मंगलवार, 12 अगस्त 2014

कथांश - 13.

* 
कोशिश करता हूँ पर  संयत नहीं रह पाता. अंदर -अंदर कुछ उफनता है .कहीं नहीं टिकता मन, बार-बार उखड़ता है .कुछ सोचता हूँ ,कुछ कह जाता हूँ - फिर उस  आँच  में दहता हूँ.
 अभी बारह दिन और निकालने हैं यहाँ .फिर तो ट्रेनिंग पर रहूँगा   .वातावरण बदलेगा ,व्यस्त हो जाऊँगा .
 वह आती है बीच-बीच में .जानता हूँ-  रह नहीं पाएगी , पर कुछ कहेगी भी नहीं.और किसी से कुछ कहे भी तो क्या ?
कहीं से लौटा था -
 टीवी चला दिया , बैठा रहा सामने .
'वसु, माँ कहाँ हैं ?इतनी देर से दिखाई नहीं दीं '
' रायसाब के घर से कहउआ आया था . मीता दीदी को रिश्तेदारों के  नाम दे कर भेजा है ,तिलक में क्या-क्या सामान होना है ,दोनों उस सबकी लिस्ट बना रही हैं .'
 'अच्छा !
'अब दिन ही कितने रह गए दस दिन बाद तिलक, महीने भर में शादी सब फटाफट निपटाना है .'
'तू भी कुछ कर रही है वसु ?'
'दीदी के लिए करना ही पड़ेगा. मेरे लिए कितना किया है उनने , पता है ? एक बार तो शहर में दंगे की ख़बर फैली तो तुरंत आईं, मुझे क्लास से बुला कर साथ ले गईँ . हमेशा ध्यान रखती हैं  मैं किसी मुसीबत में न फँस जाऊँ .
और जो उनके के ससुर हैं भइया, वे बहुत अच्छे हैं ,मुझे बुला कर भजन सुनते हैं.कहते हैं - तू तो मेरी बेटी है.मेरे लिए वहाँ की मेंहदी भी लाए थे  .'
'ओह ,बेटी कहते हैं ! '
मुझे याद आ गया को छुटपन से   'बेटी' सुनने  को और 'पापा' कहने को  लालायित रहती थी . एक बार तो मुकुन्द के पिता को पापा कहने के झगड़े में उसे ही नोच-खसोट  आई थी.
 'हाँ, और तू उनसे क्या कहती है ?'
'अंकल जी .मैं और क्या कहूँगी ?'
मन में कचोट उठी. इत्ती समझ आ गई है किसी को भी 'पापा' कैसे कहे , कांशस हो जाती है.
*
'अब रुक जाओ चाय पी कर जाना, ' माँ कमरे के बाहर बोल रहीं थीं .
' बहुत देर हो गई ,बाबूजी राह देखते होंगे .'
'अभी बस पाँच मिनट में चाय बनी जाती है .' उन्होंने  वसु..को आवाज़ लगाई .
 दोनों अन्दर आ गईँ .
'अरे ,तू आ गया मुन्ना ? कित्ती देर हुई ?'
 'तुम्हें छुट्टी कहाँ है माँ, कि मेरी सुध लो .दुनिया भर के काम तुम्हारे हवाले हैं .'
पर वे  कहते-कहते उत्तर सुनने से पहले ही  बाहर मुड़ गईँ थीं .
मीता कुछ अव्यवस्थित-सी हो उठी ,  दूसरी ओर देखने लगी .चोर-नज़र से वह उतरा चेहरा  देखा  मैंने- मन कसक उठा
 वसु उठ खड़ी हुई ,'चाय बना लाती हूँ .'
 'अभी कहीं जाने की ज़रूरत नहीं ,चार बजे पियेंगे चाय .अभी सिर्फ साढ़े तीन है '.
मैंने  वसु का हाथ पकड़ कर वहीं बैठा दिया .
मुँह बिगाड़ती वह चिल्लाई ,'अरे, मेरा हाथ मुड़ा जा रहा, छोड़ो .'
छोड़ दिया एकदम !
 सहानुभूति में मीता बोल गई ' ऐसे कस कर पकड़ता है ,चाहे दूसरे का हाथ मरुड़ जाय..'
'दीदी , तुम्हारा भी पकड़ा कभी ? ..'
अप्रत्याशित हड़बड़ा गई वह ,'नहीं रे ,ये लगता ही ऐसा रफ़ है .'
' माँ ,तुम कहाँ चली गईं थीं ?'
'वो ,बाहर चिंटू से कह आई हूँ ,समोसे ले कर आ रहा होगा .'
*
और पाँच दिन बाकी  , फिर तो ट्रेनिंग पर .
कल कुछ सामान खरीदने गया था . रंजन  मिल गया ,पुराना मित्र  है .  लौटने में देर हो गई .
 वसु नल पर खीरे धो रही थी  ,'भइया बड़ी देर कर दी . चलो ,खाना गरम करती हूँ .'
'तुम सबने खा लिया ?'
