सोमवार, 18 अप्रैल 2011

एक थी तरु - 14.& 15.


14.

"यह जो बाहरी दुनिया है इसके समानान्तर एक मेरे मन की दुनिया है " _ तरु ने कहा था .
"मुझे बताओ ,कैसी वह दुनिया ?''
पर तरु कैसे बताये ?
मन में जो कुछ है उसे व्यक्त कैसे करे ?वह सब क्या कहने की बात है !
फिर असित ने पूछा था ,"उस दिन,मेरी बात सुनते - सुनते तुम्हें क्या याद आ गया था ?तुम भी मुझे अपना साझीदार बना लो !."
"साझीदार ?" कैसे कहे तरु कि जहाँ वह निपट अकेली है,वहाँ कोई साझा नहीं चलता .मन में समाई वे बातें किसी तरह व्यक्त नहीं हो पातीं .वह सब मुँह से कहना संभव नहीं .नहीं असित ,जिन विकृतियों को मैंने जिया है ,उन्हें कैसे दोहराऊँ ?भीतर से बाहर आने का उनके लिये कहीं कोई अवकाश नहीं .उनका अनुभव कोई और करे यह मैं सोच भी नहीं सकती .
असित से वह कहना चाहती है -तुम्हारे अनुभवों का क्षेत्र बहुत व्यापक है ,तुमने जिन्दगी में बहुत संघर्ष किये हैं लेकिन वे अनुभव सामान्य जीवन के हैं.तुम उन्हें किसी को भी बता सकते हो तुमसे सबको सहानुभूति होगी .पर मेरे अनुभव ! मेरा विगत जीवन की विकृतियों का कटु अध्याय है,.उन पृष्ठों को खोलते मुझे स्वयं घबराहट होती है .सत्य बहुत विचित्र होता है ,जिसे सहज रूप से स्वीकारा नहीं जा सकता .मैं किसी से कुछ नहीं कह सकती .तुम पूछते हो तो मैं अव्यवस्थित हो जाती हूँ .अपनी बखिया आप ही कैसे उधेडूँ ?मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ कि कुछ बातें ऐसी होती हैं जो कभी मुँह पर नहीं आ सकतीं .अपरिचित से कहूँ भी कैसे ,अल्पपरिचित उस सबका हकदार नहीं और अति परिचित से कह कर हमेशा के लिये उसके सामने कुण्ठित हो जाऊँ ?ऊँहुँक् !
तरु को बिल्कुल चुप देख कर फिर उसने कहा ," मन को इतना बाँध कर क्यों रखती हो ?किसी को अपना साथी बना कर हल्का हो लेना क्या बुरा है !क्या मैं अपात्र हूँ?"
"नहीं ,ऐसी बात नहीं .पर क्या कहूँ कुछ समझ में नहीं आता .बात यह है असित जी, कि मैं कुछ अलग हूँ .मुझे ऐसा लगता है कि मैं सबके जैसी नहीं हूँ .शुरू से मेरी किसी से पटरी नहीं बैठती .इतना अशान्त है मेरा मन. किसी के साथ सुख -चैन से नहीं रह सकती .क्या करूँ, मैं हूँ ही ऐसी ."
"बेकार के वहम में पडी हैं .कुछ लोगों से पटरी नहीं बैठी तो आगे भी नहीं बैठेगी ऐसा कैसे सोच लिया ? और मेरे साथ तो आपकी खूब पटरी बैठती है .स्वभाव तो मेरा भी विचित्र है ."
"वहम नहीं है .आप नहीं जानते मेरे पिता ने बहुत कष्ट झेले थे ,उसके बाद उनकी मृत्यु हुई थी .मुझसे उनका कष्ट देखा नहीं जाता था .जिसे देख कर ही मैं विचलित हो जाती थी ,उन्हें वह सब झेलते हुए कैसा लगता होगा - मैं अनुभव करना चाहती हूँ ...."
