गुरुवार, 14 जून 2012

कृष्ण-सखी - 45 & 46 .


45.
शिविर का द्वार फटाक् सा खुला ,कहीं कोई आड़ नहीं .
निद्रा से अकस्मात जागे .वे पांचो शीघ्रता में अंदर घुसे .द्वार पर ही धृष्टद्युम्न का शव पाँवों से टकराया युधिष्ठिर गिरते-गिरते बचे .
आड़े-टेढ़े कई शव वहीं पड़े -शिविर में जो सोये थे वे सभी .
सामने खड़ी अस्त-व्यस्त -सी पाँचाली !आँखें एकदम सूनी ,आँसू अंतरग्नि  की आग से शुष्क ,यह वही तेजस्विनी पाँचाली है ?
पहचान में नहीं आ रही .
पड़े हुये कबंधों को बार-बार देखती है -ये हैं उसके पुत्र ?
किधर जाये, किसे उठाये ,किसे पुकारे ! कौन-सा कौन है पता नहीं चल रहा .
बार-बार आँखें फैलाये सिर घुमा-घुमा कर पांचों को देखती है फिर निढाल-सी  वहीं बिखरे रक्त के बीच धरती पर बैठ जाती है .कौन आया ,कौन गया कोई भान नहीं .
भीतर प्रविष्ट हुये पाँचो भाई,  सामने का दृष्य देख वहीं जड़ीभूत .
 न कोई किसी को देख  रहा ,न बोल  रहा .मुर्दनी छाई सबके चेहरों पर .कुछ नहीं बचा जो कहें-सुनें .
युधिष्ठिर एकदम शान्त - यह तो मरघटों की शान्ति है .
अर्जुन की मुद्रा पल-पल बदलती, और भीम चेहरे के भाव पकड़ में नहीं आ रहे , पल-पल विकृत होते .नकुल-सहदेव श्री-हत लुटे-से .
इनने तो एक-एक पुत्र ही खोया पर उसके तो पाँचो एक साथ मौत के घाट उतार दिये गये !
किसी का साहस नहीं हो रहा उससे कुछ कहे .
कहे कौन ?पाँचो पति दुख- मग्न एक साथ . कौन इस विषम घड़ी में उसे सांत्वना दे ,कुछ कहे ,संताप  बाँटे !
  कौन आगे आए?सब विमू़ढ़. एक दूसरे से आँख बचाते ,
और पांचाली ?
 अकेली  - एकदम निस्सहाय.इस समय कोई उसके साथ नहीं . अपने आप में बिलकुल अकेली !
सब स्तब्ध .जैसे सारा दृष्य वहीं जम गया हो ,चित्र-लिखित !
भीम के कंठ से मौन भंग करता  विचित्र- सा स्वर उठा ,'किसने ,कैसे ?'
अर्जुन ने सिर उठा कर देखा ,' एक ही तो बचा था ,वही गुरु-पुत्र अश्वत्थामा .और किसमें सामर्थ्य थी इतनी ?'
पता नहीं समय कैसे बीत रहा है ?
जब युधिष्ठिर ने सत्याभास वाला कथन किया तब किसे पता था कि इसकी यह प्रतिक्रिया भी हो सकती है ?
दोनों ओर की  चालें  .कौन कब बीस निकल जाए .
कौन धीरज देगा इसे ?  पाँच पतियों में से कौन ?
पाँचाली को अपनी ही सुध नहीं .

कौन आगे आये , हृदय से लगा कर सांत्वना के दो बोल बोल दे ?
. किसकी पत्नी है यह इस समय?
उसका दायित्व है -सबके भोजन का ,विश्राम का, देह पर अधिकार  बारी बारी हर एक का .
- किन्तु उसके लिये कब, कौन ?
बड़े-छोटे  भाई हैं.पत्नी के संबंध में भी पारस्परिक मर्यादा .कभी सम्मिलित चर्चा ,विचार-विमर्श नहीं .साथ में  हैं ,तो आपस में भाई है पति का रिश्ता चला जाता है  पृष्ठभूमि में .
किसी को साहस नहीं सामने आए ,सब स्तब्ध .
बहुत विचलित है पार्थ  -किसके कारण सह रही है पाँचाली इतनी यंत्रणायें . मुझे वरा था उसने .क्या दे सका मैं ?
पाने के नाम पर  बाँट दिया टुकड़ों में .
रह-रह कर हूक उठती है अंतर से .किससे कहें अर्जुन !