'कहाँ ? तुम्हारा इंतज़ार था .'
'माँ कहाँ हैं ?'
'ऊपर छतवाले कमरे में  .दीदी को कुछ सामान दिखा  रही हैं ..अभी बुलाती हूँ .'
'नहीं.नहीं ! तू खाना लगा , मैं बुला लाता हूँ .'
रसोई से नंगे पाँव निकला ,सीढ़ियों पर छाँह है ,चप्पल बिना भी चलेगा .
इधरवाली खिड़की खुली है ,बोलने की आवाज़ें आ रही हैं .
'... मीता, एक बात और समझे रहना औरत क्वाँरी हो ,ब्याही हो चाहे बच्चों की माँ बन जाए ,दुनिया  की नज़रें उसे छोड़ती नहीं ,  चैन से  नहीं रहने देतीं . मैं अकेली रह कर बहुत देख चुकी हूँ. '
वे कुछ रुकीं  -
'ऐसे आदमी हर जगह मिल जाते हैं ,तुम्हारी बात समझ रही हूँ मैं .सहानुभूति दिखाते हैं , मौके पर  सहायता को तैयार रहते हैं, कर भी देते हैं . और इसी क्रम में - अकेली औरत है ,अनुकूल हो जाय शायद . सो कोशिश  भी कर लेते हैं ....क्या पता लगे कौन कहाँ तक पहुँचेगा ! सो सँभल कर  रहना ही ठीक .  ... किसी के माथे पर तो लिखा नहीं है !'
आगे बढ़ते कदम रुक से गए .
मेरे दिमाग़ में घूम गए माँ के कुछ शब्द जो पिता की नाराज़गी पर वे बोलीं थीं,'मुझमें कोई चूक हो तो मुझे दोष दो , या किसी को प्रोत्साहित करूँ तो ...कोई यों ही बात करने में रुचि ले, तो मैं दुत्कार तो नहीं सकती ..फिर वह तो तुम्हारा  दोस्त  ठहरा...'
एक बार और-
मैं थोड़ा बड़ा हो गया था, नौवीं या दसवीं कक्षा में लड़कों के स्कूल में जाने लगा था .
ट्रेन्डग्रेजुएट ग्रेड में माँ की पोस्टिंग हो गई थी.
इन्टर कालेज के एक टीचर माँ को बात-चीत के लिए रोक कर बैठाने लगे थे. माँ के चेहरे से उनकी निगाहें हटती नहीं थीं .बड़ा अजीब लगता था मुझे!
 एकाध बार घर भी आए ,मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगा . लगा था माँ भी  उलझन में पड़ी हैं .फिर पता नहीं क्या हुआ उनका आना बंद हो गया .अभी भी मिलते हैं, कभी कोई काम हो तो करने तो तत्पर रहते हैं .पर हम लोगों ने उनसे कभी सहायता नहीं ली .
मन में उठा - यही है क्या औरत होने का पाप?
अपने सोच में ही डूब गया था . अरे, मैं तो उन्हें बुलाने आया हूँ  -आवाज़ लगाते-लगाते रुक गया .मीता बोल रही थी -
'उस समय एकदम  नहीं मना कर सकी  माँ,  पिता को अशान्ति दे कर,  सुखी होने का सोच भी नहीं सकती. ..'
खिड़की के अधखुले दरवाज़े से दिखाई दिया - मीता माँ के पास बैठी है .हाथ में एक डायरी और पेन .बीच-बीच में पन्ने पलटती है फिर बंद कर देती ह उसकी शक्ल दिखाई नहीं दे रही इस ओर पीठ है , बीच-बीच में  गोद में रख  हाथों पर गिरी बूँदें  पोछ लेती है  .आवाज से पता नहीं लगने देती ,पर स्वर बोझिल - सा   धीमा है .
उन्हें नहीं पता  उनके सिवा कोई और भी इधर है.
'दोषी तुम नहीं .हमें बनाया ही ऐसा गया है कि अपनी सुख-सुविधा से पहले अपनों के कुशल-मंगल का ख़याल आता है.अपना दुख दिखाई दे उसके पहले अपनों की पीर कलेजा चीरती है.'
माँ की सहानुभूति उसके साथ है .वे कहे जा रही हैं, 'राय साब ने अपना कर्तव्य निभाया.  अपनी संतान के लिए ,कोई और क्या देखता है  समाज में सम्माननीय भरा-पुरा समृद्ध परिवार ,लायक लड़का    , दूसरी  बात कोई  कैसे सोचता ?'
उधर से कोई आवाज़ नहीं  .
' बेटी, मैं तो ख़ुद कभी निश्चिंत नहीं हो पाई , अपने मन चोर आज तुम्हारे सामने खोल दूँ.
