मंगलवार, 29 सितंबर 2020

कोरोना काव्य और क्रोचे

              इन कोरोनाकुल दिनों में, में मुझे क्रोचे की बड़ी याद आ रही है. कितने हल्के-फुल्के लिया था हमने इस महान् आत्मवादी दार्शनिक को! पर अब पग-पग पर इसके अभिव्यंजनावाद की महिमा देख रही हूँ.यों भी इस कोरोना-काल जब व्यक्ति अपने आप में सिमट-सा गया है, उसकी आत्मानुभूति प्रखर होती जा रही है परिणामतः उसके भीतर कलात्मक विस्फोट होने लगे हैं.कविता हर आत्मा में कौंधने लगी है.यों भी कहा जा सकता है अनुकूल अवसर पाकर आत्मा की सहजानुभूति ,हर आत्मावान के भीतर उमँगने लगी है जिसे शब्दों में अभिव्यक्त करना (अभिव्यंजना) कविता कर्म कहलाता है. यह बात मैंने नहीं कही इटली के प्रखर विचारक, बेनेदितो क्रोचे, डेढ़ शताब्दी पूर्व अपने ग्रंथ 'इस्थेटिक' में कह गए हैं.सबकी अपनी मानसिकता ,व्यक्ति की अपनी अनुभूति,अपनी अभिव्यंजना औ प्रकशित करने का अपना अधिकार कौन छीन सकता है भला!
                क्रोचे और उसके ग्रुप के लोग होते तो करोनाकुल कविवृंद, जिनमें उसके बताई सारी ख़ूबियाँ पाई जाती हैं,उनके साथ प्रतिष्ठित होता.संशय में क्यों रहें, मिला लीजिये सारे लक्षण, जो अंतर्जाल के विकिपीडिया में इस प्रकार वर्णित हैं - 
              'अभिव्यंजनावादी बेजान चीजों को जिंदा बनाकर बुलवाते हैं। यथा- "गंगा के घाट यदि बोलें" या "बुर्जियों ने कहा" या "गली के मोड़ पर लेटर बक्स, दीवार या म्युनिसिपल लालटेन की बातचीत" आदि। उन्हें जीवन के वर्तमान के बेहद असंतोष होता है, जीवन को वे मृत मानकर चलते हैं, मृत को जीवित बनाने का यत्न करते हैं। अभिव्यंजनावादियों में भी कई प्रकार हैं; कुछ केवल अंध आवेग या चालनाशक्ति पर EL LOBOS SE LA COME! जोर देते हैं, कुछ बौद्धिकता पर, कुछ लेखकों ने मनुष्य और प्रकृति को समस्या को प्रधानता दी, कुछ ने मनुष्य और परमेश्वर की समस्या को।'
               सब वही ख़ूबियाँ इस काव्य में भी - है न! इन बातों पर पर जितना,जो कुछ, कहा जाय कभी समाप्त नहीं होनेवाला. एक बात यह भी कि 'खाली दिमाग़ में'खुराफ़ातों का डेरा जमने लगता है,सो अच्छा है कि वह कहीं व्यस्त रहे.सबसे बढ़िया उपाय है अपनी किसी जोड़-तोड़ में मगन रहना,और कविताई ऐसी कला है जो बैठे-ठाले गुमनामी से उठा कर नाम-धन्य बना देती है.ऐसी विद्या जो बात की बात में बात बना देती है. 
                हमारे यहाँ तो क्रोचे के जन्म से भी बहुत पहले सुभाषितों में घोषित कर दिया गया था - 'काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम् । व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा ॥
 बुद्धिमान लोगों का समय काव्य और शास्त्र का विनोद करने में व्यतीत होता है, जब कि मूर्खों का समय व्यसन, नींद व कलह में व्यतीत होता है. 
               बुद्धिमान और मूर्ख का जहाँ तक सवाल है,तो उसकी व्याख्या सबकी अपनी-अपनी. किसी वर्ग में लोगों की कमी नहीं है.जहाँ तक कविता की बात है बैठे-ठाले सिद्ध हो जानेवाली विद्या,जिसमें हर्रा लगे न फिटकरी और रंग आए चोखा! 
 (यह पोस्ट अचानक मुझसे डिलीट हो गई थी,यहाँ पुनः प्रकाशित की है,मुझे खेद है कि जो बहुमूल्य टिप्पणियाँ इस पर मिलीं थीं वे भी साथ में डिलीट हो गईं(मैं क्षमा प्रार्थी हूँ.)

13 टिप्‍पणियां:

  1. आप इसी तरह निरन्तरता से इसी उर्जा के साथ लिखती रहें। शुभकामनाएं। लाजवाब पोस्ट।

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  2. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" गुरुवार 01 अक्टूबर 2020 को साझा की गयी है............ पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 02-10-2020) को "पंथ होने दो अपरिचित" (चर्चा अंक-3842) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित है.

    "मीना भारद्वाज"

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  4. काश किसी ने कोरोना के बारे में भविष्यवाणी किया होता।

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  5. रोचक और सटीक । कुछ अलग पढ़ने को मिला । धन्यवाद ।

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  6. इस महत्वपूर्ण पोस्ट को पुनर्जीवित करने हेतु आभार

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  7. प्रत‍िभा जी ,सादर प्रणाम, क्रोचे के जन्म से भी बहुत पहले सुभाषितों में घोषित कर दिया गया था - 'काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम् । व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा ॥'...वाह क्या बात कही है

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  8. बहुत ही अच्छा लगा पढ़कर बहुत अच्छी जानकारी के साथ सराहनीय प्रस्तुति आदरणीय दी।
    सादर

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  9. उसके भीतर कलात्मक विस्फोट होने लगे हैं.कविता हर आत्मा में कौंधने लगी है....
    बिल्कुल यही दिखाई दे रहा है, कविता हर जगह उग रही है अपने आप, जैसे बरसात में धरती में पड़े बीज अंकुरित हो उठते हैं। बहुत अच्छी पोस्ट आदरणीया दीदी।

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