तरु के गले में भीतर से उठती भाप का गोला अटक सा रहा था ,जिसे गटक कर वह फिर बोलने लगी ,."... और लोग ईश्वर से सुख -शान्ति की याचना करते हैं ,और मैंने क्या माँगा था ,जानते है ? मैंने मन-ही मन कहा था 'ओ मेरे अंतर्यामी,अ्ब तक मैंने तुमसे कुछ नहीं कहा .आज कहती हूँ - तुम मुझे भी इतना ही दुख देना ,जिसमें कि मैं अनुभव कर सकूँ कि उन्हें कैसा लगता होगा ! "
असित स्तम्भित सा बैठा है .तरु के मुँह पर छाई गहरी उदासी उसे कुछ कहने से रोक रही है .
तरु अपने आप में ही डूबी कहे जा रही है ,"मैं पैदा क्यों हो गई !यही सब देखने -सुनने को !और हुई भी थी तो ऐसा मन क्यों मिला मुझे -अड़ियल और ज़िद्दी ,फिर भी संवेदनशील !"
"असित जी ,किसी के दबाव में आकर मैं कुछ नहीं कर सकती .कितने भी विरोध झेलने पडें ,कितनी ही अशान्ति हो ,बड़े से बड़ा नुक्सान क्यों न हो जाय पर मन जिसकी गवाही नहीं देता उससे मैं समझौता नहीं कर पाती .कई बार कोशिश करके देखा ,पर तब मेरा ही अंतःकरण मुझे धिक्कारने लगा .और सब सह सकती हूं पर भीतर से उठती वह धिक्कार मुझसे सहन नहीं होती .."
"ऐसा भी कहीं होता है .?" असित के मुँह से निकला .
"हाँ ,वही तो . पर मेरे साथ यही तो मुश्किल है .मुझे जो लगता है कर डालती हूँ बहुत अव्यावहारिक हूँ न मैं ?"
"बड़ी मुश्किल है ,"असित अपने आप ही बुदबुदाया .
"मुश्किल में डाल दिया न आपको भी .छोड़िये यह सब ." तरु ने टॉपिक बदलते हुये कहा ,"रश्मि का रिश्ता कहीं तै हुआ ?"
"बात चल रही है .आशा है हो जायेगा .बात लेन-देन पर अटकी है .सब चाहते हैं पहले मेरी हो ."
"ठीक चाहते हैं ."
"और आप क्या सोचती हैं ?"
"हाँ ,अब आपको कर लेनी चाहिये ."
"मैं अपनी नहीं,आपकी बात कर रहा हूँ ."
तरु मुस्करा दी .
"सोचा ही नहीं कभी . मेरा स्वभाव बड़ा विचित्र है .कहीं गुजर नहीं होगी ."
"विचित्र स्वभाव वाले के साथ हो सकती है .और भी कोई ऐसा हो सकता है .ज़रा, सोचकर देखिये ."
मतलब समझ रही है वह .इसी प्रश्न से बराबर बचने की कोशिश करती रही है . अगर असित ने साफ़ पूछ लिया तो न ना करते बनेगा, न हाँ .
हाँ, कैसे करे विवाहित जीवन के अनुभव चारों ओर बिखरे पड़ हैं .असित के साथ जितनी देर रहती है ,मन संयत रहता है ,नहीं तो भटका-भटका फिरता है .कैसी उलझन है असित को चाहती भी है और विवाह भी नहीं !
फिर क्या प्लेटोनिक लव ? हुँह .प्लेटोनिक वाली बात निरी ढोंग लगती है तरु को .वह तो सिर्फ मजबूरी का नाम है .आत्मा और शरीर एक दूसरे से अलग कर दें तो जिन्दगी कहाँ रही ?
मन प्यार करता है, आँखें देखना चाहती हैं कान सुनना चाहते हैं ,जिह्वा बोलना चाहती है शरीर स्पर्श चाहता है ,हृदय अनुभव करना चाहता है .इनमें आत्मा कहाँ ?सब शरीर की इच्छायें हैं .आत्मा तो अलग खड़ी रहती है ,तटस्थ भाव से .और एक के बाद दूसरी कामनायें जागती जाती हैं .कामना - पूर्ति की अपनी - अपनी सीमाओं का निर्धारण सब अपने आप करते हैं .
तन और मन जहाँ एकाकार हो जायें वहीं है तन्मयता की स्थिति ,पूर्णता की स्थिति ,प्रेम की पराकाष्ठा !
पर दुनिया में ऐसा कहाँ मिलता है !