 पिता की बात आने पर दोनों कैसे  बच्चे बगलें झाँकने लगते हैं  ,कोई उत्तर न बन पड़ता .देख कर क्या बीतती है मुझ पर ! मीता, तब मुझे बड़ा पछतावा लगता  है ..बच्चों का उतरा चेहरा देख , मन में बड़ा मलाल आता है .प्रश्न उठता है - क्या अपनी ही ज़िद के लिए चली आई हूँ ? अपने को कभी दोष-मुक्त नहीं मान पाती. अंदर ही अंदर कोंचन  उठती है कि वहाँ रुक जाना ठीक होता या जो मैंने किया ?
 'माँ , आपने बिलकुल ठीक किया  .''
मेरे मन में भी यही आया था, अच्छा हुआ उसने कह दिया .
वे अपनी कहे जा रहीं थीं,' . ... यही चाहा था मैंने  ,यही कोशिश की थी कि मेरी संतान में  वह ऋणात्मकता न उतर आए ..,जान लड़ा दूँगी उसको एक संपूर्ण व्यक्ति रचने के लिए ,संस्कारित ,संतुलित,समर्थ और उत्तरदायी - देह से  और मानस से भी....' 
'उस स्थिति में आपने इतना सोच लिया ,मुझे ताज्जुब होता है माँ ' 
अरे, इसे तो  बिलकुल मेरी तरह लगता है !
 मुझे भी आश्चर्य है,उच्च शिक्षा नहीं पाई  उन्होंने , फिर कैसे इतना सोच गईं ? पढाई-लिखाई बाद में की है.माँ का मन इतना सचेत कैसे रहा ?उनकी सोच-विचार ,भाषा,व्यवहार से कोई भी उन्हें सुशिक्षित समझता था यह तो मैंने शुरू से देखा है.अनायास ही लोगों का ध्यान  उनकी ओर खिंच जाता था .
बाद में मैंने एक बार पूछ लिया था,' माँ ,तुम्हारी बातें बेपढ़ी स्त्रियों जैसी कभी नहीं रहीं .यह सब तो तुमने बाद में किया ..'
वे हँस पड़ीं थीं ,' समझ गई , इतनी कुबड्ड नहीं थी मैं .नागरी-प्रचारिणी की परीक्षाएँ दी थीं ..'
'अच्छा!'
'हाँ ,विद्या-विनेदिनी ,मध्यमा वगैरा .. विशारद की भी तैयारी थी पर तभी शादी हो गई  और तुम्हारे पिता को लगा  ये भी कोई पढ़ाई है ,घर बैठकर उल्टा-सीधा पढ़ लो और पास !'
'...और जानते हो बाद में जब नौकरी की तो उनका भी  लाभ मिला .
तुम्हें पता है मुन्ना ,मुझे पढ़ने का बहुत चाव था .नानी के घर पड़ोस के कॉलेज प्रवक्ता की दो पुत्रियों का खूब आना -जाना था. हमारी अच्छी पटती थी किताबों का लेन-देन और दुनिया भर की बातें चलती थीं .'
हाँ , माँ बँगला के उपन्यासों की बहुत शौकीन थीं.स्कूल में किसी के पास दिख जाय ,वे अब भी चूकती नहीं - माँग कर  दो दिन में लौटा देती हैं - मैने उन्हें हिन्दी के उपन्यासों की चर्चा करते भी सुना है.
   अब समझ गया हूँ ,डिग्रियों और विश्ववि्द्यालयों से कुछ नहीं होता .अगर व्यक्तित्व में परिष्कृति और ग्रहणशीलता हो तो उनके बिना भी बहुत कुछ हो सकता है .और हाँ , मामा कहते थे वे लिखती भी थीं ,उनके स्कूल की डिबेट के लिए कई माँ ने बार लिखा था जिस पर वे जीते थे 
रात में मैंने  उन्हें कभी-कभी अकेले बैठे सोचते और बीच-बीच में कुछ लिखते देखा है .
उनकी साथिनें अक्सर कहतीं थीं,' ललिता ,तुम बोलती हो तो लगता है किसी ने रेडियों खोल दिया हो ,सधे हुए शब्द ,प्रवाह में निकलते चले आते हैं.'
वहीं खड़े-खड़े किस अतीत में पहुँच गया . अचानक कुछ शब्द सुन कर सजग हुआ .मीता कह रही थी,
  ' तब मैंने कहा था - मैं अड़ने को तैयार थी ,तब ब्रजेश तैयार नहीं हुए . वे  कुछ बन कर दिखाना चाहते थे .  नहीं तो फ़ैसला तभी हो जाता. और बाद में वह मौका नहीं  आया कि योग्यता का प्रमाण ले कर खड़ी हो जाऊँ ?'

