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भ्रमण के लिये बाहर न जा पाऊँ तो साँझ घिरे ,अपने ही बैकयार्ड में टहलना अच्छा लगता है . ड्राइव वे तक, मज़े से सवा-सौ कदम हो जाते है दोनो ओर से ढाई सौ - काफ़ी है कुछ चक्कर लगाने के लिये.धुँधळका छाया होता है ,ऊपर आकाश में तारे ,या चाँद के बढ़ते-घटते टुकड़े . हाँ ,कभी पूरा चाँद या अक्सर ग़ायब भी. चारों ओर हिलते हुये पेड़, क्यारियों के विविधवर्णी फूलों के रंग ईषत् श्यामता लपेटे और मोहक हो उठते हैं.
कहीं कोई भूला-भटका पंछी बोल जाता है ,नहीं तो केवल झिल्लियों की झंकार और रात्रि के निश्वास .लकड़ी के फट्टों की बाड़ के उस ओर ऊँचे वृक्ष-लताओं की भीड़ के पार थोड़ी निचाई पर क्रीक है ,जिसके पूरे विस्तार में दोनों ओर पेड़-पौधों का साम्रज्य.थोड़ा आगे चल कर क्रीक का घुमाव से रचित , घर से लगते इस छोर पर ओक तथा अन्य जंगली गुल्म-लताओं से मर्मरित वन-खंडिका .रात्रि की माया में डूबा रोज़ का परिचित परिवेश नवीनता ओढ़ लेता है .
ये लोग कहते हैं अँधेरे में क्यों घूमती हूँ ,लाइट जला लेना चाहिये .ये चाहियेवाली बातें गले से जल्दी उतरती नहीं .अस्तु,सबके अपने-अपने औचित्य. पर जब कभी खुद जला देता है कोई हैं तो तीव्र प्रकाश पड़ते ही सारा माया-लोक ग़ायब.लोगों का तर्क है ,अँधेरे में कीड़े काँटो का डर .मुझे मन ही मन हँसी आता है .वे लोग कोई तुले तो बैठे नहीं होंगे कि मैं आनेवाली हूँ एकदम हमला कर दें ,बेचारे तो खुद ही हम लोगों से बचते-भागते हैं.और इस हल्के-हल्के उजास झुटपुटी रोशनी में सीमेंट की श्वेत पगडंडी साफ़ झलक जाती है, आगे का सारा अंदाज़ अपने आप होता चलता है.
नीम अँधेरे की माया ही कुछ और है , सच और स्वप्न की झिलमिली, एक आभास का अवतरण जिसमें इस दुनिया के बोध अधडूबे-से तिरते हैं. किरणों की द्युति निमीलित होते ही दिशाएं ऐसी जैसे किसी ने किसी ने रंगीन चित्र पर झीना आवरण डाल दिया हो .उन श्याम-श्वेत आभासों में नये बिंब उतराते हैं.
क्रमशः सारे रंग गहराई में डूबते विलीन होने लगते हैं ,एक लहर सब पर श्याम आवरण चढ़ा ,दुनिया को छाया-चित्रों में परिणत कर देती है.आकाश औऱ दिशाओँ की पृष्ठभूमि में जीवंत श्याम-श्वेत अंकन, कलाकार की कला का कमाल दिखाते हैं. दिन भर की भटकी, तपी हवाओँ में शीतलता घोलती नित नई छापोंवाली ओढनी लपेटे रात उतरती है दिन भर गरमाया सूरज ढला कि ,बची बिखरी किरणें समेट.रंगीन पाल फैलाये नौकायें उतर आती हैं नभ के नील-जल में . गहराती छायायें वृक्षों से उतरती ,जल-कण छींटती मंत्र सा बुद्बुदाती अपने जादू से ,दृष्य-अदृष्य को एक करने पर तुली रहती हैं. संकुल परिवेश विजन होने लगता है , चारों ओर वनस्पतियों का ऊँघ भरा झुक-झुक जाता है ,और चाँद नित नई चंदन-टिकुलिया सा दिशा के भाल पर सज जाता है
सजीली साँझ मुझसे मिलने आती है
तरुओं की छायाओँ और सघन झाड़ियों के फैलाव में श्यामल पट लहराती ,अलकों में हरसिंगार -जुही की गंध बसाये अभिन्न अनुचरी रात्रि संग ,उतरती चली आती है ..झिल्लियों के झनक उठते स्वर ,जैसे नूपुर बज उठे हों .विजन की स्तब्धता को थपक निद्रा-कर फिराती , सम्मोहित धरा पर आसीन होने को प्रस्तुत . नील से अवतरित हो रही , ऐसी सुहानी सखी को, द्वार बंद कर बाहर से लौटा देना अपराध ही तो है.