**

रजिस्टर पर हस्ताक्षर कर तरु ,शिखा के पासवाली अपनी सीट पर बैठी ही थी कि मधुरिमा ने प्रवेश किया .
शिखा और तरु की निगाहें उसके हाथ के बड़े से पैकेट पर जम गईं .
शिखा ने पैकेट छीन कर खोल डाला .उसमें से  निकला एक जो़ड़ा बेडकवर सामने फैला कर बोली ,"वाह !क्या सुन्दर कम्बीनेशन है !कित्ते में लाईं ?"
इतने में उसे पैकेट में पड़ा कैश - मेमो दिखाई दे गया .,"तीन सौ पच्चीस रुपये !बड़ा मँहगा खरीद डाला !"
"जब से नई गृहस्थी जमाई है यार ,अब तक कुछ खरीदा नहीं था .कल सेलरी मिली तो सोचा बल्देव को सरप्राइज दे दूँ.उन्हें यह कम्बीनेशन बहुत पसन्द है ."
तरु हाथ बढ़ाकर बेड-कवर छू रही है .यह छुअन उसे एक और बेड-कवर की याद दिला गई जो ट्रेन की यात्रा में उसे किसी ने उढ़ा दिया था ,जिसकी सुखद गर्माहट में लिपटी वह देर तक सोई रही थी .उस रात की याद आते ही रोमाँच हो आया उसे .भीतर ही भीतर लगा जैसे कुछ उमड़ा चला आ रहा हो.दाढ़ी की नोकें मुँह पर चुभती -सी लगती हैं .एक अजीब सी मोहक गन्ध नशे की तरह उस पर छाती चली जा रही है
मेज़ पर काम कर रही है तरल, पर मन भाग - भाग जा रहा है .रजिस्टर के जोड़ -घटाव के साथ मन में निरंतर एक जोड़-घटाव चल रहा है .असित और तरल,तरल और असित !कैसा जुड़ गया है यह संबंध जिसका कोई नाम नहीं ,केवल अनुभूति !
वह बार-बार उबरने की कोशिश करती है पर कैसी है यह सर्वग्रासी अनुभूति जो समस्त चित्तवृत्तियों को छाये ले रही है !कभी किसी के लिये इतना दुर्निवार आकर्षण नहीं जागा था .
असित ,तुम्हारे सम्पर्क में बीती एक रात ने, मेरी समस्त चेतना को मोहाच्छन्न कर डाला है .बहुत पहले पढ़ा हुआ विद्यापति का एक पद याद आ रहा है ,तब इसका अर्थ समझ कर विभोर हो गई थी ,पर आज उस अनुभूति की गहराई में पहुँच कर डूब-डूब जा रही हूँ --

"सखि कि पुछेसि अनुभव मोय ,
से हो पिरित अनुराग बखानिय पल-पल नूतन होय !
जनम अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल ,
से हो मृदु बोल स्रवनहिं सूनल ,स्रुति पथ परस न केल !
कत मधुजामिनि रसभ गमाओल नजने कइसन केल !
लाख-लाख जुग हिय धरि भेटल तओ हिय जुडल न गेल ! "

सखी राधा से उसका प्रेमानुभव पूछती है .पर राधा नित्य नूतन होते इस अनुराग को शब्दों मे कैसे वर्णित करे !जहाँ वह स्वयं खो जाती है उसकी सुधि कहाँ से लाये !वह सब कुछ विस्मृत हुआ सा लगता है, कुछ स्पष्ट याद नहीं आता .यह कैसी तृष्णा है जो जो कभी तृप्त नहीं होती ,बढ़ती ही जाती है .जिसे स्वयं न समझ पाई हो वह दारुण प्रेमानुभव किसी  को कैसे समझाये राधा !
सचमुच असित,मुझे भी ऐसा लगने लगा है कि जन्म-जन्मान्तर तक तुम्हारा साथ पाने के बाद भी मैं तृप्त नहीं होऊँगी .तुम मेरे लिये सर्वथा नवीन ही रहोगे .पर अपनी भावना को मैं स्वयं नहीं समझ पाती तुम्हें कैसे समझाऊँ ?मुझे लगता है असित, अगर किसी चीज को दो हिस्सों में काट दिया जाय तो एक तुम होओगे ,दूसरी मैं !

**

15.

