख पर एक दीप्ति जो सहज आकर्षित कर लेती है.  
दाँतों में दबा पिन निकाल रही है .इसका इधर का ऊपर का एक दाँत टेढ़ा है  और बहुत पैना -छुओ तो चुभता है ..हँसती है या  बोलती है तो दमक जाता है .निर्निमेष देखता रह जाता हूँ .
 उठ कर खड़ी हो गई .'चलो! '

 अनायास उसाँस !
उठ कर चल दिये दोनों.
'चलो, उधर चलें ,दूर तक छाया फैली है,' उस दिशा में हाथ फैला कर  कर दिखाया उसने  .
'पर मरघट है उधर ..'
'इससे क्या ,जीवन की नश्वरता भी एक सच है, उससे कहाँ भाग सकते हैं !'
सच में दुनिया से कितना दूर चले आए हैं हम !
आगे बढ़ कर पीपल के नीचे एक पत्थर पर बैठ गई  ,मैं भी वहीं उसके पास .
 दोनों चुप बैठे हैं -
सूरज की  तिरछी हो गई किरणें , छायाओं के साथ  गलबाँही डाले थिरक रही हैं . हवाए ताल दे रही हैं ,पीपल के पत्ते झर-झऱ झूम-झूम ताली बजा रहे हैं.डोलते तरुपातों के अंतराल से झरते धूप के सुनहरे  छल्ले  चारों ओर बिखर-बिखर कर नाच रहे हैं -गालों पर केशों पर,कान की लौ वाला नग दमक जाता है बार-बार ! 
*
मरघट सुनसान पड़ा है.
'आज हम हैं कल नहीं होंगे -फिर प्रेम क्यों इतना तपाता है ?'
कुछ बोली नहीं सोचती रही वह .
फिर शब्द निकले,' देह में नहीं आत्म में समाता है .'
'प्रेम डुबा देता है  अंधा होता है' - मैं चुप न रह सका
'थाहता भी है. '
दोनों चुप .
वही बोली, 'छाँह भी बन जाता है - प्रेम अनश्वर है .कभी समाप्त नहीं होता !'
लगा तपते रेगिस्तान में शीतल बयार बह आई .
'मैं कृतज्ञ हुआ, मीता .' 
भीतर उठता  अंधड़ कुछ शान्त हो चला . 
 उसी ने कहा - 'प्रेम विश्वास है ,एक अटूट डोर!'
फिर पूछा ,'विश्वास है न ?'
'हाँ !'
असीम शान्ति चारों ओर ! बस, नदी की कल-कल और हवा में डोलते पत्तों की झर-झर .रह-रह कर पक्षियों की चहक वातावरण को वास्तविक-सा बना देती है .
कुछ देर में उठने का उपक्रम किया उसने ,...
'बैठी रहो यों हीं. '
मैंने हाथ पकड़ कर वहीं बिठा दिया 
 चुप रही वह, हाथ सहला रही है अपना .
फिर कस कर पकड़ लिया मैंने - उफ़ !
'आजकल बड़े ताव में रहते हो न , तुम? '
ठीक कहा उसने .मन का आवेग, हाथों में उतर आता है .
 'आज मेरे साथ बैठ लो ,फिर नहीं कहूँगा .. कुछ नहीं करूँगा .बस, मेरे पास  बैठी रहो तुम !'
चपुचाप बैठी रही .
 'बहुत उल्टा-सीधा सुनाया है मैंने ,भूल जाना ,मीता .'
'बस करो ,बिरजू.  रुलाओ मत.'
'अपने पर  नियंत्रण रख नहीं पाता .क्या करूँ मीता .ऐसा ही हूँ मैं ,बहुत कमियाँ हैं न..? '
 मेरे कंधे से  सिर टिका लिया उसने  .
 'मत सुनाओ यह सब  .. ...ज़िन्दगी बिता लेने दो मुझे!'
  'मीता, अब मैं वह नहीं जो था.'
'मैं भी नहीं , बिरजू .'
फिर आगे उसने कहा,'मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि आनेवाला  जीवन कैसा होगा .'
मेरे कहने को कुछ नहीं .
उसी के शब्द सुने ,' ज़िन्दगी बिताना है ,सोचने से क्या होगा !'

