सोमवार, 8 अगस्त 2016

कोई क्या सोचेगा !

*
भोजन समापन पर है -
मेरा बेटा कटोरी से दही चाट-चाट कर खारहा है .उसकी पुरानी आदत है कटोरी में लगा दही चम्मच से न निकले तो उँगली घुमाकर चाटता रहता है . वैसे जीभ से चाटने से भी उसे कोई परहेज़ नहीं .
बाद में तो  तो यह पता लगाना मुश्किल हो जाता है कि इस कटोरी में कुछ था भी.
उसके पापा ने कहा, 'बेटा और दही ले लो .
'पापा, दही नहीं चाहिये ,ये लगा हुआ खा रहा हूँ .'
'आखिर कितना चाटोगे ?'
'अभी साफ़ हुआ जाता है.'
ये कोई अच्छी आदत है ,पोंछ-पोंछ कर खाना.कोई देखे तो क्या कहे .
किसी सामने थोड़ी खाता हूँ 
'अरे, पर फिर भी....'
'लगा रहने से क्या फायदा पापा ,बेकार पानी मे धुल कर फिंकेगा.'
ये बात तब की है जब वह हाईस्कूल-इंटर में था .पर मौका लगे तो अब भी वह दही की कटोरी चाटने से चूकता नहीं.
वार्तालाप सुनते-सुनते  वहाँ से टल गई मैं ,इनके बीच में नहीं पड़ना मुझे. और उसकी मौज में बाधा क्यों बनू !
 ऐसी ही कुछ आदतें मेरी भी तो.
 मुझे ज़रूरी नहीं लगता कि खाना  चम्मच से खाऊँ, खास तौर से खिचड़ी ,तहरी और दाल-भात . हाथ से मिला-मिला कर खाने में कुछ  अधिक ही स्वाद आता है ,उसमें हरी मिर्च के बीज डाल लो तो और आनन्द. उँगलियों और अँगूठे से बाँध कर खिचड़ी के कौर बनाने का अपना ही मज़ा है ..फिर उसके  साथ  चटनी - नाम द्योतित कर रहा है चाटने की चीज़ है .-अँगुली घुमाते हुये  जीभ पर जब चटनी फैलती है तब तो परमानन्द.
पर लोग हैं कि बड़ी नफ़ासत से चमम्च के अग्र-भाग में इत्ती-सी चटनी चिपका कर जीभ से पोंछ देते हैं ,जैसे कोई रस्म पूरी कर रहे हों.
हाँ, कढ़ी-चावल और दही-बड़ों की बात और है -बिना चम्मच के अँगुलियों से टपकने का डर.
 कहीं  से आने के बाद बाहर वाले कपड़े बदल कर मनमाने ढंग से बैठना अच्छा लगता है,बाहर के कपड़ों में अपने आप को समेटे रहने के बाद जब विश्राम की स्थिति बनती है बड़ा सुकून मिलता है - अरे,कपड़े हमारे आराम के लिये हैं या हम उनके.
    एक बात और याद आई - ब्रेड-बटर ,पहले हम इसे डबलरोटी कहा करते थे .इसकी शक्ल-सूरत तब इस तरह की कटी-पिटी  नहीं हुआ करती थी.-दोनों ओर किनारे की भुनी सतह तक साबुत. हम अच्छी तरह शक्करवाली चाय या दूध में डुबा-डुबा कर शौक से खाते.  ऊपर- नीचेवाली मोटी तह का स्वाद और मज़ेदार- एकदम मलाई ,
  अब देखती हूँ लोग कटी-कटाई स्लाइसेज़ भून कर मक्खन लगा कर चबाते हैं और चाय पी कर निगलते हैं. मुझे भी अक्सर करना पड़ता है - सभ्यता का तकाज़ा ठहरा .पर अब भी चाय के साथ बिस्कुट (कल्चर्ड भाषा में बिस्किट ) हों, तो कोना पकड़ कर चाय के प्याले में  डुबा कर खाये बिना मेरा मन नहीं मानता .चाय से भीगा विस्कुट इतना मुलायम और सरस कि मुँह में पहुँचते ही घुल जाय ,वह आनन्द दाँतों से कुतर कर चबाने में कहाँ .
मुझे लगता है सभ्य होने में तकलीफ़ें अधिक हैं .फ़ालतू की ज़रूरतें बढ़ती चली जाती है .गिलास या प्याले को ही लजिये चाय के अलग,कॉफ़ी के मग अलग,शर्बत के लिये अलग,सूप के प्याले क्या चम्मच भी अलग ,जैसे सामान्य चम्मच से ग्रहण करने पर उसके तत्व कुछ और हो जायेंगे.  .ड्रिंक का चलन बढ़ गया है  उस के लिये छोट-बड़े गिलासनुमा पात्र. अगर एक ही पात्र में पीयें तो  स्वाद बिगड़ जाता है क्या ?
पर क्या किया जाय सभ्य होने के यही लक्षण हैं .जिसकी जितनी ज़्यादा ज़रूरतें वह उतना सुसंस्कृत-सभ्य. मारे नफ़ासत और नज़ाकत के आराम से जीना मुश्किल .
 दिमाग़ में हमेशा एक डर कि कोई क्या सोचेगा !
*