असित कई बार इंगित कर चुका है, पर वह असित के सामने सीधी-सीधी बात करते घबराती है .मन-ही-मन कहती है -मैं तुम्हारी आभारी हूँ कि तुमने मुझे प्यार किया .पर मैं तुम्हें सुख -शान्ति नहीं दे सकूँगी ,मैं जो स्वयं इतनी अशान्त हूँ .कुछ ऐसा है जो मुझे कहीं चैन नहीं लेने देता. पीछे जो छोड आई हूँ उससे मेरी मुक्ति नहीं होती .जीवन भर जिस ज्वाला में मुझे दग्ध होना है उसकी आँच तुम्हें क्यों लगने दूँ ?मैने तुम्हें चाहा है इसलिये तुम्हें उस अशान्ति का हिस्सेदार नहीं बना सकती असित, अपना संतप्त मन मैं तुमसे नहीं बाँट सकती .वह जो मेरा है ,मुझे ही झेलना है ,तुम्हारे ऊपर नहीं लादूँगी .
उस दिन तरु का हाथ पकड लिया था असित ने ,''जीवन में बहुत खोया है तरु ,पर अब मेरी हिम्मत जवाब देने लगी है .अब कुछ मिला है उसे खोकर कैसे रहूँगा? तुम मुझे छोड़कर कहीं मत जाना .---मैं बहुत अकेला होता जा रहा हूँ .तुम्हें नहीं खो सकता ..नहीं ,किसी तरह नहीं !''
हाथ नहीं छुड़ा पा रही तरल .बहुत दिनों से इसी उलझन में है .सोचती रहती है चुपचाप .बार-बार असित का ध्यान आता है.वह अच्छा लगता है .पर उसकी समझ में नहीं आता वह गृहस्थी कैसे करेगी ?भीतर की घोर अव्यवस्था औऱ बाहर सब सुचारु रूप से चलाना -कैसे संभव हो सकेगा ?मन को चैन नहीं होता तो सारे सुख निरर्थक हो जाते हैं ,उनकी ओर हाथ बढ़ाने का प्रयत्न भी कैसे करूँ ?
"मैं तुम्हें बुरा लगता हूँ ?"
"नहीं ."
"फिर ?"
"मैं क्या करूँ ,समझ नहीं पाती .अब तक का अनुभव यही है कि कोई रिश्ता स्थाई नहीं होता .माता-पिता भाई -बहन ,समय के साथ सब बदल जाते हैं .."
"वे संबंध जीवन भर के लिये नहीं होते .वे तो अलग-अलग स्थितियाँ हैं -सन्तान होने की भाई-बहन होने की .दूसरी तरफ संबंध प्रगाढ़ होते ही वे स्थितियाँ बदलने लगती हैं पर एक रिश्ता ऐसा भी है जो जीवन भर बाँधे रखता है वह नहीं बदलता ."
"असित जी ,मेरा स्वभाव अलग है .आप चाहेंगे जैसा सब करते हैं ,वैसा मैं भी करूँ .मैं न कर पाई तो ---?फिर आपको असन्तोष होगा. मैं गृहस्थी की सीमा में अपने को सीमित न रख पाई तो --?
तरु को लगता है पति बन कर आदमी वह नहीं रहता जो अन्यथा होता है पत्नी पर पूरा नियन्त्रण और स्वामित्व चाहता है और मैं ऐसी हूं कि जो ठीक लगता है वह कहे, बिना करे बिना रह नहीं पाती .घर बने और रोज़-रोज़ किट-किट हो तो घर बनाने से क्या फ़ायदा ?---लेकिन विग्रह की बात पहले से कारण बना कर प्रस्तुत कैसे करे ?
"मैं बँध कर नहीं रह सकती ," तरु ने कहा ,".मुझे बँध कर रहने में ऊब लगती है .मैं ऐसे नहीं रह सकती ,अपने मन का कुछ करना जैसे पढ़ना ,लिखना ,घूमना फिरना ,मन चाहे तो नौकरी करना ,या और कुछ --."
"तुम अपने को अलग रख कर क्यों सोच रही हो ?घर तो दोनों का होगा ,दोनों का ही मन रहे तभी तो घर है ."
घर की एक कल्पना है तरु के पास -ऐसा घर नहीं चाहिये जहाँ बाकी सब पराये हो जाते हों .सीमित स्वार्थ के आगे सब रिश्ते टूट जायें .रिश्ते , जो पहले औरों से टूटते है फिर आपस में ही टूटने लगते हैं.सब अलग-अलग होकर बिखर जाते हैं -अकेले-अकेले !औरों से रिश्ते टूटने के बाद जब आपसी रिश्ते टूटते हैं तो वही होता है जो मेरे साथ हुआ ,असित के साथ हुआ .
"कैसा घर बनना है ,यह तो तुम्हारे सोचने की बात है ,जो करना है वह तुम्हारे हाथ में है .मैं सहयोग दूँगा ,बाधा नहीं .''
तरल के होंठों पर बड़ी मधुर मुस्कान छा गई है ."
"क्या करूँ कुछ समझ में नहीं आ रहा ."
"बहुत कर चुकीं तुम ,अब तुम्हें कुछ नहीं करना है ."
यह क्या सुन रही है तरल !
अब तक तो यही सुनती आई है -तुम्हें यह करना है ,तुमने यह नहीं किया .तरु ,तुम इतना और कर डालो .न घर चैन ,न बाहर चैन ! आज यह कैसी नई बात- ' तरु तुम्हें कुछ नहीं करना है !'
यह कौन समाधान दे रहा है ?कैसे अस्वीकार कर दे ?तरु का मन भीग उठा है .
असित समझा रहा है -मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ भी तो होती हैं .उन्हें दबाने से अस्वाभाविकता और कुण्ठायें ही उत्पन्न होंगी .प्रकृति के नियम तो पूरे होंगे ही .मेरे घरवाले मेरे पीछे पड़े हैं ,तुमसे भी कहा जा रहा होगा ,या घर के लोग ढूँढ-खोज में लगे होंगे .उस जुए में किसे कैसा साथ मिल जाये ,उससे अच्छा क्या यह नहीं कि हम जिसे समझते हैं उसे ही स्वीकार कर लें ?"
"मुझे थोड़ा समय दीजिये ,सोचने -समझने का --."
"ठीक है ,मैं इन्तजार करूँगा ."

