सोमवार, 9 अप्रैल 2012

सावधान ,वे सड़कों पर घूम रहे हैं


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फ़िल्में और उनके गीत ,हमारे शयन-कक्षों और ड्राइँग रूम्स का हिस्सा बन चुके हैं .मुंबइया हिन्दी  हमारी भाषा में छौंक लगाने लगी  है (बिंदास ,मवाली,काय कू आदि  ). देर-सवेर .स्वीकारना पड़ेंगे ही
एक और वर्ग है जो अंदर घुस आनेकी फ़िराक में सड़कों पर पर घूम रहा है .खीसें निपोरते बार-बार अंदर तक चक्कर लगा भी  जाता है  ,वो तो हमीं लोग हैं जो पैठ बनाने नहीं देते ,टरका देते हैं .
इनकी  रूप-रचना  का काम हमारी कामवालियों ने किया है .घर में झाड़ू-पोंछा ,चौका बर्तन ,कपड़े धोना आदि काम ही नहीं सब देखती -समझती हैं .उनकी निरीक्षण क्षमता गज़ब की है और टीवी की कृपा से उनका मानसिक स्तर और विकसित होता जा रहा है ,रहन-सहन बोल-चाल सब पर दूरगामी प्रभाव !
आपने 'फर्बट' शब्द सुना है ?
हम तो इनके मुख से बहुत दिनों से सुनते आ रहे हैं .
अपनी कोई साथिन जब उन्हें अपने से अधिक चाक-चौबस्त लगती है तो चट् मनोभाव प्रकट करती हैं ,'अरे, उसकी मत पूछो ,क्या फर्वट है !'
इस युवा पीढ़ी का अर्थ-बोध और मौलिक उद्भावनाएं गज़ब की हैं
फर्वट - इसका मतलब है फ़ारवर्ड !
और फिरंट का मतलब जानते हैं ?
जो अपने से आगे बढ़ी हुई लगे उसे कहेंगी 'फिरंट'(फ़्रंट से बना है)-इसमें थोड़ा तेज़-तर्राक होना भी शामिल है.
'टैम' ने समय को विस्थापित कर दिया है ।और माचिस ! दियासलाई है भी कहीं अब ?
सलूका ,अँगिया आदि वस्त्र ग़ायब हो गये उनका स्थान ले लिया है ,ब्लाउज ,आदि ने।
हमारे एक परिचित हैं अच्छे पढ़े-लिखे उनका कहना है स्टोर्स में लेडीजों का माल भरा पड़ा है. एक दिन बोले हमारा पप्पू शूज़ों का बिज़नेस करेगा .
शूज़ों का बिज़नेस - यह भी सही है! शू का मतलब तो एक पाँव का एक जूता जब कि जूते हमेश दो होते है- शूज़ : और उसका बहुबचन शूज़ों ठीक तो है .
लेडीज़ों भी सही -अकेली स्त्रियाँ कहाँ मिलती हैं अब? दो-तीन साथ में. एक झुण्ड में लेडीज़ और  झुण्डों का बहुवचन लेडीज़ों ही तो .
थालियों में कौन खाता हैं सब पलेट में खायेगे ,चाहे फ़ूलप्लेट हो या छोटी पलेट .
अपनी हिन्दी  बदलती जा रही है  अब तो.
अंग्रेज़ी भाषा की तो बात ही मत पूछो ।अनपढ़ लोग, गाँव के वासी यहाँ तक कि महरी ,जमादारिन मालिन सबके सिर चढ़ कर बोल रही है ।
हमारे यहां एक प्रकार का मिल का कपड़ा होता है (लट्ठा).
अंग्रेज़ लोग तब लांग्क्लाथ कहते थे ,अपने देसी लोग 'लंकलाट' कहने लगे . चल पड़ा शब्द.
इसी प्रकार कैंपों में जब अंग्रेज़ संतरियों को किसी के उधर होने का संदेह होता था तो
ज़ोर की  आवाज़ लगाते  ,'हू कम्स देअर ?'
हमारे चौकीदार ने अपने हिसाब से शब्द पकड़ लिये 'हुकम ,सदर !'
एक बार मुझसे किसी ने  कहा - ये 'फ़ालतू' ''अफ़लातून' से बना है ..'
मेरे तो ज्ञान-चक्षु खुलने लगे .
अपने बचपन की बातें भी कोई भूल सकता है
हमें भी याद है - सुनते रहते थे उर्दू और हिन्दी में खास अंतर नहीं है. म.प्र में थे हम . वातावरण में हिन्दी अधिक थी ,उर्दू से दूर का वास्ता और संस्कृत पूजा-पाठ और विशेष अवसरों मंत्र पाठ स्तुतियों आदि में सुनने को मिल जाती थी..तो हमने समझने का  आसान तरीका निकाला था.--क,ख,ग,ज फ वगैरा के नीचे बिंदी (नुक़्ता) लगा दो ,और गले से ग़रग़रा कर बोलो तो उर्दू होती है .
स्कूल में कोई तर्जनी दिखा कर  कह दे आइन्दा ...'तो दम खुश्क हो जाता था. कि जाने कितनी खतरनाक बात कही गई .
और संस्कृत ! हिन्दी शब्द के अंत में म या न लगा कर उस पर हल लगा दो हो गया काम  (सुन्दरम्,आनंदम् ,वरम्,निकंदनम् सब हलन्त हैं).और उन्हें गा-गा कर पढ़ो तो संस्कृत हो गई .
पर ये तो पुरानी बातें है.
अब देखिए , अच्छे-पढ़े लिखे लोग सफ़ल लिखते हैं ? सफल लिख-बोल कर  कोई अपनी हेठी क्यों कराये ?
अब मालिनें भी फूल नहीं 'फ़ूल' बेचती हैं -फ बोलने से जीभ में झटका लगता है फल नहीं फ़ल खाना सभ्यता का लक्षण है.
अभी से सुनना-समझना शुरू कर दीजिए. नहीं तो पिछड़ जाएंगे .कुछ दिनों में ये शब्द साहित्यिक प्रयोगों में आने लगेंगे .क्योंकि पुराने तो विस्थापित होते जा रहे हैं ,लोगों को दुरूह लगने लगे हैं ,उनकी अर्थवत्तापर संकट आता जा रहा है .और ये नये टटके शब्द जनभाषा के हैं ,साहित्य को जनभाषा में ला कर उसे जनता के लिए अति बोध-गम्य बनाने का प्रगतिशील विचार इन्हीं को सिर-आँखों धरेगा .आपके आस-पास भी कुछ  घूम रहे होंगे, ध्यान दीजिये पकड़ में आ जायेंगे ..
मेरी समझ में एक बात आती है जब तक इस वर्ग की उपस्थिति समाज में बनी रहेगी .भाषा उनके अनुकूल ढलेगी .ढलेगी तो चलेगी ,और चलेगी तो इधर-उधऱ पहुँचेगी .घरों में, बाज़ारों में  वर्ग के साथ वह भाषा आयेगी ज़रूर .
जनता बोले वही असली भाषा - आगे तो वही चलबे करेगी !
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- प्रतिभा सक्सेना.