इन शान्त क्षणों में प्रकृति में बिखरे आनन्द -समारोह का साक्षी बनने को, श्यामा सुन्दरी का निमंत्रण, मन का लोभ-संवरण नहीं हो पाता . इस गहन बेला में पुलक से भर देने का उपक्रम , और फिर गहरी रात का आगमन .
चन्द्रमा की कलायें शनैः शनैः घटना फिर क्रम-क्रम बढ़ना ॒, एक दिन एकदम विलीन और एक दिन अपनी सोलहों कलाओं के साथ पूर्ण बिंब का ,निस्सीम आकाश से आ-समुद्र धरती को स्नात करता, ज्योत्स्ना का ज्वार उठा देना ,प्रकृति के रमणीय आयोजन हैं. बहुत गहरा संबंध है हमारा इन से ,सागर से ,धरती से हवाओँ से और जल से भी.
कृत्रिम रोशनी के तीखे शरों से सलोनी संध्या और शान्त-शीतल रात्रियों के विलक्षण बोधों एवं सृष्टि के मनोहर क्रिया-कलापों का विलय , उचित है क्या ? कमरों में बंद रखने के बजाय इस उद्धत दुराग्नही को पशु-पक्षियों को भरमाने के लिये खुला छोड़ देना जड़-जंगम पर अन्याय नहीं तो और क्या है ?
भ्रमण के लिये बाहर न जा पाऊँ तो साँझ घिरे ,अपने ही बैकयार्ड में टहलना अच्छा लगता है . ड्राइव वे तक, मज़े से सवा-सौ कदम हो जाते है दोनो ओर से ढाई सौ - काफ़ी है कुछ चक्कर लगाने के लिये.धुँधळका छाया होता है ,ऊपर आकाश में तारे ,या चाँद के बढ़ते-घटते टुकड़े . हाँ ,कभी पूरा चाँद या अक्सर ग़ायब भी. चारों ओर हिलते हुये पेड़, क्यारियों के विविधवर्णी फूलों के रंग ईषत् श्यामता लपेटे और मोहक हो उठते हैं.
कहीं कोई भूला-भटका पंछी बोल जाता है ,नहीं तो केवल झिल्लियों की झंकार और रात्रि के निश्वास .लकड़ी के फट्टों की बाड़ के उस ओर ऊँचे वृक्ष-लताओं की भीड़ के पार थोड़ी निचाई पर क्रीक है ,जिसके पूरे विस्तार में दोनों ओर पेड़-पौधों का साम्रज्य.थोड़ा आगे चल कर क्रीक का घुमाव से रचित , घर से लगते इस छोर पर ओक तथा अन्य जंगली गुल्म-लताओं से मर्मरित वन-खंडिका .रात्रि की माया में डूबा रोज़ का परिचित परिवेश नवीनता ओढ़ लेता है .
ये लोग कहते हैं अँधेरे में क्यों घूमती हूँ ,लाइट जला लेना चाहिये .ये चाहियेवाली बातें गले से जल्दी उतरती नहीं .अस्तु,सबके अपने-अपने औचित्य. पर जब कभी खुद जला देता है कोई हैं तो तीव्र प्रकाश पड़ते ही सारा माया-लोक ग़ायब.लोगों का तर्क है ,अँधेरे में कीड़े काँटो का डर .मुझे मन ही मन हँसी आता है .वे लोग कोई तुले तो बैठे नहीं होंगे कि मैं आनेवाली हूँ एकदम हमला कर दें ,बेचारे तो खुद ही हम लोगों से बचते-भागते हैं.और इस हल्के-हल्के उजास झुटपुटी रोशनी में सीमेंट की श्वेत पगडंडी साफ़ झलक जाती है, आगे का सारा अंदाज़ अपने आप होता चलता है.