*
पिछली बार जब असित रिजर्वेशन की बात करने तरल के पास गय़ा था तो मेज़ पर पड़ी किताबें पलटते तरु का बी.ए.का एडमिशन कार्ड निकल पडा था .असित ने उठा लिया.
स्टोव पर चाय बनाती तरु ने देखा -उसमें लगे उसके फ़ोटो को ध्यान से असित देखता रहा था .
उसके जाने के बाद तरु ने अपनी फ़ोटो उठा ली - आज असित की आँखों से अपने को देखना चाहती है वह !
अपनी फ़ोटो ध्यान से देखे जा रही है .दृष्टि उसकी नहीं असित की हो गई - आँखें असित की हो गईं,यह तरु नहीं असित है .फ़ोटो में तरु है .तरु असित की निगाहों से अपनी फ़ोटो देख रही है ,देखे जा रही है .आँखें ,नाक ,मुँह ,माथा ठोड़ी .अब तक इतने ध्यान से किसी ने देखा था क्या ?
असित की दृष्टि का राग आँखों में उतर आया है .एक खुमार सा तन-मन पर छा गया !उसी में तरु खो गई .अब तक जो नहीं देखा था वह भी दिखाई देने लगा -पलकों का एक-एक बाल ,भौंहों की पंक्ति ,आँखों का रंग,ठोड़ी के पास का तिल ,ऊपर के होंठ का झुकाव ,नीचे का कटाव ,नाक की ढलान ,अपलक कहीं और देखती दृष्टि !
ओ,असित क्या मिला तुम्हें इस चेहरे में ,इन आँखों में ,जिनकी दृष्टि भी तुम्हारे आमने- सामने नहीं, कहीं दूर खोई है ?
कानों में बार-बार कोई कहता है 'अब तुम्हें कुछ नहीं करना है ,अब तुम्हें कुछ नहीं करना है ,'
असित के शब्द संतप्त मन पर शीतल प्रलेप - सा लगा जाते हैं .

*

"एक तरैया पापी देखे ,दो देखे चण्डाल----"

बुआ द्वारा कही हुई कहावत तरु को याद आती है .पर उसे दिखाई देता है रोज, शाम को पहला तारा .
दिन ढलने लगता है,सूरज अपनी किरणों का जाल समेट अस्ताचल में समा जाता है और धूसर होते आसमान में साँझ का पहला तारा टिमटिमाने लगता है .वह और ढूँढती है,सारा आकाश खँखोल डालती है तब दूसर सितारा दिखाई देता है ,बिना पलक झपकाये फिर खोजती है पर तीसरा कहीं नहीं मिलता .एक ही निगाह में एक और सितारा पाने की कोशिश करती है पर  कहीं नहीं पाती .एक ही निगाह में तीन सितारे दिखाई दे जाँय ऐसा कभी नहीं होता .

तीन तरैया राजा देखे ,
सब देखे संसार !"
सब तारे रात भर आकाश में टिमटिमा रहते हैं पर शाम के आकाश में कभी भूले से भी उसे एक नजर में तीन तारे नहीं दिखते .मैं पापी हूं ?नहीं तो रोज ही क्यों दिखाई देते हैं एक या दो तारे !
कमरे के आगे छत पर बैठी तरल सोच रही है -एक दिन नहीं ,दो दिन नहीं ,रोज ही एक सितारा ,या फिर दो ,बस !
पापी तो हूँ ही .देखते -देखते सब कुछ बिखर जाय,घर चौपट हो जाय ,सब कुछ छिन्न-भिन्न हो जाय!एक आदमी भूखा- प्यासा पड़ा रहे !.पहनना-ओढ़ना ,बोलना ,बात करना ,मान-सम्मान सबसे वंचित कर दिया जाय .अकेला ,चुपचाप सब सहन करता रहे ,तन-मन से छीजता रहे ,और एक दिन यों ही दम तोड दे .सामने -सामने सब घटता रहे और देखनेवाला दर्शक बना देखता रहे ,तो पापी ,चाण्डाल कोई दूसरा होगा क्या ?
ऑफ़िस से आकर अकेली कमरे से बाहर छत पर आ बैठती है वह.कोई साथ नहीं .ऑफ़िस में उसके सिवा तीन महिलायें और हैं -,उसी के सेक्शन में .दो विवाहित एक क्वाँरी .सब अपने-अपने परिवार में लीन .

