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तमसाकार रात्रि . घनघोर मेघों से घिरा आकाश, दिशाएँ धूसर, रह रह कर मेघों की गड़गड़ाहट और गर्जना के साथ,बिजलियों की चमकार. वर्षा की झड़ियाँ बार-बार छूटी पड़ रही हैं. जल-सिक्त तीव्र हवाएँ लौट-लौटकर कुटिया का द्वार भड़भडा देती हैं.
अचानक बिजली चमकी और घोर गर्जना के साथ निकट ही कहीं वज्रपात हुआ.
कुटिया में अकेले चुपचाप बैठे तुलसी सिहर गए .
मन बहुत अकुला रहा है?
वह भी तो ऐसी ही घनघोर रात्रि थी जब सारी बाधाएँ पार कर ,रत्ना की खिडकी से जा चढ़े थे.
उस दिन तो न बाढ़ भरी नदी से डरे थे ,न लटकते सर्प का विचार किया.
कैसा मोह का पट चढ़ा था आँखों पर.
मोह का पट?
मोह था केवल? आसक्ति मात्र थी ?
मैंने तो उसी में सारा संसार सीमित कर दिया था. मैं, जो जन्म से ही त्यक्त रहा - सबके संकट का कारण , अभुक्त मूल में जन्मा अभागा. .पिता ने त्यागा, जननी भी सिधार गयीं. जिसे यत्नपूर्वक सौंप गईं थीं ,थोड़ा भान पाते ही वह चुनिया दाई भी अनाथ छोड़ राम को प्यारी हो गई.रह गया मैं, सर्वनाशी मैं .जो-जो मुझसे.मुझसे जुड़ा , काल का ग्रास बनता गया..मैं ही सबके संकट का कारण था.एक रत्ना थी ,जिसने मुझे स्वीकार किया था ,जीवन का साथ निभाने को आश्वस्त किया था.और मैं जीवन के सारे अभाव उसी से भरने का यत्न करने लगा.
बस वही थी जिसे अपना कह सकूँ .मात्र कहने की बात नहीं ,संपूर्ण मन से चाहा था उसे .मेरी हर अपेक्षा पर खरी थी वह.रूप के साथ गुण और उच्च विचारों का संयोग वह बुद्धि-संपन्ना सचेत नारी थी ,.संस्कारी और आचारवान तो होना ही था - दीनबंधु पाठक की पुत्री जो थी. स्वयं को परम भाग्यशाली समझा था मैंने. मेरी सहचरी,प्रिय पत्नी ,जिसमें मैंने अपना संसार पा लिया था.सारे नाते -रिश्तेों की पूरक बन गई थी .
स्वयं को बहुत धिक्कारते हैं तुलसी .क्यों अचानक जा पहुँचे थे रत्ना के पीहर.न सोचा न विचारा ,जो मन में उठा कर डाला. ...
कैसी कुबेला घऱ में जा घुसे. अनामंत्रित जामाता का विचित्र वेष ,घर के लोग विस्मित -से देखते रह गये थे, और रत्ना विमूढ़ सी खड़ी की खड़ी रह गई थी.
किसी भाति स्पष्ट किया तुलसी ने कि कैसी-कैसी बाधाएँ पार करने में यह गत हो गई .वह तो गनीमत हुई कि खिड़की से बँधी रस्सी का सहारा मिल गया .
खिड़की से बँधी रस्सी - चकित हो गए थे वे लोग.
मेरा विचार था- रत्ना ने लटकाई होगी .
ना, मैंने तो नहीं...
खिड़की खोल देखा गया, कहीं कोई रस्सी नहीं.
अरे,खिड़की के इधरवाले मोखे की टेक पर एक मरा सर्प लटक है.
'ओह' तुलसी ने दोनो हाथों हथेलियाँ खोलीं -रक्त के चिह्न!
सब विस्मित, अवाक्.
एक भयभीत सी चुप्पी - कहीं कुछ हो जाता तो...?
कोई बोला था - और चाहे जो हो, रत्ना की कुणडली में वैधव्य-योग नहीं है.
न रत्ना के मुख से कोई शब्द फूटा ,न तुलसी कुछ बोल सके .
(क्रमशः)
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१०-१०-२०२०) को 'सबके साथ विकास' (चर्चा अंक-३८५०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
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अनीता सैनी
आभारी हूँ अनीता जी.
हटाएंबहुत बढ़िया।
जवाब देंहटाएंप्रेम और मोह में अंतर करना अत्यंत कठिन है ।
जवाब देंहटाएंराग विराग द्वारा बाबा तुलसी के विषय में जानना प्रारम्भ हुआ । आभार प्रतिभा जी ।
जवाब देंहटाएंपूज्य माँ,
जवाब देंहटाएंअनेक बार पढ़ी सुनी कथाओं की भी आपके माध्यम से प्रस्तुति, कथा को एक नई दिशा और उसमें निहितार्थ को एक नया आयाम देती है। तुलसी और रत्ना की कथा और कथा-शृंखला का शीर्षक अपने आप में ही बहुत कुछ कहता है।
समस्त दुश्चिंताओं से मुक्त हो, एक नए सिरे से आपको पढ़ना मेरे लिये सीखने की एक नई शुरुआत है।
अवाक और निःशब्द हूँ। 'मानस का हंस' ही शब्दश: मेरे मानस पटल पर आज तक छायी हुई है। किंतु आपकी लेखनी से जो परिचय है मेरा, उसके आधार पर दृढ़ विश्वास है आप पर कि समानांतर में आपके तुलसी को भी पुनः प्राप्त कर सकूँगी आप के साथ साथ अपने दृष्टिकोण से भी।
जवाब देंहटाएंबहुत उत्साहित और लालायित हूँ सारे भाग (जो अब तक आपने पोस्ट किए) पढ़ डालने हेतु।
शुभारम्भ करती हूँ आज से।
पहला ही भाग भा गया। रत्ना माँ के आँगन में स्वयं को खड़ा पाया, सबके मुख को देखते हुए अंत में माँ रत्ना के मनोभावों पर दृष्टि अटक गई।
बहुत आभार और शुभकामनाएं प्रतिभा जी।
आपको पढ़ना एक अलग अनुभूति है। सच है, शब्दों में सुगंध और स्पर्श दोनों होते हैं।