18 टिप्‍पणियां:

  1. अरे वाह..मुझे भी चाय में बिस्कुट डूबा कर खाना पसंद है..और मेरा एक भांजा मैगी खाकर प्लेट को बिलकुल साफ कर देता है जैसे उसमें कुछ था ही नहीं..वाकई जितनी कम जरूरतें उतना जीवन सरल है, हाँ, हाथ से खाना कभी नहीं आया, बचपन से कभी खाया ही नहीं..रोचक लेख !

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  2. आकी इस पोस्ट ने तो गद्गद कर दिया माँ .ईमानदार अभिव्यक्ति यही है .बिना लाग-लपेट के हर बात मौलिक .अन्तस की गहराई से निकली . आप रह भले ही सात समन्दर पार हैं पर आपके हृदय के कोने कोने में अपने लोकजीवन की कच्ची माटी बसी हुई है . सभ्यता की नकल में जो न घर के हैं न घाट के उनके लिये आप एक प्रकाश स्तंभ की तरह खड़ी हैं .

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  3. आकी इस पोस्ट ने तो गद्गद कर दिया माँ .ईमानदार अभिव्यक्ति यही है .बिना लाग-लपेट के हर बात मौलिक .अन्तस की गहराई से निकली . आप रह भले ही सात समन्दर पार हैं पर आपके हृदय के कोने कोने में अपने लोकजीवन की कच्ची माटी बसी हुई है . सभ्यता की नकल में जो न घर के हैं न घाट के उनके लिये आप एक प्रकाश स्तंभ की तरह खड़ी हैं .

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  4. प्रिय गिरिजा, है न तुम्हारे भी मन की बात .हम सब मन से ऐसे ही हैं.हाँ, कोई बोल देता है तो सामने आ जाता है .

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  5. Ye to hamare man ki baat kar di aapne..ham thahre khalis dehati...jise jo samjhna hai samjhta rahe.

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  6. मम्मी! क्या बात कही है आपने. मैं बहुत दिनों से लिखना चाह रहा था इस विषय पर. चलिए आपने लिखा तो बहुत कुछ याद आ गया! मेरे दोस्त मेरी आदतों से परेशान रहते हैं... कहते हैं क्यों इतने सख्त नियम खुदपर लागू किये हैं... लेकिन आदतें हैं आदतों का क्या..
    सुबह बिना ब्रश किए चाय पी लेता हूँ, जितनी भी मिल जाए; लेकिन ब्रश करने के बाद चाय बिलकुल नहीं. सारे दिन बिना नहाये बैठा रह सकता हूँ बिना कुछ खाए, लेकिन नहाकर आया तो बस खाना चाहिए ही चाहिए, भूख न जाने कहाँ से बलवती हो उठती है. खिचड़ी तो मैं चम्मच से ही खाता हूँ, मगर भात-दाल हाथ से कौर बनाकर. हाँ खाने के बाद चाय नहीं पीता. उंगलियाँ चाटने की आदत नहीं. पूरी के साथ मुझे चीनी चाहिए, और खाना समाप्त होने के बाद जो चीनी बच जाए वो प्लेट से जीभ लगाकर चाट लेता हूँ. छुट्टियों में घर पर या तो कुर्ता पाजामा या हाफ पैंट टी शर्ट पहनना पसंद है.
    हे भगवान! मैं भी कहाँ की लेकर बैठ गया. मम्मी, आपकी इस पोस्ट से कई लोगों के चेहरे पर मुस्कान आयी होगी और कई लोगों ने स्वीकार की होगी अपनी ऐसी आदतें और तथाकथित सभ्यता का मुखौटा उतार फेंका होगा.
    गुलज़ार साहब कहते हैं - आदतें भी अजीब होती हैं और मैं कहता हूँ कि आदतें अच्छी लगती नहीं, बुरी छूटती नहीं.
    मज़ा आ गया मम्मी!