शाम पड़े लौटती है तरल ,थकी हुई निष्प्रभ -सी .
रात को अक्सर स्वप्न में देखती है-पिता आये हैं ,वे भूखे हैं .
तरु पूछती है,' पिताजी खाना परसूं ?'
वे कुछ बोलते नहीं वापस लौट जाते हैं .
जितनी बार आये भूखे ही चले गये .उन्हें खाना किसी ने नहीं दिया .तरु ने पूछा तो वे कुछ नहीं बोले .
तरु चुपचाप देखती है. वे आते हैं उसकी ओर देखते रहते हैं और उसके बोलते ही चले जाते हैं .मन चीख़ -चीख़ कर रोता है -क्यों नहीं कुछ कर पाती मैं ?किसी पर मेरा बस नहीं .न जिन्दगी में रहा ,न सपने में !
कैसे असहनीय दिन थे वे .रातें भी शान्ति से नहीं गुजरतीं थी .

अम्माँ की आवाजों से तरु की नींद खुल जाती थी, चुपचाप पड़ी-पड़ी देखती रहती थी वे बकझक कर रही हैं .पानी पीने के बहाने उठ कर देखती थी तरु -पिता का चुपचाप मुँह ढाँक कर लेटे रहना भी उन्हें सहन नहीं होता .वे चादर खींच कर खोल देतीं चादर हटते ही जो चेहरा निकलता था उसका स्मरण ! स्मरण से भी रोंगटे खडे हो जाते हैं .शब्द नहीं हैं .ऐसे शब्द भाषा मे बने ही नहीं जो उस मूक सन्ताप को उस दहला देनेवाली यंत्रणा को व्यक्त कर सकें .

रात में भी वे उन्हे चैन नहीं लेने देंगी. खुद तो दिन में सो लेती है ,खुद तो समय से खा लेती हैं .तरु का बनाया खाना बडी उदारता से सबको बाँट देती हैं .बाहरवालों के लिये बड़ी संवेदनशील ,बड़ी करुणामयी ,बड़ी स्नेहमयी बन जाती हैं.सबकी सहानुभूति पा लेती हैं .और पिता ? वह सोच नहीं पाती . पिता की वेदना की सीमा निर्धारित नहीं कर पाती .

वह घड़ी देखती है -दो बजते हैं ,फिर तीन बजते हैं वह घबरा कर चीख़ उठना चाहती है,'तुम इस हड्डियों के ढाँचे को भी साबित नहीं रहने दोगी ! '
न मर्यादा का ध्यान ,न श्लीलता-अश्लीलता का होश !वे बोलते -बोलते थकती भी नहीं .वे क्यों थकेंगी ,उन्हें कहाँ दिन भर दफ्तर में काम करना है !उन्हें तो घर में भी किसी काम से मतलब नहीं उनकी हर ज़रूरत पूरी होनी चाहिये नहीं तो ..क्या कुछ नहीं कर डालें !
कितना सामान घर में बनता था .आये गये को पास-पड़ोसियों को आग्रह कर कर के खिलाया जाता था ,पर पिता नहीं खाते थे .कैसे खाते वे ? महीने भर का सामान पन्द्रह दिन में खत्म होने पर फ़र्माइश तो उन्हीं से की जायेगी .ऊपर से सुनने को मिलेगा तुम नहीं खाते क्या ?खाते बड़ा अच्छा लगता है ,सामान लाते जान निकलती है
वे नाश्ते की तश्तरी सामने से हटा देते थे .तब अम्माँ कहती थीं "न खा सकते हैं ,न दूसरों को खाते देख सकते हैं उनके सामने मत ले जाओ ."
उनके लिये था सिर्फ दो समय का खाना शान्ति से मिल गया तो खा लिया ,नहीं तो उठ कर चले गये .और बाद में तो वह भी नहीं - जैसे ज़िद चढ़ गई थी उन्हें कि तुम क्लेश मचाओगी तो मैं कुछ नहीं खाऊँगा ..