 रह-रह कर पांचाली का मुख देखते हैं .उसकी भाव-शून्य दृष्टि ,देख कर भी नहीं देख रही .
 हम? हम कब हुये उसके .सदा विपदा में अकेला छोड़ दिया !

 किसी से नहीं कह सकता. पाँचाली से भी नहीं .उसका मन औरों से फिर गया तो .कहीं कोई व्यवधान आ गया तो !
आँखें जल रही हैं ,मुखमुद्रा कैसी ?एक गहरी सांस .
खड़ा हो गया उठ कर, द्रौपदी की ओर देखा नहीं जा रहा .

अचानक कुछ आहट , धीरे से कृष्ण प्रवेश करते हैं
सामने दिखी अकेली अभागिनी  ,कोई सांत्वना देने वाला नहीं .
अग्नि संभवे ,जलो जीवन भर .कहाँ है अंत?
वे बढ़े,' कृष्णे !'
कैसी सूनी निगाहें .कुछ देख नहीं रही ,कुछ सुन नहीं रही .
क्या कहूँ ,कैसे सांत्वना दूँ ?
जो हो गया उसकी तो किसी ने कल्पना भी नहीं की थी .
कृष्ण ने आगे बढ़ कर पुकारा ,'पांचाली .'
द्रौपदी देख नहीं देख रही किसी को ! एकदम अपने आप में डूबी .
भीम उत्तेजित हो  उठे ,युधिष्ठिर की ओर देखा .रुक गये .
कृष्ण आगे बढ़ कर उसके समीप धरती पर बैठ गये .
अपना हाथ बढ़ा कर उसका हाथ पकड़ लिया .उसने दृष्टि उठा कर देखा - अपार करुणा से लहराते- वे दो नयन !
कुछ क्षण देखती रह गई वह .फिर सिर झुका कर उस हाथ पर टिका दिया .दूसरे हाथ से कृष्ण ने उस मुक्तकेशी शीश पर हाथ रखा  हौले-हौले थपकते .
आपद-विपद में एक ही आसरा -कृष्ण,परम सखा !
'मेरी व्यथा  को तुम्हीं समझोगे मुरारी,' -  इतना मंद स्वर, बस कृष्ण ही सुन पाये .
अर्जुन उठे .खड़े कुछ शून्य में ताकते .
द्वार की ओर बढ़े .एक उचटती-सी दृष्टि सब पर डाली ,पाँचाली पर टिकी .
फिर बाहर निकल गये
 कुछ शब्द पीछे छूट गये   - 'उस पापी का शीष लाकर  तेरे चरणों में डालूँगा तभी चैन पाऊँगा .'