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  7. चलो ,तुम्हारी आदतें तो पता चलीं सलिल ,देखें और किस-किसकी सामने आती हैं.

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  8. kuchh bate aadate bhulaye nahi bhoolati ...aur apne asal swaroop me hi aand deti hai ..

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  9. मेल से प्राप्त -
    "कोई क्या सोचेगा ?" और "अक़्ल के पीछे लट्ठ" दोनों लेख पढ़े । मैंनेवहाँ कुछ लिखा नहीं , लेकिन मुझे अच्छे लगे । सामान्य सी बातें , जिनको सब जानते हैं , उनको सहज भाव से बिना किसी दुराव-छिपाव के रोचक ढंग से प्रस्तुत करने की प्रतिभा / योग्यता किसी किसी में ही होती है । मुख्य बात ये है कि पाठकों को आनन्द आया , तो लिखना सार्थक हो गया । यही बात इन दोनों लेखों में है । अत: साधुवाद !!
    शकुन्तला बहादुर.

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    1. सचमुच बहुत सामान्य-सी बातें हैं ,बिलकुल व्यक्तिगत और महत्वहीन ,पर मन ही तो है वहीं रुक गया .आपने फिर भी पढ़ीं और
      प्रतिक्रिया दी -आभार !

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  10. आपका लेख पढ़ कर अनायास ही एक मुस्कान आ गयी - शायद अपनी और अपनों की हरकतों की यादें जाग उठीं। मैं जब नमकीन पूड़ियाँ चाय की प्याली में डुबो डुबो कर खाता था तो यही सुनने को मिलता था - "कोई क्या कहेगा?" कुछ हरकतें अभी भी बरकरार हैं और उनकी वजह से डाँट भी पड़ जाती है :)

    - अतुल श्रीवास्तव

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  11. अकेले घर में या अपने परिवार के साथ इस तरह की सहजता के कई रहस्य उजागर हुए :)

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  12. सभ्यता!!!!
    हम्म!!
    एक प्रश्न निरंतर मुझे कह रहा है कि जब हम सब लगभग सब के सब यही सोचते हैं कि "सबसे बड़ा रोग क्या कहेंगे लोग" तो क्यों स्वयं को छलते हैं? क्यों सभ्यता का शीर्षक ओढ़ते हैं? :( उत्तर वही होगा जो अक्सर माँ मुझे देतीं हैं 'जगव्यवहार बेटा..समाज एक संस्था है जिसके कुछ नियम हैं आदि आदि'।

    एक गहरी साँस लेकर छोड़ दी मन ने। गीता में एक स्थान पर श्रीकृष्ण ब्रह्माण्ड के प्राकट्य को मकड़ी से जोड़ते हुए कहते हैं कि 'एक मकड़ी स्वयं के भीतर से जाला प्रकट कर यूँ ही जाला बुनते बुनते उसी जाले के बीच फंस कर रह जाती है'। उसी मकड़ी सा महसूस करती हूँ स्वयं को जब मैं भी सबकी तरह मनचाहा छोड़ कर सभ्यता के घूँघट में अपने को ढांपती हूँ।
    अच्छी पोस्ट लिखी प्रतिभाजी आपने। मुझे बहुत देर तक इस विषय पर विचार आते रहेंगे।
    :")
    मैं तो छोटे बड़े कित्ते सारे धोखे सुबह से ही खुद को देने लगती हूँ। :/


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  13. एक बात कहना भूल गयी थी कि मैं भी दही की कटोरी बहुत भयानक रूप से चाटकर साफ करती हूँ। :D

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  14. प्रतिभा जी, रोज की सामान्य बाते पढने में भी कितना मजा आता है यह आपकी लेखनी ने बता दिया। यदि सर्वेषण किए जाए तो चौकाने वाला तथ्य सामने आएगा की हम यह सोचने में अपना कितना समय नष्ट करते है की कोई क्या कहेगा।

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  15. प्रतिभा जी, रोज की सामान्य बाते पढने में भी कितना मजा आता है यह आपकी लेखनी ने बता दिया। यदि सर्वेषण किए जाए तो चौकाने वाला तथ्य सामने आएगा की हम यह सोचने में अपना कितना समय नष्ट करते है की कोई क्या कहेगा।

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  16. कोई क्या सोचेगा ही सोच सोच कर हम जीवन में छोटे छोटे सुखों से वंचित हो जाते हैं ..दाल चावल हाथ से खाना मुझे भी भाता है और चाय में डूबा कर बिस्कुट भी :)

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