जीवन के सत्य कैसे अजीब हैं,जिन पर विश्वास करना बहुत मुश्किल है .पर तरु करने लगी है .यहाँ जो कुछ घटता है ,कहीं न कहीं अपनी अमिट छाप छोड जाता है - ऐसी छाप जो समय के साथ भीतर उतरती चली जाती है ,गहरे और गहरे .ऊपर से देखने में कहीं कुछ नहीं लगता पर भीतर जो अंकित हो गया है वह अपनी चुभन से कभी मुक्त नहीं होने देता .
जीवन में है क्या ?तरल को लगता है कुछ नहीं है .एक के बाद एक बीतते क्षण ,घंटे ,दिन, महीने, वर्ष ,एक के बाद एक ,लगातार ,अनवरत.
ऐसी मनस्थिति लेकर किसी को सुख -शान्ति दे सकती हूँ क्या ?जो खुद अशान्त है वह दूसरे को और क्या देगा ?यह क्रम आगे न बढ़े .नहीं ,बिल्कुल नहीं !
व्याकुल हो तरु उठ कर खड़ी हो गई .
उसे याद आता है दस-बारह साल की एक लड़की फीके-से रंग की फ्राक पहने ,,दूसरों के अच्छे-अच्छे वस्त्रों को छिपी निगाहों से देखती है ,जहाँ कोई उसकी ओर देखता है एकदम संकुचित हो जाती है .

अम्माँ उसे मामा के घर छोड़ कर खुद चली गई हैं. हर क्षण उसे लगता है उसके खाने- पीने उठने बैठने साँस लेने तक पर औरों की नजरें रहती हैं .न वह ठीक से सो पाती है ,न निश्चिन्त होकर कुछ कर पाती है .खाते पीते सहज नहीं हो पाती. कुछ काम करती है तो शंकित मन और विचलित हाथों से कुछ का कुछ कर बैठती है .हर समय उसे उसे जैसे कोई तोलता रहता है. हमेशा सहमी सी रहती है .खाने बैठती है तो इच्छा होती है खाती चली जाये ,पर हाथ रोक कर उठ आती है .किसी चीज से उसका मन नहीं भरता. एक चिर अतृप्ति एसके साथ-साथ चलती है .

पर अब क्यों लगता है ऐसा ?जीवन का एक छोटी सी अवधि जो कब की बीत चुकी है सारी जिन्दगी के आड़े क्यों आजाती है ?उसे याद है उसने सोच लिया था रोयेगी नहीं .चुपचाप सब झेलती रहेगी .किसी को कुछ नहीं बतायेगी ,किसी से शिकायत नहीं करेगी .
सब भाई -बहिन घर में इकट्ठे हुये थे. मन्नो जिज्जी भी आईँ थीं उन दिनों ,चिट्ठी से सब पता लगा था .बस एक तरु सब के बीच नहीं थी .हाँ, मुझे काहे को बुलायें ?फ़ालतू हूँ मैं तो !मेरी याद किसी को काहे को आती होगी ?नहीं रोऊँगी मैं भी .उन्हें याद करके बिल्कुल नहीं रोऊंगी .
तब के रुके हुये आँसू क्या अब आँखों में बर-बार उमड़ आते हैं ?
रात बड़े अजीब-अजीब सपने आते रहे .देख असित आया है कह रहा है "मैने दो दिन से कुछ नहीं खाया तरु .बहुत भूखा हूँ .तुम भी नहीं पूछोगी मुझे ?"

रुकिये, मैं खाना बनाने जा रही हूँ ."
फिर वह ग़ायब हो गया .तरु बदहवास सी घूम रही है .कोई बच्चा चीख -चीख कर रो रहा है -उसे लगता है बच्चा बीमार है ,भूखा है .अरे ,कौन अकेला छोड़ गया इसे?
दृष्य बदल जाता है ,सीढ़ियों पर किसी के चढ़ने की आहट होती है ,पिता जी आये होंगे ,उन्हीं के चलने की आवाज है यह !

