शुक्रवार, 25 मई 2012

कृष्ण-सखी - 41 & 42.



41
 किसी भाँति स्थिर नहीं हो पा रही पांचाली .
पिछली घटनाओं ने झकझोर कर रख दिया है .
सहज तो वे पाँचो भी नहीं - जैसे भीतर ही भीतर जैसे कुछ खटक रहा हो  .
जो भी हुआ ठीक नहीं हुआ.सारी घटनायें एक-एक कर मस्तिष्क में घूम गईँ . भीम द्वारा दुःशासन की छाती का रक्त पीना- सोच कर ही सिहर उठती है .अर्जुन ने कर्ण का वध किया - रथ का पहिया निकाल रहा था वह .
यह भी जानती है जन्म से प्राप्त उसके कवच-कुंडल, जिनके होते वह अभेद्य था ,किसी छद्मवेशी याचक ने पहले ही उतरवा  कर शरीर छील दिया .
 स्पष्ट है कि अर्जुन के हित में ही किसी ने यह क्रूर कृत्य किया .
वह क्या समझा नहीं होगा?
संतोष के स्थान पर एक तीखी चुभन व्याप गई .
क्यों? मैं क्यों विचलित हूँ -स्वयं से पूछती है ,उत्तर कोई नहीं .
रह-रह कर भीतर से उद्दाम रुदन का वेग उठता है .
कौरवों में कोई नहीं बचा ,अंत में दुर्योधन भी गदा-युद्ध में भीम द्वारा उरु-भंग कर अक्षम कर दिया  गया .
हाँ ,सुना है - नीति के अनुसार , गदा-युद्ध के लिये और किसी को न चुन अपने स्तर के भीम को ही चुना था उसने.
माता गांधारी के एक दृष्टि-पात से अभेद्य  बन गया था उसका शरीर .बस ,कमर के नीचे क्षीण सा आवरण - वही भीम  की गदा से खंडित हो कर भीषण  अपघात का कारण बना.
और तब बलराम भैया अपना आपा खो बैठे  .
दुर्योधन उनका प्रिय शिष्य था .
यह भी सर्व विदित है कि उनकी इच्छा तो उसी से अपनी बहिन, सुभद्रा का विवाह करने की थी .पर अर्जुन उसे पहले ही हर ले गये .
एक प्रश्न उठा था-
  'दाऊ ने भीम से कुछ कहा ?'
मस्तिष्क पर ज़ोर डालती है पांचाली - कहाँ ?किससे सूचनायें मिली थीं ?  याद नहीं आ रहा .
दोनो पक्षों में कार्य करनेवाले ,माली ,रजक ,स्वच्छकार आदि कुछ न कुछ बोलते रहते हैं .अंदर की कुछ सूचनायें सज्जाकारिनें अपने भीतर पचा नहीं पातीं ,अवसर पाते ही मुखर हो जाती हैं .कौन कहाँ आया-गया  उनके पारस्परिक वार्तालाप से कितना-कुछ पता चलता है.
कितने सूत्र हैं ,चर हैं , अनुचर हैं ,बाहर चलती चर्चायें हैं-विमभ्र में पड़ गई .
सिर घूम रहा है .
हाँ ,वह कथन ज्यों का त्यों याद है ,
'कहते क्या? हल ले कर दौड़े थे उसकी ओर ,' रे नराधम ,अभी अनीति का फल चखाता हूँ .'
पर छोटे भाई कृष्ण ने बीच में ही कौली भर ली ,समझाया इसने कैसी अनीति की थी ,कुल-वधू को सभा में अपनी जाँघें खोल कर ....'
' गृहवधू की सम्मान-रक्षा जिनका कर्तव्य था वही बेचने पर उतर आयें तो भी दोष दूसरे का ?दूध के धुले बनते हैं.. .'
उनका रोष बोल रहा था ,'.... प्रारंभ  उन्हीं ने किया, जो धर्मराज कहलाते हैं .मर्यादा किसने भंग की ? कुल-नारी को सामान्या किसने बनाया ? हार गये तो कहाँ रहा उनका अधिकार ?उनके लिये पराई नार हो गई वह ?सभा में बैठे वयोवृद्ध-जन क्या तर्क दे पाते - इसीलिये सब चुप ! फिर किस नाते भीम और पार्थ ने शपथ ली  ,
 वही तो आज्ञा देने वाले बड़े भाई थे .समझाते ,कहते  पांचाली  अब उनकी वस्तु हुई - वे जाने, हमें क्या ?
अरे ,भाइयों को तो पहले ही हार चुके थे ,  वे भी तो सुयोधन के जन हो गये थे .'
पाँचाली वितृष्णा से भर उठी. पत्नी को बलि का बकरा बना देनेवाला  पति कहलाने का अधिकारी ?
किसे क्या कहे ?उस दिन देखा था वहाँ - प्रतापी वीर पति माना था जिन्हें,हीन-वेष धारे सिर झुकाये  बैठे रहे !
कैसा लगा था?
सबसे समर्थ समझा था जिन्हें ,वे  तेज-हत, सबसे विवश.
तीक्ष्ण दृष्टि पतियों पर डाली थी उसने .
एक बार तो  उत्तेजित अर्जुन और भीम ने सारा अनुशासन तोड़ दिया था.
अर्जुन ने आँखें उठा कर युधिष्ठिर को देखा था - वह दृष्टि!  अपमान के दाह से विकृत ,क्रोध और तिरस्कार से कौंधती - द्रौपदी को लगा था  पार्थ अभी कुछ कर डालने को खड़े हो जायेंगे .