युधिष्ठिर देखते रहे .भीम नकुल-सहदेव सब एकदम चुप.किसी की पूछने की हिम्मत नहीं पड़ी .
कहीं फिर कोई अनर्थ न घटित हो जाये !
नहीं अस्त्र-शस्त्र कुछ नहीं ले गया ,कुछ अनर्थ नहीं करेगा .भीम को इंगित किया युधिष्ठिर ने .वह उठ कर चला गया .
'सखी .उस हत्यारे ने पाँचों कुमारों को...'कृष्ण आगे बोल नहीं पाए.
आँखें फाड़ कर देख रही है  पांचाली  .
युधिष्ठिर की चिन्ता, 'कहाँ गया होगा ! पता नहीं कहाँ छिपा होगा  वह गुरु पुत्र अश्वत्थामा!.'
'पाप सवार है उसके सिर पर . कहीं थिर नहीं रह सकता .
 मिल जायेगा  कहीं .अभी लाते हैं  पकड़ कर उसे,' कहते हुये उठ खड़े हुये  कृष्ण , और शिविर से बाहर निकल गये .
**
46.
तमतमाये मुख भीम खुले द्वार से दिखाई दिये ,
अर्जुन लौटे ,कृष्ण लौटे ,पकड़ लाए थे अश्वत्थामा को .रस्सियों से बँधा हुआ.
एक धक्का दिया ,वह जा गिरा पाँचाली के पगों के पास  !
'दंड दो इसे,' कैसा स्वर हो उठा था पार्थ का .
 उस स्तब्ध शिविर में गूँज गया ,'इसे दंड दो पांचाली .इसने तुम्हारे सोते हुए पुत्रों की हत्या की है .पाँच पुत्रों की .कृष्णा, इसे दंड दो !'
 देखती रही चुपचाप उसकी ओऱ .फिर एक फिसलती-सी दृष्टि युधिष्ठिर पर  डाली .
'कहीं कोई दंड है ?  पांचाली की विचित्र वाणी ,
चरणों में गिर गया गुरु-पुत्र.
'मैं बाल घाती हूँ ,मैं पापी हूँ .'
झुका खड़ा है अश्वत्थामा .
एकदम द्रौपदी को लगा बड़ा कुमार चरण स्पर्श करने झुक रहा है .मेरा बड़ा कुमार ?दिल फटने लगा कहाँ है मेरा कुँवर? ...कहाँ हैं मेरे हृदय के पाँच खंड ?
नहीं .वह  नहीं यह अश्वत्थामा ,उनका हत्यारा !
एकदम कैसे लगा जैसे मेरा पुत्र खड़ा है ,क्या पुत्र सब के एक से होते हैं ?
'जाओ निकल जाओ ,मुख मत दिखाओ,'.कह उठी वह .
वह चलने के उपक्रम में  घूम गया .
कृष्ण ने मार्ग रोक  लिया .
'नहीं पहले दंड.'
वह देखती रही - सिर झुकाए इस दीन युवक को दंड?क्या करूँ जो इसे किये का फल मिले .क्या करूँ जिससे मेरा अंतस्तल शीतल हो ?
दो ही  निराले व्यक्तित्व थे .वसुषेण और अश्वत्थामा .
उसके शरीर पर कवच-कुंडल ,इसके माथे दमकती मणि !
अश्वत्थामा .ऊंचा-पूरा युवक - बलिष्ठ शरीर ,माथे पर मणि दिपदिपाती हुई !
आज कैसा खड़ा है पांचाली के सामने .शीष झुकाए .तेज हत .नेत्र उठ नहीं रहे ,और कृष्ण ने  झकझोरते हुये  कर  दिया द्रौपदी के आगे  .'लो ,यही है वह पातकी ,कायर , योद्धा के नाम पर कलंक , दंड दो इसे.'
अर्जुन सिर काटने को तत्पर .
'यह तो पहले ही मर चुका . कहाँ गया इसका तेज ,मणि पर कालिख पुत गयी .जब अंतरात्मा , की द्युति खो गई मणि क्या कर लेगी .अब मार कर हत्या मत लो पार्थ .छोड़ दो भीम .'
सब स्तब्ध !
कैसी वाणी बोल रही है आज,
'जिनके लिये हर तरह से निभाती रही .नीति-अनीति , समझते हुये भी मौन झेलती रही..जब वही नहीं रहे ....मेरा क्या ..
उन सबके और-और हैं ,और ठिकाने भी हैं ...मैं ही रह गई एकदम अलग.. .!'
उन विषम क्षणों में सब कुछ सोच गई वह .मन का उद्वेग ,शब्दों में फूट पड़ा था.
समझ रहे हैं जनार्दन .क्या बोलें .कैसे सांत्वना दें ?
'इसका शीश चाहिये मुझे ,' पार्थ फिर बढ़े .