वे आकर चुपचाप खड़े हो गये --शरीर हड्डियों का ढाँचा, फटी लटकती कमी़ ,मटमैला पाजामा .तरु की ओर देखे जा रहे हैं .तरु सोच रही है आज फिर अम्माँ ने फाड़ डाली कमीज़ !
पिता जी खाना लाऊँ ?"
कोई उत्तर नहीं .
वह थाली परसने उठी .पिता कुछ क्षण खड़े देखते रहे ,फिर लौट गये .एकदम चले गये वे !
*

(क्रमशः)

7 टिप्‍पणियां:

  1. हर संघर्ष नहीं कहे जा सकते, कैसे कहे तरल? कैसे उधेड़े अपनी ही बखिया?
    सचमुच, सब कुछ कहा ही जा सके ऐसा योग सबका कहाँ?
    और वो कहावत में स्वयं को पिरोना तरल का, बाँध के रखता है मन।

    आपकी यात्रा और सभी प्रबंध कुशल हों, मंगल हों।
    प्रणाम।

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  2. शकुन्तला बहादुर19 अप्रैल 2011 को 2:06 pm बजे

    कथा का सहज स्वाभाविक प्रवाह आदि से अंत तक पाठक के मन को बाँधे रखता है,समाप्ति के उपरान्त भी देर तक मन पर छाया रहता है।तरु के मन की गहराइयों में उतर कर उसके अन्तर्द्वन्द्व
    को बड़ी ही मनोवैज्ञानिकता के साथ आपने चित्रित किया है।अगले अंक की उत्सुकता से प्रतीक्षा रहेगी।
    प्रतिभा जी,आपकी यात्रा सुखद रहे किन्तु स्वदेश का आकर्षण बस इतना ही बाँधे, कि आप कैलिफ़ोर्निया पुनः वापस आ जाएँ। चाहें कुछ देर से ही सही। शुभास्सन्तु ते पन्थानः।।

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  3. -------- यदि आप भारत माँ के सच्चे सपूत है. धर्म का पालन करने वाले हिन्दू हैं तो
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    क्या यही सिखाता है इस्लाम...? क्या यही है इस्लाम धर्म

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  4. ........''पहला तारा मैंने देखा..मेरी इच्छा पूरी होगी..''........बचपन से यही सुनती और आकाश में पहला तारा खोजती-पाती आई हूँ....

    खैर..
    कई बार पढने और लिखने की कोशिश करने के बावजूद भी कुछ निश्चित नहीं कर पायी कि क्या कहा जाना चाहिए......बाद में कभी कह paayi तब कहूँगी...:)

    फिलहाल आभार प्रतिभा जी....

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  6. ''जीवन में अधिकतर कोई एक भावना अत्यधिक प्रभावशाली और स्थायी होकर एक कटु अनुभव के रूप में संपूर्ण व्यक्तित्व/सोच/प्रतिक्रियाओं पर छा जाया करती है...आने वाले हर ताज़े एहसास को उससे जंग करनी पड़ती है....एक बड़ी सी जद्दोजहद.....''
    उसी जंग का एक हिस्सा इस उपन्यास में देखने को मिला। तरु की एक हाँ पर उसके लिए जीवन की खुशियाँ बाहें पसारे खड़ीं हैं.....मगर कितना सोचना पड़ रहा है उसको....जबकि फैसला लेने वाली वो खुद है......किसी और का कोई दखल नहीं। फिर भी ज़हनी सुकून हासिल नहीं उसको...कभी कभी अपने हक़ की खुशियाँ चुनना भी कितना कठिन हो जाया करता है।

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    हालाँकि ये पन्ना एक मानसिक अंतर्द्वंद को खूबसूरती से ज़ाहिर करता है....फिर भी पढ़कर एक अलग सा लुत्फ़ एक अलग सी लज्ज़त महसूस हुई,जैसे किसी ने ज़ेहन की दुखती रगों पर सुकून के फाहे रख दियें हों।अब तक के हिस्सों में से ये मेरा सबसे पसंदीदा रहा...लेखन की गहराई..बारीक़ी...में मन एकदम घुल गया था।

    अब आगे पढने की उत्सुकता बहुत ज़्यादा बढ़ गयी....!

    आभार प्रतिभा जी...!!

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  7. तरु,
    साँझ के एकल तारे के विषय में विद्यापति की उक्ति -
    '...की हम साँझ क एकल तारा ,भादों चउथ क ससि ,
    ............हमें न हेरब हँसि !'
    सखी से अपनी व्यथा कहते राधा का कथन -क्या मैं साँझ की अकेली तारिका हूँ या भादों की चौथ का चंद्रमा ( दोनो कलंक देने वाले माने गए हैं )जो वे मुझे देख प्रसन्न नहीं होते !
    वैसे टूटते तारे के विषय में सुना है कि उस समय की हुई कामना पूरी होती है - (इतना सजग रह कर करे कोई ).

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