पर तभी भीम हाथ मलते बोल पड़े ,'मैं उस हाथ को जला दूँगा जिसने पांचाली को दाँव पर लगाया!'
नकुल-सहदेव अस्थिर हो उठे थे .
 चौंक कर, सब लोग इन भाइयों को ही देखने लगे थे .
दुर्योधन और शकुनि के नयन चार , जिनमें कुछ संकेत करता उपहास भरा था .
 पार्थ ने एकदम अपने को संयत कर सिर झुका लिया .
युठिष्ठिर शान्त निर्विकार .
पांचाली समझ रही है .
समझी थी तब भी , जब सभा में बुलाने आये  दूत को वह प्रश्न दे दे कर  बार-बार लौटा रही थी-
 युधिष्ठिर ने गुप्त रूप से एक विश्वस्त सेवक से कहलाया था 'यद्यपि वह रजस्वला है तथा एक वस्त्र में है,  वैसी ही उठ कर चली आये, सभा में पूज्य- वर्ग के सामने उसका उस दशा में कलपते हुए पहुँचना दुर्योधन आदि के पापों को व्यक्त करने के लिए पर्याप्त होगा.'
उनके लिये जन की सहानुभूति बटोरने को एक माध्यम भर - मैं !
पत्नी की आर्त-त्रस्त-दीन दशा का प्रदर्शन कर दया पाने की चाह - छिः!
घोर वितृष्णा से भर उठी वह.
वाह रे नीतिज्ञ !
आँखें जल उठीं थीं कृष्णा की - क्रोध या घृणा ?
कौन जाने !
*
42 .
अब भी जब याद आता है सुलग उठती है भीतर ही भीतर .
भूल जाना चाहती है. वह सब कभी याद न आये !
कोई बस नहीं चलता स्मृतियों पर . मन उन्मन होते  ही एक दूसरी को धकेलती चली आती हैं.
शान्त होना चाहती है .बहुत कठिन लगता है इतनी उद्विग्न मनस्थिति को झेलना .
दिन भर की विश्रान्ति के बाद वे सब निद्रा-मग्न , पर उसकी आँखों में नींद कहाँ !
 कितना अशान्त अंतर !बार-बार उठती है  -लेटती है .निद्रा का नाम नहीं .
  पाँच पतियों से रक्षित होने का गर्व पल भर में बिखर गया था .
समझ रही थी इन  कृती पुरुषों से जुड़ कर जीवन की उच्चतर भूमिकाओं में संचरण कर सकेगी . पर पत्नी के संदर्भ में वे नितान्त भोगी निकले .
हाँ, एक !केवल अर्जुन, संयमी -विचारशील ,पर कितना विवश !
यही असंतोष उसे  जीवन भर भटकाता रहा .
 कभी मुख से न कहे तो क्या  याज्ञसेनी जानती है .जिस सान्निध्य के लिये सब कुछ स्वीकार किया, उसी के लिये तरसती रही !
भीम स्नेहिल हैं , मन के भोले .दोनो छोटे अपनी सीमाओं में रहनेवाले .
धर्मराज युधिष्ठिर ? सब के संचालक -तब लगता था मितभाषी हैं ,गूढ़-गंभीर ,उनके मन की थाह कोई नहीं पा सकता .
 संतोष कर लिया था यह सोच कर कि भोग करना पुरुष-स्वभाव का अंग है  , उनका अघिकार है ,संतुष्ट करना मेरा कर्तव्य .पर हर बात की एक सीमा होती है .
और उस दिन सारे भ्रम टूट गये .वह स्मृति ही दग्ध कर देती है .
जिस संबंध को बड़ा सहज-सुन्दर और नितान्त अपना समझे थी,  भरी सभा के बीच, अपनी सारी विकृतियों और कुरूपता  के साथ  उद्घाटित हो गया .
आकाश से एकदम गहरी खाई में जा पड़ी थी वह .
क्यों याद आता है वह .जब भी निराश होती है ,वही सब मन पर घिर आता है.
 किसी एक की नहीं हूँ  -कौन साथ देगा मेरा ?
पाँच लोग ,पाँच तरह के मन .
*
पाँच लोग ,पाँच तरह के मन .
बरस-बरस, एक-एक के साथ पूरी निष्ठा से रहना है .किसी  से अंतरंग नहीं हो सकती .मन की बात किसी से नहीं कह सकती, कहीं परस्पर उनमें  भेद पड़ गया तो ?
नहीं,ऐसी स्थिति कभी न आये- यही संकल्प था मेरा !.
 कितना भी हटाने का यत्न करूँ  वही  बातें ही ध्यान में आई चली जा रही है.
उन्हें तो पाँच वर्ष में एक ही वर्ष उसका तन मिलता है .प्रत्येक का साथ देना है द्रौपदी को .
और मेरा मन ?उसे लगता है - कुछ नहीं ,मन नहीं है मेरे .  ,
उठ कर बैठ गई .बहुत देर से अनुभव कर रही थी वह कहना चाह रही है बहुत कुछ .मन में घुमड़ रहा है   ,संघर्षों को झेलता ,जीवन की तिक्तताओं और विषमताओं  से अनुतप्त शान्ति-हीन जीवन किसी नितान्त अंतरंग से  बाँटना चाहती है . पर किससे कहे ?
 कैसा प्रारब्ध था मेरा !
कैसा महाभारत चल रहा है -एक साथ दो -दो .एक बाहर एक भीतर !
साक्षी केवल पांचाली का मन !

