सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

सागर-संगम - 5

लोकमन -
कभी विराम नहीं  ले पाती बहती जीवन धारा ,
द्वापर युग के भँवर-जाल में, नर  फँस गया  बिचारा .
तब अवसन्न विषाद मुक्ति हित कर्म-मंत्र  जब फूँका
समर-क्षेत्र में गूँज उठी थी  कर्म-योग की गीता  .
लेकिन कैसी विभीषिका , हम अब तक उबर न पाए !

 सूत्र. - ओह कवि,कैसा युग था !याद कर मन सिहर उठता है .

लोकमन -
वह युग था संशय का,घोर असंयम अपसंस्कृति का,
 जीवन-मूल्यों का क्षय, टूटीं थीं सारी  सीमाएँ.
संयमहीन हो गया मन  ले  अंतहीन इच्छाएँ ,
चौथेपन की बढ़ी लालसा आतुरता की सीमा,
 भोगों में आसक्ति कि जिसने  सब विवेक ही छीना .
सूत्र. - शासक ही जब अपनी दुर्बलताओं का दास हो फिर  तो देश का  भगवान ही मालिक है .
(गहरी साँस )गंगापुत्र भीष्म जैसा शासक मिला होता भारत का इतिहास ही कुछ और होता . उस अति के कारण आगे का जीवन विकृत होता चला गया .परिणति थी  विनाशक महभारत का युद्ध .
नटी- हद तो यह है ,किंदम ,ऋषि हो कर भी इसने लालसांध हो गये कि तृप्ति हेतु पशु रूप धर लिया .और कोप-भाजन बने पांडु ,जिनसे कुछ आशाएँ थीं वह भी गये .
लोक -
कुल डूबा ,संस्कार कहाँ से वहाँ प्रतिष्ठित होते
 विकृत मानसिकता के आगे नीति-वचन चुप होते
क्षीण हो गई शक्ति ,दीन सी विवश हो गई धरती
नारी और प्रकृति दोनों पर   मनमानी थी नर की
और युद्ध अवश्यंभावी हो गया .
(मंच पर मुक्त केशा पांचाली ,और कृष्ण)
पांचाली -कहो यादव ,तुम्हारा प्रयत्न  निष्फल  गया ....मैं जानती थी वे किसी प्रकार सहमत नहीं होंगे .वे  नहीं चाहते कि हम जीवित भी रहें.
कृष्ण - मैं अपनी ओर से प्रयत्न करने गया था कि महाविनाश रोका जा सके .
द्रौपदी - अब क्या करोगे.
कृष्ण - अभी से क्या कहूँ यह तो  समय बताएगा .
(अर्जुन का प्रवेश)
- सूचना मिली है कि दुर्योधन तुमसे सहायता माँगने आ रहा है .
कृष्ण -आने दो उसे भी .
द्रौपदी-तुम उसके सहायक बनोगे .
कृष्ण - हाँ पांचाली ,मैं किसी को छोड़ नहीं सकता .
अर्जुन - तुम ही जानो जनार्दन .मुझे तो बस तुम्हारा ही आसरा है.
कृष्ण .-चिन्ता मत करो मित्र ,मैं या मेरी नारायणी सेना -तुम्हें जो लेना हो चुन लेना
अर्जुन -- अकेली सेना का क्या करूँगा .जहाँ तुम रहो वहीं मेरा धर्म है .
द्रौपदी - तुम्हारे बिना कुछ नहीं .बस तुम हमारा साथ देना.
( दृष्य समाप्त).
 लोकमन -
क्षिति का  हृदय विदीर्ण , उर्वरा हुई ज़हर से लथपथ
भस्मसात् अंतःसलिलाएँ ,वायु  धूमभर   नभपट
सदियों तक अवसन्न धरा उन अभिशापों से तापित
उस युग का वह विकृत सत्य सारे भविष्य पर छाया ,
बनमाली ,गोविन्द ,जनार्दन ,चक्रपाणि बन आया
सूत्र - दैवी अस्त्र .यह अणु-परमाणुओ के विस्फोट ही थे जो सदानीरा सरिता की गति और धरती की कोख को दग्ध कर गए .
नटी - लोग कृष्ण को रसिया नायक बना देते हैं, कितना ग़लत है . सोलह हज़ार वंचिताओं को स्वीकार उन्हें सम्मान से जीने का अवसर दिया ,हर वर्ग की नारी को जीवन के आनन्द को पाने का अधिकारी माना .सारे दोष स्वयं पर ले कर सब का हित संपादित करते रहे .और हमने उनके साथ क्या किया ?
सूत्र - श्री कृष्ण के व्यक्तित्व और  कृतित्व को हमने कितना कम समझा  !जीवन में उतारने के बजाय उन पर  अपनी वासनाओं का आरोपण कर डाला . अब भी अगर  उनके महावाक्य को अपना आदर्श बना लें तो जीवन सफल हो जाए .

लोकमन -निर्मल प्रेम नेम जीवन ,सचमुच यदि बन जाये ,
 भटकन से बच मानवता फिर  नवोन्मेष पा जाये !
जीवन की आनन्द चेतना सहज व्यक्त हो सबकी
मान रहे माटी का , हर मन नैसर्गिक सुख पाये

समय-समय पर हम कर लें यों ही अंतर्यात्राएँ ,!
सूत्र.- सही दिशा में बढ़ने के लिए ये अंतर्यात्राएँ बहुत आवश्यक हैं .अपने अतीत को भुला बैठा है .इसीलिए आज का इन्सान भटक गया है  .
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5 टिप्‍पणियां:

  1. अतीत से कितना कुछ सीख सकता है मानव..बहुत सुंदर गाथा...बहुत दिनों बाद आपका आगमन मन को हर्षित कर गया

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  2. कृष्ण अद्भुत थे...और द्रौपदी भी.....इन्हीं को लेकर काफी रचनाएं हुई हैं....आप बेहतरीन चित्रण करती हैं..आप इसे पुस्तक का आकार कब देने जा रही हैं..प्रतीक्षा रहेगी आपकी पुस्तक की...
    मंगल कामनाओं सहित,
    सादर

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (09-02-2014) को "तुमसे प्यार है... " (चर्चा मंच-1518) पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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