 मेरे कंठ में कुछ उमड़ा आ रहा है - गटक लिया.
लौटना पड़ेगा ही .
मैं उठा. वह समझ गई, खड़ी हो गई .
मन  बोल उठा आज के बाद ...बस!
 दोनों हाथ बढ़ा कर अपने में समेट लिया.
तन का परस अपने तन में बसा ले रहा हूँ ,केशों की गंध नासिका समा लेगी .  विकल करता उन्माद चैन पा जाएगा .
 एक हाथ से उसका मुख ऊपर किया आँखें मुँदी -सी .
 गाल,भाल, नयन,नासिका होठों से छू लिए.अधर बंद ही रहे मन में आया टेढ़े दाँत की चुभन इस समय कैसी लगती ?उसने मुँह मेरे सीने में गड़ा लिया है .दोनों हाथ पीठ पर लिपटे .कहीं गिर न पड़े -कस कर  साधे  हूँ .
मैं मौन. केवल बोध ग्रहण करता हुआ .
आज मैंने तुम्हें अनुभव कर लिया. बाहों में ले कर जान पाया कि तुम मात्र कामना या भावना नहीं हाड़ मांस की वास्तविक देह हो ,जिस के स्पन्दन बार-बार  मुझमें प्रतिध्वनित होते हैं .तन के पूर्ण परस में लीन मन शान्त हो चला है .
 देह और मन एक दूसरे के बिना अधूरे लगते थे . एक ही सिक्के के दो पहलू  -एक के बिना दूसरे का अधूरापन रिक्तता को और गहरा देता रहा. मैंने  ,देह और मन से तुम्हारा संपूर्ण परस पाया, शीतल हो गया हृदय .
आज समझ पाया शंकर ने प्रिया को अर्धांग में किस हेतु धारण किया !
        मन में गहन आश्वस्ति ! शब्द पर्याप्त नहीं है , व्यक्त कर सकूँ -यह सामर्थ्य नहीं मेरी  .

अचानक कहीं कुछ ,टकराने की  आवाज़ , वह चौंक कर हिल गई, अलग कर खड़ा कर दिया मैंने . .
एक गाय की खुजली शान्त करने के उपक्रम में स्कूटर गिरते-गिरते मेड़ से सध गया था ,गाय अब भी उससे कंधा रगड़ रही थी.  एक दूसरे को देखा - आशय समझ लिया .
 उधर ही चल दिये हम.
*
लौटते पर मैंने कहा था ,'चलो कहीं चाय पी लें .'
बड़ी श्लथ लग रही थी  बोली,' नहीं ,कुछ करने का मन नहीं, बस, अब घर जाऊँगी '.
फिर उसने पूछा था, 'शादी में आओगे?
 'नहीं आ सकूँगा .'
कुछ पल एक-दूसरे को देखा .
'ठीक है .माँ की ,वसु की चिन्ता मत करना मैं हूँ .'
'जानता था तुम हो ,तभी निश्चिंत हो पढ़ सका .'
खड़ी थी वह  - चलने को तैयार .
स्कूटर को किक लगाई . हलका झटका - वह पीछे आ बैठी है. कुछ  उड़ते से परस बार-बार पीठ सहलाते  वस्त्रों में उलझ कर हवाओं में खो जाते हैं.
कितना सारा जीवन एकदम बीत जाता है !
*

(क्रमशः)

19 टिप्‍पणियां:

  1. आपसे बहुत कुछ सीखना बाकी है , आभार !

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  2. बहुत सुंदर प्रस्तुति.
    इस पोस्ट की चर्चा, रविवार, दिनांक :- 24/08/2014 को "कुज यादां मेरियां सी" :चर्चा मंच :चर्चा अंक:1715 पर.