सिर झटक दिया द्रौपदी ने - कुछ याद नहीं करना चाहती ,शून्य हो जाना चाहती है .अपने पर बस नहीं रहता. अस्थिर मन में सब उमड़ता चला आता है .
अंतरात्मा  चीत्कार उठी - यहाँ कोई नहीं मेरा ! क्या करूँ मैं ?
स्मृतियों के दंश  असह्य हो उठते हैं ,तब अंतर्मन से विकल पुकार उठती है -
हे जनार्दन ,परम-आत्मीय ,प्राण-सखा कृष्ण !कहाँ हो तुम ? बस तुम हो और कोई नहीं. किसी के काँधे संतप्त सिर नहीं रख सकती . वे सब एक हैं !
बस एक ही आसरा - मुकुन्द , माधव !
इन दिनों वे भी बहुत व्यस्त .दिन भर सारथी बने साथ देते हैं उन सबका .
 याद करती है उनकी कही बातें .कुछ आश्वस्त होता है मन .
पांचाली ने पूछा था ,'अपना राज-रनिवास छोड़ कर हर समय दौड़े रहते हो सखा .कभी-किसी के लिये, कभी किसी के पीछे .फिर भी कहनेवाले चूकते नहीं .जाने कितनी बार अपयश ही आया हिस्से में . असंतोष नहीं होता .. ?'