पांचाली ने हाथ उठाया ,'गुरु-पुत्र है ,उन्हीं का अंश .नहीं .वर्जित है ,पार्थ उसकी हत्या . वह तो पहले ही मर चुका छोड़ दो उसे, रहने दो .'
कंठ भरभरा उठा, कुछ रुकी वह.
फिर सुना सब ने   ,' वे तुम्हारे गुरु थे ,उनकी हत्या ..अंतिम समय तक उनका मन इसी में पड़ा रहा....'
यह क्या कह रही है द्रौपदी !
कोई किसी को नहीं देख रहा, अपने आप में सब , स्तब्ध .
'मुझे नहीं चाहिये प्रतिशोध .हटा दो यहाँ  से इसे ...'
 बार-बार कंठावरोध  हो रहा है .रुक -रुक कर  संयत होने का प्रयत्न करती है -
'एक माँ  का दुख कैसा होता है तुम नही जानते, जनार्दन .नहीं ,मैं नहीं .....इसकी माता कृपी .अनपेक्षित  वैधव्य  की  यंत्रणा से नहीं उबर पाई होंगी वे ....नहीं मैं नहीं दे सकती एक और दुख ..कितना दारुण!  मैं झेल रही  हूँ जो . जानती हूँ हृदय का घाव कितना पीरता है . किसी पर न पड़े यह यंत्रणा ,यह दुख मुझसे नहीं सहन हो रहा ,माता कृपी का क्या दोष ? मैं किसे दोष दूँ ? .नहीं ,जाने दो ,जाने दो उसे कृष्ण .
जाओ गुरु-पुत्र ,चले जाओ यहां से .'
वह मुड़ा  .पार्थ का  स्वर उभरा ,'रुको, सुन लो जाने से पहले .ऐसे नहीं मुक्ति पाओगे तुम !'
 कृपाण उठा ली ,सिहर उठे सब .क्या हो  रहा है यह ?
उसके कपाल को बेध रहे हैं . मस्तक-मणि निकाल ली . रक्त की बूँदें टपक रही हैं .उसी के वस्त्र से पोंछ देते हैं अर्जुन. दारुण  पीड़ा से विकृत अश्वत्थामा .
,वह मांसल मणि अर्जुन के   हाथ में  है.
  हत-तेज,रक्त-रंजित वह विकृत मुख !
 'रहने दो !पार्थ,  क्या होगा उससे .मेरे बच्चे लौट आयेंगे मेरे पास ?'
कोई कुछ नहीं बोल रहा .
पांचाली का एकदम शान्त स्वर ,'तुमसे क्या कहूँ ,मुकुन्द ! जब नीति और धर्म के ज्ञाता स्वयं को नहीं रोक पाते तो अन्य लोगों को...'
कई दृष्टियाँ उधर उठ गईँ जैसे पूछ रही हों -
यह पांचाली क्या कह रही है -सुन रहे हो धर्मराज ?
वे सदा की तरह गंभीर ,अगम.
असह्य पीड़ा से विकल  अश्वत्थामा का हाथ चला गया घाव पर जिसे भिगोती रक्त- धार बह निकली थी.
 कैसा दारुण दृष्य !
गूँजने लगा, रह-रह कर छा जाते दुःसह मौन में  कृष्ण का स्वर ,' जा अश्वत्थामा, इस महिमामयी नारी ने छोड़ दिया तुझे .  चिर-जीवी हो तू,इस घाव की पीड़ा युग-युगों तक झेलता !याद करता रह अपने पापों को , क्षण भर भी शान्ति न मिले तुझे, शताब्दियों- सहस्राब्दियों तक .यही व्रण लिए भटकता रह कोई औषधि नहीं जिसकी ,केवल यंत्रणा ,दारुण संताप और पश्चाताप . युग-युगान्तरों तक जीवित रह तू . जा , जीता रह इस यंत्रणा के साथ अनंत काल तक ..!'
काँप उठी द्रौपदी ,
'मैं तो मुक्त हो जाऊँगी , जो हुआ उससे आगे निकल जाऊँगी, जनार्दन.ये यहीं अटका रहेगा .कैसा दारुण शाप !'
फिर घूमी उसकी ओर-
'जाओ, भाग जाओ ! खो चुके  सब ,जो साथ लाये  थे .'
'जाओ अश्वत्थामा, जाओ .बस, चले जाओ यहाँ से ,एक क्षण भी मत रुको .नहीं देखना चाहती मैं तुम्हारा मुख ,एक पल  के लिये भी नहीं . पता नहीं क्या कर बैठूँगी .तुरंत निकल जाओ यहाँ से .'
वह चला, पग जैसे बरबस घिस़ट रहे हों
विकृत-वीभत्स मुद्रा लिए रक्त टपकाता, वह निकल गया शिविर से बाहर .
*
(क्रमशः)

