शनिवार, 27 अप्रैल 2013

हिन्दी की जान !

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सुन रही हूँ पूर्ण-विराम की खड़ी पाई या डंडा हिन्दी की जान है,उसके बिना उस की मौत हो जाएगी.बचपन  में कहानियाँ सुनी थीं परियों की ,राक्षसों की ,जादूगरनियों की ,उनमें से किसी- किसी की जान ,कहीं पिंजरे के तोते में ,किसी छिपी डिब्बी में बंद माला में  या ऐसे ही कहीं एक जगह रखी रहती थी. तब बड़ा कौतुक होता था सुनकर .उसके पीछे खूब तमाशे होते थे. कोई पूरी तैयारी से उसे मारने पर तुला होता था. बचानेवाला तो हीरो होगा ही  पर दुष्ट लोग उसे अपने वश में करने के पूरे यत्न करते रहते थे.
आज वही हिन्दी के साथ हो रहा है. इतनी प्राचीना,आयु-प्राप्ता हो गई, पहले भरा कुटुम्ब रहा - सब एक साथ मैथिली ,मगही ,भोजपुरी ,राजस्थानी ,बुंदेली ,अवधी ,ब्रज ,बाँगड़ू ,और भी कितनी ,सब एक परिवार रहे .कोई बोली लिखें-बोलें हिन्दी होती थी. यह भी सबके साथ मिल कर चलनेवाली ,उदार-मना ,आपसी लेन-देन में विश्वासवाली .
समय बदला, मन बदल गये. कमरों में रहनेवाली बोलियाँ बाल-बच्चोंवाली हुईं . अपना -अपना अलग करने लगीं. उनके बच्चे तू-तू ,मैं-मैं पर उतर आये. अलगौझा होने लगा बँटवारे की नौबत आ गई .रह गई खड़ी बोली .अकेली क्या करे !जो अपनेवाले थे, घर से ,बाहर निकले तो अंग्रेज़ी के सम्मोहन में ऐसे फँसे कि मुँह चुराने लगे ,उपेक्षा करने लगे. जैसे हिन्दी के होने से उनकी शान घटती हो.
यों समय के साथ चलती आई है हिन्दी, तमाम नये चिह्नों को ग्रहण किया है ,बढ़िया निभ रहा है.बवाल है फ़ुल-स्टाप पर . सबके साथ उसका प्रवेश भी हुआ.पर उसे देख लोग भड़क गये .कबीर के शब्दों में कहें तो 'उनहिं  अँदेसा और .. ' एक  बिन्दु  आयेगा तो साथ लायेगा नौ सौ जोखिम . यहाँ लोग दीवार देख कर रुकते हैं ,छोटी-सी बिन्दी किनारे कर देते हैं. हर छोटी-छोटी बात पर  कौन ध्यान देगा ? नई पीढ़ी भी साथ छोड़-छोड़ भाग रही हैं.जब अपने ही कन्नी काटने लगें,कैसे सधेगी भाषा बिना डंडे के !जिस डंडे के कारण अब तक जमी हुई है, चलती-फिरती है ,वही छीनने पर उतारू हैं लोग , कैसे सँभलेगी, कहाँ तक अपना भार ढोयेगी .एक ही तो सहारा है .
 सो  वही डंडा पकड़ाये दे रहे हैं !
भाई लोगन का कहना है हिन्दी अब पुरनिया भईं ,इनके पास अपने ज़माने का एक ही तो निशान बचा -डंडा , सबसे निराला! उसे काहे हटाय दें ?  ई और लोग ,उहै डंडा खींचन पे उतारू .छोटी सी बिन्दी से साधना चाहते हैं. जो हिन्दी की राह का  रोड़ा है.वैसे ही कमज़ोर ठहरी लड़खड़ा कर लुढ़क जाएगी .अंग्रेजी आदि  भाषाओँ ने इसे खूब साधा. उन में इतनी व्याप्ति और मज़बूती है ,ऊपर से सब मिलकर साध लेते हैं- कितने भी रोड़े डाल कर देख लो !
इधर अपनी साथिन मराठी भी समर्थ है.उसने  विश्राम-सूचक लघु बिन्दु उत्साह से स्वीकारा ,मज़े से धार लिया .उसके अपने लोग हाथों-हाथ लेते हैं.
मतलब यह कि डंडा होगा, किसी की मनमानी नहीं चलेगी. हम तो कहते हैं हालातों ने जो नई ध्वनियाँ डाल दीं -ऑ,क़,ख़,फ़,ज़ आदि उन्हें भी धकिया दो ,पराई आवाज़ों की कोई जरूरत नहीं . हिन्दी हमारी माँ है ,जैसी है बढ़िया है .बुढ़िया है फ़ैशनेबल मत बनाओ(बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम वाली नौबत न आये) .हिलती-डोलती-चलती रहे बस!. ये  सब अविचारी उसका विराम-दंड छीन, फ़ुलस्टाप पर टिकाना चाहते हैं .अगर   माई भरभरा कर गिरी , तो कौन सेवा-सुश्रुषा करेगा? गिरी-पड़ी यों ही बिदा हो जाएगी..और तब सारा पाप-दोष ,देख लेना, इन्हीं डंडा छीननेवालों के सिर पड़ेगा!
तो फ़ुल-स्टॉपवाली बिन्दी को गोली मारो,बस डंडा उसके हाथ पकड़ा कर निचिंत हो जाओ !
समझदार को इशारा काफ़ी! 
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(हमारी मातृभाषा इतनी विवश और दुर्बल नहीं कि ,विराम का डंडा हटाने से धराशायी हो जाये .फ़ुलस्टाप लगाने से उसकी गतिशीलता किसी प्रकार कम नहीं हो सकती .हिन्दी ने भी अन्य भाषाओं की तरह बिन्दु के प्रयोग को जहाँ स्वाभाविक रूप में ग्रहण किया वहाँ उसकी गतिशीलता किसी प्रकार बाधित नहीं हुई . )