13 टिप्‍पणियां:

  1. क्या कहें प्रतिभा जी..जब कुछ भी शुद्ध नहीं रहा तो बेचारी भाषा की क्या बिसात..
    बढ़िया अवलोकन कर डाला है आपने.

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  2. :):) चल ही रही है भाषा .... अच्छे भले पढे लिखे लोग कहते हैं लाइटें जला दो .... फल - फ्रूट सेहत के लिए अच्छे होते हैं जैसे फल से बात समझ नहीं आती फ्रूट लगाना ज़रूरी हो ...
    बहुत बढ़िया व्यंग ...

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  3. आप जो कटाक्ष करते हुए जो ज्ञान देती है वह मन को एक मीठी मीठी चुभन देता है |प्रतिभाजी आपके ज्ञान वर्धक आलेख पढकर

    --- कबी कबी मैकू लगता है फेसबुक पर फ़ोकट टेम खराब कर रिया हू

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  4. बहुते बढि़या लिखे हैं।
    इसको पढ़के हमको धरमेन्दर का एक ठो डायलोग याद आ गया ... कि हम जहां खड़े होते हैं लाइन वहीं से शुरू होता है। अरे-अरे-अरे ई हमसे त बहुते बडका “बलन्डर मिसटेक”हो गया भाई ... ई डायलोग त अमिताभ बोले रहा था। लेकिन एक ठो और जो बात है पक्का ऊ ई है कि अमिताभ जो बोलता है ऊ “सीधे स्ट्रेट” माथा में ढुक जाता है , ठीक वैसहिए जैसे कि आपका इस लेख का बात।
    अब आप कन्फ़ुज़िया काहे रहे हैं, हम त आपको इस लेख के लिए फ़ुल्ल मार्क्स दे रहे हैं।

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  5. वाह क्या विश्लेषण किया है आपने मज़ा आ आगया आपकी यह पोस्ट पढ़कर सार्थक रचना :)समय मिले तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
    http://mhare-anubhav.blogspot.co.uk/

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  6. बहुत सुन्दर विश्लेषण किया है आपने प्रतिभाजी !
    वैसे हिंदी की यही तो खासियत है ...इसमें कितनी आत्मीयता है ...कितने प्यार और अपनेपन से, बोलचाल की भाषा को इसने अपने में समेट लिया है ...कितना सहेज हो गया है अपनी बात कह पाना ....और आखिर बोली होती किसलिए है ...विचारों के आदान प्रदान के लिए ही तो ना ....!

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  7. हिंदी भाषा का दिल इतना विशाल है की यह प्रत्येक भाषा को अपने अन्दर समाहित कर लेती है.

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  8. चित्रपट,लोकभाषा,ग्रामीण-प्रभाव एवं शिक्षा के अभाव के फलस्वरूप
    समय-चक्र के साथ ही नित्य परिवर्तित होते हिन्दी के रूप को रोक पाना वस्तुतः कठिन कार्य है।प्रतिभा जी का सूक्ष्मता से किया गया सर्वेक्षण प्रभावशाली है और सराहनीय भी। अभिव्यक्ति-कौशल के लिए लेखिका का साधुवाद!!- शकुन्तला बहादुर

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  9. Vinod Sharma vinodjisharma@gmail.com to shabdcharcha

    प्रतिभाजी,
    इस व्यंग्य-चित्र में भाषा की हो रही दुर्गति के प्रति आपकी व्यथा
    सहज ही प्रकट हो रही है। वैश्वीकरण के अनेक दुष्प्रभावों में एक
    यह भी शामिल है। हमारे देश के नीति-नियंता ही जब हिंदी को
    संरक्षण नहीं देना चाहते तो अंग्रेजी के चतुर्दिश प्रतिष्ठापन के
    चलते अल्प-शिक्षित वर्ग द्वारा अपनी समझ के अनुसार अंग्रेजी
    के शब्दों को जिस रूप में अपनाया जा रहा है, कालांतर में वे जन-भाषा
    के रूप में स्थापित भी होंगे। इसे विडंबना कहें या त्रासदी? स्वीकार
    करना ही होगा।
    विनोद

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  10. सचमुच! भाषा स्वरुप तो खो ही रही है।
    इस सूक्ष्म सर्वेक्षण के लिए आपका बहुत आभार!

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