'यही कमी तो औरत में है, जो अपनों की कीमत अपने से चुकाती है .'
दो स्त्रियाँ एक दूसरी से अपने अंतर का दुख बाँट रही हैं - मैं साक्षी बन कर क्या करूँगा !
वे भले हलकी हो जायँ , मेरे मन का भार  और बढ़ जायेगा !
नीचे उतर आया.
 'वसु, वे लोग बहुत बिज़ी हैं ,मैंने डिस्टर्ब नहीं किया.दस मिनट और रुके जाते हैं .'
*

8 टिप्‍पणियां:

  1. स्त्री मन की गहरी परतें खोलती जा रही है कहानी... एक स्त्री मन ही ही दूसरे स्त्री मन को समझ सकता है, कभी कभी वैसा मन पुरुष के पास भी हो सकता है...

    जवाब देंहटाएं
  2. यही कमी तो औरत में है, जो अपनों की कीमत अपने से चुकाती है.... बेहद सशक्‍त प्रस्‍तुति

    जवाब देंहटाएं
  3. आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति आज गुरुवारीय चर्चा मंच पर ।। आइये जरूर-

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत कुछ खोचुकी स्त्री के पास अपना दुख बाँटने भर की इच्छा शेष रह जाता है । कहीं बाँट सके यह भी एक सम्बल ही है । मार्मिक कथा ।

    जवाब देंहटाएं
  5. आज कथांश में एक चरित्र का उल्लेख अचानक आना मुझे असहज कर गया... अभी तक ब्रजेश, मीता, वसु और अम्मा के इर्द गिर्द घूमती हुई कहानी एक मनोवैज्ञानिक पहलू प्रस्तुत कर रही थी इन सारे चरित्रों का... किंतु आज कहानी में एक औरत का एक दूसरी औरत को पराए मर्द से बचने की सलाह देना, जो उसकी पिछली ज़िन्दगी से वाबस्ता किसी घटना से उपजी थी... सुनकर मन अजीब सा हो गया! हक़ीक़त तो है, लेकिन ....!!

    माँ, देखता हूँ आगे यह पहलू और स्पष्ट हो पाता है या बस इसी कथांश में एक सन्दर्भ मात्र बनकर रह जाता है!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. कथा की दुनिया में प्रधान और गौण पात्र गिनती के हों सलिल ,लेकिन चलते-फिरते अनेक पात्र मिलते हैं जिनके व्यवहार से प्राप्त क्रिया-प्रतिक्रिया को नज़र-अंदाज़ नहीं किया जा सकता .उनका आना-जाना मैटर नहीं करता पर उनका इस दुनिया में होना और आंशिक दखल देना एक वास्तविकता है.

      हटाएं
    2. सही कहा माँ! यही गौण पात्र कई बार मुख्य पात्रों के चरित्र को और उजागर करते हैं!! हमारे सामाजिक जीवन में बहुत से ऐसे ही किरदारों से दो-चार होने का अवसर मिला है... मैं ऐसे चरित्र की तुलना किसी पेण्टिंग में इस्तेमाल हुए ऐसे रंग से करता हूँ जिनके थोड़े से इस्तेमाल से मुख्य चित्र में ग़जब का आकर्षण पैदा हो जाता है!
      मैं असहज इसलिये हो गया था, क्योंकि ब्रजेश से एक जुड़ाव सा हो चला था इन दिनों... सोचा पता नहीं उसे कैसा महसूस हो रहा होगा!

      हटाएं
  6. kya likhoon>>??
    kahani ke shabd, paatron ke mann kee vyathaayein, antas, maaanas...sab kuch umas ke jaisi peeda paida kar raha hai...na chahte hue bhi zehan baras raha hai..aankhein bhi geelin hain.
    kehna sambhav nahin. talkh ho jaungi.

    जवाब देंहटाएं