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  3. अभिभूत हूँ सारा परिदृश्य देखकर । हाँ , इसे ही शब्दचित्र कहा जाता है । पूरा प्रसंग चलचित्र सी अनुभूति कराता रहा । मीता का प्रेम के प्रति जो दृष्टिकोण है वही शायद एक स्त्री का पक्ष है । प्रेम का उत्सर्ग कर वह लोक मर्यादा का निर्वाह करती है पर अपने प्रति कितनी कठोरता रखनी पड़ती होगी यह तो वही जाने । आपकी लेखनी को शत-शत नमन ।

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  4. क्षमा करें, प्रतिभाजी, एक बार फिर मेल में ही लिख रही हूँ । टिप्पणी में लिखने पर विस्तृत लेखन में अनेक व्यवधान आते हैं ।

    कथांश १५ पढ़ कर मंत्रमुग्ध सी हो गई । कुछ अंश तो लौटलौट कर कई बार पढ़े । उन्हें आत्मसात करने के प्रयत्न में ।
    लेखिका के उर्वर मस्तिष्क की कल्पना उड़ कर नदी किनारे प्रेमी युग्म के आस पास ही मँडराती लगती है । शब्दों की तूलिका
    से प्रकृति और प्रेमियों के जो चित्र बने हैं वे आँखों के समक्ष आकर सीधे मन में ही उतर जाते हैं और पाठक उन्हीं में डूबा रह जाता है । अनूठी भाषा और अद्भुत शैली के समागम ने इन दृश्यों को सहज स्वाभाविकता और भावों की गहराई प्रदान की है।
    लगता है कि कोई चलचित्र देखरहे हैं ।
    "असीम शान्ति । बस नदी क़ी कलकल ...पत्तों की झर झर...पक्षियों की चहक....वातावरण .....बना देती है । "
    " सूरज की किरणेंं तिरछी ....थिरक रहीं .....पीपल के पत्ते ताली बजा रहे ....झर झर झूम झूम ...सूरज के छल्ले ... बिखर
    बिखर नाच रहे ।" और भी - " पानी बहा जा रहा - लहरों की हलचल ...आते जाते हवा के झोंके ....।"
    ध्वन्यात्मक शब्दों ने दृश्यों को कमनीय बना कर प्रत्यक्ष सा कर दिया है । मुझे बाणभट्ट का प्रकृति-वर्णन याद आ गया ।
    कुछ वाक्य तो उद्धरण जैसे हैं - "देह और मन एक दूसरे के बिना अधूरे हैं ........गहरा देता है ।"
    संक्षिप्त और चुटीले संवादों में गहरे अर्थ छिपे हैं । " ब्रजेश - प्रेम सुख नहीं । मीता- प्रेम स्वार्थ नहीं है । ब्रजेश- प्रेम अंधा होता है ।
    चाहता भी है । मीता- छाँह भी बन जाता है , प्रेम अनश्वर है । प्रेम विश्वास है , एक अटूट डोर ....।" मात्र एक दो शब्दों में ही प्रेम
    को व्याख्यायित कर दिया है । इन संवादों ने मन मोह लिया और मैं इन शब्दों पर विचार करती रह गई ।
    दोनों प्रेमियों के भावानुभाव , प्रति पल परिवर्तित होते उनके अंग-प्रत्यंगों की स्थिति , एक एक भाव-भंगिमा को तो जैसे दर्पण दिखा दिया है या फिर कैमरे में उतार कर लिपिबद्ध किया हो । - "गालों पर केशों ...बार बार....।" ये चित्रण चकित करता है।
    महाकवि कालिदास की उक्ति " क्षणेक्षणे यन्नवतामुपैति , तदेव रूपं रमणीय़ताया: ।" प्रतिपल जो परिवर्तित होने वाला है , वही सौंदर्य का रूप है । ये बात इस चित्रण पर खरी उतरती है।
    अन्त में - मन में बसे सच्चे प्रेम की संयमित और शालीनता से की गई अभिव्यक्ति अत्यन्त प्रशंसनीय है । दोनों के अन्दर
    गहरे संस्कार हैं ,जो उन्हें सीमा का अतिक्रमण करके अनायार से रोक कर संयमित रखते हैं । भावना से कर्त्तव्य ऊँचा है - इस
    भाव से मीता द्वारा स्वार्थ का त्याग मन को प्रभावित करता है , जो उसकी विवशता बन जाता है । उस एकान्त में भी अकेली मीता के साथ ब्रजेश का व्यवहार भी कम प्रशंसनीय नहीं है । दोनों चरित्रों को उभारने , सँवारने और इस मिलन को सुखान्त बनाने में प्रतिभा जी की सशक्त लेखनी की प्रशंसा के लिये मेरे पास शब्दों का अभाव है । काश! आज के युग के प्रेमीजन भी ऐसे संस्कारों को ग्रहण कर पाते , तो समाज में बहुत सुधार हो जाता ।
    प्रतिभा जी की लेखनी को सादर नमन !!
    शकुन्तला बहादुर