 'इसी में  मेरा सुख है ,मेरा संतोष है ।मेरा जीवन इसी के निमित्त है ।पर उस सब में डूबा नहीं अलग रहा ,साक्षी मात्र !'
'हाँ ,तुम तटस्थ रह कर हँसते-गाते  ,नाचते-नचाते रहे !
 वही कर्मयोग जिसे जीवन में उतारते रहे ,रणक्षेत्र में मुखर हो उठा .
वे शब्द कानों में प्रतिध्वनित होने लगे -
एक महानाट्य रचना चल रही है प्रतिपल. इस विराट् पटल पर दिक्-काल को पृष्ठभूमि बनाये परा-प्रकृति का ललित-लेखन ! रंगभूमि में नित नये पात्र ,नित नये प्रयोग. प्रशिक्षण चल रहा है अविराम ! उदाहरण और आत्म-निरीक्षण बस दो साधन, परिष्कार अपना स्वयं करना है यहाँ - स्व-भाव, क्षमतानुसार .अंतिम परीक्षा में कौन खरा उतरेगा  किसी को क्या पता !
(क्रमशः)

11 टिप्‍पणियां:

  1. असाधारण प्रवाह है, वेग है अंतिम पंक्तियों में! पांचाली के मनोभाव कितनी सूक्ष्मता से वर्णित होते जा रहे हैं।

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  2. ये सब ब्लॉग जगत की सांस्कृतिक धरोहर हैं।

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  3. निश्चय ही अनोखी प्रविष्टियाँ हैं यह! आज प्रिंट कर रहा हूँ सारे भाग, अवकाश में स्क्रीन से इतर पढ़ने के लिए!

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  4. aaj tak hamne draupadi cheer haran ko ek prasang roop me suna aur yaad rakha, kabhi uske dard ki gehrayi tak nahi doobe, lekin aaj aapki lekhni ne jis gehrayi se draupadi ke antas ki peeda ko ukera hai to man is peeda ko mehsoos kar raha hai aur draupadi ki vyakulta, bebasi ko, pandvo (yudhishter) k krity ko samajh pa rahi hun.

    aabhar is ehsaas ko antas tak pahunchane k liye.

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  5. -- यह एकान्गी तथ्य वर्णन है..
    ---पान्चाली एवं अन्य पात्रों के वास्तविक युक्ति-युक्त मनोभाव पढने-जानने हों तो.. नरेन्द्र कोह्ली की महाभारत पढें....

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    1. यहां पूरी महाभारत नहीं पांचाली है।

      इस तरह की रचना को एकांगी कह देना उचित नहीं प्रतीत होता। पांचाली और इस जैसी रचनाएं चरित्र प्रधान होती हैं, जिसमें मुख्य चरित्र, पांचाली के साथ पांचाली और उससे जुड़ी घटनाएं, पात्र और बातें ही होंगी। उसका विश्लेषण होगा। अगर यह एकांगी है फिर तो कैकेयी, यशोधरा और रश्मिरथी भी एकांगी हैं।

      महाभारत और उससे जुड़ी कथाएं एक तथ्य है, इसपर एकमत होना अभी बाक़ी है। अपने-अपने ढंग से लोगों ने इसकी व्याखाएं की है। भारतीय रचनाकारों के लिए महाकाव्य “महाभारत” एक स्रोत रहा है, यह तो अथाह सागर है, जिसे जहां से लगा, समाज को दिशा देने के लिए रचनाएं की। कोहली जी भी उनमें से एक हैं। पांचाली के मनोभाव लेखिका ने बहुत ही ख़ूबसूरती से चित्रित किया है और समाज को दिशा देने की ओशिश की है।

      कोहली जी के अपने सिद्धांत हैं किसी पात्र, विषय और स्थिति को समझने कहने के। एक पात्र के मनोभाव को चित्रित करने के। दोनों की तुलना मुझे सही नहीं लगता।

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  6. शकुन्तला बहादुर30 मई 2012 को 12:02 am बजे