19 टिप्‍पणियां:

  1. चलिए, आपने जितना भी संकेत किया है, वह भी अब तक के ज्ञात ब्यौरों में नया कुछ जोड़ता है।

    पर इतने भर से क्या कृष्ण के हृदय की वह टीस क्या दूर हो पाएगी...वह कसक, जो कृष्णा की क्षोभ भरी दृष्टि से कृष्ण के हृदय में शूल बन कर धंस गई थी और जिसे लिए ही वह धराधाम से चला गया....उसका कुछ कीजिए न, बहना।

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    1. निश्चिन्त रहिये बंधु , मेरा भी ऐसा ही विचार है . मित्र के प्रति ही शंका रही तो फिर कृष्णा कहाँ शरण लेगी ,और श्रीकृष्ण निरुद्विग्न भाव से सहज-शान्तिपूर्ण लीला संवरण करें - यही प्रयास रहेगा.
      आप सब की शुभेच्छायें मार्ग देती रहें !

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  2. उत्कृष्ट गाथा |
    जबरदस्त प्रस्तुतीकरण |
    बधाई दीदी ||

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  3. शकुन्तला बहादुर14 जून 2012 को 11:39 pm बजे

    अतिशय मार्मिक घटना के दृष्य की अत्यन्त सजीव सी और सशक्त प्रस्तुती मन को छू लेती है।पाठक भी शोक-सिन्धु में डूब जाता है। ये लेखिका का उत्कृष्ट अभिव्यक्ति-कौशल ही है,जो वस्तुतः सराहनीय है।
    उस गहन विषादपूर्ण मनोदशा में भी पांचाली के वाक्यों से उसके चरित्र की उदात्त भावना मन को अभिभूत कर देती है।

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  4. द्रौपदी के पांचों पुत्रों के वध का दृश्य आँखों के सामने कौंध गया .... पाँच पतियों के होते हुये भी द्रौपदी नितांत अकेली ..... बस कृष्ण ही रहे उसके सखा ॰

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  5. धीरज धरम मीत अरु नारि, आपदकाल बिचारिए चारि

    मिलिए सुतनुका देवदासी और देवदीन रुपदक्ष से
    रामगढ में,
    जहाँ रचा गया मेघदूत।

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  6. hamare shaastr panchaali ke paanch patiyon ke hote hue bhi uski vishadpoorn, akele hi sab dukh sehne ki sthiti ko darshate hain jise aapki kalam ne aur bhi mukhrit kar diya hai...draupadi ki peeda ko mehsoos kiya ja sakta hai.

    aaj is shrinkhla me hame ashvthama k chir-aayu hone ka abhishap/vardan ke bare me bhi vistrit jaankari mili.

    aabhar apka in pauranik tathyon se hame ru-b-ru karane k liye.

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  7. उत्कृष्ट!
    अत्यंत जीवंत विवरण, मार्मिक दृश्य आँखों के सामने से फिरते चले गए। पांचाली का यह व्यवहार, मन में अपार आदर भर जाता है।
    आभार इतने गहन चित्रण के लिए।

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  8. किसी और ही दुनियां में पहुँच दिया...बहुत सशक्त मर्मस्पर्शी प्रस्तुति...नमन आपकी लेखनी को...

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  9. निशब्द हूँ ...बहुत बहुत आभार ..

    आपके उत्कृष्ट लेखन को नमन ...!!