11 टिप्‍पणियां:

  1. वाह प्रतिभाजी क्‍या बात है? आज तो आनन्‍द ही आ गया। यह दुनिया का चक्र है कभी कोई पीछे और कभी कोई आगे। हिन्‍दी हमारी सदा बनी रहेगी और राज भी करेगी। यह बुढ़िया नहीं बनेगी जी।

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  2. बिलकुल ठीक कहा है आपने...हर भाषा की अपनी व्यवस्था है...उसका सौन्दर्य है उसी में...

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  3. बहुत सुन्दर प्रतिभाजी, क्या बात है ......
    लाठी में गुन बहुत हैं, क्यों न राखिहैं संग |

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  4. what about chandra bindu?

    From : Narender Pal Singh
    Email : narenderpalsingh36@gmail.com

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  5. बहुत खूब लिखा आपने | बहुत ही सुन्दर शब्दावली द्वारा विचारों को अभिव्यक्त किया | पढ़कर अच्छा लगा | सादर

    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
    Tamasha-E-Zindagi
    Tamashaezindagi FB Page

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  6. शकुन्तला बहादुर28 अप्रैल 2013 को 10:08 pm बजे

    स्वतंत्र भारत की राष्ट्रभाषा में भी नित्य नये विदेशी शब्दों और चिह्नों के प्रवेश और प्रयोग की धड़ल्ले से पूरी स्वतंत्रता है।जिसे बिन्दु भाए,बिन्दु लगाए।जो पुराणपंथी डंडा लगाना चाहे लगाए।कौन किसी का कोर्टमार्शल हो रहा है?यों डंडे का प्रभाव देखिये कि हास्य-व्यंग्य का पुट लिये ये सुन्दर आलेख पढ़ने को मिला।लेखिका ने अपनी बात भी कह दी और परनिंदा भी नहीं हुई।वाह! वाह!!

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  7. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  8. रोचकता से अपनी बात कह दी आपने.
    समझदार को इशारा काफी है :)

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  9. यूनिकोड में डंडा लगाने का तरीका भी बताएं..आपकी इस पोस्ट में भी तो बिंदी ही नजर आ रही है...

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  10. अनिता जी,
    हिन्दी-भाषा बहुत समर्थ है,ऐसी बूढ़ी और लाचार नहीं कि डंडे के बिना गिरी-पड़ी रहे और मर जाये.मुझे बिन्दु नई स्वीकृतियों के अनुरूप(पूर्ण-विराम के लिए)सुन्दर और सरल लगता है.मैं पूर्ण -विराम में बिन्दु लगाती हूँ .
    संभव है निहित व्यंजना के कारण मेरा कथ्य कुछ अस्पष्ट रह गया हो, आप शंका न करें .मैंने ब्लाग पर भी यह जोड़ कर स्पष्ट कर दिया है.
    आपने ध्यान दिलाया -आभार !
    - सस्नेह,
    प्रतिभा.

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