    पांचाली को एकांगी कहना न्यायसंगत नहीं है।ये महाभारत के एक पात्र-विशेष के जीवन और उससे संबद्ध घटनाओं के पात्रों की ही कथा है,संपूर्ण महाभारत की नहीं।नरेन्द्रकोहली जी की महाभारत कोई इतिहास नहीं है।प्रत्येक रचनाकार कथ्य की प्रस्तुति अपने विशेष दृष्टिकोण से करता है।एक ही लीक पर लिखने से क्या नये साहित्य की उद्भावना हो सकेगी?क्या वह अरुचिकर पिष्टपेषण मात्र ही नहीं होगा?अतः तुलना करना अनुचित होगा।
    सभी पात्रों का चरित्र सहज स्वाभाविक,संवेदनशील एवं मनोवैज्ञानिक
    है,जो अत्यन्त प्रभावी होने से मन पर गहरी छाप छोड़ जाता है।
    "पांचाली" कृति लेखिका के वैदुष्य,सुललित शब्द-संयोजन और अभिव्यक्ति-कौशल की परिचायक है।मनोज जी के विचारों से मेरी पूरी सहमति है।

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  7. पांचाली की मनोस्थिति का गहन विश्लेषण .... वह पांच की हुयी पर उसका कोई नहीं ...मन की व्यथा को केवल अपने सखा कृष्ण से ही बाँट सकती थी ... याज्ञसेनी की व्यथा को महसूस कर पा रही हूँ .... यह आपके ही लेखन की सामर्थ्य है .... आभार

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  8. कितने अधिक विरोधाभास रहें हैं पांचाली के जीवन में।कैसे आमना सामना होता होगा उन पांचो से पांचाली का?कहा सुनी के प्रधान दृश्यों को छोड़ दें..तो भी दिन रात के कई घंटे बचते हैं,मौन का आवरण भी एक सीमा तक ही ओढ़ा जा सकता है।इतने सब विचार करती हुई..स्मृति के दंश सहती हुई पांचाली की दृष्टि युधिष्ठर से लेकर सहदेव तक को चुभती ही होगी!
    और यदि पांचाली इतना सब सोच ही रही है तो अपने जीवन साथियों के लिए उसके मन का आदर कहीं तो घटा ही होगा अवश्य!धर्म की स्थापना में माध्यम बने स्त्री पुरुषों को ही अंत में खाली हाथ रह जाना पड़े तो ये कैसी स्थापना? धर्म की ज्योति के कारण परस्पर प्रेम वाष्पीकृत होता रहे तो क्या लाभ?महाभारत का प्राप्य टटोलना चाह रही हूँ..आंकलन करना चाह रही हूँ धर्म के मूल्य का।संभवत: ईश्वर जिन्हें निमित्त बनाते हों..उनका प्राप्य अनुमान कर सकूँ ..अभी ये संभव नहीं।
    मेरा विचार बिंदु शायद पांचाली का जीवन हो गया है इस समय।ये वाला अंश पढ़ कर सोच में डूबी हूँ..कि जब तक श्रीकृष्ण के बताये कर्मयोग को मानव समझ कर आचरण में न उतार ले..तब तक अपने जीवन की किस घटना को मुख्य मानकर अपने भावी जीवन के सिद्धांतों की स्थापना करे?घटनाओं से भावनाओं से तटस्थ रहना भी बहुत आसान नहीं ही है।
    आपके लेखन से सदा ही अपने विचारों में चिंतन में गति पायी है।'पांचाली' मेरे लिए महज एक गाथा नहीं रह गया है। पांचाली में वर्णित तथ्यों और आपके दृष्टिकोण से व्यक्त प्रत्येक पात्र के हृदय को बहुत सहायक पाती हूँ अपने व्यक्तिगत जीवन में भी। विकट से विकट परिस्थितियों में पांचाली का व्यवहार और श्रीकृष्ण द्रौपदी का वार्तालाप मेरा नारी मन बहुत ध्यानपूर्वक पढ़ता है।
    शब्दों और भावना के इस सिन्धु में अपना हृदय तृप्त कर पा रही हूँ..सौभाग्य मेरा :)

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