नीम अँधेरे की माया ही कुछ और है , सच और स्वप्न की झिलमिली, एक आभास का अवतरण जिसमें इस दुनिया के बोध अधडूबे-से तिरते हैं. किरणों की द्युति निमीलित होते ही दिशाएं ऐसी जैसे किसी ने किसी ने रंगीन चित्र पर झीना आवरण डाल दिया हो .उन श्याम-श्वेत आभासों में नये बिंब उतराते हैं.
क्रमशः सारे रंग गहराई में डूबते विलीन होने लगते हैं ,एक लहर सब पर श्याम आवरण चढ़ा ,दुनिया को छाया-चित्रों में परिणत कर देती है.आकाश औऱ दिशाओँ की पृष्ठभूमि में जीवंत श्याम-श्वेत अंकन, कलाकार की कला का कमाल दिखाते हैं. दिन भर की भटकी, तपी हवाओँ में शीतलता घोलती नित नई छापोंवाली ओढनी लपेटे रात उतरती है दिन भर गरमाया सूरज ढला कि ,बची बिखरी किरणें समेट.रंगीन पाल फैलाये नौकायें उतर आती हैं नभ के नील-जल में . गहराती छायायें वृक्षों से उतरती ,जल-कण छींटती मंत्र सा बुद्बुदाती अपने जादू से ,दृष्य-अदृष्य को एक करने पर तुली रहती हैं. संकुल परिवेश विजन होने लगता है , चारों ओर वनस्पतियों का ऊँघ भरा झुक-झुक जाता है ,और चाँद नित नई चंदन-टिकुलिया सा दिशा के भाल पर सज जाता है
सजीली साँझ मुझसे मिलने आती है
तरुओं की छायाओँ और सघन झाड़ियों के फैलाव में श्यामल पट लहराती ,अलकों में हरसिंगार -जुही की गंध बसाये अभिन्न अनुचरी रात्रि संग ,उतरती चली आती है ..झिल्लियों के झनक उठते स्वर ,जैसे नूपुर बज उठे हों .विजन की स्तब्धता को थपक निद्रा-कर फिराती , सम्मोहित धरा पर आसीन होने को प्रस्तुत . नील से अवतरित हो रही , ऐसी सुहानी सखी को, द्वार बंद कर बाहर से लौटा देना अपराध ही तो है.
इन शान्त क्षणों में प्रकृति में बिखरे आनन्द -समारोह का साक्षी बनने को, श्यामा सुन्दरी का निमंत्रण, मन का लोभ-संवरण नहीं हो पाता . इस गहन बेला में पुलक से भर देने का उपक्रम , और फिर गहरी रात का आगमन .
चन्द्रमा की कलायें शनैः शनैः घटना फिर क्रम-क्रम बढ़ना ॒, एक दिन एकदम विलीन और एक दिन अपनी सोलहों कलाओं के साथ पूर्ण बिंब का ,निस्सीम आकाश से आ-समुद्र धरती को स्नात करता, ज्योत्स्ना का ज्वार उठा देना ,प्रकृति के रमणीय आयोजन हैं. बहुत गहरा संबंध है हमारा इन से ,सागर से ,धरती से हवाओँ से और जल से भी.
कृत्रिम रोशनी के तीखे शरों से सलोनी संध्या और शान्त-शीतल रात्रियों के विलक्षण बोधों एवं सृष्टि के मनोहर क्रिया-कलापों का विलय , उचित है क्या ? कमरों में बंद रखने के बजाय इस उद्धत दुराग्नही को पशु-पक्षियों को भरमाने के लिये खुला छोड़ देना जड़-जंगम पर अन्याय नहीं तो और क्या है ?
लम्बे समय के बाद। सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, समान अधिकार, अनशन, जतिन दास और १३ जुलाई “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ ,शिवम् जी!
हटाएंमेरा आभार स्वीकारें ,आ. शास्त्री जी.
जवाब देंहटाएंसंध्या और रात्रि के आगमन का ऐसा जीवंत कलात्मक वर्णन पढ़कर हृदय आनंद से भर गया...वाकई हल्के धुंधलके में वृक्षों में एक अनोखा सौन्दर्य भर जाता है..
जवाब देंहटाएंगद्य पाठ में काव्य सा आनंद, बहुत बढ़िया
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