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    1. शकुन्तला जी के टिप्पण में -
      कृपया - 1. प्रेम ,चाहता भी है के स्थान पर थाहता भी है -पढें..

      2. सीमा का अतिक्रमण करके अनायार से रोक कर संयमित रखते हैं वाक्य में अनायार के स्थान पर अनाचार पढें.

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  5. शकुंतला जी की टिप्पणी के बाद कुछ कहने को नहीं रह जाता ...आभार व बधाई !

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  6. भावों का अति सुंदर प्रवाह

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  7. आप बहुत ही अच्छा लिखती है भाषा पर पूर्ण अधिकार के साथ |

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  8. माँ! आज टिप्पणी करते हुये अपने अधकचरे ज्ञान का इतना क्षोभ हो रहा है कि क्या कहूँ... आज के इस कथांश की तुलना में न मेरे पास शकुंतला जी की तरह वाणभट्ट या कालिदास के उद्धरण हैं और न ही बिमल रॉय या गुलज़ार साहब के प्रणय दृश्यों के उदाहरण. इतना बेबस और लाचार कभी नहीं पाया ख़ुद को मैंने.
    .
    मैं जानता था माँ कि इन दोनों की मुलाक़ात मुझे झकझोर कर रख देगी. आज ऐसा लगा कि मैं कैमरे के पीछे हूँ और पूरा सीन आपने डिफ़ाइन कर रखा है! दोनों कलाकार डूबकर अपना रोल निभा रहे हैं! कैमरा रोल हो रहा है और पूरे टेक के बाद जब मैं अपना सिर उठाता हूँ तो मेरी आँखें लाल हैं!

    जिस डिटेलिंग के साथ आपने सीन बयान किया है, दोनों कलाकारों की मूवमेण्ट और ख़ूबसूरत सम्वाद! इसे कहते हैं फुल्ली कंसीव्ड ऎण्ड डेलिवर्ड... पढने वाले को पूरी तरह मेस्मेराइज़्ड करती हुई!

    माँ, आपकी शब्दावली, आपके कथानक की स्पष्टता, आपकी कहानी का बहाव, चरित्रों की स्पॉण्टेनिटी और आपका दृश्य सन्योजन... अपने आप में एक संस्था हैं आप और बहुत कुछ सीख रहा हूँ मैं! मेरा प्रणाम!!!

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    1. 'इतना विस्तृत अध्ययन और वह भी विविध भाषाओं का ,उसके साथ अनेक विधाओं और कलाओं मे रुचि ,मैं विस्मित हूँ कि विज्ञान के छात्र हो कर ,और अपनी सर्विस के साथ कैसे कर पाए हो .और ऊपर से कह रहे हो 'अधकचरा ज्ञान'! ज्ञान अथाह है हर क्षेत्र में अपार विस्तार भी ,सब में निपुण होना संभव ही नहीं .
      तुम्हारी इस नई समीक्षा-दृष्टि से मैं चकित रह गई हूँ -और क्या कहूँ समझ में नहीं आ रहा !'