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  10. शक्ति और चातुर्य का सबसे वीभत्स रूप युद्धकाल में ही दिखता है।

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  11. आत्मीय!
    वन्दे मातरम.
    लालित्यम में द्रौपदी की व्यथा-कथा का चिरंतन पीड़ा का सहभागी बना सका. सौभाग्य या दुर्भाग्य?
    आपकी समर्थ लेखनी को नमन.
    अनुमति हो तो इस आख्यान की पुनर्प्रस्तुति दिव्य नर्मदा में धारावाहिक करूँ.
    आपका आशीर्वाद दिव्यनर्मदा को भी मिले.
    भारत आगमन हो तो नर्मदा तट पर पधारें.
    कल महाकाल का प्रसाद पाया है... आपको स्मरण किया...
    पुनः नमन.
    Acharya Sanjiv verma 'Salil'

    http://divyanarmada.blogspot.com

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  12. आचार्य जी ,
    आप 'पांचाली' रुचिपूर्वक पढ़ रहे हैं जानकर प्रसन्नता हुई.
    अभी संपूर्ण नहीं हुई है ,लिखने का क्रम चल रहा है.सारे अध्याय अलग-अलग लिख कर लालित्यम् पर डाल रही हूँ .पूरे हो जाने के बाद एक बार समग्र रूप से देखना होगा कि कहाँ कोई दोहराव हो गया या कहाँ कुछ छूट गया,आगे-पीछे का संतुलन आदि भी .अतः मुझे लगता है इस स्थिति में पुनर्प्रस्तुति करना संभव नहीं है. क्षमा करें !
    आप मेरी स्थिति समझेंगे, कुशल रचनाकार एवं आचार्य होने के कारण विशेष रूप से -यही आशा करती हूँ .
    दिव्य-नर्मदा हेतु सदा मेरी शुभ-कामनाएँ !

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  13. शायद मुझे ऐसे नहीं सोचना चाहिए मगर जितनी बार पढ़ कर इस भाग की समाप्ति की ओर बढ़ती हूँ..हर बार एक ही प्रश्न आकार लेने लगता है कि क्या अश्वस्थामा का अपराध वास्तव में ही इतना बड़ा था..? जिन्होंने महाभारत रची..जिन्होंने रचवाई...उनका दोष केवल मृत्यु तक ही सीमित? मैं स्वयं अपने प्रश्न के लिए कई उत्तर मन ही मन दिए जा रही हूँ।संभवत: संतुष्ट हो ही जाऊँगी अपने उत्तर से।

    आपने कितनी कुशलता से मनोभावों को उकेरा है प्रतिभा जी...जबसे पांचाली के इस अंश पर आकर रुकी हुई हूँ...तब से बार बार अन्य पाठकों की प्रतिक्रियाएँ और पांचाली पढ़कर हृदय स्वप्न देख रहा है...कि काश! कोई कुशल और अनुभवी निर्देशक द्रौपदी के पात्र को एक नारी मन के तौर पर धारावाहिक के केंद्र में रखकर 'पांचाली' निर्देशित करता।ऐतिहासिक और पौराणिक ज्ञान के साथ-साथ प्रत्येक वर्ग की स्त्रियों को अपने मन और अपनी स्थिति को समझने में कितना लाभ मिलता।अपने ही उदारहण से कह रही हूँ..कि पांचाली का जो उदात्त चरित्र इस अंश में उभर कर सामने आया है..वैसा मैंने कभी नहीं पढ़ा/समझा था,बस महाभारत में देख लिया जिस द्रौपदी को..वही मन पर भी अंकित है आज तक। (जी..मुझे बहुत कम ज्ञान भी है...वो भी एक वजह होगी।) ख़ैर जानकर बहुत अच्छा ही लगा।मार्मिक अभिव्यक्ति के बाद भी मैं थोड़ा सा मुस्कुरा लेती हूँ अंत की पंक्तियों में क्यूँकि आज तक द्रौपदी की छवि मेरे मन में एक प्रतिशोध में जलती हुई नारी की थी।जैसे जैसे पांचाली पढ़ रही हूँ..छवि में नए रंग भर रही है आपकी लेखनी...कह सकती हूँ..सारे रंग बहुत सकारात्मक ही हैं..यदा कदा मुझे भी ऊर्जा प्रदान करने वाले....:)

    ( अनायास ही रावण और मंदोदरी याद आ गये।आपसे सदा ही सकारात्मक दृष्टिकोण पाया पौराणिक चरित्रों को देखने का ..समझने का।)

    नमन आपकी लेखनी को ..आपको !!

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