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  9. लोरी सा माधुर्य लिए है पूरा कथांश एक तारल्य से संसिक्त।

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  10. shri salil ji ki baath se poorn sehmat hote hue me swayam bhi adhkachre gyan par kshubhit hun. aur sach me shakuntala ji jaise varn-shakti nahi hai mere pas.

    Aap k is kathansh ka prakarti chitran dekh aur brijesh-meeta k man k bhavo ko shabdo me jis tarah se dhala gaya in sab ko padh aisa laga maano aap nahi vo sawayam (brijesh) likh raha jisne ise mehsoos kiya hain. beshak brijesh hi vo paatr hai jiske mukh se katha kahi ja rahi hai. aur isi baat ko jaanchne k liye mujhe ek baar fir se katha k 1st part ko padhna pada.

    aaj aapke is prakarti chitran ne anayas hi suryakant nirala ji ki kavitaaon ki yaad dila di.

    kahin kahin to aise shabdo ka aap prayog karti hain jinka ab chalan nahi ya fir vo shabd multaan(pakistan) se belog karte hain. jaise filhal ek hi shabd yaad aaya MARJAAT (kathansh 14) .

    poorn aanandit ho rahi hun is katha ko padh kar.
    aage k intzar k liye.

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    1. अनामिका,
      MARJAAT (kathansh 14) शब्द मुझे नहीं मिला.हो सकता है तुम्हें 'मरजाद' पढ़ा हो क्योंकि इस शब्द का प्रयोग मैंने एक जगह किया है ,यह 'मर्यादा' का लोकप्रचलित रूप है जो बोलने में सहज पड़ता है .
      मेरी पूरी कोशिश रहती है कि अप्रचलित प्रयोग न करूँ और पढ़नेवाले को कष्ट न हो ,लेकिन वांछित अर्थ पाने के लिए जाने-पहचाने उर्दू अंग्रेज़ी आदि के प्रयोग करने में झिझकती नहीं.हो सकता है तुम 'ख़यानत'(अमानत में ख़यानत )के लिए कह रही हो ,लेकिन यह प्रयोग मैंने कई बार सुना है ,और इसकी जगह दूसरा कोई समानार्थी शब्द नहीं मिला ,जो संवाद के अनुकूल बैठे.
      और कुछ लगे तो ज़रूर कहना .

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  11. 10 से 15 तक के कथांश एक साथ पढ़े हालांकि नवा भी सबसे पहले पढ़ा और उसके बाद क्रम से बाकी । इतने दिनों बाद आपके ब्लॉग पर आने का उद्देश्य भी यही था कि कथांश का पूरा आनंद ले पाऊं । एक साथ पढ़ने में जो प्रवाह बनता है उससे मन ज्यादा तृप्त होता है । यूँ तो हर कथांश में भावों का और अदाल ज़िन्दगी का अद्भुत मिश्रण है लेकिन इस पोस्ट में मीता और बृजेश के संवाद और एक दूसरे के प्रति प्रेम विश्वास के रूप में छाप छोड़ने में समर्थ रहा है । आपने लेखन के माध्यम से ही पाठक के सामने चित्र उपस्थित कर दिया है । काश ये कथांश पुस्तक के रूप में मेरे हाथ में होती । जब तक ख़त्म नहीं हो जाती तब तक किसी काम में मन ही नहीं लगता । अब फिर आगे कुछ कथांश इक्कठे पढने आउंगी ।

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  12. mujhe jisne chhua wo thi Meeta Aur Brajesh ke prem kee garima. kahin koi trishna ka tatv nahin. arthpoorn samwaad hriday ko tript kar gaye. '' prem swarth nhain hai'..aha!!!...kaisi sunder baatein...!! kitna sunder drishya!!!...bhayakrant hokar padhti thi ye kathansh...is wali post ne sabse adhik sukh diya. dhoop jab keshon se chhanke aati ho to kitna manoram lagta hai mukh......aapne kitna adhik sunder shabd chitr kheencha hai Pratibha ji.
    vismit netr aur buddhi aur tript paathak mann ka naman sweekaarein...!!

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